गांवों से पलायन अब नियति बनती जा रही है। जिस राज्य से मैं आता हूं, वह बिहार है और वर्तमान में मेरा यह राज्य पूरे देश को मानव संसाधन की आपूर्ति करता है। फिर चाहे काम कैसा भी हो। बिहार के मजदूर हर जगह मिल ही जाते हैं। अभी हाल ही में हिमाचल प्रदेश गया था। वहां दुर्गम इलाके में भी कुछ मजदूर काम कर रहे थे। उनसे पूछा तो जानकरी मिली कि वे बिहार के अररिया जिले के रहनेवाले हैं। ऐसे ही दिल्ली में रिक्शा चलानेवाले, सड़क बनानेवाले, सड़कों की सफाई करनेवाले, ढाबों में काम करनेवाले, पानी बेचनेवाले अधिकांश बिहार के मिल जाते हैं। बिहार की हालत का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि आज भी दिल्ली के एम्स के बाहर जो लोग फुटपाथ पर अपने इलाज की बारी इंतजार करते दिखते हैं, उनमें अधिकांश बिहार के होते हैं। वैसे उत्तर प्रदेश की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तो एकदम बिहार के जैसा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थिति भिन्न है।
खैर, आज गांवों की बात इसलिए कि कल एक घटना घटित हुई है बिहार के नवादा जिले के वारिसलीगंज थाना के कोंचगांव पंचायत में। गांव का नाम है– झौर। यह वह गांव नहीं है, जिसके बारे में कभी मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था– अहा ग्राम्य जीवन क्या है/क्यों न इसे सबका मन चाहे/थोड़े में निर्वाह यहां है/ऐसी सुविधा और कहां है/यहां शहर की बाट नहीं है/अपनी-अपनी घाट नहीं है/आडंबर का नाम नहीं है/अनाचार का नाम नहीं है।
[bs-quote quote=”कल झौर गांव में अनिल कुमार तांती नामक एक 25 साल के युवक की हत्या कर दी गयी। यह हत्या अन्य हत्याओं जैसा नहीं है कि किसी एक ने दूसरे को गोली मार दी हो। यह हत्या एक समूह द्वारा की गई। हत्यारों ने अनिल कुमार तांती के घर पर चढ़ाई की और फिर उसे गोली मार दी गई।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
झौर गांव की कहानी अलग है। वह कवि मैथिलीशरण गुप्त की कल्पना का गांव नहीं है। वह यथार्थ है आज भी जबकि हम आजादी के 75वें वर्ष में जी रहे हैं और ऐसे कहें तो इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में। कायदे से इस झौर गांव को भी बदल जाना चाहिए था, लेकिन नहीं बदला। कल जो वहां घटना घटित हुई है, उसके बारे में यहां दिल्ली में बैठे सरकार और बुद्धिजीवियों को फिकर भी नहीं होगी। ऐसा इसलिए भी कि झौर गांव कोई अकेला गांव नहीं है। ऐसे अनेकानेक गांव हैं, जहां जातिवाद आज भी अपने क्रूरतम रूप में जिंदा है।
मुहावरों और कहावतों में जाति
दरअसल, कल झौर गांव में अनिल कुमार तांती नामक एक 25 साल के युवक की हत्या कर दी गयी। यह हत्या अन्य हत्याओं जैसा नहीं है कि किसी एक ने दूसरे को गोली मार दी हो। यह हत्या एक समूह द्वारा की गई। हत्यारों ने अनिल कुमार तांती के घर पर चढ़ाई की और फिर उसे गोली मार दी गई। जिस समूह ने हत्या की, उसमें कॉमन बात उनकी जाति रही है। मुझे जो जानकारी मिल रही है, उसके हिसाब हत्यारे सवर्ण समुदाय के हैं। पिछले तीन-चार दिनों से इस गांव में जातिगत तनाव चरम पर था। यहां तांती जाति के लोग भी रहते हैं। आबादी के हिसाब से आधे से थोड़े कम तांती हैं। यह जाति बिहार में अति पिछड़ा वर्ग में शामिल है। जातिगत तनाव क्यों हुआ और इसके पीछे की घटनाएं क्या रहीं, इसके बारे में पता करने की कोशिशें कर रहा हूं। लेकिन पिछले तीन-चार दिनों में इस गांव में सवर्णों ने तांती समाज के लोगों को घर में नजरबंद कर दिया था। यदि कोई बाहर निकलता तो उसके साथ मारपीट की जाती। तांती समाज के लोगों ने स्थानीय वारिसलीगंज थाने को इसकी सूचना भी दी थी। लेकिन बिहार पुलिस की भी अपनी जाति है और यह जाति है सवर्ण। ऐसे में पुलिस अधिकारियों के लिए तांती जाति के लोगों की फरियाद का कोई मतलब नहीं था और ना ही उन्होंने कोई कार्रवाई की। नतीजा अनिल तांती की हत्या कर दी गई।
फासिस्ट और बुलडोजरवादी सरकार में दलित की जान की कीमत
खैर, बिहार में हत्याएं, बलात्कार, चोरी, डकैती सामान्य खबरें मानी जाती हैं। लोग भी इन खबरों को इसी अहसास के साथ पढ़ते हैं और भूल जाते हैं। लेकिन झौर गांव की खबर एक त्रासदी है और इसके पीछे बिहार में हुआ सामाजिक परिवर्तन है। ऐसा ही सामाजिक परिवर्तन 1970 के दशक में मध्य बिहार और शाहाबाद के इलाके में हुआ था। तब संघर्ष इतना तीखा था कि लोगों ने हथियार तक उठा लिये थे। कुछ लोग, जो खुद को वामपंथी कहते फिरते हैं, शुतुरमुर्ग की तरह हैं, के मुताबिक यह भूमि संघर्ष था। जबकि कोई भी यह समझ सकता है कि संघर्ष के पीछे जाति थी और जाति के कारण संसाधनों पर अधिकार का सवाल था। वह तो 1990 का दौर आया तब जाकर स्थितियां बदलीं। नहीं तो कोई सवर्ण किसी दलित और पिछड़े को अपने घर के आसपास फटकने तक नहीं देता था। खटिया पर बैठने की इजाजत तो छोड़िए, जमीन पर बैठने की अनुमति नहीं देता था।
झौर गांव में यही स्थिति आज भी है। हालांकि इस गांव के तांती व अन्य दलित जातियों के लोग पलायन के कारण आर्थिक रूप से सशक्त हुए हैं। कुछ सरकारी योजनाओं का भी असर हुआ है। लेकिन सवर्णों की ऐंठन जस-की-तस है।
कल ही एक शब्द मिला– स्वाद। अपने गांव से पलायन कर चुके मेरे मन ने कहा–
सहज नहीं होतीं रोटियां जिंदगी में,
फिर बेवजह कि अब्र-ओ-बाद* कैसा है।
जो है रू-ब-रू, अलहदा है,
गालिब, मत पूछ कि स्वाद कैसा है।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
Res bhysab Gajab kee LYKHNEE hai app jo sabdo ko apny post may peroty hai vo bar bar parhny yogee hai thanks bhysab