इस विवाद का सबसे चिंताजनक पहलू यह था कि प्रतिमा-स्थापन के विरोध के बहाने कुछ वक्ताओं ने अंबेडकर की वैचारिक विरासत और संवैधानिक योगदान को प्रश्नांकित करना शुरू कर दिया। एक पक्ष का तर्क था कि वे अंबेडकर की मूर्ति के नहीं, बल्कि उसके ‘दुरुपयोग’ के विरोधी हैं। जब यह ‘दुरुपयोग’ स्पष्ट किया गया, तो उसमें अंबेडकर को संत मानने, उनके अनुयायियों के व्यवहार और न्यायिक परिसर की ‘पवित्रता’ जैसे भावनात्मक और अस्पष्ट तर्क सामने आए। यह प्रत्यक्षतः दलित प्रतीकों की सार्वजनिक उपस्थिति के प्रति एक गहरी वैचारिक असहजता को उजागर करता है। यह कहना कि ‘जब अंबेडकर को संत की तरह पूजा जाता है, तो न्यायालय परिसर में उनकी मूर्ति लगाना संस्थान की गरिमा के विरुद्ध है,’ दरअसल यह उस पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति है, जिसमें संवैधानिक मूल्यों और संस्थानों में दलित नेतृत्व की भागीदारी अभी भी अधूरी और अस्वीकार्य मानी जाती है।
बी. एन. राव बनाम अंबेडकर: एक भ्रामक बहस
प्रतिमा-विरोध की आड़ में यह प्रश्न भी उठाया गया कि संविधान का ‘असली निर्माता’ कौन है — डॉ. अंबेडकर या बी. एन. राव? यह बहस नई नहीं है, लेकिन इसका पुनरुत्थान अक्सर राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित होता है। यह निर्विवाद सत्य है कि बी. एन. राव ने संविधान के प्रारूप लेखन में तकनीकी सलाहकार की भूमिका निभाई। उन्होंने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संविधानों का अध्ययन कर एक प्रारंभिक मसौदा तैयार किया। किंतु संविधान सभा द्वारा उस मसौदे में व्यापक संशोधन कर उसे भारत के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के अनुरूप ढालने का कार्य डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में बनी प्रारूप समिति ने ही किया। स्वयं बी. एन. राव ने 30 नवंबर 1948 को अपने पत्र में अंबेडकर के योगदान को ‘पुनर्जन्म देने वाला’ बताते हुए उन्हें संविधान का ‘सच्चा निर्माता’ कहा था।
इस ऐतिहासिक स्वीकारोक्ति को दरकिनार कर अंबेडकर के योगदान को छोटा साबित करना एक वैचारिक पूर्वग्रह का हिस्सा लगता है, जिसका उद्देश्य दलित नेतृत्व की ऐतिहासिक भूमिका को निष्क्रिय करना है।
प्रतिक्रिया से प्रतिशोध तक : भीम आर्मी और ‘संवैधानिक आतंकवाद‘
ग्वालियर की घटना के बाद सोशल मीडिया पर अंबेडकर समर्थकों, विशेषकर भीम आर्मी जैसे संगठनों को ‘पाकिस्तानी आतंकवादी’ कहकर संबोधित करना न केवल निंदनीय है, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक चरित्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा प्रहार है। यह चिन्हित करता है कि किस प्रकार प्रतीकात्मक प्रतिमा स्थापना को ‘संवैधानिक आतंकवाद’, ‘सनातन विरोध’ जैसे जुमलों से जोड़कर एक सुनियोजित वैमनस्य फैलाने का प्रयास किया गया। यह भाषा लोकतंत्र की नहीं, बल्कि दमन की है — जो न केवल असहमति की हत्या करती है, बल्कि सामाजिक समरसता और संस्थागत समावेशिता को भी धूमिल करती है।
आलोचना या दमन का छद्म?
एक वकील ने कहा, ‘मेरे आलोचकों ने ही मुझे मंच पर बोलने लायक बनाया।’ यह कथन सुनने में विनम्र लगता है, परंतु उसमें छिपा कटाक्ष यह बताता है कि आलोचना को लोकतंत्र का औजार कहने वाले, जब अंबेडकर के विचारों की आलोचना करते हैं, तो वह रचनात्मक नहीं, बल्कि दलित चेतना पर हमला होता है। यह समझना आवश्यक है कि आलोचना और असहमति के बीच एक महीन रेखा होती है — जिसे पार कर लेने पर वह दमन और अस्वीकार्यता का रूप ले लेती है।
न्यायालय की ‘पवित्रता‘ बनाम अंबेडकर की ‘स्थानिकता स्थितिजन्यता”
यह तर्क कि ‘न्यायालय परिसर पवित्र है, इसलिए वहाँ अंबेडकर की मूर्ति नहीं लगनी चाहिए,’ एक मूलभूत प्रश्न खड़ा करता है — क्या अंबेडकर और उनके विचार न्यायिक संस्थाओं की ‘पवित्रता’ के बाहर हैं? यह विरोध दरअसल मूर्ति के स्थान का नहीं, बल्कि अंबेडकर की ‘स्थानिकता’ (Situatedness) का विरोध है अर्थात उस ऐतिहासिक भूमिका को उस स्थान पर अस्वीकार करना, जहाँ वह सबसे अधिक प्रासंगिक है। यह सांस्कृतिक विस्मरण की राजनीति है, जिसमें अंबेडकर को केवल किताबों में सीमित रखने की चेष्टा की जा रही है, न कि सार्वजनिक स्मृति और संस्थानों में जीवित रखने की।
बी. एन. राव को भारत रत्न : पुनर्स्थापन या प्रतिस्थापन?
कुछ वकील वक्ताओं ने यह प्रस्ताव भी रखा कि बी. एन. राव को भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए, क्योंकि अंबेडकर को यह सम्मान 1990 में मिला था। यह मांग केवल एक सम्मान की बात नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक नायक गढ़ने की राजनीति प्रतीत होती है — जिससे अंबेडकर की ऐतिहासिक और वैचारिक भूमिका को प्रतिस्थापित किया जा सके। बी. एन. राव का योगदान महत्त्वपूर्ण था, लेकिन उन्हें अंबेडकर के समकक्ष या उनके स्थान पर प्रस्तुत करना न केवल ऐतिहासिक तथ्य के साथ छल है, बल्कि यह दलित चेतना के प्रतिरोध का एक सुस्पष्ट संकेत भी है।
मूर्ति एक प्रतीक नहीं, प्रेरणा है। यदि कोई यह कहता है कि ‘अंबेडकर संविधान के पिता ही नहीं, माता भी हैं,’ तो यह मात्र एक विशेषण नहीं, बल्कि एक गहन वैचारिक सत्य है। संविधान को जीवन, संवेदना और न्याय का स्वरूप देने में अंबेडकर की भूमिका केवल तकनीकी नहीं थी — वह उसकी आत्मा के शिल्पकार थे। बी. एन. राव को हम कंसल्टिंग इंजीनियर कह सकते हैं, लेकिन आर्किटेक्ट वही होता है जो खाके को जीवंत इमारत में बदल दे।
ग्वालियर की यह घटना सिर्फ एक प्रतिमा विवाद नहीं है, अपितु यह भारत की न्याय प्रणाली, उसकी स्मृतियों, और लोकतांत्रिक मूल्यों की अग्नि-परीक्षा है। अंबेडकर की मूर्ति यहाँ एक पत्थर नहीं, एक विचार है — जो हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल बहुमत नहीं, बल्कि समावेश का नाम है।
वैचारिक मोर्चेबंदी
ग्वालियर के वकीलों के एक समूह ने हाल ही में दिल्ली में एक कार्यक्रम में बी.एन. राव को संविधान निर्माता बताने वाले पर्चे वितरित किए। वहीं, शनिवार को सामाजिक न्याय मंच के बैनर तले ग्वालियर में आयोजित सम्मेलन में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह समेत कई नेताओं ने यह आरोप लगाया कि बी.एन. राव को आगे लाने की यह पूरी मुहिम संघ के इशारे पर चल रही है। इसी कार्यक्रम के बाद रात में शहर में कई स्थानों पर बी.एन. राव के पोस्टर लगाए गए, जिनमें उन्हें संविधान निर्माण में प्रमुख योगदानकर्ता बताया गया।
होर्डिंग्स में क्या कहा गया?
सामाजिक न्याय रक्षा मोर्चा द्वारा लगाए गए होर्डिंग्स में लिखा गया है, “संविधान है कई बुद्धिजीवियों का विधान, फिर क्यों होता एक व्यक्ति का गुणगान?” इन होर्डिंग्स में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल और बी.एन. राव के चित्रों के साथ यह सवाल उठाया गया है कि संविधान के निर्माण में कई लोगों का योगदान रहा, फिर केवल डॉ. आंबेडकर की महिमा मंडन क्यों?
प्रतिमा विवाद: वैधानिकता बनाम विचारधारा
विवाद की शुरुआत तब हुई जब कुछ वकीलों ने हाई कोर्ट परिसर में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने का प्रयास किया, जिसका एक अन्य वकील गुट ने यह कहकर विरोध किया कि कोर्ट परिसर में किसी भी निर्माण कार्य के लिए बिल्डिंग कमेटी की अनुमति आवश्यक है। प्रतिमा लगाने की विधिवत अनुमति न लेने के कारण इसका विरोध हुआ। हालांकि यह तकनीकी विवाद अब राजनीतिक और वैचारिक संघर्ष में बदल चुका है। भीम आर्मी, आज़ाद समाज पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर खुलकर मोर्चा खोल दिया है।
बी.एन. राव कौन थे?
बेनेगल नरसिंह राव भारतीय संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। फरवरी 1948 तक उन्होंने संविधान का प्रारंभिक मसौदा तैयार किया था, जिसमें पहले 243 अनुच्छेद शामिल थे। बाद में डॉ. आंबेडकर की अध्यक्षता वाली मसौदा समिति ने इसे अंतिम रूप दिया। बी.एन. राव संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि और हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रतिमा लगाए जाने का समर्थन करते हुए कहा, “जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, उन्हें संविधान की जानकारी नहीं है। सामाजिक न्याय के बिना सनातन धर्म की बात करना अधूरा है।” उन्होंने कहा कि वे खुद को एक “सच्चा सनातनी” मानते हैं और सामाजिक समता को ही सनातन धर्म का मूल मानते हैं। जेएनयू छात्र संघ की पूर्व अध्यक्ष आइशी घोष ने कार्यक्रम में कहा, “ग्वालियर ही नहीं, पूरे देश में संघी विचारधारा संविधान और डॉ. आंबेडकर के विरुद्ध षड्यंत्र रचती रही है। वे मनुस्मृति को थोपना चाहते हैं और सामाजिक न्याय की अवधारणा को समाप्त करना चाहते हैं।”
सांसद चंद्रशेखर का हस्तक्षेप
उत्तर प्रदेश के नगीना से सांसद चंद्रशेखर (रावण) ने भी इस मुद्दे पर ग्वालियर पहुंचकर प्रतिक्रिया दी। उन्होंने बताया कि उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को पत्र लिखकर डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा लगाने की मांग की है।
बार एसोसिएशन का विरोध और चेतावनी
हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने स्पष्ट रुख अपनाते हुए कहा है कि बिना स्वीकृति प्रतिमा लगाना नियमों के खिलाफ है। एसोसिएशन के अध्यक्ष पवन पाठक ने चेताया, “पेडस्टल पर राष्ट्रध्वज लगाया जा चुका है, जिसे हटाना राष्ट्रध्वज का अपमान होगा और बार इसे सहन नहीं करेगी।” फिलहाल मामला बिल्डिंग कमेटी के विचाराधीन है और सभी पक्षों की दलीलों के बाद निर्णय लिया जाएगा।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ही भारतीय संविधान के वास्तविक निर्माता हैं, बी.एन. राव नहीं।
हाल ही में सोशल मीडिया पर एक विचित्र और भ्रामक दावा देखा गया—कि भारतीय संविधान के असली निर्माता प्रेम बिहारी रायजादा या बी.एन. राव थे, न कि डॉ. भीमराव अंबेडकर। कुछ लोग यह तक कहने लगे हैं कि डॉ. अंबेडकर तो सिर्फ एक वकील थे, और उनका योगदान औपचारिक था। यह न केवल ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का प्रयास है, बल्कि एक सुनियोजित वैचारिक हमले का हिस्सा भी है। यह भी कि भारतीय संविधान का निर्माण एक सामूहिक प्रक्रिया थी, लेकिन उसका नेतृत्व डॉ. अंबेडकर ने किया। 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा द्वारा “मसौदा समिति” का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर थे। इस समिति में कुल 7 सदस्य थे जिनमें बी.एन. राव का नाम शामिल नहीं था।
डॉ. अंबेडकर की भूमिका क्या थी?
डॉ. अंबेडकर ने न केवल मसौदा समिति का नेतृत्व किया, बल्कि संविधान के लगभग हर अनुच्छेद पर गंभीर विचार, बहस, संशोधन और तर्क प्रस्तुत किए। संविधान सभा में अंतिम भाषण देते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से उन सभी का धन्यवाद किया, जिन्होंने इस प्रक्रिया में सहयोग दिया—इसमें बी.एन. राव का नाम भी एक सलाहकार के रूप में लिया गया था। इससे स्पष्ट होता है कि उनका योगदान केवल परामर्शात्मक था, नेतृत्वकारी नहीं।
प्रेम बिहारी रायजादा कौन थे?
प्रेम बिहारी नारायण रायजादा वह व्यक्ति थे जिन्होंने संविधान की मूल प्रति को अपने हाथ से (हस्तलिखित रूप में) सुलेख में लिखा था। यह एक कला का कार्य था, न कि वैधानिक। जिसके बदले उनका नाम संविधान के लगभग हरिक पेज पर अंकित इसलिए है कि प्रेम बिहारी रायजादा ने संविधान को लिपिबद्ध करने की कोई फीस नहीं ली थी
तो भ्रम किसने फैलाया? और क्यों?
यह कहना गलत नहीं होगा कि कुछ विचारधाराएं, जो डॉ. अंबेडकर की वैचारिक दृढ़ता और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से असहज हैं, लगातार उनका योगदान कमज़ोर करने की कोशिश कर रही हैं। बी.एन. राव को “असली संविधान निर्माता” बताना इस प्रयास का हिस्सा है। और ऐसे कार्य आर एस एस द्वारा संविधान कार्य के शुरू होने से ही किए जाते रहे हैं। मनुवादी मानसिकता के लोग बाबा साहेब अम्बेडकर की मूर्ति के आगे भाल झूकाकर फूलमालाएं तो अर्पित जरूर करते हैं लेकिन उनकी विचारधारा से हमेशा विमुख रहते हैं। यही कारण है कि मौजूदा सरकार मौके-ब-मौके संविधान को बदलने बात करने से बात नहीं आती। सच तो ये भी है कि सरकार द्वारा बहुत से ऐसे निर्णय ले लिए जा रहे हैं जो संविधान की परिधि से बाहर के होते हैं।
ऐसे प्रयासों का क्या करें?
हमें ज़रूरत है तथ्यों को जानने, समझने और साझा करने की। डॉ. अंबेडकर ने अपने ज्ञान, दूरदर्शिता, और असाधारण नेतृत्व से भारत को वह संविधान दिया, जिसकी बदौलत आज हमारा लोकतंत्र खड़ा है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि इस ऐतिहासिक सच्चाई को कोई तोड़-मरोड़ न सके। यदि आप संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों में विश्वास रखते हैं, तो इस ऐतिहासिक सत्य को साझा करें—कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ही भारतीय संविधान के निर्माता थे।
अम्बेडकर संविधान के पिता ही नहीं, माता भी — बी. एन. राव की ऐतिहासिक स्वीकारोक्ति
भारतीय संविधान के निर्माण में कई व्यक्तियों की भूमिका रही, लेकिन इस महायज्ञ के प्रमुख यजमान डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे। उन्हें ‘भारतीय संविधान के जनक’ (Father of Indian Constitution) के रूप में व्यापक रूप से सम्मानित किया जाता है। किंतु यह पहचान, उनकी भूमिका की संपूर्णता को नहीं दर्शाती। संविधान-निर्माण के दौरान भारतीय संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी. एन. राव द्वारा डॉ. अम्बेडकर को लेकर की गई ऐतिहासिक टिप्पणी कि “They were not only the father of the Constitution but also its mother” — इस सत्य की गवाही है कि अम्बेडकर न केवल संविधान के प्रवर्तक थे, बल्कि उसकी संरचना और आत्मा के निर्माता भी थे।
यदि किसी को यह कहने में संकोच नहीं है कि ‘अंबेडकर संविधान के पिता ही नहीं, माता भी हैं,’ तो यह इस बात का प्रमाण है कि उनका योगदान न केवल विधायी था, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की आत्मा में उनके विचार बसते हैं। बी. एन. राव को इस प्रक्रिया का कंसल्टिंग इंजीनियर कहा जा सकता है, परंतु आर्किटेक्ट वही होता है जो कच्चे नक्शे को जीवंत इमारत में बदलता है। ग्वालियर की यह घटना केवल एक प्रतिमा विवाद नहीं है। यह इस बात की परीक्षा है कि क्या भारत अपने संविधान निर्माता का सम्मान केवल पुस्तकों तक सीमित रखेगा या उसकी स्मृति को सार्वजनिक संस्थानों में समुचित स्थान देगा। यह एक लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक न्याय की लड़ाई है जिसमें अंबेडकर की मूर्ति एक प्रतीक नहीं, प्रेरणा है।
यह विवाद केवल एक प्रतिमा स्थापना का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह भारतीय संविधान के इतिहास, स्मृति और प्रतिनिधित्व को लेकर चल रही वैचारिक लड़ाई का प्रतीक बन चुका है। यह बहस यह तय करेगी कि हम संविधान निर्माण को केवल एक व्यक्ति की देन मानते हैं या इसे सामूहिक राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। साथ ही, यह भी स्पष्ट करता है कि आज भी डॉ. आंबेडकर और उनके विचार, भारतीय समाज में एक जीवंत चेतना के रूप में उपस्थित हैं — जिन्हें न तो नकारा जा सकता है और न ही दबाया जा सकता है।