Saturday, July 27, 2024
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जूम करके देखिए, सरकारें कैसे काम करती हैं (17 जुलाई, 2021 की डायरी )

खबर और साहित्यिक रचना के बीच बुनियादी फर्क होता है। हालांकि बाजदफा खबर के लेखकों को ऐसा लगता है कि वह जो लिख रहे हैं, वह साहित्यिक रचना की श्रेणी में आता है। जो ऐसा सोचते हैं, उन्हें इसका गुमान भी होता है। वैसे गुमान होना कोई नकारात्मक बात नहीं है। लेकिन इससे खबर और […]

खबर और साहित्यिक रचना के बीच बुनियादी फर्क होता है। हालांकि बाजदफा खबर के लेखकों को ऐसा लगता है कि वह जो लिख रहे हैं, वह साहित्यिक रचना की श्रेणी में आता है। जो ऐसा सोचते हैं, उन्हें इसका गुमान भी होता है। वैसे गुमान होना कोई नकारात्मक बात नहीं है। लेकिन इससे खबर और साहित्यिक रचना के बीच का अंतर नहीं मिट जाता। खबर के पात्र वास्तविक होते हैं और इसमें क्लाइमेक्स जैसा कुछ नहीं होता। बस इतना ही कि जस की तस रख दीनी चदरिया, चदरिया झीनी रे झीनी।

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि खबरों का अपना सौंदर्य नहीं होता। कई बार तो मुझे लगता है कि खुरदुरापन ही खबरों का वास्तविक सौंदर्य है। बेहद आसान वाक्यों में लिखा गया इंट्रो और सुव्यवस्थित विवरण, फिर चाहे वह खबर कैसी भी हो। हत्या व बलात्कार आदि की खबरों का भी अपना सौंदर्य होता है। वहीं राजनीतिक बयानबाजियों का शिल्प भी बेहद खास होता है।

एक अंतर और है। खबर लिखने वाला जानता है कि वह जो लिख रहा है, उसकी आयु कितनी है। साहित्यकार को लगता है कि उसने जो लिखा है, वह लंबे समय तक पढ़ा जाएगा। ऐसा होता भी है। लेकिन इससे खबरों का महत्व कम नहीं हो जाता।

[bs-quote quote=”मेरे जेहन में लोग और हुक्मरान हैं। लोगों को लगता है कि वे हुक्मरान का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। वहीं हुक्मरान को लगता है कि जनता टैक्स और वोट देने के लिए बनी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मन में जनता की यही छवि है। देश के स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यही मानते हैं। हाल ही में बनारस में एक सभा को संबोधित करते हुए कमाल के असत्य वचन कहे। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठने वाला असत्य बोलता है, जनता यह समझती है। लेकिन यह नहीं समझना चाहती कि इन असत्य बोलने वालों का विरोध कैसे करना है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल की ही बात है। बेतिया के मेरे एक पत्रकार साथी पंकज से बात हो रही थी। वहां लौरिया और रामनगर प्रखंड के इलाके में जहरीली शराब के कारण 22 लोगों की मौत हो चुकी है। पत्रकार साथी पंकज ने जानकारी दी कि स्थानीय प्रशासन इसके पूरे प्रयास कर रहा है कि वह इन मौतों को सामान्य मौत करार दे। यहां तक कि जिलाधिकारी ने साफ-साफ कह दिया है कि शराब वाली बात सामने नहीं आनी चाहिए। लेकिन स्थानीय पत्रकारों ने जिला प्रशासन के प्रयासों पर पानी फेर दिया है। अब वहां प्रशासन कह रहा है कि लोगों की मौत अवैध शराब पीने के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों के कारण हुई है।

मैं और पंकज यही बात कर रहे थे कि सरकारें शब्दों का उपयोग करना खूब जानती है। हम पत्रकार और साहित्यकार गुब्बारे की तरह होते हैं और मानते हैं कि शब्दों का जितना उपयोग हम करते हैं, सरकारें नहीं करतीं। लेकिन सच तो यही है कि सरकारी तंत्र शब्दों का उपयोग अपने हिसाब से एकदम सटीक करता है। वह कोई भी अतिरिक्त शब्द का उपयोग नहीं करता।

यह केवल बेतिया का मामला नहीं है। हाल ही में बिहार के नवादा में 30 से अधिक लोगों की मौत जहरीली शराब के कारण हो गई। वहां भी प्रारंभ में प्रशासन ने मौतों को सामान्य बताने की पूरी कोशिश की। लेकिन नवादा के पत्रकार भी सरकार से उलझ पड़े और हुआ यह कि नवादा से लेकर पटना तक फोन घनघनाने लगे। आनन-फानन में सीएम के आदेश पर जांच को अंजाम दिया गया। दो-चार लोगों की गिरफ्तारियां हुईं और पूरे मामले को रफा-दफा किया गया।

[bs-quote quote=”पटना शहर की आबादी 50 लाख से अधिक होने के बावजूद केवल दो खाद्य सामग्री निरीक्षक हैं। ये निरीक्षक साल में एक बार सुर्खियों में आते हैं। पटना स्टेशन के पास दूध बाजार में जाते हैं और छापेमारी करते हैं। अखबारों में फोटो और खबरें छापी जाती हैं। कई बार तो सैकड़ों लीटर दूध नाले में बहा दिया जाता है। यह सब यह दिखाने के लिए कि पटना में खाद्य सामग्री निरीक्षक है। सरकार है। जनता निश्चिंत रहे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, सरकारें यह जानती हैं और मानती हैं कि जनता को परेशानियों को झेलने की आदत है। चूंकि रोजमर्रा की जिंदगी में इतनी परेशानियां होती हैं कि आदमी किसी एक परेशानी को माथे पर लादकर बैठा नहीं रह सकता है। एक उदाहरण पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि का है। अब इससे जुड़ी खबरें लोगों को विचलित नहीं करती हैं। कोरोना से जुड़ी खबरें अब लोगों को सचेत नहीं करती हैं। हद तो यह कि आज एक तिहाई बिहार बाढ़ में डूबा है, लेकिन लोगों को इस खबर में भी कोई दिलचस्पी नहीं।

बाढ़ग्रस्त त्रस्त एक गाँव

मेरे जेहन में लोग और हुक्मरान हैं। लोगों को लगता है कि वे हुक्मरान का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। वहीं हुक्मरान को लगता है कि जनता टैक्स और वोट देने के लिए बनी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मन में जनता की यही छवि है। देश के स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यही मानते हैं। हाल ही में बनारस में एक सभा को संबोधित करते हुए कमाल के असत्य वचन कहे। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठने वाला असत्य बोलता है, जनता यह समझती है। लेकिन यह नहीं समझना चाहती कि इन असत्य बोलने वालों का विरोध कैसे करना है।

यह हालात तब है जब कि देश में डेमोक्रेसी है। बिहार में डेमोक्रेसी है। बेतिया के लौरिया और रामनगर प्रखंड में डेमोक्रेसी है।

मुझे लगता है कि इसी तरह की डेमोक्रेसी भारत के लोग चाहते थे और आज भी यही चाहते हैं। वैश्वीकरण ने रही-सही कसर निकाल दी। चुनाव के समय लोग कहते दिख जाते हैं – कोई बने राजा, इससे हमको क्या। क्या वह मेरे घर में राशन पहुंचा देगा। शासक वर्ग उनकी नहीं में हां मिलाता है और राज करता है।

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बहरहाल, मैं बेतिया के लौरिया और रामनगर प्रखंड के उन लोगों के बारे में सोच रहा हूं, जिनके परिजनों की मौत जहरीली शराब के कारण हुई। एक बार पटना के मसौढ़ी में इसी तरह की घटना हुई थी। शायद 2011 में। तब बिहार में शराबबंदी नहीं थी। उस मामले की रिपोर्टिंग के दौरान मेरी बातचीत एक आरोपी से हुई थी, जो फरार चल रहा था। उसने बताया कि देसी शराब में कोई जहर क्यों मिलाएगा। कभी-कभार समय में फेर के कारण शराब का रसायन तेज हो जाता है। घटना की रिपोर्टिंग के कुछ महीने बाद मैंने पटना के होटलों, ढाबों और सड़कों के किनारे ठेला पर खाद्य सामग्री बेचने वालों के संबंध में कुछ लिखा। तब मैंने पाया था कि पटना शहर की आबादी 50 लाख से अधिक होने के बावजूद केवल दो खाद्य सामग्री निरीक्षक हैं। ये निरीक्षक साल में एक बार सुर्खियों में आते हैं। पटना स्टेशन के पास दूध बाजार में जाते हैं और छापेमारी करते हैं। अखबारों में फोटो और खबरें छापी जाती हैं। कई बार तो सैकड़ों लीटर दूध नाले में बहा दिया जाता है। यह सब यह दिखाने के लिए कि पटना में खाद्य सामग्री निरीक्षक है। सरकार है। जनता निश्चिंत रहे।

 

कल देर शाम कुछ जेहन में चल रहा था –

कहां गए

वे लोग जिनकी पीठ पर थे

कोड़ों के निशान

और धंसी हुई थीं जिनकी आंखें

हड्डियां भी साफ-साफ दिखती थीं?

 

बाजदफा इतिहास से भी पूछा

उसने हाथ खड़े कर दिए

उसके पन्नों में राजे-महाराजे थे

लाव-लश्कर थे

अनेक महल-किले थे

लेकिन वे नहीं थे

जिनकी तलाश मैं कर रहा था।

 

फिर संसद की बारी थी

उसके तहखाने में भी नहीं मिलीं

ऐसे किसी के होने का प्रमाण

जिसे भूखा रहना पड़ा हो

या फिर किसी सूदखोर ने

जिनकी पीठ पर लाठियां बरसायी हो

या वह जो रोज तोड़ते थे पत्थर

और खाते थे पत्थर।

 

मैं सोच रहा हूं

सब मर-खप गए तो

वे कौन हैं जिनकी गिनती

मनुष्यों में नहीं होती

द्विज जिन्हें

धोबी,चमार, दुसाध,

गोवार, कोईरी, कुर्मी कहते हैं।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं

गाँव के लोग
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