विश्व असमानता, ग्लोबल जेंडर गैप, ग्लोबल हंगर इंडेक्स और 74वां गणतंत्र

एच. एल. दुसाध

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आज 26 जनवरी है। हमारा गणतंत्र दिवस! इसी दिन 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था, इसीलिए हम उस दिन से गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। इस बार हम 74 वां गणतंत्र एक ऐसे समय में मना रहे हैं, जब ऑक्सफेम की रिपोर्ट की ताज़ी रिपोर्ट ने भीषणतम आर्थिक विषमता का चित्र सामने रख दिया है तथा वर्षों से विदेशी मूल का जो जन्मजात तबका संविधान की जगह मनु लॉ के द्वारा देश को परिचालित करने का सपना देख रहा था, वह अपने सपने को पूरा करने के करीब पहुँच चुका है। और जिस दिन उसका सपना पूरा हो जायेगा, हम गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने की स्थिति में नहीं रहेंगे। अतः आइये हम संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर  की उस चेतावनी को याद कर भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करें,जो चेतावनी उन्होंने राष्ट्र को संविधान सौपने के पूर्व 25 नवम्बर 1949 को दी थी।

उन्होंने उस दिन संविधान की खूबियों और खामियों पर विस्तार से चर्चा के बाद शेष में चेतावनी देते हुए कहा था- ’ 26 जनवरी 1950 हम विपरीत जीवन में प्रवेश करेंगे।  राजनीति के क्षेत्र में मिलेगी समानता प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देना का अवसर मिला और उस वोट का सामान वैल्यू होगा। किन्तु राजनीति के विपरीत आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता। हमें निकट भविष्य के मध्य इस असमानता को खत्म कर लेना होगा, नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है,’इस चेतावनी के साथ उन्होंने यह भी कहा था कि संविधान जितना भी अच्छा क्यों हो, यदि उसे लागू करने वाले करने वाले बारे लोग होंगे तो यह बुरा साबित होगा।अगर संविधान लागू करने वाले सही होंगे तो  होंगे तो बुरा संविधान भी अच्छा परिणाम दे सकता है। कहने में कोई संकोच कि नहीं कि भारत का संविधान लागू करने वाले अच्छे लोगों में शुमार होने लायक नहीं रहे। अपनी शिराओं में बहते मनुवाद के कारण वे संविधान की उद्देश्यिका में वर्णित तीन न्याय-सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक- सभी को सुलभ कराने की मानसिकता से पुष्ट नहीं रहे, इसलिए जिस आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे लायक नीतियों से आमजन, विशेषकर वर्ण व्यवस्था के जन्मजात वंचितों को तीन न्याय सुलभ कराया जा  सकता था, वे उस विषमता के खात्मे लायक नीतियां ही न बना सके। फलतः बढ़ते आर्थिक और सामाजिक विषमता के साथ-साथ  लोकतंत्र के ध्वसत होने लायक हालात पूंजीभूत होते रहे और तीन न्याय से वंचित बहुजन समाज  महरूम होता गया। दुर्भाग्य से नयी सदी में  देश की केन्द्रीय सत्ता पर ऐसे लोगों का प्रभाव विस्तार हुआ है, जो संविधान के विरोधी और मनु ला के खुले हिमायती रहे। ऐसे संविधान विरोधियों की आज केंद्र से लेकर राज्यों में अप्रतिरोध्य सत्ता कायम हो गयी है और आज ये भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करते हुए संविधान की जगह उन हिन्दू कानूनों को लागू करने की स्थिति में पहुँच गए हैं, जिन हिन्दू कानूनों के कारण ही भारत के बहुसंख्य आबादी को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अन्याय का शिकार बनना पड़ा तथा  जिससे निजात दिलाने का ही प्रावधान ही संविधान की उद्देश्यिका में घोषित हुआ।

आज लैंगिक समानता के मोर्चे पर भारत दक्षिण एशिया में नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार से भी पीछे चला गया है और भारत की आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं, इसकी खुली घोषणा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में हो चुकी है।

बहरहाल जिस आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे से हिन्दू कानूनों द्वारा सभी प्रकार के अन्याय के शिकार लोगों को संविधान में वर्णित तीन न्याय सुलभ कराया जा सकता था, वह आर्थिक और सामाजिक विषमता हिंदूवादी शासन  में नयी-नयी छलांगे लगाती जा रही है। आज से दस दिन पूर्व जो ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसमें  यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि  भारत में टॉप की 1%  आबादी  के पास देश की 40% सम्पत्ति, टॉप की 10% के पास 72 % जबकि नीचे की 50 % आबादी के पास सिर्फ 3 फीसदी संपत्ति है। इसमें चौंकाने वाला यह तथ्य भी उभरकर आया है कि भारत के सबसे 10% अमीर लोगों का जीएसटी में योगदान  सिर्फ 3% है, जबकि 64% टैक्स कम आय वाले 50 % लोगों ने भरा है।

वर्तमान हिंदुत्ववादी सरकार के शासन में  हाल के वर्षों में ऑक्सफेम के अतिरिक्त विश्व असमानता, ग्लोबल जेंडर गैप, ग्लोबल हंगर इंडेक्स इत्यादि जो तमाम रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं, सब में ही आर्थिक विषमताजन्य स्थिति  बद से बदतर से बदतर होती गयी है। किसी भी रिपोर्ट में सुधार का लक्षण मिलना मुश्किल है। आज लैंगिक समानता के मोर्चे पर भारत दक्षिण एशिया में नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार से भी पीछे चला गया है और भारत की आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं, इसकी खुली घोषणा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में हो चुकी है। आज अगर भारत नाईजीरिया को पीछे धकेल कर विश्व गरीबी की राजधानी का खिताब अपने नाम कर चुका है; घटिया शिक्षा के मामले में मलावी नामक अनाम देश को छोड़ कर टॉप पर पहुँच चुका है तो इसलिए कि मोदी राज में सारा कुछ जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में सौपने के जुनून में आर्थिक विषमता जन्य समस्यायों की लगातार बुरी तरह अनदेखी हो रही है। इससे भारत के गणतंत्र के विस्फोटित होने लायक हालात लगातार पूंजीभूत होते जा रहे हैं, जिससे बचने के लिए डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर, 1949  को राष्ट्र को सावधान किया था। ऐसे जो ताकतें गणतंत्र के सलामती की आग्रही हैं, उन्हें  विस्फोटक रूप अख्तियार करती आर्थिक असमानता से पार पाने उपायों के संधान में जुट जाना चाहिए क्योंकि अबतक के सारे उपाय व्यर्थ हो चुके हैं।

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भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता के विस्फोटक बिंदु पर पहुचने के लिए जहां शासक वर्ग की वर्णवादी सोच जिम्मेवार है, वहीँ समता की लड़ाई लड़ने वाली ताकतें  भी कम जिम्मेवार नहीं है।  इन्होंने यह बुनियादी तथ्य जाना ही नहीं कि आर्थिक और सामाजिक विषमता की सृष्टि शक्ति के स्रोतों –

1- आर्थिक,  जिसके अंतर्गत सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों सहित सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, ट्रांसपोर्टेशन,फिल्म-मीडिया इत्यादि अर्थोपार्जन की ढेरों गतिविधियाँ आती है।

2- राजनीति,जिसके अंतर्गत ग्राम पंचायत, स्थानीय निकाय, संसद, विधानसभा, शासन-प्रशासन की समस्त गतिविधियाँ।

3- शैक्षिक, जिसके  अंतर्गत शिक्षालयों में छात्रों का एडमिशन, टीचिंग स्टाफ और प्रशासनिक विभाग।

4 – धार्मिक , जिसके अंतर्गत देवालयों की सम्पदा और पुजारियों की नियुक्ति

इनमें विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है। आर्थिक और सामाजिक विषमता की  उत्पत्ति की सुस्पष्ट समझ न होने के कारण जहां मार्क्सवादी बुद्धिजीवी/एक्टिविस्ट भूमि के बंटवारे में उर्जा लगाते रहे, वहीँ आर्थिक और सामाजिक विषमता से निर्लिप्त आंबेडकरवादी आरक्षण बचाने, निजी क्षेत्र और प्रमोशन तथा न्यायपालिका में आरक्षण की आवाज बुलंद करने से आगे न बढ़ सक। हालांकि नई सदी की शुरुआत में ही स्पष्ट हो गया कि  कभी सकल घरेलू उत्पाद में 51 % योगदान करने वाली खेती का योगदान लगातार घटते जायेगा तथा तथा सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियां टेक्नोलॉजी और और शासकों की साजिश से सिकुड़ती जाएगी। और आज जहाँ खेती पूरी तरह घाटे का सौदा बन चुकी है और इसका योगदान बमुश्किल 14-15% रह गया हैं, वहीँ नौकरियां भी कपूर की भांति उड़ती जा रही हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि अतीत की भूलों से सबक लेते हुए शक्ति के स्रोतों का भारत के विविध सामाजिक समूहों- एससी, एसटी, ओबीसी, धार्मिक,अल्पसंख्यक और सवर्णों – के स्त्री–पुरुषों के वाजिब बंटवारे के लिए युद्ध स्तर पर संग्राम छेड़ा जाय। पर, विषमता इस बिंदु पर पहुँच चुकी है पारंपरिक तरीके से शक्ति के समस्त स्रोतों का विविध सामाजिक समूहों के मध्य बंटवारा कराकर भी पार नहीं पाया जा सकता। बेकाबू हो चुकी असमानता-जन्य समस्याओं  से अगर भारत की समताकामी ताकतें चिंतित है तो उन्हें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में अनिवार्य रूप से दो उपायों पर अमल करना होगा।

ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसमें यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि भारत में टॉप की 1% आबादी के पास देश की 40% सम्पत्ति, टॉप की 10% के पास 72 % जबकि नीचे की 50 % आबादी के पास सिर्फ 3 फीसदी संपत्ति है। इसमें चौंकाने वाला यह तथ्य भी उभरकर आया है कि भारत के सबसे 10% अमीर लोगों का जीएसटी में योगदान सिर्फ 3% है, जबकि 64% टैक्स कम आय वाले 50 % लोगों ने भरा है।

 सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को, जिनकी आबादी बमुश्किल 7-8 प्रतिशत होगी, उनको उनकी संख्यानुपात पर लाया जाय ताकि  होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70  प्रतिशत अतिरक्त(सरप्लस) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो सके, अवसरों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनके संख्यानुपात में सिमटाने के बाद दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसर और संसाधन प्राथमिकता के साथ पहले प्रत्येक समुदाय की आधी आबादी के हिस्से में जाय। इसके लिए प्राथमिकता के साथ क्रमशः सर्वाधिक वंचित तबकों की महिलाओं को अवसर सुलभ कराने का प्रावधान करना होगा। इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा। पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है। यदि हमें गणतंत्र के ढांचे को विस्फोटित होने से बचाना तथा 257 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना ही होगा अर्थात सबसे पहले एससी/एसटी, उसके बाद ओबीसी, फिर  धार्मिक अल्पसंख्यक और इनके बाद  जनरल अर्थात सवर्ण समुदाय की महिलाओं को अवसर निर्दिष्ट करना होगा। इसके लिए एससी/एसटी, ओबीसी,धार्मिक अल्पसंख्यकों और सवर्ण समुदाय की अगड़ी-पिछड़ी महिलाओं को इनके समुदाय के संख्यानुपात का आधा हिस्सा देने के बाद फिर बाकी आधा हिस्सा इन समुदायों के अगड़े-पिछड़े पुरुषों के मध्य वितरित हो।

कौन चढ़ा रहा है जोशीमठ की बलि!

यदि हम सेना, पुलिस बल व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य,डीलरशिप; सप्लाई,सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि, ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग प्राथमिकता के साथ सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत पलक झपकते आर्थिक विषमताजन्य समस्त समस्यायों से निजात पा जायेगा! रिवर्स पद्धति में अगर शक्ति के स्रोतों के स्रोतों के बंटवारे में सर्वाधिक वंचित आधी आबादी को प्राथमिकता के साथ अवसर देकर ऐसे सकारात्मक परिणाम के प्रति आशावादी हो सकते हैं तो क्यों न इस पर आज ही से अमल करने का संकल्प लें!

 लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। 

2 Comments
  1. कमलेश धुर्वे says

    बहुत अच्छी जानकारी के लिए
    धन्यवाद

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