विमल, कंवल और उर्मिलेश डायरी (11 अगस्त, 2021) (दूसरा भाग)
नवल किशोर कुमार
कल का दिन एक खास वजह से महत्वपूर्ण रहा। लोकसभा में केंद्र सरकार द्वारा लाया गया अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित 127वां संविधान संशोधन विधेयक, 2021 को सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। विधेयक के समर्थन में 385 मत पड़े और विरोध में शून्य। हालांकि आरएसपी और शिवसेना के सदस्यों ने विधेयक में कुछेक संशोधनों का प्रस्ताव दिया था, जिन्हें खारिज कर दिया गया। सर्वसम्मति से पारित किए जाने का खास महत्व है। दरअसल यह विधेयक केंद्र सरकार भूल सुधार के उद्देश्य से लेकर आयी थी। इसके पहले सरकार ने 127वें संशोधन विधेयक के जरिए यह प्रावधान कर दिया था कि ओबीसी में कौन-सी जाति रहेगी अथवा नहीं रहेगी, इसके निर्धारण का अधिकार केंद्र के पास रहेगा। इसे लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। इसी के आधार पर 5 मई, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण के मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी और एक तरह से इसी कारण से उसने मराठा आरक्षण को खारिज किया था।
खैर, संशोधन विधेयक लाए जाने के बाद यह साफ हो गया है कि अब राज्यों के पास उनका अधिकार बना रहेगा। इससे ओबीसी की राजनीतिक भागीदारी और मजबूत होगी।
लोकसभा में इस विधेयक पर विचार करने के दौरान एक महत्वपूर्ण मांग को उठाया गया। कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि सरकार आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक करने के संबंध में विचार करे। उनका तर्क था कि कई राज्यों में सामाजिक ताना-बाना अलग है। इसलिए 50 प्रतिशत की सीमा (इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार, 1993 के मामले में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ का निर्णय) समुचित नहीं है और यदि इसे बढ़ाया जाता है तो वह समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है। उन्होंने इसे सामाजिक न्याय के लिए महत्वपूर्ण बताया।
मेरे लिए यह सामाजिक न्याय शब्द बेहद महत्वपूर्ण है। मैं तो इसी के आधार पर यह तय कर पाता हूं कि कौन क्या है और किसे किस रूप में लिया जाना चाहिए।
सन् 1979 में प्रकाशित पुस्तक साम्य की भूमिका में उन्होंने यह मंतव्य व्यक्त किया कि हमारे समाज में, और विशेषकर कृषि-निर्भर समाज में, विष-बेलि की तरह फैली हुई असमानताएं पुरानी वर्ण-जातिगत असमानताओं का कुपरिणाम हैं। उष्ण्कटिबंधीय देशों में जहां गर्मी और वर्षा के कारण कृषि से प्रचुर अन्नोत्पादन होता है, वहां वर्ण-जातिगत संरचना से उत्पन्न सामाजिक असमानताएं संचयात्मक प्रभाव से एकत्रित और वृद्धिगत होती हैं। यह संचयात्मक प्रभाव हैसियत के अलावा अवकाश की अवधि में असमानता पैदा करता है और उसके द्वारा गठित सामाजिक संस्तरण में बदलाव लाना बहुत कठिन हो जाता है। बाद में हम हिंदी के अनेक लेखकों-कवियों के लेखनों और मंतव्यों में इस सामाजिक न्याय की ओर झुकाव पाते हैं
इन दिनों डॉ. कुमार विमल, कंवल भारती और उर्मिलेश को पढ़ रहा हूं। तीनों सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं। उनके बीच अंतर है तो केवल इतना कि तीनों की शैली अलग-अलग है। लेकिन केंद्रीय तत्व एक है। तीनों समतामूलक समाज की स्थापना को महत्वपूर्ण मानते हैं। हालांकि तीनों में कंवल भारती की शैली एकदम खास है। वह तीखे सवाल खड़ा करते हैं और सामाजिक न्याय की ‘राजनीति’ को लेकर गंभीर टिप्पणियां भी करते हैं। उनके निशाने पर राजनेता रहते हैं। वैसे इस मामले में उर्मिलेश भी पीछे नहीं रहते। लेकिन पत्रकार होने के कारण उनकी शैली दूसरी होती है। वे सवाल उठाने के बजाय सवालों का जवाब तलाशने का प्रयास करते हैं। ऐसा करते हुए वे नेताओं को कटघरे में खड़ा करना नहीं भूलते।
डॉ. कुमार विमल अलग हैं। वे सामाजिक न्याय की वैचारिकी को विस्तार देते हैं। नेताओं पर टिप्पणियां नहीं करते। वे साहित्य को आगे रखते हैं। रश्मिरथी : भारतीय साहित्य और कर्ण-काव्य की पृष्ठभूमि में शीर्षक आलेख में वह लिखते हैं – “दक्षिण और उत्तर भारत के संतों के अलावा निकटपूर्व शताब्दियों के जिन साहित्यकारों का ध्यान ‘सामाजिक न्याय’ की ओर गया, उनमें बंकिमचंद्र चटर्जी अग्रगण्य हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के छठे-सातवें दशक में ही ‘बन्देमातरम्’ के गायक और ‘साहस के समाजीकरण’ के उद्भावक बंकिम बाबू ने ‘समता-समानता’ पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किये थे। सन् 1979 में प्रकाशित अपनी पुस्तक साम्य की भूमिका में उन्होंने यह मंतव्य व्यक्त किया कि हमारे समाज में, और विशेषकर कृषि-निर्भर समाज में, विष-बेलि की तरह फैली हुई असमानताएं पुरानी वर्ण-जातिगत असमानताओं का कुपरिणाम हैं। उष्ण्कटिबंधीय देशों में जहां गर्मी और वर्षा के कारण कृषि से प्रचुर अन्नोत्पादन होता है, वहां वर्ण-जातिगत संरचना से उत्पन्न सामाजिक असमानताएं संचयात्मक प्रभाव से एकत्रित और वृद्धिगत होती हैं। यह संचयात्मक प्रभाव हैसियत के अलावा अवकाश की अवधि में असमानता पैदा करता है और उसके द्वारा गठित सामाजिक संस्तरण में बदलाव लाना बहुत कठिन हो जाता है। बाद में हम हिंदी के अनेक लेखकों-कवियों के लेखनों और मंतव्यों में इस सामाजिक न्याय की ओर झुकाव पाते हैं। इस संदर्भ में बालकृष्ण भट्ट के जात-पांत शीर्षक लेख, निराला की रैदास और चतुरी चमार शीर्षक रचना, बच्चन की एक भेंटवार्ता, प्रेमचंद -साहित्य के अनेक प्रसंगों और अज्ञेय द्वारा नया प्रतीक के अंश को उदाहरण-स्वरूप देखा जा सकता है।”
डॉ. विमल ने यह आलेख 1990 के दशक में तब लिखा जब देश में ओबीसी आरक्षण के विरोध में सवर्णों द्वारा आत्मदाह किया जा रहा था। सड़कों पर बवाल काटा जा रहा था। सामाजिक न्याय के नेताओं को भद्दी-भद्दी गालियां दी जा रही थीं। यहां तक कि नामवर सिंह जैसे बड़े लोग भी आरक्षण पर सवाल उठा रहे थे। उर्मिलेश ने अपनी नयी किताब गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल के अध्याय जेएनयू के वामाचार्य और अयोग्य-छात्र के नोटस में इस विषय पर विस्तार से लिखा है। उर्मिलेश ने नामवर सिंह के जाति-प्रेम को उघाड़ दिया है। लेकिन यह आलेख उन्होंने 2013 में लिखा और समयांतर के नवंबर, 2013 के अंक में प्रकाशित हुआ।
वहीं डॉ. विमल ने नामवर जैसों को मुंह खोलते ही जवाब दिया था कि आज आप जिस बात का विरोध कर रहे हैं, आपके पूर्व के लोगों ने किस रूप में इसका समर्थन किया है, यह आपको देखना चाहिए।
कमाल के थे डॉ. कुमार विमल। अपनी तरह के साहित्यकार-समालोचक। हालांकि पटना विश्वविद्यालय और मगध विश्वविद्यालय में अध्यापन के बाद प्रशासनिक पदों पर भी रहे, लेकिन उन्होंने अपने विचारों से समझौता नहीं किया। अपने लेखनकर्म को सबसे आगे रखा और उनके लेखन के केंद्र में सामाजिक न्याय ही एकमात्र विषय रहा। उन्होंने वामपंथी अवधारणाओं को आवरणहीन कर दिया था।
बहरहाल, कल धूमिल को जवाब और उनसे सवाल पूछती एक कविता जेहन में आयी।
एक ब्राह्मण भीख में रोटी पाता है
और मिल-बांटकर बिना शर्म के खाता है
रोटी का दाता
दलित-आदिवासी-पिछड़ा किसान है
लेकिन ब्राह्मण कहां उसका गुण गाता है?
क्रमशः
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
विचारोत्तेजक। जारी रखिए।