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ग्राउंड रिपोर्ट

क्या मणिपुर में नागा, कूकी और मैतेई विवाद एक सांप्रदायिक भविष्य का संकेत है

जिस आग में आज मणिपुर जल रहा है, उसकी चिंगारी दशकों पहले ही बोई जा चुकी थी। राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए बुना गया यह जाल आज भले ही जातीय बंटवारे की त्रासदी दिखा रहा है पर भविष्य में यह संघर्ष साम्प्रदायिक रंग जरूर ओढ़ेगा। अंतर सिर्फ इतना होगा कि यहाँ हिन्दू बनाम मुसलमान नहीं होगा बल्कि यहाँ हिन्दू बनाम ईसाई होगा। घृणा के इस तूफान में मणिपुर को तबाह करने वाले नेता अभी अधजली लाशों के लिए वक्त से शोक गीत लिखवा रहे हैं। आज रचे जा रहे शोक गीतों से आने वाले कल में एक राजनीतिक विभाजक रेखा खींच दी जाएगी ताकि नए बाहुल्य से नई सत्ता की बुनियाद रखी जा सके।

आर्किड के फूलों की 500 से ज्यादा प्रजातियों की रंगत में रंगा हुआ मणिपुर आज मुश्किल में है। इसकी सुरम्य घाटियां और लोकनृत्य का राग बुनते पहाड़ अचानक एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए हैं। दोनों एक-दूसरे का कत्ल करने पर आमादा हैं। वजह है जातीय घृणा। इस जातीय घृणा के पीछे मणिपुर का एक कानून है, जिसके अनुसार सिर्फ आदिवासी जाति के लोग ही पहाड़ी क्षेत्र में बस सकते हैं। राज्य के क्षेत्रफल का 89 प्रतिशत हिस्सा पहाड़ी है। इस कानून के तहत सिर्फ 45.5 प्रतिशत लोगों के लिए 89 प्रतिशत भू-भाग आरक्षित हो जाता है। यह आदिवासी नागा और कूकी जातियों से हैं। गैर आदिवासी समुदाय की संख्या 64.4 प्रतिशत है और वह गैर पहाड़ी भू-भाग वाले 11 प्रतिशत हिस्से में ही से रह सकते हैं। इस 60 प्रतिशत गैर आदिवासी समुदाय में 53 प्रतिशत हिस्सेदारी मैतेई समुदाय की है। शेष 7 प्रतिशत आबादी अन्य समुदाय की है। इस बेमानी-सी लगने वाली बात को लेकर हाईकोर्ट ने मैतेई समुदाय के हित का ख्याल रखते हुए उनको अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति में रखने के लिए सरकार से प्रस्ताव मांगा। यदि मैतेई समुदाय को यह दर्जा मिल जाता है तो वह नागा और कूकी जाति की तरह कहीं भी जमीन लेने और घर बनाने की स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता। यह बात नागा और कूकी समुदाय को बर्दाश्त नहीं हुई।

“आदिवासी जातियाँ जंगल के अंदर चोरी-छुपे अफीम की खेती करतीं हैं और बड़ा मुनाफा कमातीं हैं। आदिवासी समुदाय को डर है कि अगर एक बार मैतेई समुदाय उनके जंगल में प्रवेश कर गया तो ’काले सोने’ का यह कारोबार ज्यादा दिन बच नहीं पाएगा। दूसरी ओर, पहले से ही अफीम उत्पादन के खिलाफ सरकार लगातार काम कर रही है। सरकार अफीम के धंधे को ख़त्म करना चाह रही है।”

इस मांग के खिलाफ ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स ऑफ मणिपुर ने 3 मई को एकता मार्च निकाला, जिसमें हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी शामिल हुए। विरोध-प्रदर्शन के दौरान चूराचांदपुर में यह एकता मार्च अचानक उग्र हो गया। एकता मार्च से भड़की हिंसा ने देर रात तक पूरे राज्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया। अपने आर्किड के फूलों के लिए दुनिया भर में अपनी एक अलग पहचान बनाने वाला मणिपुर राज्य 3 मई की रात में हिंसक हो उठा। जहां जिसका बाहुल्य था वहाँ वह जातियाँ अल्प समुदाय की जातियों पर हमला करने लगीं। एक रात में तकरीबन 10,000 लोग बेघर हो गए। तात्कालिक हिंसा, सख्त मिलेट्री बंदोबस्त के बीच आग अब भले ही धीमी पड़ चुकी हो पर अंदर पनप चुकी घृणा अब भी दोनों समुदाय के बीच कायम है। राज्य के आठ जिले इस हिंसा की गंभीर चपेट में हैं। असम राइफल्स और सेना की कंपनियां सड़कों पर दिन-रात मार्च कर रही हैं। मणिपुर सरकार ने दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिया है। यह जातीय हिंसा आने वाले समय में सांप्रदायिक हिंसा का भी रूप ले सकती है। वजह साफ है, मैतेई समुदाय अपने को हिन्दू मानता है। मैतेई समुदाय का एक छोटा हिस्सा इस्लाम धर्म को भी मानता है। जबकि नागा और कूकी जातियाँ अब ईसाई धर्म स्वीकार कर चुकी हैं। मणिपुर की आदिवासी जातियों द्वारा ईसाई धर्म अपनाने का किस्सा 1884 के आसपास मणिपुर के ब्रिटिश राज्य बनने के साथ ही शुरू हो गया था।

फिलहाल, सबसे बड़ी लड़ाई जमीन और जंगल की है। आदिवासी समुदाय का कहना है कि यदि मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा मिल गया तो वह हमारी ज़मीनें हथिया लेंगे। जबकि मैतेई समुदाय भाजपा की एनआरसी व्यवस्था की मांग करते हुए कह रहा है कि ज्यादातर कूकी समुदाय के लोग म्यांमार से विस्थापित होकर यहाँ आए हैं। वह यहाँ के मूल निवासी नहीं है। इसके बावजूद जंगलों पर 80 प्रतिशत कब्जा उनका है।

जातीय घृणा से उपजा यह आक्रोश दबा भले ही है, पर खत्म नहीं हुआ है। जनजीवन बदतर स्थित में पहुँच चुका है। बड़ी मात्र में लोग अब भी अपने ही राज्य में शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर हैं। यह संघर्ष एकदम नया नहीं है, बल्कि 1993 में यानी आज से बीस वर्ष पूर्व भी मणिपुर इसी तरह की हिंसा की भेंट चढ़ चुका है। तब नागा जाति के लोगों ने मैतेई समुदाय के लगभग 100 से ज्यादा लोगों की हत्या की थी। अपने अस्तित्व को मजबूत आधार देने के लिए मैतेई समुदाय ने 2012 में एक कमेटी का निर्माण किया- शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमेटी ऑफ मणिपुर। कमेटी को लेकर मैतेई समुदाय का कहना था कि अपने समुदाय को बाहरी लोगों के आक्रमण से बचाने के लिए उन्हें एक संवैधानिक कवच की ज़रूरत है। वह कहते हैं कि उन्हें अपने पहाड़ों से अलग किया जा रहा है। जबकि आजादी के समय वह आदिवासी श्रेणी में थे। चूंकि मैतेई समुदाय के पास संख्यात्मक बाहुल्य है, इसलिए सरकार में हमेशा कम से कम 60 प्रतिशत हिस्सेदारी इनकी होती है। विकास की गति में भी मैतेई समुदाय आदिवासी समुदाय से आगे हैं। आदिवासी समुदाय अपने जनजातीय आरक्षण के सहारे धीरे-धीरे आगे बढ़ने की कोशिश में लगा हुआ है। अब जबकि मैतेई समुदाय को जनजाति में शामिल करने की सिफारिश की जा रही है, तब आदिवासी समुदाय के सामने हर तरह के अस्तित्व का संकट खड़ा होता दिख रहा है। आदिवासी नागा और कूकी जातियों को साफ दिख रहा है कि सत्ता और सिस्टम में वर्चस्व रखने वाले मैतेई समुदाय को यदि उनके आरक्षण वर्ग में शामिल कर दिया गया तो उनके विकास की उम्मीद ही खो जाएगी। साथ ही मैतेई समुदाय भविष्य में अपनी ताकत और धन के बल पर उनकी जमीन भी छीन लेगा।

इस पूरे संघर्ष में जातीय घृणा के साथ राजनीतिक ताकत का असर तो है ही साथ ही इसका एक बड़ा कनेक्शन अफीम से भी है। आदिवासी जातियाँ जंगल के अंदर चोरी-छुपे अफीम की खेती करतीं हैं और बड़ा मुनाफा कमातीं हैं। आदिवासी समुदाय को डर है कि अगर एक बार मैतेई समुदाय उनके जंगल में प्रवेश कर गया तो ‘काले सोने’ का यह कारोबार ज्यादा दिन बच नहीं पाएगा। दूसरी ओर, पहले से ही अफीम उत्पादन के खिलाफ सरकार लगातार काम कर रही है। सरकार अफीम के धंधे को ख़त्म करना चाह रही है। फिलहाल अभी तो सिर्फ आक्रोश को दबाया जा रहा है पर सच्चाई यह है कि दमन के माध्यम से इस आग को बुझाया नहीं जा सकता है। बेहतर होगा कि सरकार दोनों वर्गों के साथ मिलकर इस विषय पर काम करे और बीच का कोई मुकम्मल रास्ता निकाले। सैकड़ों परिवार बिखर चुके हैं। उनका सब कुछ लूट चुका है। घर जलाए जा चुके हैं। इस हिंसा की पुनरावृत्ति ना हो, इसके लिए केन्द्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकार को मजबूत कदम उठाने होंगे ताकि आर्किड के फूल फिर से मुस्कुरा सकें और मुस्कुरा सके मणिपुर जो अभी मुश्किल में है।

4 COMMENTS
  1. बहुत सुंदर विश्लेषण
    एक जमाने में ऐसा ही विश्लेषण बीबीसी से प्राप्त होता था।

    बहुत सुंदर

    • बहुत बहुत शुक्रिया बी एन पासवान जी।

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