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बोधगया : महाबोधि मंदिर को ब्रह्मणवाद के कब्जे से मुक्ति जरूरी क्यों है?

आज खुलेआम धर्म का इस्तेमाल राजनैतिक एजेन्डे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। बौद्ध मंदिर का संचालन ब्राम्हणवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और सूफी दरगाहों का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है।  बौद्ध भिक्षु अपने पवित्र स्थान का संचालन उनकी अपनी आस्थाओं और मानकों के अनुसार करना चाहते हैं और उसके ब्राम्हणीकरण का विरोध कर रहे हैं।

पटना के निकट बोधगया में स्थित महाबोधि मंदिर, बौद्ध धर्म के अनुयायियों का एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है क्योंकि भगवान गौतम बुद्ध को यहीं निर्वाण प्राप्त हुआ था। इस मंदिर का संचालन बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 के प्रावधानों के अनुसार होता है और बीटीएमसी (बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति) इसका प्रबंधन करती है। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, मंदिर के नियंत्रण मंडल में हिंदू और बौद्ध समान संख्या में होते हैं। इस साल फरवरी से कई बौद्ध भिक्षु इन प्रावधानों का विरोध कर रहे हैं। उनकी मांग है कि मंदिर के क्रियाकलापों का संचालन करने वाले इस मंडल के सभी सदस्य बौद्ध हों।

वैसे इस विरोध का लंबा इतिहास है क्योंकि नियंत्रण मंडल की मिश्रित प्रकृति के कारण धीरे-धीरे मंदिर का ब्राम्हणीकरण होता जा रहा है। विरोध में धरने पर बैठे आकाश लामा ने उनके विरोध को समझाते हुए कहा, ‘यह मात्र एक मंदिर का सवाल नहीं है। यह हमारी पहचान और गौरव का सवाल है। हम अपनी मांगें शांतिपूर्ण ढंग से सामने रख रहे है। जब तक हमें सरकार से लिखित आश्वासन नहीं मिलेगा, तब तक, अनिश्चित काल तक, हमारा विरोध जारी रहेगा।’ धरने पर बैठे भिक्षुकों का कहना है कि ‘महाबोधि महाविहार का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है. प्रबंधन और समारोहों में ब्राम्हणवादी अनुष्ठान बढ़ते जा रहे हैं, जिससे बौद्ध समुदाय की आस्था और विरासत को गहरी चोट पहुंच रही है।’

भारत में बौद्ध धर्म और ब्राम्हणवाद के टकराव का लंबा इतिहास रहा है। जहां बौद्ध धर्म समानता का संदेश देता है वहीं ब्राम्हणवाद जाति एवं लिंग की जन्म से निर्धारित होने वाली ऊंच-नीच पर आधारित है. बुद्ध का सबसे प्रमुख संदेश उस काल में प्रचलित जाति एवं लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ था। सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार किए जाने के बाद यह धर्म भारत में और दूसरे देशों में, खासकर दक्षिण पूर्व एशिया, में बड़े पैमाने पर फैला. अशोक ने भगवान बुद्ध का संदेश पहुंचाने के लिए प्रचारकों को दुनिया के कई देशों में भेजा।

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बुद्ध ने अपने दौर में पशुबलि विशेषकर गायों की बलि देने की गैर-जरूरी प्रथा को भी समाप्त करने का आव्हान किया था। इस सबसे ब्राम्हणों के सामाजिक एवं आर्थिक हितों पर विपरीत प्रभाव हो रहा था और वे बौद्ध धर्म के विस्तार से बेचैनी महसूस कर रहे थे।

उन्हें तब बहुत राहत मिली जब अशोक के पौत्र बृहद्रथ के मुख्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने बृहद्रथ की हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर काबिज हो गया। उसने शुंग वंश की स्थापना की। इसके साथ ही ब्राम्हणवाद का बोलबाला बढ़ने लगा और बौद्ध धर्म का अस्त होना शुरू हो गया। उसने बौद्धों का जबरदस्त उत्पीड़न प्रारंभ किया. कहा जाता है कि उसने बौद्ध मठों को जलवाया, स्तूपों को नष्ट किया और यहां तक कि बौद्ध भिक्षुओं का सिर काटकर लाने वालों को पुरस्कृत करने की घोषणा की। इस सबके चलते बौद्ध धर्म का पतन होने लगा और ब्राम्हणवाद का राज कायम होता गया।

बाद में अत्यंत प्रभावशाली दार्शनिक, कलाडी के शंकराचार्य, ने ब्राम्हणवाद के पक्ष में तर्क दिए। वे किस काल में हुए इसे लेकर विवाद है। जहां परंपरागत रूप से माना जाता है कि उनका जीवनकाल 788 से 820 ईस्वी का था, वहीं कुछ अध्येताओं का कहना है कि वे इससे बहुत पहले हुए थे और उनका जन्म 507 से लेकर 475 ईसा पूर्व के बीच हुआ था।  जो भी हो, यह तो निश्चित है कि वे उत्तर पश्चिम से हुए मुस्लिम राजाओं के ‘आक्रमणों‘ के पहले हुए थे।

उनका लक्ष्य ब्राम्हणवाद को अनावश्यक कर्मकांडों से मुक्त कराना था। उनका दर्शन, बौद्ध धर्म के दर्शन से ठीक उलट था.. सुनील खिलनानी लिखते हैं, ‘उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में उन बौद्ध दार्शनिकों पर तीखे शाब्दिक हमले किए जो  बुद्ध की तरह यह शिक्षा देते थे कि दुनिया में सब कुछ अस्थायी है और ईश्वर के अस्तित्व से भी इनकार करते थे।   (इन्कारनेशन्सः इंडिया इन 50 लाईव्स) पृष्ठ 84, एलन लेन, यूके, 2016)। शंकराचार्य यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में थे और ‘दुनिया को माया‘ मानते थे। बुद्ध दुनिया को वास्तविक मानते थे जिसमें दुःख व्यापक रूप से मौजूद थे और इसका आशय यह था कि उनकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए और उन्हें दूर करने के उपाय किए जाने चाहिए।

कुल मिलाकर इन आक्रमणों के चलते बौद्ध धर्म भारत से लुप्तप्राय हो गया और तब तक हाशिए पर बना रहा जब तक बाबासाहेब अम्बेडकर ने बड़ी संख्या में अपने समर्थकों  के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण नहीं किया। इसके पहले भक्ति संतों ने भी जाति विरोध जैसे बौद्ध धर्म के कुछ मूल्यों की बात की थी। इनमें से कई संतों को उस समय के ब्राम्हणवादियों ने प्रताड़ित किया था।

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दलितों की समानता के पक्ष में बड़ा बदलाव आज़ादी के आन्दोलन के दौरान शुरू हुआ। जोतिबा और सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा और समाजसुधार के क्षेत्रों में जबरदस्त काम किया। इन प्रयासों के जोर पकड़ने के साथ ही ब्राम्हणवाद के समक्ष चुनौती खड़ी हो गई। ब्राम्हणवादियों ने इस उभरती हुई चुनौती का जवाब राजनैतिक कदम उठाते हुए पहले हिन्दू महासभा और बाद में आरएसएस का गठन कर दिया। ये संगठन यथास्थिति और ब्राम्हणवादी मूल्यों को कायम रखने के इरादे को अभिव्यक्त करते हैं और मनुस्मृति उनके लक्ष्यों का प्रतीक है।

भारत विविधताओं भरा देश है और जाति व लिंग आधारित ऊंच-नीच को हिंदू राष्ट्र, हिन्दुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के झंडे तले लागू किया जा रहा है। समानता की ओर बढ़ने की पहल मुख्यतः अम्बेडकर ने महाड चावदार तालाब सत्याग्रह, मनुस्मृति जलाने और कालाराम मंदिर में प्रवेश जैसे आंदोलनों और अन्य कई क्रियाकलापों के जरिए की थी। उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलन ने कुछ हद तक सामाजिक बदलाव की इन आवाजों को जगह देने की कोशिश की, वहीं हिन्दुत्ववादी राजनीति ने या तो इनका खुलकर विरोध किया या चुप्पी साधे रखी।

धर्म के क्षेत्र में आधुनिक प्रतिक्रांति की अगुवाई आरएसएस और उससे संबद्ध संस्थाएं कर रही हैं। वे कई मोर्चों पर सक्रिय हैं। महाबोधि मंदिर के प्रबंधन में घुसपैठ करना उनकी इसी व्यापक रणनीति का भाग है। इसी तरह सोशल इंजीनिरिंग और दलितों के बीच कार्य करके उन्हें अपने साथ जोड़ने का उनका प्रयास भी जारी है। वे जोर-शोर से यह बार-बार दुहरा रहे हैं कि सभी जातियों के बीच सामाजिक समरसता होनी चाहिए। यह अम्बेडकर के जाति के उन्मूलन के लक्ष्य के विपरीत है।

ठीक इसी तरह सूफी दरगाहों के ब्राम्हणीकरण का प्रयास भी किया जा रहा है। कर्नाटक में बाबा बुधनगिरी और मुंबई के पास हाजी मलंग ऐसे स्थान है जिनके हिंदू पूजास्थल होने का दावा किया जा रहा है। सबसे दिलचस्प उदाहरण तो शिरडी के साईंबाबा का है। योगिंदर सिंकद अपनी पुस्तक ‘सेकरेड स्पेसिस‘ में शिरडी के साईबाबा की समन्वयवादी प्रकृति की झलक बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत करते हैं लेकिन अब उसका पूरी तरह ब्राम्हणीकरण हो गया है। साईबाबा के विचारों के एक ज्ञाता इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि ‘जहां साईंबाबा पर हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों का दावा था, वहीं ईश्वर की अनुभूति करने के रास्ते का उनका स्वरूप मुख्यतः और स्पष्टतः इस्लामिक था और उन्होंने कभी भी हिन्दू विचारों और कर्मकांडों का सहारा नही लिया। लेकिन अब साईंबाबा की शिक्षाओं और कार्यकलापों की पुर्नव्याख्या कर उन्हें लगभग पूरी तरह से हिंदू समुदाय द्वारा अंगीकृत कर लिया गया है।’

हम एक अटपटे दौर में जी रहे हैं जहां खुलेआम धर्म का इस्तेमाल राजनैतिक एजेन्डे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। बौद्ध मंदिर का संचालन ब्राम्हणवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और सूफी दरगाहों का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है।  बौद्ध भिक्षु अपने पवित्र स्थान का संचालन उनकी अपनी आस्थाओं और मानकों के अनुसार करना चाहते हैं और उसके ब्राम्हणीकरण का विरोध कर रहे हैं। उनका आन्दोलन भगवान गौतम बुद्ध की समानता और अहिंसा की शिक्षाओं के विपरीत चीज़ें देश पर लादने के विरोध में हैं। (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

 

राम पुनियानी
राम पुनियानी
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं

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