डाक्टर बनने के लिए भारतीय छात्र-छात्राओं के यूक्रेन जाने का सबब (डायरी 1 मार्च, 2022)

नवल किशोर कुमार

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मनुष्यों की औसत आयु का हिसाब-किताब बदलता रहता है। यह अलग-अलग देशों में अलग-अलग है। मसलन, वर्तमान में भारत में 69.4 वर्ष है और हमारे पड़ोसी मुल्क चीन में 76.7 वर्ष। अमेरिका इस मामले में पीछे है। वहां मनुष्यों की औसत आयु 76.3 वर्ष है। दरअसल, यह कई बातों पर निर्भर करता है। भारत में तो वैसे भी बड़ी आबादी दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की है, जिनमें से अधिकांश या तो भूमिहीन हैं या फिर छोटे किसान हैं। अब तो किसान भी नहीं रहे, दिहाड़ी मजदूर हो गए हैं। रोज की मजदूरी के आधार पर कमाते-खाते हैं। यदि इस देश में सवर्ण नहीं होते, जिनकी आबादी भले ही 15 फीसदी हो, लेकिन संसाधनों पर उनकी हिस्सेदारी 85 फीसदी है, तो भारत में मनुष्यों की औसत आयु सबसे निचले पायदान पर होती।

दरअसल, लंबे समय तक जीने के लिए अच्छा भोजन आवश्यक होता है। अच्छी चिकित्सा तो सबसे जरूरी है। और भारत में अच्छी चिकित्सा का मतलब ही धन का व्यय है। तो सबसे अधिक गरीब लोग धन की कमी से ही मर जाते हैं। उनके लिए बीमारी का मतलब किसी अपराध के बदले सजा को भुगतना है। हो गए बीमार तो बस झेलते जाइए। बीमारी से बचने के लिए आदमी को पैसा चाहिए। और जिस तरह से चिकित्सा को निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है, उसे देखकर तो यही लग रहा है कि सर्वाइवल ऑफ दी फिटेस्ट की अवधारणा अब सर्वाइवल ऑफ दी रिचेस्ट में बदल चुकी है।

भारतीय छात्र चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन के लिए यूक्रेन जाते हैं? हालांकि मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जैसा बददिमाग नहीं हूं कि यूक्रेन आदि देशों को छोटा देश कहकर उसका अपमान करूं। सवाल यही है कि आखिर यूक्रेन ही क्यों?

एक बड़ा बदलाव तो मैं यह देख रहा हूं कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकारें इस जिम्मेदारी से मुंह चुरा रही हैं कि लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें। कल ही ब्रिटेन में रहनेवाली एक महिला मित्र से बात हो रही थी। उनके मुताबिक, अब यूके में भी स्वास्थ्य अधिसंरचनाओं में गिरावट शुरू हो गई है। वजह यह है कि भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका आदि देशों से अनुभवहीन चिकित्सक यूके के सरकारी अस्पतालों में तैनात कर दिये गये हैं।

दरअसल, उनके कहे में मुझे एक बात की सच्चाई जरूर लगी कि भारतीय चिकित्सा शिक्षा जगत में गुणवत्ता एक बड़ा सवाल है। इससे भी एक बड़ा सवाल है शोध से संबंधित। हमारे यहां जैसे बेरोजगार सेना की नौकरी वेतन के लिए करते हैं, वैसे ही हमारे यहां बेरोजगार डाक्टर भी इसलिए बनते हैं तकि पैसे कमा सकें। और अब तो हम पत्रकारिता भी इसलिए ही करते हैं ताकि पैसे कमा सकें। यह एक बड़ा बदलाव आया है 1990 में वैश्वीकरण के बाद। अब हम भारतीय भी अत्यंत ही तेजी से भौतिकवादी बनते जा रहे हैं।

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कल एक सवाल मेरे सामने आया कि आखिर क्या वजह है कि भारतीय छात्र चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन के लिए यूक्रेन जाते हैं? हालांकि मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जैसा बददिमाग नहीं हूं कि यूक्रेन आदि देशों को छोटा देश कहकर उसका अपमान करूं। सवाल यही है कि आखिर यूक्रेन ही क्यों? कल ही एक साथी से बात हुई। उनका बेटा भी कीव में फंसा है। मेरे मित्र बहुत चिंतित हैं। हालांकि तसल्ली मुझे भी मिली कि उनका बेटा उनके संपर्क में है और निकलने की पूरी कोशिश कर रहा है।

तो मैंने अपने मित्र से पूछा कि आपने अपने बेटे को यूक्रेन ही क्यों भेजा? चाहते तो उसे भी यहीं पढ़ा सकते थे। उनका जवाब था कि भारत में भी विकल्प है, लेकिन एक तो यहां प्रवेश परीक्षा इतनी जटिल कर दी जाती है कि डाक्टर की पढ़ाई करने के लिए छात्र को तमाम विषयों को रटना पड़ता है। दूसरा यह कि यहां की स्वास्थ्य अधिसंरचनाएं बहुत खराब हैं। छात्रों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा नहीं मिल पाती है। रही बात निजी शिक्ष्ण संस्थानों की तो, उनकी फीस बहुत अधिक है। जबकि यूक्रेन में फीस भारत में लगने वाली फीस के मुकाबले करीब एक-चौथाई है। रही बात खाने-पीने-रहने की तो आज चाहे दिल्ली में रहिए या फिर कीव में, बहुत ज्यादा का अंतर नहीं है। नागरिक सुविधाओं के मामले में भी यूक्रेन आदि देश, जिन्हें हमारे देश के बददिमाग प्रधानमंत्री छोटे-छोटे देश कहते हैं, अपेक्षाकृत बहुत बेहतर हैं।

हमारी सरकारों के पास ऐसे वाहियात विज्ञापनों के लिए पैसे हैं तो फिर गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए पैसे क्यों नहीं हैं। कल ही बिहार में इस साल का बजट पेश किया गया। वहां विधान परिषद के सदस्य केदार पांडेय स्कूलों में शौचालयों की कमी की बात कह रहे थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जवाब भी सामने आया कि आप बता दें, हम शौचालयों का निर्माण करेंगे। मुझे ले लगता है कि ऐसे मुख्यमंत्री को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो करीब 70 साल के विधान पार्षद से यह कहे कि आप हमें ऐसे स्कूलों की सूची दें जहां शौचालय नहीं हैं। यह बात इसलिए कि सरकार के पास पूरी मशीनरी है, वह पता करे।

खैर, मेरे हिसाब से होना तो यह चाहिए कि यदि कोई डाक्टरी की पढ़ाई करना चाहता है तो उसे बोर्ड के बाद ही पढ़ाया जाय। इसके लिए कोई प्रतियोगिता परीक्षा ना हो। ऐसा ही हर क्षेत्र में हो। बच्चे यदि प्रारंभ से ही अपने विषय का अध्ययन करेंगे तो उनकी पकड़ मजबूत होगी और वे बेहतर चिकित्सक, इंजीनियर आदि बनेंगे।

बहरहाल, मैं भारत को देख रहा हूं। आज महाशिवरात्रि मनाया जा रहा है। दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता में हरियाणा सरकार के द्वारा एक विज्ञापन प्रकाशित कराया गया है। इसमें वहां के मुख्यमंत्री और हमारे देश के प्रधानमंत्री की तस्वीरों के अलावा शंकर की फोटो है। मजे की बात यह है कि शंकर को अकेला छोड़ दिया गया है। आज महाशिवरात्रि है तो कायदे से उनकी पत्नी को भी दिखाया जाना चाहिए।

शंकर के साथ पार्वती क्यों नहीं हैं जनसत्ता द्वारा प्रकाशित विज्ञापन में? मुझे लगता है कि आरएसएस के लिए महिलाओं का कोई महत्व ही नहीं है। वैसे यह बेहद दिलचस्प है कि आदिवासी साहित्य व संस्कृति में शुमार जिस मूलनिवासी योद्धा को ब्राह्मण वर्ग एक समय शिश्नदेव कहकर अपमानित करता था, आज उसकी पूजा करता है।

मैं दो बातें सोच रहा हूं। एक तो यह कि हमारी सरकारों के पास ऐसे वाहियात विज्ञापनों के लिए पैसे हैं तो फिर गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए पैसे क्यों नहीं हैं। कल ही बिहार में इस साल का बजट पेश किया गया। वहां विधान परिषद के सदस्य केदार पांडेय स्कूलों में शौचालयों की कमी की बात कह रहे थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जवाब भी सामने आया कि आप बता दें, हम शौचालयों का निर्माण करेंगे। मुझे ले लगता है कि ऐसे मुख्यमंत्री को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो करीब 70 साल के विधान पार्षद से यह कहे कि आप हमें ऐसे स्कूलों की सूची दें जहां शौचालय नहीं हैं। यह बात इसलिए कि सरकार के पास पूरी मशीनरी है, वह पता करे। और ‘हम उन स्कूलों में शौचालय बनवाएंगे’ का मतलब क्या है? जाहिर तौर पर पिछले 15 सालों से मुख्यमंत्री आप हैं तो शौचालय बनाने के लिए यूक्रेन के राष्टपति जेलेंस्की थोड़े न बिहार जाएंगे।

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दूसरी बात यह कि शंकर के साथ पार्वती क्यों नहीं हैं जनसत्ता द्वारा प्रकाशित विज्ञापन में? मुझे लगता है कि आरएसएस के लिए महिलाओं का कोई महत्व ही नहीं है। वैसे यह बेहद दिलचस्प है कि आदिवासी साहित्य व संस्कृति में शुमार जिस मूलनिवासी योद्धा को ब्राह्मण वर्ग एक समय शिश्नदेव कहकर अपमानित करता था, आज उसकी पूजा करता है।

लेकिन मैं तो इश्क का आदमी हूं। महाशिवरात्रि के मौके पर शंकर-पार्वती को अलग-अलग नहीं छोड़ना चाहिए।

कल ही तीन प्रेम कविताएं सूझीं।

1.

समय है कि गुजरता जा रहा

और हम खड़े हैं

इस इंतजार में कि

अभी समंदर में ज्वार-भाटे का दौर है

और हमें उसके शांत होने तक

अपनी ख्वाहिशों को कैद रखना है

गोया ख्वाहिशें

ख्वाहिशें न हुईं

हमारी गुलाम हों।

2.

और अगर किसी एक दिन

रात ना हो तो क्या

दुनिया एकदम से बदल जाएगी

और हम जो दुनिया की नजर में युद्धबंदी हैं

हमें मुक्ति मिल जाएगी

और हम जी सकेंगे

जैसे हम जीना चाहते हैं?

3.

तुम और कपास के फूल

दोनों एक जैसे हैं

और मैं हूं कि

तुम दोनों को चाहता हूं

और तुम हो कि

मेरी बात सुन हंसती हो

गोया तुम और कपास

चांद के माफिक हो।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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