हुक्मरान भी डरते हैं। उन्हें किन कारणों से और किस हद तक डर लगता है, यह मेरे लिए हमेशा एक विषय रहा है। कई बार मुझे लगता है कि वे हिटलर और मुसोलिनी के अंजाम से डरते हैं। वहीं बाजदफा लगता है कि वे अपने यश को लेकर फिक्रमंद रहते हैं। उन्हें लगता है कि […]
हुक्मरान भी डरते हैं। उन्हें किन कारणों से और किस हद तक डर लगता है, यह मेरे लिए हमेशा एक विषय रहा है। कई बार मुझे लगता है कि वे हिटलर और मुसोलिनी के अंजाम से डरते हैं। वहीं बाजदफा लगता है कि वे अपने यश को लेकर फिक्रमंद रहते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें जब भी याद किया जाय तो अच्छे शासक के रूप में याद किया जाय। इसके लिए वे अपनी सारी नाकामियां और शैतानियों को इतिहास के पन्ने से गायब कर देना चाहते हैं। वे ऐसा करने में कामयाब भी होते हैं।
मैं आजाद भारत में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का उदाहरण रखना चाहता हूं। वे जाति के भूमिहार थे। तब बिहार में तीन जातियां राजनीतिक रूप से हावी थीं। भूमिहार, राजपूत और कायस्थ। कमाल की बात यह कि तब ब्राह्मण जाति सबसे निचले पायदान पर थी। कायस्थ जाति को मैं हार्डकोर पॉलिटिकल कास्ट नहीं मानता। इसकी कई वजहें रही हैं। एक तो यह कि इस जाति के पास भूमिहारों और राजपूतों के जैसे जमीन पर अधिकार नहीं था। उनके पास शिक्षा थी और शासन में उनकी भागीदारी। उस समय कायस्थों का प्रतिनिधित्व डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण किया करते थे। कहना न होगा कि राजनीति पर दोनों की अच्छी पकड़ थी। लेकिन राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति के रूप् में संतुष्ट थे और उनके कारण बिहार के कायस्थ खुश थे कि उनकी जाति का राष्ट्रपति है। जयप्रकाश नारायण की स्थिति तब ऐसी हो गई कि उन्हें लगने लगा कि वे न घर के रहे और ना घाट के। कांग्रेस से मिली उपेक्षा का बदला उन्होंने 1970 के दशक में लिया।
तो बिहार में सत्ता के लिए लड़ाई मुख्य तौर पर भूमिहार और राजपूतों के बीच रही। श्रीकृष्ण सिंह भारी पड़े और अनुग्रह नारायण सिंह ने समझौता कर लिया। जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ तब श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री और अनुग्रह नारायण सिंह उपमुख्यमंत्री। इसके पहले भी श्रीकृष्ण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री थे तब जब देश में संविधान लागू नहीं था। देश आजाद ही हुआ था। बंगाल और बिहार में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। गांधी नोआखली में कैंप कर रहे थे। उन्हें बिहार में दंगों की जानकारी मिली तो भागे-भागे पटना पहुंचे। हालांकि श्रीकृष्ण सिंह ऐसा नहीं चाहते थे। उन्होंने पंडित नेहरू से लेकर सरदार पटेल तक से अनुरोध किया कि वे गांधी को रोकें। लेकिन तब गांधी का कद बहुत बड़ा था। श्रीकृष्ण सिंह गांधी से इतने नाराज थे कि उन्होंने गांधी का स्वागत भी नहीं किया। यहां तक कि उनके रहने के लिए आवास तक का प्रबंध नहीं किया। फिर एक मुसलमान समुदाय के एक कांग्रेसी नेता व सैयद महमूद ने अपने आवास के सर्वेंट क्वार्टर में गांधी को पनाह दी। आज इस जगह पर अनुग्रह नारायण सिंह अध्ययन एवं शोध प्रबंधन संस्थान है। इस संस्थान के पीछे गांधी कैंप है। वहां जो शिलालेख लगा है् उसके हिसाब से गांधी 64 दिनों तक रहे। वहां से दिल्ली आने के बाद वे आरएसएस के गुंडों के निशाने पर थे। अंतत: 30 जनवरी, 1948 को संघी गुंडे नाथुराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी।
[bs-quote quote=”मैं मानता हूं कि इतिहास अतीत के समाज की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता। उससे ऐसी अपेक्षा रखना व्यर्थ है। वैसे भी भारत में इतिहास का मतलब हुक्मरानों का इतिहास रहा है। नरेंद्र मोदी का भी निधन होगा और यह मुमकिन है कि उन्हें इतिहास मर्यादा पुरुषोत्तम अथवा सबसे अनूठे प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज करे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
श्रीकृष्ण सिंह के पास तब बड़ा मौका था। उन्होंने इतिहास के पन्ने से इस तथ्य को मिटाने का प्रयास किया कि उन्होंने गांधी का विरोध किया था। इसके लिए उन्होंने पटना के हृदयास्थली में बने बड़े मैदान को गांधी मैदान का नाम दिया। इसके अलावा उन्होंने गांधी स्मारक निधि के तहत सूबे के विभिन्न जिलों में भूल सुधार की कोशिशें की।
हालांकि बाद में बिहार की राजनीति बदली और भूमिहार सबसे निचले पायदान पर आ गए। श्रीकृष्ण सिंह के बाद दूसरा कोई भूमिहार बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बन सका है।
अपने यश के लिए काम करने वाले मुख्यमंत्रियों में नीतीश कुमार का स्थान सबसे अव्वल है। इनके अंदर यश की इतनी लालसा है कि ये अपने के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों का नामोनिशान तक मिटाने में लगे हैं। एक उदाहरण है पटना का तारामंडल। बिहार में ब्राह्मणवाद की जड़ें कमजोर हों और वैज्ञानिक चेतना का विकास हो, इसके लिए लालू प्रसाद ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान तारामंडल का निर्माण करवाया। आज यह तारामंडल बदहाल कर दिया गया है। इसकी बदहाली का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें जो सामग्रियां दिखायी जाती हैं, वह 1998 में आखिरी बार खरीदी गयी। जब इसका निर्माण हुआ था तब मकसद था कि अंतरिक्ष विज्ञान से संबंधित शोध को बढ़ावा दिया जाय। लेकिन नीतीश कुमार ने इसे शॉपिंग मॉल में बदल दिया है। यहां कोई शोध नहीं होता है। साथ ही नीतीश कुमार ने शिलालेख को मिटाने की कोशिशें की हैं।
ऐसा ही हाल उन रैन बसेरों का है जो लालू प्रसाद ने शहरी गरीबों के लिए बनवाए थे। नीतीश कुमार ने उन रैन बसेरों को ढहने के लिए छोड़ दिया है। वजह केवल इतनी कि रैन बसेरों को लालू प्रसाद ने बनवाया था और शिलालेख में उनका नाम है।
नीतीश कुमार के मन में अमर होने की लालसा कितनी बड़ी है, उसका एक उदाहरण यह कि उन्होंने गांधी मैदान में गांधी की तकरीबन 72 फुट की प्रतिमा लगवा दी। जबकि 1994 में लालू प्रसाद ने वहां गांधी की एक आदमकद प्रतिमा की स्थापना करवायी थी। नीतीश कुमार ने गांधी की उस छोटी प्रतिमा को उखाड़कर फेंकवा दिया है।
नीतीश कुमार अपनी हर नाकामी को छिपा देने में माहिर रहे हैं। कई बार तो वे ऐसे अजीबोगरीब तर्क सामने लाते हैं कि आदमी कंफ्यूज हो जाय। उदाहरण 2008 का कोसी महाप्रलय है। इसकी जांच जब जस्टिस राजेश वालिया आयोग ने की तब यह कहा गया कि कोसी नदी पर बने पूर्वी अफलक्स बांध के टूटने में सरकार की कोई लापरवाही नहीं थी। बांध के टूटने के पीछे चूहे थे, जिन्होंने बांध को खोखला कर दिया था। फिर ऐसे ही कई घटनाओं का उदाहरण दिया जा सकता है। फिर चाहे वह गांधी मैदान में रावण वध के दौरान हुआ हादसा हो या फिर छठ के मौके पर पटना के अदालत घाट पर हुआ हादसा। हर हादसे की जांच नीतीश कुमार ने अपने हिसाब से करवायी और इतिहास के पन्नों में लिखवा दिया कि वे नाकाम नहीं रहे।
उफ्फ! दिल्ली आने के बाद भी बिहार के प्रति मेरा प्रेम बरकरार है। हालांकि मैं यह कोशिश करता हूं कि यह मेरे जेहन में नहीं आए। लेकिन यह बिहार की मिट्टी और वहां की हवा का कर्ज है मुझपर जिसके कारण मैं चाहकर भी बिहार को खुद से अलग नहीं कर पाता।
मैं तो कल राज्यसभा में कांग्रेसी सांसद केसी वेणुगोपाल द्वारा पूछे गए प्रश्न के आलोक में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री भारती प्रवीण पवार का बयान सुन रहा था। उन्होंने राज्यसभा में लिखित जवाब में कहा कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान देश भर में किसी भी व्यक्ति की मौत ऑक्सीजन की कमी के कारण नहीं हुई। जाहिर तौर पर यह जवाब नरेंद्र मोदी का जवाब है।
नरेंद्र मोदी ने कल फिर कहा है कि कोरोना के नाम पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। सवाल यह है कि क्या सरकार से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि कोरोना की पहली लहर और दूसरी लहर के दौरान स्वास्थ्य अधिसंरचनाएं ध्वस्त कैसे हुईं? ऑक्सीजन सिलिंडर कंधे पर लादे लोगों की जो तस्वीरें अखबारों में छपती थीं, क्या वे सब झूठी थीं? रेमेडिसवीर के लिए लंबी कतारों की तस्वीरें क्या नरेंद्र मोदी को याद नहीं?
बहरहाल, मैं मानता हूं कि इतिहास अतीत के समाज की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता। उससे ऐसी अपेक्षा रखना व्यर्थ है। वैसे भी भारत में इतिहास का मतलब हुक्मरानों का इतिहास रहा है। नरेंद्र मोदी का भी निधन होगा और यह मुमकिन है कि उन्हें इतिहास मर्यादा पुरुषोत्तम अथवा सबसे अनूठे प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज करे।
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