छत्तीसगढ़ के लिए सारे एग्जिट पोल फेल हुए। जो प्रेक्षक यह सोच रहे थे कि कांग्रेस हांफते-लंगड़ाते मैदान जीत जाएगी, उन्हें भारी निराशा हुई है। लेकिन इसमें अप्रत्याशित कुछ भी नहीं था, आंकड़े इसके गवाह हैं। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 32.3% वोट मिले थे और वर्ष 2013 की तुलना में उसके वोटों में लगभग 9% की गिरावट आई थी। इस वोट को जोगी कांग्रेस और बसपा के गठजोड़ ने खींचा था। लेकिन छह माह बाद ही लोकसभा चुनाव में ये वोट उसके पास लौट आये थे और उसे 50.7% वोट मिले।
स्पष्ट है कि कांग्रेस के वोट भी उसकी झोली में गिरे थे। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में 43.9% वोट पाने वाली कांग्रेस के हिस्से में वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में केवल 27.3% वोट ही रह गए थे। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 40.3% वोट मिले थे और इस विधानसभा चुनाव में भी उसे 42.1% वोट मिले। पांच सालों में उसके मत-आधार (वोट बेस) में गिरावट ही आई है, इसके बावजूद कि ‘न्याय योजनाओं’ के जरिये ग्रामीण जनता को कुछ राहत देने के कदम उसने उठाये थे।
इन आंकड़ों से जो राजनैतिक संदेश कांग्रेस नेतृत्व को ग्रहण करना चाहिए था, उसमें वह अक्षम साबित हुई और भाजपा का राजनैतिक-वैचारिक रूप से मुकाबला करने के बजाय शकुनि के पांसों से ही खेलने की डेढ़ होशियारी उसे ले डूबी। इसमें मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अहंकारपूर्ण कार्यप्रणाली को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जिन्होंने भाजपा से मुकाबले के लिए ‘नरम हिंदुत्व’ की लाइन चुनी।
छत्तीसगढ़ में फिर से सत्ता में आने का कांग्रेस का सपना चकनाचूर हुआ है। सत्ता का घमंड जब सिर चढ़कर बोलता है, तो वह अपनों के साथ जनता को भी दूर करता है। सत्ता की चाशनी होने के बावजूद कांग्रेस इतनी कमजोर हुई है कि राहुल-प्रियंका-खड़गे की तिकड़ी का प्लास्टर किसी काम न आया। पांच साल पहले भाजपा को ठुकराकर जनता ने कांग्रेस को मौका दिया था कि वह भाजपा की सांप्रदायिक-कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों का विकल्प पेश करें, लेकिन सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने ‘नरम हिंदुत्व’ की राह पर चलने और आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर स्वामित्व छीनने की ही राह अपनाई।
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नतीजे में, कांग्रेस के 9 मंत्रियों सहित आधे विधायकों को हार का सामना करना पड़ा है। इसमें कांग्रेस के हिंदुत्व का सबसे बड़ा बहुरूपिया चेहरा विकास उपाध्याय (रायपुर पश्चिम) भी शामिल है, जिनकी पिछले चुनाव में 12,212 वोटों की जीत 41,229 वोटों से हार में बदल गई। उनका हिंदुत्व इतना प्रखर था कि वे ‘हिन्दू राष्ट्र’ का प्रवचन करने वाले और महात्मा गांधी को गाली देने वाले आबाओं-बाबाओं के आयोजन के मुख्य कर्ता-धर्ता थे। कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष चेहरे मो. अकबर को भी कवर्धा से 39,592 वोटों से हार का सामना करना पड़ा| भाजपा ने कवर्धा को सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला बना दिया है।
चुनाव परिणामों के बाद ‘पठानों को भगाने’ की नारेबाजी करने वाले वीडियो वायरल हुए हैं, जो भाजपाई राज में आने वाले ‘अशुभ दिनों’ के संकेत दे रहे हैं। इसमें मुख्यमंत्री के पद की दौड़ में शामिल अल्पकालिक उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव की अंबिकापुर में हुई हार भी शामिल है। भूपेश बघेल, जिन्हें राजनैतिक हलकों में व्यंग्य से ‘छोटे मोदी’ कहा जाता है, की कार्यप्रणाली का नतीजा पूरी कांग्रेस को भुगतना पड़ा है। अपने को सर्वशक्तिमान के रूप में स्थापित करने के लिए उन्होंने अपने मीडिया सलाहकारों के सहारे ‘गोदी मीडिया’ की तरह ‘भोंपू मीडिया’ का जो मायाजाल रचा था, वह किसी काम न आया। यह देखना अब दिलचस्प होगा कि अपने मंत्री साथियों की हार के बीच बुलककर निकले भूपेश अब क्या भूमिका निभाते हैं?
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजों के संदर्भ में बादल सरोज की राजनैतिक टिप्पणी गौरतलब है – ‘शकुनि के पांसों से खेलने की चतुराई शकुनि की जीत को ही पक्का करती है। इतिहास के इस सबक से कांग्रेस हाईकमान और भूपेश बघेल ने कुछ नहीं सीखा। यह व्यंग्य प्रचलित है कि आम जनता तो कांग्रेस को जीताना चाहती है, लेकिन कांग्रेस ही यदि भाजपा को जीताने में लग जाएं, तो कोई क्या करें?
पिछले पांच सालों में रिक्त सरकारी पदों की संख्या बढ़ती ही गई है और नियमितीकरण के वायदे पर अमल नहीं किया गया। जल-जंगल-जमीन की लूट के लिए बस्तर का सैन्यीकरण और ज्यादा हुआ है एवं इसके साथ ही बढ़ा है बस्तर के आदिवासियों पर अत्याचार। ताड़मेटला कांड सहित जो भी रिपोर्टें उजागर हुई, उन पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। सिलगेर में पांच आदिवासी सुरक्षा बलों की गोली से मारे गए, जिम्मेदारों पर कोई कार्यवाही नहीं। जिन्होंने भी सत्ता पक्ष की कारगुजारियों के खिलाफ मुंह खोला, उन पत्रकारों पर हमले किए गए। पेसा कानून की मूल भावना के खिलाफ ही नियम बनाकर उसको अप्रभावी कर दिया गया, जिसके खिलाफ कद्दावर मंत्री टीएस सिंहदेव को पंचायत विभाग छोड़ना पड़ा।
हसदेव अरण्य के कोयला खदानों को अदानी को सौंपने के लिए की गई चतुराई भी सबने देखी। प्रशासन भी उन्हीं लोगों के सहारे चलाया गया, जो पहले भाजपा की बैसाखी थे। भ्रष्टाचार के मामले में जनता का अनुभव भाजपा से बुरा था। भाजपा ने सीबीआई और ईडी जैसी केन्द्रीय एजेंसियों का खुलकर दुरुपयोग किया, लेकिन जो फंसे, उनके लिए आम जनता की कोई सहानुभूति नहीं थी, क्योंकि वे वाकई भ्रष्ट हैं। इन कारगुजारियों ने न केवल ‘न्याय योजनाओं का असर कम किया, बल्कि कांग्रेस के चुनावी वायदों की विश्वसनीयता पर भी ग्रहण लगाया।
आदिवासी अधिकारों पर चुप्पी के साथ ही कांग्रेस ने भाजपा राज की हिंदुत्व-आधारित तमाम परियोजनाओं को ही आगे बढ़ाया। इनमें राम वन गमन पथ था, तो कौशल्या मंदिर का निर्माण भी; रामायण का आयोजन था, तो हनुमान चालीसा का पाठ भी। तमाम संस्थाओं में भी उन्हीं लोगों को बैठाया गया, जिनकी संघ-भाजपा के प्रति भक्ति जगजाहिर थी। इसके चलते, सोशल लेफ्ट की वे ताकतें भी कांग्रेस से अलग छिटकीं, जो पिछली बार चुनाव जीतने के लिए उसकी मददगार साबित हुई थी।
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कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ में सत्ता का रास्ता बस्तर के आदिवासी गांवों से होकर निकलता है। कांग्रेस राज में बस्तर भयंकर असंतोष से खदबदा रहा था। जल-जंगल-जमीन पर आदिवासी समुदायों के स्वामित्व और पेसा कानून के तहत ग्राम सभा की सर्वोच्चता के सवाल पर बस्तर में पिछले दो सालों से धरना-प्रदर्शन चल रहे हैं और इनमें औसतन 40-50 हजार लोग रोज हिस्सा ले रहे थे। लेकिन आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के सवाल पर कांग्रेस सरकार ने कोई फैसलाकुन कदम नहीं उठाया। प्रथम चरण की बस्तर की वोटिंग से ही साफ़ था कि कांग्रेस की राह अब आसान नहीं है। लेकिन बस्तर से ज्यादा करारी मात कांग्रेस को आदिवासीबहुल सरगुजा में खानी पड़ी, जहां उसने सभी 14 सीटें गंवा दी। इस प्रकार, बस्तर और सरगुजा, दोनों आदिवासी संभागों में कांग्रेस की करारी हार हुई है। यहां की 26 सीटों में से केवल 4 पर ही कांग्रेस जीत पाई है।
भाजपा यदि जीती है, तो कांग्रेस के खिलाफ असंतोष की नाव पर सवार होकर। कांग्रेस भी यदि जीती थी, तो भाजपा के खिलाफ असंतोष की नाव पर सवार होकर। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के प्रति कमजोरी और नेहरूवादी नीतियों का त्याग भाजपा को बल पहुंचाता है। सांप्रदायिकता और नफरत की राजनीति आम जनता के विवेक को कमजोर करती है और उसे भाजपा के पक्ष में खड़ा करती है। इसलिए छत्तीसगढ़ में कांग्रेस या भाजपा की हार-जीत सकारात्मक वोटों से नहीं, नकारात्मक वोटों से ही होती है। इसके साथ ही इंडिया समूह की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते, और लोकसभा के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए भी, अपने सहयोगियों के प्रति कांग्रेस को जो बड़ा दिल दिखाना था, वह उसने नहीं दिखाया। उसका अहंकार उसे ले डूबा।
इस विधानसभा चुनाव में भाजपा को 46.2% और कांग्रेस को 42.7% वोट मिले हैं। 3.5% वोटों के अंतर ने सीटों का फासला बढ़ा दिया है। आप, बसपा, गोंगपा और वामपंथी पार्टियों को लगभग 3% वोट मिले हैं। अपना जनाधार बढ़ाने के लिए यदि वह राजनैतिक कुशलता का प्रदर्शन करती और इंडिया समूह की पार्टियों से गठजोड़ करने के साथ ही सोशल लेफ्ट के साथ समझदारी बनाती, तो कांग्रेस के लिए नतीजे इतने निराशाजनक नहीं होते। तीन हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस के प्रदर्शन से यही साबित होता है कि अब कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर संघ-भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी चुनौती से निपटने में अकेले सक्षम नहीं है।
दूसरी ओर, भाजपा ने कांग्रेस के जनाधार को चोट पहुंचाने में कोई कसर नहीं रखी। इस बार भाजपा ने जोगी कांग्रेस का उपयोग कांग्रेस के खिलाफ किया और अमित जोगी को भी भूपेश बघेल के खिलाफ मैदान में उतार दिया। उसने कांग्रेस-विद्रोही प्रत्याशियों की भी खुलकर मदद की। आज भाजपा कॉर्पोरेटों के साथ गठजोड़ करने और चुनावी बांड की अपारदर्शिता के कारण विश्व की सबसे धनी पार्टी है। इस धनबल का दुरुपयोग वह विपक्ष के जनाधार को कमजोर करने के लिए करती है। जोगी कांग्रेस और अरविंद नेताम की हमर राज पार्टी दोनों को उसने मदद दी है। इससे कांग्रेस का प्रदर्शन प्रभावित हुआ है।
एक विपक्ष के रूप में भी भाजपा ने प्रदेश में हर छोटे-बड़े मामले को सांप्रदायिक रंग दिया है। उसने आदिवासी क्षेत्रों में सांप्रदायिक तनाव पैदा किया है। स्थिति इतनी खराब हुई है कि ईसाई धर्म के अनुयायी आदिवासियों द्वारा उनकी निजी भूमि पर दफंनाए गए परिजनों के शवों को भी प्रशासन ने ही निकालकर कई किलोमीटर दूर ईसाई कब्रगाहों में स्थानांतरित करने का गैर-कानूनी काम किया है। प्रशासन के ऐसे सांप्रदायिक रूख का फायदा भाजपा को मिला है और आदिवासियों के मानवाधिकारों और उनके जान-माल की रक्षा न कर पाने का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा है।
जहां तक भाजपा की शब्दावली में ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ की बात है, दोनों पार्टियां अब समझ चुकी है कि चुनावों में सामाजिक कल्याण की बात और घोषणाओं को किए बिना नैया पार नहीं हो सकती। कांग्रेस द्वारा की गई घोषणाओं की लागत 71,000 करोड़ रुपये थी, तो भाजपाई घोषणाओं की लागत 65,000 करोड़ रुपये। योजनायें भी एक समान थीं। आम जनता का सामान्य अनुभव यही है कि जो भी पार्टी सत्ता में आयें, वह अपने वायदों-घोषणाओं के प्रति ईमानदार नहीं होती।
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केंद्र में सत्तासीन भाजपा ने दो करोड़ लोगों को हर साल रोजगार देने और किसानों को लाभकारी समर्थन मूल्य देने के वादे पर जो पलटी मारी है, उसे और राज्य में काबिज कांग्रेस ने कर्मचारियों से किए वादों पर जो पलटी मारी है, उसे भी यहां की जनता ने देखा है। जिन योजनाओं को उन्होंने लागू किया है, उसमें भ्रष्टाचार और पक्षपात भी देखा है। लेकिन ‘छोटे मोदी’ पर ‘बड़े मोदी’ भारी पड़े, तो इसके कारण कांग्रेस संगठन के कमजोर चुनाव प्रचार, 2018 में किए गए वायदों को सही तरीके से क्रियान्वित करने में असफलता एवं इसके कारण मध्यम वर्ग और कर्मचारियों की कांग्रेस के प्रति भारी नाराजगी, आवास व रोजगार के मुद्दों पर भाजपा के अतिरिक्त बल देने, उसकी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और सोशल इंजीनियरिंग की नीतियों, आदि-इत्यादि में ढूंढें जा सकते हैं।
सत्ता में आने के बाद भाजपा अपनी हिंदुत्व की राजनीति को नई धार देगी। शपथ ग्रहण से पहले ही उसने धर्मान्तरण का मुद्दा उछाल दिया है| जातिगत जनगणना के लिए वह तैयार नहीं है। भाजपा का आना आदिवासियों और दलितों के लिए विपदा का राज साबित होगा। इसके साथ ही, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की पक्षधर ताकतों के साथ उसका संघर्ष बढ़ेगा। यह संघर्ष उन वायदों के क्रियान्वयन के लिए भी होगा, जो भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए किए हैं और जिसे आज तक वह ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहती आई है। अब इन चुनाव परिणामों से यह तय है कि छत्तीसगढ़ भाजपा और भाजपा विरोधी ताकतों के बीच, संघ और संघ विरोधी ताकतों के बीच एक नई ‘रणभूमि’ के रूप में उभरने जा रहा है। इस रण को संघ-भाजपा के खिलाफ राजनैतिक-वैचारिक धार देकर ही जीता जा सकता है।
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता हैं।