कल द्रौपदी मुर्मू ने देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ले लिया। उन्हें संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन ने शपथ दिलायी। द्रौपदी मुर्मू संथाली समुदाय से आती हैं और इस कारण वह देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति हैं। हालांकि कई तरह के सवाल मेरे ज़ेहन में हैं। एक सवाल तो यही कि द्रौपदी मुर्मू का नाम द्रौपदी किसने रखा होगा? इस सवाल के पीछे कई वजहें हैं। एक तो यही कि द्रौपदी महाभारत नामक एक महाकाव्य की मिथकीय पात्र का नाम है, जिसे पांच पुरुषों से शादी करनी पड़ती है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में बहुपति प्रथा स्वीकार्य नहीं है। हालांकि पुरुषों पर यह बात लागू नहीं होती। इसके बावजूद कि देश में कानून है कि बिना तलाक दिये दूसरी शादी नहीं कर सकते। लेकिन कानून तो खैर कानून ही है।
तो आज यही सवाल मेरे ज़ेहन में है कि आखिर द्रौपदी मुर्मू का नाम द्रौपदी किसने रखा होगा? देश की नयी राष्ट्रपति का जन्म 20 जून, 1958 को उड़ीसा के मयूरभंज जिले के बैदापोसी गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बिरंचि टुडु था। एक साक्षात्कार में द्रौपदी मुर्मू ने यह स्वीकार किया है कि उनके दादा और उनके पिता दोनों ही उनके गांव के प्रधान रहे।
मैं उनके पिता के नाम के बारे में सोच रहा हूं। बिरंचि टुडु उनके पिता का नाम है। मेरे अपने गांव ब्रह्म्पुर में इस नाम के एक दादा हुए। हालांकि वह यादव नहीं थे, कहार जाति के थे। उनका नाम था बिरंचि राम। आज भी बिरंचि नाम से अनेक लोग होंगे ही। लेकिन नयी पीढ़ी में शायद ही यह कोई नाम रखता होगा। मेरे अपने दादा का नाम रूचा गोप था।
इस बात पर विचार करते हैं कि द्रौपदी मुर्मू का नाम द्रौपदी किसने रखा होगा? उनके पिता ने यह नाम रखा होगा, इसकी संभावना बहुत क्षीण है। हालांकि यह भी हो सकता है कि उन्हें हिंदू धर्म ने प्रभावित कर लिया हो और द्रौपदी का किरदार उन्हें अच्छा लगा हो। परंतु इसकी संभावना बहुत कम है कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम द्रौपदी रखा होगा।
खैर, इस बात पर विचार करते हैं कि द्रौपदी मुर्मू का नाम द्रौपदी किसने रखा होगा? उनके पिता ने यह नाम रखा होगा, इसकी संभावना बहुत क्षीण है। हालांकि यह भी हो सकता है कि उन्हें हिंदू धर्म ने प्रभावित कर लिया हो और द्रौपदी का किरदार उन्हें अच्छा लगा हो। परंतु इसकी संभावना बहुत कम है कि उन्होंने अपनी बेटी का नाम द्रौपदी रखा होगा।
दरअसल, भारत के मूलनिवासियों में नामकरण की एक प्रक्रिया रही है। मैं अपने ही घर का उदाहरण दूं तो मेरा घर एक मूलनिवासी का घर रहा है। मेरे घर में किसी का नाम किसी ब्राह्मण से पूछकर नहीं रखा गया। मेरे माता-पिता ने जो कुछ सोचा, नाम रख दिया। जैसे बचपन में मेरा नाम संतोष था और मुझसे बड़े भाई का टुन्नू। हमदोनों भाई इन्हीं नामों से बुलाये जाते थे। हमारा नाम पापा ने तब बदला जब हमारा नामांकन स्कूल में कराया गया। पापा ने भैया का नाम रखा कौशल किशोर कुमार और मेरा नवल किशोर कुमार। उन्होंने हमारे नाम से जातिसूचक शब्द हटा दिया। बहुत बाद में मैंने एक बार उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि जाति का नाम रखने से नौकरी मिलने में परेशानी होगी। फिर जब मैंने यह कहा कि ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ तो अपने नाम में अपनी जाति रखते हैं। तब उनका कहना था कि वे ऊंची जाति के लोग हैं और सब जगह वही लोग बैठे हैं। पापा से मेरी यह बातचीत संभवत: 1999 की है।
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द्रौपदी मुर्मू का नाम द्रौपदी हो सकता है कि उनके पति ने रखा हो। उनके पति का नाम श्यामचरण मुर्मू था। द्रौपदी मुर्मू का व्यक्तिगत जीवन त्रासदीपूर्ण रहा है। उनके दो बेटों और पति की मृत्यु अलग-अलग दुर्घटनाओं में हो गई। खैर, यह संभव है कि श्यामचरण मुर्मू ने अपनी पत्नी का नाम द्रौपदी रखा हो। यह इसलिए भी संभव है क्योंकि मैंने स्वयं ऐसा किया है। मैंने अपनी पत्नी का नाम बदला है। उसके माता-पिता ने उसका नाम नेहरू परिवार की एक सदस्या के नाम पर रखा था। उसके घर का नाम भी कुछ उलटा-पुलटा ही था। हालांकि उसमें उसके माता-पिता का अपनत्व स्पष्ट होता था। तो मैंने केवल अपने लिए अपनी पत्नी का नाम बदला और वह भी उसकी मर्जी से। मैं तो चाहता था कि वह केवल रीता रहे, लेकिन उसे खुद को देवी कहना अच्छा लगता है तो वह रीता देवी है और मेरे लिए रीतू।
वैसे द्रौपदी मुर्मू का नाम मुमकिन है कि उनके स्कूल में रखा गया हो। उनके माता-पिता ने नाम कुछ और रखा हो, जिसे स्कूल के शिक्षक ने बदल दिया हो। ऐसा एक उदाहरण मेरे मित्र अनिल असुर का है। उनसे मुलाकात वर्ष 2015 में तब हुई थी जब मैं असुर जनजाति को जानने-समझने झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड गया था। वहां नेतरहाट के आगे एक गांव है सखुआपानी, अनिल असुर वहीं के मूलनिवासी हैं। सुषमा असुर जो असुर समुदाय की पहली महिला साहित्यकार हैं, वह भी इसी गांव की रहनेवाली हैं। अनिल असुर के साथ जब मैं एक दूसरे गांव जोभीपाट गया तो वहां मेरी मुलाकात ढोरा असुर से हुई। वह वृद्ध थे और गांव के ही सरकारी स्कूल में चपरासी पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने यह जानकारी दी थी कि स्कूल में अधिकांश गैर-आदिवासी शिक्षक होते हैं और वे गांव के बच्चों का नाम बदल देते हैं। ऐसा वे क्यों करते हैं? इसके जवाब में ढोरा असुर ने कहा था कि वे हमें अपने जैसा हिंदू बनाना चाहते हैं। स्वयं अनिल असुर ने जानकारी दी कि उनका मूल नाम घूरा असुर था जो कि उनके दादा के नाम से मिला। बाद में जब स्कूल में पढ़ने गए तो ब्राह्मण शिक्षक ने घूरा असुर से अनिल असुर कर दिया।
यह मुमकिन है कि ऐसा ही द्रौपदी मुर्मू के साथ भी हुआ हो। लेकिन यह सच वह अब शायद कभी नहीं बताएंगीं। अगर उन्होंने बताने का साहस कर दिया तो निश्चित तौर पर ऐसा कर वह एक बड़ी साजिश का भंडाफोड़ करेंगीं कि कैसे इस देश के आदिवासियों को हिंदू बनाने की कोशिशें की जा रही हैं।
बहरहाल, द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना एक बड़ी घटना है। यह इसके बावजूद कि आरएसएस की यह बड़ी साजिश है। लेकिन उड़ीसा के एक आदिवासी गांव बैदापोसी से राष्ट्रपति भवन तक का सफर द्रौपदी मुर्मू का सफर अलहदा है। उन्हें भीमकामनाएं।
कल ही यह शब्द मिला जीवनसाथी से– सफर। यह कविता सूझी–
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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