
मैं आजाद भारत में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का उदाहरण रखना चाहता हूं। वे जाति के भूमिहार थे। तब बिहार में तीन जातियां राजनीतिक रूप से हावी थीं। भूमिहार, राजपूत और कायस्थ। कमाल की बात यह कि तब ब्राह्मण जाति सबसे निचले पायदान पर थी। कायस्थ जाति को मैं हार्डकोर पॉलिटिकल कास्ट नहीं मानता। इसकी कई वजहें रही हैं। एक तो यह कि इस जाति के पास भूमिहारों और राजपूतों के जैसे जमीन पर अधिकार नहीं था। उनके पास शिक्षा थी और शासन में उनकी भागीदारी। उस समय कायस्थों का प्रतिनिधित्व डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण किया करते थे। कहना न होगा कि राजनीति पर दोनों की अच्छी पकड़ थी। लेकिन राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति के रूप् में संतुष्ट थे और उनके कारण बिहार के कायस्थ खुश थे कि उनकी जाति का राष्ट्रपति है। जयप्रकाश नारायण की स्थिति तब ऐसी हो गई कि उन्हें लगने लगा कि वे न घर के रहे और ना घाट के। कांग्रेस से मिली उपेक्षा का बदला उन्होंने 1970 के दशक में लिया।
मैं मानता हूं कि इतिहास अतीत के समाज की वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करता। उससे ऐसी अपेक्षा रखना व्यर्थ है। वैसे भी भारत में इतिहास का मतलब हुक्मरानों का इतिहास रहा है। नरेंद्र मोदी का भी निधन होगा और यह मुमकिन है कि उन्हें इतिहास मर्यादा पुरुषोत्तम अथवा सबसे अनूठे प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज करे।
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