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गाँवनामा और पिता का शोकगीत काव्य संग्रह पर केंद्रित ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायेगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।’ आचार्य शुक्ल जी के निबंध ‘कविता क्या है’ में लिखी गयी इन पंक्तियों में कितनी सरलता से शुक्ल जी ने कविता की […]

गाँवनामा और पिता का शोकगीत काव्य संग्रह पर केंद्रित

‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायेगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।’

आचार्य शुक्ल जी के निबंध ‘कविता क्या है’ में लिखी गयी इन पंक्तियों में कितनी सरलता से शुक्ल जी ने कविता की आवश्यकता और कवि के दायित्व की बात कह दी है। हमारी वृत्तियों, युग परिवर्तनों इत्यादि का संपूर्ण ब्यौरा कविता विधा ने समय-समय पर दिया है। कविताओं के माध्यम से कई आंदोलन चलाए गये, कितनी ही प्रवृत्तियों की पहचान काव्य विधा के माध्यम से की गई। ‘मनुष्यता की मातृभाषा कविता’ है। समय-समय पर इसने अपने युग का प्रतिनिधित्व कर साधारण-असाधारण सभी को सचेत बनाए रखने का कार्य किया है।

अभी हाल ही में प्रकाशित प्रो. चंद्रदेव यादव की कविताएँ पढ़ने के बाद कविता के महत्व और ताक़त दोनों को पुनः महसूस करने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रो. यादव के दो काव्य संग्रह- पिता का शोक गीत और गाँवनामा में कुछ ऐसी अनुभूतियाँ दर्ज है, जो पाठक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित करेंगी और साथ ही लोकानुराग की गर्माहट से भी भर देंगी। वहीं पिता का शोक गीत में कुछ ऐसी कविताएँ जो न केवल समकालीन संगतियों-विसंगतियों का परिचय देती है बल्कि पूँजीवाद, बाजारवाद, विज्ञापन व्यवस्था, भ्रष्ट राजनीति तंत्र की तुरपन भी उधेड़ती हैं। कविताएँ अत्यंत सरल संप्रेषणीय भाषा में अपनी चिंताओं को पाठकों को सम्मुख रखती हैं। सरल भाषा होने के बावजूद कविताएँ अपने मंतव्य को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने में सफल होती है। दोनों ही संग्रहों पर विचार करने के बाद ऐसी बहुत कुछ था जो मस्तिष्क में देर तक टिका-बना रहा। एक पाठक के तौर पर मैंने कविताओं को पढ़ते हुए यह अनुभूत किया कि बड़े-बड़े मुद्दों के मध्य कुछ ऐसी मँझली-छोटी चिंताए भी होती हैं जिन पर विचार करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। गाँवनामा की कविताएँ कुछ ऐसी ही चिंताओं के साथ उपस्थित होती हैं। गाँवनामा शीर्षक ही बहुत ध्यानाकर्षित करता है। निक़ाहनामा, हलफ़नामा, पंचनामा, इक़रारनामा ये शब्द ऐसे शब्द हैं जो अपने अर्थों में ‘दस्तावेजी’ भाव को ग्रहण किए हुए हैं। अर्थात् गाँवनामा यानी गाँव का देखा, परखा-जाँचा, भोगा, महसूसा हुआ दस्तावेज। इस काव्य संग्रह को समझने की कुंजी है काव्य संग्रह की भूमिका। भूमिका इतनी विषय केंद्रित, सार गर्भित है कि मानों किसी ने कविता के खेत में जाने के लिए मिट्टी की सरपट, चिकनी मेढ़ बनाकर दे दी हो। कवि काव्य की विषयवस्तु पर संवाद करते हैं। न लंबे-लंबे वाग्जाल ना ही कोई अतिरिक्त सयानापन। गाँवों में क्या था, क्या है और क्या होना चाहिए इन्हीं तीन बिंदुओं पर कवि की चिंता केंद्रित है। भूमिका के आरंभ में ही कवि स्पष्ट कर देते हैं कि-

‘पता नहीं क्यों, गाँव इतनी रोमानियत के साथ मुझमें पैवस्त है? न तो मैं उससे अलग हो पाता हूँ और ना ही वो मुझसे दूर जा पाता है। लेकिन मैं इतना भी ‘नास्टालजिक’ नहीं हूँ कि बंदरिया की तरह मुर्दा गाँव को अपने सीने से चिपकाये घूमता फिरूँ। गाँव की जो विसंगतियाँ हैं, उनकी ओर उँगली उठाना मेरा सृजनात्मक दायित्व है। विसंगति का अर्थ विकास नहीं होता और विडंबना किसी भी स्वस्थ्य समाज की आदर्श स्थिति नहीं। इसलिए गाँव जब कराहता है तो मेरा दिल रोता है और जब वह हँसता है तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता है। यह तादात्म्य-बोध उसी को हो सकता है, जो मेरी ही तरह गाँव से जुड़ा हुआ होगा। इसलिए मैं यह कहने से बचता हूँ कि ‘तोहरी बरफी से नीक मोर लबाही मितऊ’ अर्थात् मेरा अधसूखा गन्ना तुम्हारी बरफी से अच्छा है। हाल फिलहाल तो मैंने यही महसूस किया है कि ‘गाँव का जीवन अधउजड़े उपवन जैसा है।’ इतने स्पष्ट रूप से उन्होंने गाँवों की बनती- बिगड़ती स्थिति पर ईमानदारी से लिखना अपने नैतिक दायित्व हिस्सा माना है। अपने इस दायित्व को वह अत्यंत निष्ठापूर्ण होकर निभाते भी हैं। जहाँ एक ओर वह अपने और गाँव के मध्य रची-पगी संबंधों की मधु स्मृतियों को आवाज देते हैं तो वहीं ‘कृति’ को ‘विकृति’ में तब्दील होता देख गहरे क्षोभ और दुख से भी भर जाते हैं। गाँवों की वर्तमान बदहाली के कारणों की पड़ताल भी करते हैं। गाँव की स्मृतियों से बाहर न आने वाले कवि की दृष्टि में भी आज के गाँवों में हुए कथित विकास का सत्य ‘डाल-पात रहित तने जैसा है।’ अर्थात् सूखा, निचाट, नंगा ठूँठ। न छाया का न फल का न चिरई-चुरंग का ना ही सावन के झूलों का। ऐसा विकास किस काम का? कवि आज के कथित विकसित गाँवों की तुलना में अपनी स्मृतियों को बड़े प्रेम से स्नेहसिक्त होकर याद करते हैं-

गाँव में मैंने गाँव को देखा

शरत्काल को ताल सरीखा

अमल-धवल दरपन सा दीखता

नील गगन से धीरे-धीरे

उतरे सजल भोर की लाली

थिरक उठे तरू पल्लव डाली।

‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ जैसी कविता का बोध लिए यह कविता अलगे ही पल ग्राम्य जीवन के एक नग्न, रूक्ष यथार्थ को विश्लेषित करने लगती है उदाहरण देखिए-

पिछड़े और गरीबों का तो

जीवन था पहाड़ सा दुर्गम,

अगड़ों में ज्यादा थे निमर्म।

निम्न जातियाँ नरक भोगतीं

दाना-पानी सब सपना था

कहने को समाज अपना था।

जाति व्यवस्था, गरीबी, भेद-भाव, अश्पृश्यता, दमन और शोषण के कुचक्रों में पिसता आम ग्रामीण जीवन गाँवों की सुंदरता और आत्मा का चीर हरण कर लेते हैं। गाँव ही शोषण की आरंभिक इकाई के रूप में कार्य करने लगते हैं। कवि की पंक्तियों को पढ़ते हुए क्या आपकों ‘मैला आँचल’ में बसे मेरी गंज के जातियों में बँटे समुदायों की याद नहीं आती? तंत्रिमा टोली, क्षत्रिय टोली, राजपूत टोली, कायस्थ टोली, यादव टोली…… इन टोलियों ने गाँव में अराजकता की विषबेल बो दी है। इन्हीं परिस्थितियों में-

दाना-पानी सब सपना था,

कहने को समाज अपना था।

[bs-quote quote=”गाँवों की बनती- बिगड़ती स्थिति पर ईमानदारी से लिखना अपने नैतिक दायित्व हिस्सा माना है। अपने इस दायित्व को वह अत्यंत निष्ठापूर्ण होकर निभाते भी हैं। जहाँ एक ओर वह अपने और गाँव के मध्य रची-पगी संबंधों की मधु स्मृतियों को आवाज देते हैं तो वहीं ‘कृति’ को ‘विकृति’ में तब्दील होता देख गहरे क्षोभ और दुख से भी भर जाते हैं। गाँवों की वर्तमान बदहाली के कारणों की पड़ताल भी करते हैं। गाँव की स्मृतियों से बाहर न आने वाले कवि की दृष्टि में भी आज के गाँवों में हुए कथित विकास का सत्य ‘डाल-पात रहित तने जैसा है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जैसी पंक्तियाँ जिंदा मिसालों का काम करती है। संग्रह ऐसी अनगिनत भावनाओं से सजा हुआ है जिन्हें हम साहित्य में मर्मस्पर्शी कहते हैं। लेकिन वहीं पर कुछ ऐसे-ऐसे कटु यथार्थ भी है जो गाँव घूमने का मजा किरकिरा कर देते हैं। लेकिन प्रेमचंद ने भी तो कहा है कि क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे? उसी तरह कवि भी भूमिका में ही स्पष्ट कर देते हैं कि वह गाँव के प्रति ‘मोह’ में तो हैं लेकिन ‘मोहग्रस्त’ नहीं हैं। ‘मेरी स्मृतियों में गाँव’ शीर्षक कविता में उन्होंने साहित्य में गाँवों की परंपरा का बहुत खूबसूरती से उल्लेख किया है। वह इस कविता में प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ते हुए उसे अपनी अनुभव संपदा तक कुशलता से ले आते हैं-

प्रेमचंद के जान निहारे

तुमको कहते रहे। बिचारे।

एक पीढ़ी के बाद रेणु ने कहा

कि ‘मैला आंचल है तेरा

तुमको विपदा ने घेरा।

छिटपुट कई लोगों ने तेरी गाथा गाई,

मैंने भी तुमको देखा है

शिद्दत से महसूस किया है,

अधनंगे रहकर पूस जिया है

गिरते-पड़ते साथ में तेरे

तुमको चाहा, तुमको कोसा

फिर भी तुमने मुझको पोसा।।

गाँव अपने ‘मनई को चीन्हता है। शहर बिना पद बिना ‘डेसिंगनेशन’ के लोगों को नहीं पहचानता। जबकि गाँव अपनी मिट्टी में खेले बच्चों, अपनी नदियों में छपाछप धमाचौकड़ी करती, बर्तन माँजती तरुणियों को, गाय चराते चरवाहों के गीतों को अपने कंठ में रोककर रखता है। करोना जैसी महामारी में महानगर महीने दो महीने भी उन मजदूरों, श्रमिकों का भरण-पोषण नहीं कर पाये। ये वही श्रमिक है जो महानगरों की सड़कों, बिल्डिंगों को चमकाते हैं। इनके उद्योगों को अपने फेफड़ों की हवा देकर जिलाए रखते हैं। महामारी के दौरान हम सबने प्रवासी मज़दूरों के हुजूम के हुजूम देखें जो अपने गाँवों की ओर लौट रहे थे। सुविधा संपन्न शहरों का कलेजा इतना बड़ा नहीं निकला कि विपत्ति काल में इन गरीबों का सहारा बन सके। वहीं विपन्नता और साधनहीन, गाँवों ने ऐसे कठिन समय में उन मजदूरों का खुली बाहों से स्वागत किया। उन्हें वही प्यार, वही ममता और वही आश्वासन दिया जो एक संरक्षक देता है।

[bs-quote quote=”सरल लभ्य मनोरंजन से मिली एक सेंसरहीन मौज ने मासूम प्रेमाभिव्यक्तियों को काम कुंठित और रूग्ण बना दिया है। पहले विवाह गीतों में मंगल गीत अनिवार्य होते थे। ग्रामीण महिलाओं के कंठ उन लोक गीतों का ‘इनसाइक्लोपीडिया’ होते थे। किंतु धीरे-धीरे डीजे संस्कृति के शोर ने लोक की मधुर ध्वनितानों को अपने कानफाडू शोर के नीचे दबा दिया है। विवाह गीत अब भी हैं लेकिन अब उनके मर्म को समझने वाले श्रोता खत्म होते जा रहे हैं। ‘गँवई’ कहलाना या ‘गँवई’ रूप में पहचाने जाना यह दोनों ही स्थितियाँ अब लज्जा का भाव उत्पन्न करने लगी हैं। पोशाक की आधुनिकता और मानसिकता की संकीर्णता का अद्भुद ‘दुर्योग’ अब कहीं भी सरलता से देखने को मिल सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेखक को निरंतर विलीन होती लोक संस्कृति की भी गहरी तड़प के साथ चिंता है। संग्रह की भूमिका में लेखक ‘लोक संस्कृति’ के क्षरण पर गहरी चिंता व्यक्त करते हैं- ‘पूँजीवाद और बाजारवाद ने गाँवों की सादगी के साथ-साथ उसके निस्वार्थ प्रेम, भाईचारा, करुणा और सहानुभूति जैसे भावों का श्राद्ध कर डाला है। पापुलर कल्चर ने उसकी सहजता, सरलता और उसके सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट कर डाला है। लोक साहित्य, लोक नाटक, लोक कला, लोक संगीत के साथ-साथ लोक भाषा भी दम तोड़ती जा रही है। उनकी जगह फूहड़ गीत संगीत का प्रचार हो गया है। गाँवों का किंचित भौतिक विकास उसकी कोमलता को लील गया है।‘ कवि ने लोक संस्कृति के नष्ट होने की चिंता को कविता में बड़ी सुंदरता से उतारा है-

गीत गवनई, नाच-तमाशा

हार गए फिल्मों से सारे

इनको फिर से कौन उभारे?

लोक मंच सूना-सूना है-

नौटंकी की उठ गई अर्थी

फैले फूहड़ गीत द्विअर्थी।

गाँव में पहले गाँव समाज का एक मंदिर हुआ करता था जहाँ दिनभर के थके-हारे लोग एकत्रित होकर कीर्तन किया करते थे, सुख-दुख बाँटा करते थे। व्रत-उपवास का आरंभ और पारायण एक साथ करते थे। इन सबसे एक आपसी सौहार्द तो विकसित होता ही था साथ ही एक साथ बोल बतिया लेने से उनके श्रम का भी विरेचन हो जाता था। इसी सामूहिक श्रम विरेचन पद्धति को मोबाइल संस्कृति ने अपदस्थ कर दिया है। चौबीसों घंटे कान में ईयर फोन ठूँसे रखने वाले युवाओं ने अपने आस-पास के परिवेश से खुद को काट लिया है। या यूँ कह सकते हैं कि कट गए हैं। अब किस्सा, कहानियों, बूझा-बूझौवल, चैती, कजरी, पचरा की जगह झुमका-झुलनियाँ, चोली-बटनियाँ जैसे फूहड़ द्विअर्थी कामोत्तेजक गीतों का सिक्का जम चुका है। इस सरल लभ्य मनोरंजन से मिली एक सेंसरहीन मौज ने मासूम प्रेमाभिव्यक्तियों को काम कुंठित और रूग्ण बना दिया है। पहले विवाह गीतों में मंगल गीत अनिवार्य होते थे। ग्रामीण महिलाओं के कंठ उन लोक गीतों का ‘इनसाइक्लोपीडिया’ होते थे। किंतु धीरे-धीरे डीजे संस्कृति के शोर ने लोक की मधुर ध्वनितानों को अपने कानफाडू शोर के नीचे दबा दिया है। विवाह गीत अब भी हैं लेकिन अब उनके मर्म को समझने वाले श्रोता खत्म होते जा रहे हैं। ‘गँवई’ कहलाना या ‘गँवई’ रूप में पहचाने जाना यह दोनों ही स्थितियाँ अब लज्जा का भाव उत्पन्न करने लगी हैं। पोशाक की आधुनिकता और मानसिकता की संकीर्णता का अद्भुद ‘दुर्योग’ अब कहीं भी सरलता से देखने को मिल सकता है। कवि का ध्यान इस ओर भी गया है। अपनी एक कविता को कवि ने इन्हीं छिछली मानसिकता वालों को समर्पित किया है। देखें-

गाँव गया पिछले जाड़े में।

देखा बदला रंग-ढंग सब

मिले यहाँ सब-कुछ भाड़े में।

‘शहरी बाना गाँव में देखा।

खान-पान-अभिवादन बदला

बाप-पूत सबका मन गँदला।

मरदाना का भेष जनाना,

पेरिस और पटना इक जैसे

मगर विचार न पेरिस जैसे।

भारतीय ग्रामीण जीवन के सजग कवि चंद्रदेव यादव

पाश्चात्य की संस्कृति की जीरॉक्स कॉपियों में बदलते युवा अपनी पहचान और जड़ों से आँख चुराने लगे हैं। क्या यह राष्ट्र के वास्तविक उत्तराधिकारी हो सकते है? ‘शहरी नाला गाँव में देखा’ कविता के माध्यम से कवि यही प्रश्न पूछता है।

गाँवों में बढ़ती हिंसा पर भी गहरी चिंतापरक दृष्टि कवि डालते हैं। गाँव के पास ही तो प्रेम की फसलें बची थीं। मटर के ताजे दानों सी कोमलता बची थी। शहर तो पहले से ही प्रतिस्पर्धा, राजनीति, कपट, अकेलेपन की चिमनियाँ सुलगाकर बैठे हैं। ऐसे में शहरी घृणा, रक्त पात हिंसा की घटनाओं में दिनों-दिन होती  बढ़ोत्तरी चिंतित करती ही है। अब गाँवों के पास भी अपनी पीढ़ियों को देने के लिए केवल हिंसा है, प्रतिशोध और घृणा है। वृद्धों की उपेक्षा, भाई-पट्टीदारों की लड़ाइयाँ, थाना-कचहरी पुलिस के झंझटों-पचड़ों में ग्राम्य जीवन का सुख-संतोष जाने कहाँ बिलाता जा रहा है? पिछली होली में मधुबनी के मुहम्मदपुर की नरसंहार की घटना को ही याद करें तो उपरोक्त बातों की पुष्टि स्वतः हो जाती है। ऐसे में गाँवों में बढ़ती हिंसात्मक संस्कृति को कवि बड़ी मजबूती से रेखांकित करता है-

उलटी बही बयार, शोर है-

मारो, काटो, लूटो, पीटो

इसे भगाओ उसे घसीटो।

खून के दाग खून से धोते

कब तक बर्बरता नाचेगी

पीढ़ी कौन ‘प्यार बाँचेगी।

एक दूसरे की खातिर सब

तपता लोहा बने हुए हैं

बिला वजह ही तने हुए हैं।

इसी चिंता के साथ कवि मनुहार भी करता है। छींजती मानवता को पुनर्जीवित करने का एक सामूहिक आह्वाहन भी करते हैं-

चल मितवा, फिर गाँव चले हम

मरते गाँव को हम न छोड़े

नेह-नात को फिर से जोड़े।

यह जो ‘नेह-नात’ है नेह का संबंध है यहीं गाँवों की और हमारे जीवन का नाभि अमृत है। यही तत्व हमें मानवीयता के भाव के साथ वह जीवन जीने की प्रेरणा देगा जिस पर हम गर्व कर सकें। ओछी राजनीति का अड्डा, जाति-पाति की संडाध, दाजा-हेसी की प्रतियोगिता और विकास के चिह्न, शहर का जीवन जीने की अभिलाषा इन सब घुली-मिली परिस्थितियों को कवि ने कलम- ब-कलम पंक्तियों में ढाला है। गाँवों की सच्चाई को बिना किसी कोरे महिमामंडन के पाठकों के सम्मुख रखा है। जहाँ एक ओर गाँवों के बिगड़ते हुए हालात पर लिखते हैं। वहीं पर घर वापसी की बात भी लिखते हैं। आज के समय की सच्चाइयों और क्रूर यथार्थ से परिचित होते हुए भी कवि मनुष्यता और संवेदनाओं से बचाव का रास्ता गाँव से जुड़े रहने में अपनी जड़ों से जुड़े रहने में ही देखते हैं। गाँव की बदलती रंगत, लुप्त होता लोकानुराग, भोंडी फैशन परस्ती के विश्लेषण के साथ ही इस संग्रह में साम्प्रदायिक सौहार्द जैसी बड़ी और सहिष्णु भावना पर कवि अपनी लेखनी चलाते हैं। वर्तमान समय में गाँवों में फैली राजनीति और घृणा के संक्रमण को वह अपनी बचपन की साम्प्रदायिक सौहार्द वाली स्मृतियों से धूमिल करने की सार्थक कोशिश करते हैं। अपनी कविता ‘अब वे हैं यहाँ पराए’ में वह लिखते हैं-

सुलेमान, अनवर और बासू

बुद्धु, अल अहमद, अनवारू

मुंशी और दरोगा, दासू

ये सब हेली-मेली मेरे

इनसे बचपन से नाता है

इनका राग हमें भाता है।

एक पाँव पर रहते ठाढे़।

संग में रटते हुए पहाड़े।

चूड़िहार, रंगरेज, थे चिकवे,

नाई, दर्जी, जोलाहा, धुनिया

इनकी मेरी जुड़ी थी दुनिया।

कवि ने अपने बचपन की स्थितियों से अब की स्थितियों को अधिक कुंठित बताया है। भारत जिसकी आत्मा को सभी धर्मों और समुदायों ने मिलकर पोशा है। लेकिन वर्तमान समय की परिस्थितियों में सांप्रदायिकता की ऐसी विषबेल फली-फूली है कि उसके ज़हर को आज हम सब महसूस कर सकते हैं। सांप्रदायिक विषयों के साथ ही जाति व्यवस्था पर भी गहरी टिप्पणी अपनी कविता ‘इतिहास चीख कर बोला’ में की गई है। बानगी देखिए-

प्रेरित हो जाति उद्धारक से

नेता या फिर किसी और से;

दलित जगे देखा था गौर से;

हम हैं जहाँ, वो क्यों है अब तक?

हम सदियों से गए सताए,

आगे हम क्यों न बढ़ पाए?

इन्हीं ‘प्रश्नवाचक’ चिह्नों के साथ कवि जाति उद्धारकों अर्थात् अंबेडकर, फुले’ पेरियार, ललई, मंडल उन सभी समाज सुधारक योद्धाओं के प्रति नत-कृतज्ञ है। जिनके परिश्रम और संघर्ष के कारण दबी, पिछड़ी, वंचित जातियों में विचार की धार पनपी। अपने ‘हत’, पराजित, शोषित, अपमानित जीवन को सुधारने-बनाने की दृष्टि मिली। आगे वह सुधार की इस प्रक्रिया को भी उसी कविता के माध्यम से चित्रित करते हैं-

किया फैसला मिलकर सबने

‘सउर-कर्म’ को फिर तब छोड़ा

नार-कटाई से मुख मोड़ा।

जी हाँ, जी हाँ करना छोड़ा

फिर सबने छोड़ी हलवाही,

बोली, बोल-बोल कचराही।

ठाकुर-बाभन का काम छोड़

वेs बाहर आ गए कमाने को,

अपनी औकात बताने को।

ऐसी ही एक कविता ‘दस-पाँच साल का हाल सुनें’ शीर्षक से हैं, जो अपनी काव्यवस्तु में गाँवों में पनपती राजनीति कुछ किसान परिवारों का समृद्ध हो जाना, कुछ का संसाधन के अभाव में अपने जीवन को ढोते जाने का हाल बयां करती है। इस कविता के अंतिम हिस्से में कवि अपने उस गाँव को याद करता है जिसने उसके श्रम को धार दी। उसे जीने और जूझने का हौसला प्रदान किया।

‘बनवारी’ और ‘सुगम सिंह’ जैसे कविताओें को संग्रह में सम्मिलित कर मानों वह रही-सही कसर भी पूरी कर लेना चाहते हैं। इन पात्रों के माध्यम से कवि हाशिए पर पटक दिए गए पात्रों की वर्तमान परिस्थितियों में झाँकने की एक कवितात्मक खिड़की तैयार कर देते हैं। ‘बनवारी’ कविता में बनवारी की तर्कशीलता, साहस और अकाल मृत्यु ये तीनों ही इस कविता को जीवित करती हैं। किस प्रकार कुचक्रों का शिकार होकर एक साधारण अपार क्षमताओं वाला किसान मर जाता है। भैरों और बनवारी के संवाद सुनकर, ‘बनवारी’ के भोलेपन को देखकर ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ की याद अनायास ही हो उठती है। ‘सुगम सिंह’ कविता भे प्रेम के दंड और जाति बहिष्कार और ठगे जाने के वृत्तांत को गहराई से संप्रेषित करती है। ‘फुलवा’, धनीराम जैसी- चरित्र-प्रधान कविताओं का अपना एक सौंदर्य दिखता है। जहाँ ‘फुलवा’ चरी काटने जाती है और बड़ी जांबाजी से बिस्सू सिंह को बहस में हराती है वहीं ‘धनीराम’ इतना सीधा चरित्र है कि अपना नाम भी भूल जाता है। वह इतना सीधा है कि अपने भाईयों द्वारा ही ठगा जाता है। एक स्थान पर धनीराम कहता है-

नहीं जानता सोना-चाँदी

जानू में बस गोबर माटी।

इस देश में धनीराम जैसे करोड़ों चरित्र हैं जिन्हें ये पता नहीं है कि सरकारें उन जैसों की स्थिति सुधारने के नाम पर वोट की राजनीति करती हैं। उन्हीं के नाम पर घोटालों और भ्रष्टाचार का कारोबार फल-फूल रहा है। धनीराम जैसे चरित्र अपने नून-रोटी के जुगाड़ में ही इतने खपे रहते हैं कि उन्हें अपने अधिकारों और राष्ट्रीय विकास की रफ्तारों से कोई सरोकार नहीं होता।

संग्रह की आखिरी कविता ‘मैं भी उस गाँव का हिस्सा’ सूरे भिखमंगे को निवेदित की गयी है। इस कविता में कवि और सूरे भिखमंगे का संवाद है। देखें-

दिखा वही ‘सूरे’ भिखमंगा,

परिचित मेरा जाने कब का,

हेली-मेली था वो सबका।

कवि- पेशा बड़ा अधम है यह तो,

गरल रोज तुम क्यों पीते हो?

मुफ्तखोर बनकर जीते हो।

सूरे-      भीख मांगना अधम कर्म है

लेकिन यह चाकरी से अच्छा!

इसको ऐसे समझो बच्चा!

छोटे-मोटे कास्तकार हो

या मज़दूरों से हम बेहतर

जीते ना हम पेट काटकर।

[bs-quote quote=”उजड़ ग्राम का संगीत सुनना हो तो पिता का शोक गीत संग्रह की मेरी इन कविताओं को पढ़ सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि, मेरी संवेदना से जुड़कर आप गाँव की इस बदहाली को महसूस कर सकते हैं।‘ कवि के इस विश्वास पर विश्वास किया जा सकता है। क्योंकि जैसे-जैसे आप कविता दर कविता पढ़ते जाऐंगे वैसे-वैसे कवि की विचारणीय समस्याओं से भी सहमति बनाते जाऐंगे। इस संग्रह में आकार दृष्टि से छोटी-बड़ी कुल मिलाकर चालीस कविताएँ संग्रहित हैं। सबकी अपनी ध्वनि, अपना रूप, अपना मिजाज और अपना मनोविज्ञान है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सूरे भिखमंगे के इस उत्तर को सुनकर मुझे कफ़न कहानी के संवाद की अनायास ही याद हो आती है जहाँ वह लिखते हैं कि, ‘जिस समाज में दिन-रात मेहनत करने वालों की हालत भी हमसे कुछ अधिक अच्छी न थी और किसानों के मुक़ाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, अधिक संपन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी।’ सूरे भिखमंगा इस मनोवृत्ति की अगली कड़ी का चरित्र है। यानी वंचित के लिए न कभी-कुछ बदला था न बदलेगा। इन्हीं सारे अनुभवों, चिंताओं, स्मृतियों, आग्रहों, निवेदन और फटकार के भावों में रचा-पगा संग्रह न केवल बेहतरीन है बल्कि वर्तमान ग्राम्य त्रासदियों की गवाही भी देता है। कवि ने इन सब अनुभवों को गाँठ-गठरी में बाँधकर अपने गाँव के बहाने से सभी गाँवों के मौजुदा हालातों पर अपनी ‘दायित्व’ पूर्ण चिंताएँ व्यक्त की हैं। संग्रह की एक भी ऐसी कविता नहीं हैं जो पाठक को ‘रिलेटेबल’ न लगे। यह संग्रह न केवल पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है। भाषा इतनी सरल है कि ‘तरल’ की भाँति मनोविचार पर फैलने लगती है। ‘त्रिपदियों’ का प्रयोग भी कवि ने अत्यंत सावधानी से किया है। ढेरों-ढेर आंचलिक शब्दों से अपने भाव गढ़े हैं। पाठक उन शब्दों के अर्थभाव को सरलता से ग्रहण कर सकें इसके लिए; काव्य संग्रह के अंत में कविता में आये आंचलिक शब्दों को अर्थ सहित बताते हुए; एक संक्षिप्त-सा आंचलिक शब्दकोश भी दिया गया है। पूरे संग्रह से गुजरने के बाद आप ‘खाली हाथ’ लौटे हैं- ऐसा बिल्कुल नहीं लगेगा। बल्कि आपका गँवई मन-सरसों, तीसी, रहिला, लासा और ग्रामीण मिट्टी की सोंधी- सुंगध लेकर लौटेगा। बिल्कुल हरा-भरा, टटका और स्निग्ध।

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‘पिता का शोक गीत’ प्रो. चंद्रदेव यादव का दूसरा काव्य-संग्रह है, जो समकालीन स्थितियों की सघन पड़ताल करता है। इस संग्रह की कविताओं का ‘फ्लेवर’ और ‘तेवर’, ‘गाँवनामा’ से भिन्न है। लेकिन उद्देश्य एक ही है सामाजिक सरोकार, आम जनता, भूमंडलीकरण के पंजे, बाजारवाद में घुलती-ढ़लती पीढ़ियाँ और सब कुछ जो भी श्रेष्ठ है उसके मिटने का भय। ‘पिता का शोक गीत’ संग्रह की दो बड़ी विशेषताएँ हैं। पहली इसकी अंर्तवस्तु की कसावट और दूसरी भाषा की बेबाकी। यह केवल पिता के या पिता के प्रतीक में किसी राष्ट्र, प्रदेश या भूखंड का शोक नहीं है बल्कि समसामयिक समस्याओं, चिंताओं की ‘कोरस’ पुकार है। इसे पिता-पुत्र के (प्रतीकात्मक) संवाद की तरह मैं नहीं देखती। यह एक पुत्र का अपने पिता से ‘स्वगत’ संवाद है क्योंकि पिता अचेत या यूँ कहिए तो मृतप्राय है। पुत्र उसी मृतप्राय अचेत पिता को बार-बार संबोधित करते हुए पिता की जीवट, कर्मठता को याद करता है। प्रो. चंद्रदेव यादव जी ने इस संग्रह की भूमिका का नाम ही ‘उजड़ ग्राम’ अंग्रेजी कवि गोल्ड स्मिथ की कविता डेजर्टेंड विलेज के शीर्षक को कवि ने मौजूदा गाँवों के अस्तित्व के लिए चुना है। संग्रह की भूमिका में वह लिखते हैं-

‘इक्कीसवीं शताब्दी में शहरी लोगों को भौतिक रूप से गाँवों में सुख-समृद्धि दिखाई दे सकती है, इसे व नहीं समझ सकते। ईर्ष्या-डाह और स्वार्थलोलुपता ने गाँववालों को दुर्मति और क्रूर बना दिया है। गाँवों में सामाजिक सद्भाव और सहभाव अब सपना हो गए हैं। ओछी राजनीति का शिकार गाँव का हर व्यक्ति अपने को कौटिल्य समझने लगा है। गाँव शहर का उच्छिष्ट लगने लगे हैं। वे उजड़ गए हैं। इस उजड़ ग्राम का संगीत सुनना हो तो पिता का शोक गीत संग्रह की मेरी इन कविताओं को पढ़ सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि, मेरी संवेदना से जुड़कर आप गाँव की इस बदहाली को महसूस कर सकते हैं।‘ कवि के इस विश्वास पर विश्वास किया जा सकता है। क्योंकि जैसे-जैसे आप कविता दर कविता पढ़ते जाऐंगे वैसे-वैसे कवि की विचारणीय समस्याओं से भी सहमति बनाते जाऐंगे। इस संग्रह में आकार दृष्टि से छोटी-बड़ी कुल मिलाकर चालीस कविताएँ संग्रहित हैं। सबकी अपनी ध्वनि, अपना रूप, अपना मिजाज और अपना मनोविज्ञान है। इन कविताओं में ऐसा कुछ नहीं है जो हम नहीं जानते लेकिन ऐसा बहुत कुछ है जिनसे हम उस तरह से संवेदित नहीं हो पाते जिस तरह से कवि होता है। संग्रह की शीर्षक कविता बहुत ध्यान खींचती है। जीवन के अनुराग को सौंदर्य को तभी महसूस किया जा सकता है। जब उसकी नरम अनुभूतियों को अनुभूत करने वाला मन मौजूद हो। गाँव के गौरव, प्रेम, नरमाई, चिकनाई को महसूस करने वाले मन या तो पलायन धर्मी हो रहे हैं या तो गाँव में रहकर शहरी दिखाने के हठ आग्रह के साथ जी रहे हैं। ऐसे में गाँव की आत्मा और अस्तित्व एक ऐसी दृष्टि की प्रतीक्षा में हैं जो उसके महत्व और दाय को स्वीकार कर सके। इसी भावना को कविता में ढालकर कवि लिखते हैं-

जैसे उतर जाता है

उकठे पेड़ का बोकला

जैसे दाना छिटक जाने पर

ऐंठ जाती हैं मटर की छीमियाँ

उसी तरह खोकर-

सादगी और भाईचारा

‘नई हरीतिमा’ में बेसुध हो गए हैं गाँव।

पिता के बहाने से कवि पूरे भूखंड को संबोधित करता है। पिता के प्रति कृतज्ञ होते हुए कृतघ्नता का (गाँवों की उपेक्षा का) एक लंबा वृतांत कवि भावुक होकर सुनाता है। कुछ प्रश्न भी करता है-

वक़्त-वक़्त की बात है पिता।

मगर यह क्या,

एक बार चर जाने के बाद तुमने

फिर क्यों नहीं बोई

करुणा, क्षमा और मोहब्बत वाली फसलें

निश्छलता और सरलता की

उजड़ती बाड़ों की क्यों नहीं की मरम्मत?

तुम्हारे मन में जवा कुसुम खिलता था

झड़ते-थे पराग और खुशबू

बिखर जाती थीं दसों दिशाओं में

किस आँधी में उड़-फुड़ गया?

इन सभी प्रश्नों पर जीर्ण-शीर्ण पिता मौन है और भावुक संतति पिता की वर्तमान परिस्थिति और मौन को देख गहरे शोक में डूबी है। अतीत की चिंताओं के साथ-साथ कवि वर्तमान संकटों से भी पिता को अवगत कराता है। लेखक की सहज शैली इतनी संप्रेषणीय होती है कि- शब्द संयोजन व संचयन में लगने वाली मेहनत का अनुमान पाठक नहीं लगा पाता। जितनी सुघड़ता से पंक्तियों में मुहावरों का प्रयोग कवि करता है वह प्रभावित करने योग्य है। जैसे-

मेरे बूढ़े पिता, पहले की बात छोड़ो

अब नहीं मिलती लाठी वाले को भैंस

यह तो क़लम का जमाना है

कलम की नोंक पर हम हैं, तुम हो

जानते हैं ओले पड़ने हैं, फिर भी

सिर मुड़ाना है।

यहाँ पर वर्तमान परिस्थितियों की व्याख्या के लिए कवि ने कितनी सरलता से- जिसकी लाठी उसकी भैंस और ‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने’ जैसे मुहावरों का प्रयोग काव्य पंक्ति पूरा करने के लिए करते हैं। यह पूरी कविता ही बीते और आनेवाले समय का आख्यान है। प्रो. दयाशंकर त्रिपाठी जी ने प्रो. चंद्रदेव यादव जी की काव्य कला और कविताओं की प्रासंगिकता पर बहुत ही मूल्यवान बात कही है। वह कहते हैं कि- ‘‘इन कविताओं में पिछले दो दशकों की यात्रा है। इन वर्षों में किसानों, मजदूरों और छोटे व्यापारियों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी है। वे पहले से अधिक पायमाल हुए हैं। मौजूदा समय में पलायन, विस्थापन और आत्महत्या उनके लिए बड़ी बात नहीं है। राजनेता, माफिया, भ्रष्ट प्रशासन और बहुतराष्ट्रीय कंपनियों की मिलीभगत ने उनके सपनों को दुःस्वप्न में बदल दिया है।

खेत रोते हैं तो किसान रोता है।

हर बार वह खुशी बोता है

और दुख काटता है।

सामान्यीकरण के बावजूद चंद्रदेव जी का निष्कर्ष सही है कि-

विकास की सीढ़ियाँ चढ़ते

लौट रहे हैं हम आदिम स्वभाव की ओर।

वह यह भी देख पाते हैं कि नदियाँ और पहाड़ विकास की गणित के कारण मरणासन्न है। चंद्रदेव यादव ने अपनी कविताओं में मौजूदा स्थितियों के प्रति असंतोष, आशंका, नफरत, क्षोभ, गुस्सा, उदासी के बावजूद आशा, चाह, आकांक्षा और संकल्प को भीतर बचाए रखा है। वे जानते हैं कि राजनेता और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ मध्यवर्गीय शक्तियों से अधिक ताकतवर हो गए हैं।’’ (संग्रह फ्लैप पर उद्धृत) विज्ञापन की बढ़ती संस्कृति किस प्रकार छोटे व्यावसायियों को मोह रही है यह कोई नयी बात नहीं। लेकिन कैसे- वह आवश्यकता की जगह स्वप्न बनती जा रही है यह बात ‘कैलेंडर’ कविता बड़े मजेदार ढंग से बताती है-

जूते चप्पल और बरतन-भांडे वाले

कुछ और कैलेंडर थे

मगर उनमें नहीं था तो गाय-भैंस

और सब्जी-तरकारी वाला कैलेंडर

खदेरन से रहा नहीं गया, तो पूछा

‘मगरू’ और बल्ली सरदार के

इतने बड़े-बड़े खटाल हैं बनारस में

क्या हरवाह-चरवाह नहीं छपते कैलेंडर में?

अब किंडल पर भी उपलब्ध :

यह कविता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ‘टारगेट उद्योग’ की तरफ सीधा अंगुली उठाती है। खटालों से मिले घी, पनीर, छाछ को फैंसी नामों में चिकने क़ागजों पर बड़े-बड़े अक्षरों में छापा जाता है। उन पर पंच लाईनें और जिंगल्स लिखे जाते हैं; लेकिन उन खटालों-खटाल मालिकों का जिक्र न चित्रों में होता है न उत्पाद के डब्बों पर, जो चमकीला और लुभावना है बाज़ार वहीं बेचेगा। उसके पीछे के ‘श्रम’ को बाजार ‘ओवर लुक’ करता आया है और करता रहेगा। यही बाज़ार का चरित्र है। लेकिन साहित्य का चरित्र व्यक्ति के श्रम, संघर्ष और संवेदना को सम्मुख लाना होता है। संभवतः यही कारण है कि हम इन विषयों पर कविता, कहानी आलोचना जैसी विधाओं के माध्यम से सत्य की गहन पड़ताल करने में सक्षम हो पाते हैं। गाँवों के बदलते परिवेश पर संग्रह की भूमिका में ही प्रो. चंद्रदेव यादव बड़ी अच्छी बात लिखते हैं। वह लिखते- ‘‘गाँवों को भोलेपन के प्रतिरूप में देखना शायद उसे बैलगाड़ी युग में देखना हो सकता है, लेकिन मेरा ऐसा आग्रह नहीं है। दरअसल प्रेम, भाईचारा, मिलन-सारिता, सादगी, सौहार्द और सीधेपन जैसे कई सामाजिक और मानवीय मूल्यों की कल्पना पुराने गाँव से की जा सकती है। नये गाँव इतना बदल गये हैं कि गाँवों और शहरों में कोई अंतर नहीं रह गया है। गाँवों ने तरक्की की है। वहाँ आर्थिक समृद्धि दिखाई देती है। गाँवों में और भी बहुत से बदलाव देखे जा सकते हैं, किंतु जिस तरक्की ने गाँव के आदमी को आदमी नहीं रहने दिया है, उस तरक्की से क्या फायदा? प्राण बिना पार्थिव शरीर किस काम का होता है? घर से बाहर निकलते ही गाँवों में एक तरह के परायेपन का बोध होता है। यहाँ लोग बड़ी लकीर को छोटा करके छोटी लकीर को बड़ा बनाने में लगे हुए हैं।’’ लेखक ने बिल्कुल सही प्रश्न पूछे हैं। आखिर यह किस किस्म का विकास है जो पोशाक, प्रसाधन, रंग-ढंग पर जितना प्रभावी असर छोड़ता है उतना कुरीतियों, कुसंस्कृति, पिछड़ी मान्यताओं और विचारों पर नहीं? पुरानापन, कड़वाहटें, जाति, लिंग, धर्म और पितृसत्ता की असमानताएँ जस की तस पड़ी रहती हैं। इस कथित आधुनिकता अथवा विकास का असर इन मुद्दों पर क्यों नहीं दिखता? आज भी अधिकारों की आवाज़ साधारण देहाती आदमी से कोसों दूर है। कवि लिखता है कि-

संसद दूर है खेतों से

विधान सभाएँ दूर हैं सीवानों से

हमारे भाग्य विधाता जिंदा हैं धनवानों से;

खेते रोते हैं, तो किसान रोता है

हर बार खुशी बोता है और दुःख काटता है, मगर

उसका दुःख कौन बाँटता है।

यह डिजिटल इंडिया इन खेतिहर, मजदूरों के लिए आज भी दूर की कौड़ी क्यों हैं? यह कैसा अमृत महोत्सव है जो इस वर्ग को इस ‘देहाती दुनिया’ को अमरत्व से कोसों दूर रखे हुए है। पितृसत्ता के स्वरूप और अपेक्षाएँ भी जस की तस धरी हुई हैं। संग्रह की कविता ‘आज़ादी’ पितृसत्ता की हिदायतों पर क्या खूब व्यंग्य करती है। देखिए-

घूँघट में रहने के लिए कहकर

प्यार से कहा गया स्त्री से

जहाँ तक पहुँच नज़र

देख लो पूरी दुनिया, जी भरकर

सर्वत्र तुम्हारा ही है राज

यहाँ से वहाँ तक,

बस लपर-झपर न करें आँख

और चपर-चपर न करे जबान

काहे से कि

अच्छी नहीं होती जरूरत से ज्यादा आज़ादी।

यहाँ व्यंग्य ऐसे खिलता है कि कविता का शीर्षक है आज़ादी और कविता बयान करती है परधिनता का एक लम्बा इतिहास। वह भी मुँह-कान बंद रखने की हिदायत के साथ।

‘पिता का शोक गीत’ काव्य संग्रह ऐसी विद्रुपाओं, विडम्बनाओं से भरा हुआ है। कहीं-कहीं प्रेम और आशा के कुछ दीप भी झिलमिलाते हैं लेकिन वह इन विडंबनाओं के अँधियारे को मिटाने के लिए पर्याप्त नहीं लगते। कुछ बेहतरीन कविताएँ जैसे- अंधेरा, राजनीति, होर्डिंग, चुनाव की फसल, नफरत, बँटवारा, औरत, गुस्सा, किसान का सुख, मजूरी और बिल्लू बादशाह ऐसी कविताएँ हैं; जिनके सहयोग से काव्य संग्रह अपने मंतव्य तक पहुँचता है। गाँव, किसान इत्यादि पर पहले भी बहुत समर्थ रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ी-सुनी गयी हैं। किंतु प्रो. चंद्रदेव यादव के इन दो संग्रहों ने वृहत्तर की व्यापकता में गाँव की वास्तविकताओं को देखने की सफल चेष्टा की है। समकालीन परिदृश्यों में गाँवों के संकटों की नाप-जोख पाने के लिए यह संग्रह उपयोगी साबित हो सकते हैं। इन्हें गहराई से पढ़ा जाना चाहिए और उससे भी अधिक समझा जाना चाहिए। प्रो. चंद्रदेव जी को उनके इस सार्थक कवि कर्म के लिए मैं उन्हें बधाई देती हूँ। उनकी दृष्टि का यह पैनापन हमेशा साहित्य का रूप लेकर हमारे सम्मुख आये इसकी अपेक्षा भी करती हूँ।

डॉ. प्रियदर्शिनी, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय हैदराबाद, तेलंगाना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं ।

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