जाति जनगणना संविधान सम्मत है और सामाजिक न्याय के लिए अनिवार्य भी
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-246 के अंतर्गत जनगणना विषयक उल्लेख है। भारत मे लॉर्ड मेयो द्वारा 1872 में जनगणना कराई गयी, लेकिन जाति आधारित सम्पूर्ण जनगणना लार्ड कर्जन के कार्यकाल में 1881 में कराई गई। अंतिम बार जातिगत जनगणना सेन्सस-1931 में करायी गयी। 1941 में भी जातिगत जनगणना कराई गई लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण आँकड़े उजागर नहीं किये जा सके। देश की आज़ादी के बाद भारतीय संविधान लागू होने के पश्चात 1951 में सिर्फ एससी व एसटी का कास्ट सेन्सस कराया गया,अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों की जनगणना नहीं कराई गई। एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्रित्व काल में यह निर्णय हुआ था कि सेन्सस-2001 में कास्ट सेन्सस कराया जाएगा। लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने जातिगत जनगणना न कराने के सम्बंध में विधेयक पारित कर दिया।
जब एससी, एसटी,धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के जनसांख्यिकी आँकड़े घोषित कर दिए गए तो ओबीसी का आँकड़ा घोषित करने से कौन सी राष्ट्रीय क्षति हो जाती? यूपीए-2 की सरकार ने राजद, डीएमके, सपा, जेडीएस आदि दलों की मांग का सेन्सस-2011 में सोसिओ-इकोनॉमिक-कास्ट सेन्सस कराया था, पर मोदी-1 सरकार ने ओबीसी के आँकड़े ही घोषित नहीं किया।
बताते चलें कि ब्रिटिश सरकार ने छत्रपति शाहूजी महाराज के परामर्श पर हिन्दू समाज की शूद्र जातियों को शिक्षा व नौकरियों में प्रतिनिधित्व दिए जाने के लिए भारत सरकार अधिनियम-1908 द्वारा डिप्रेस्ड क्लास के नाम ने आरक्षण की व्यवस्था किया। हिन्दू वर्णव्यवस्था के अंतर्गत शूद्र वर्ण की सभी जातियों को 1931 तक डिप्रेस्ड क्लास के नाम से आरक्षण मिलता रहा। लेकिन 1932 के गोलमेज सम्मेलन में डिप्रेस्ड क्लास को टचेबल डिप्रेस्ड क्लास/ सछूत पददलित वर्ग (वर्तमान का ओबीसी) व अनटचेबल डिप्रेस्ड क्लास/ अछूत पददलित वर्ग (वर्तमान एससी, एसटी) के रूप में विभक्त कर दिया गया।सछूत पददलित जातियों का आरक्षण खत्म कर दिया गया। भारत सरकार अधिनियम-1935 के द्वारा अछूत व जंगली जातियों को शिक्षा व नौकरियों में जनसँख्यानुपात में आरक्षण की व्यवस्था की गई और भारत सरकार अधिनियम-1937 के द्वारा इन्हें राजनीति (विधायिका) में जनसँख्यानुपाती कोटा की व्यवस्था कर दी गयी। ऐसा लगता है पूना पैक्ट की तरह डॉ. अम्बेडकर से कोई समझौता सछूत शूद्र जातियों को आरक्षण न देने के सम्बंध हुआ होगा। आज़ादी के पूर्व से ही पिछड़े वर्ग की जातियों के साथ धोखाधड़ी शुरू हो गयी थी। डॉ. अम्बेडकर के सामने निश्चित रूप से कोई ऐसी शर्त रखी गयी होगी कि सछूत शूद्रों के आरक्षण का मुद्दा छोड़ दीजिए। अन्यथा 1935 व 1937 में ही सछूत व अछूत सभी शूद्रों को शिक्षा, नौकरी व राजनीति में समानुपातिक कोटा की व्यवस्था हो गयी होती क्योंकि अंग्रेज न्यायिक चरित्र के थे।
भाजपा सरकार का कहना है कि उसने 2011 के सामाजिक-आर्थिक और जाति आधारित जनगणना के आर्थिक डाटा को इसलिए सार्वजनिक किया है, क्योंकि वह लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन से ज्यादा चिंतित है। सुर्खियां कहती हैं कि जातिगत आंकड़े जारी नहीं किए गए। जबकि यह सच नहीं है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया है, साथ ही धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग-मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, रेसलर के आँकड़े भी 30 जून, 2015 को सेन्सस कमिश्नर व रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा घोषित कर दिया गया, सिर्फ ओबीसी का आँकड़ा छुपा दिया गया। सामाजिक न्याय के लिए संविधान के अनुच्छेद-15(4), 16(4), 16(4-1) की मंशानुसार समुचित प्रतिनिधित्व के लिए हर वर्ग की जनगणना आवश्यक है। जब एससी, एसटी, धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के जनसांख्यिकी आँकड़े घोषित कर दिए गए तो ओबीसी का आँकड़ा घोषित करने से कौन सी राष्ट्रीय क्षति हो जाती? यूपीए-2 की सरकार ने राजद, डीएमके, सपा, जेडीएस आदि दलों की मांग का सेन्सस-2011 में सोसिओ-इकोनॉमिक-कास्ट सेन्सस कराया था, पर मोदी-1 सरकार ने ओबीसी के आँकड़े ही घोषित नहीं किया।
आप देख सकते हैं कि राज्य दर राज्य कितने घरों में नौकरी पेशा लोग रहते हैं। महीने में कितने लोग पांच हजार से ज्यादा कमाते हैं या कितने लोगों के पास अपनी जमीन या गाड़ी है।आप इन आंकड़ो को राज्यवार देख सकते हैं। इसमें एससी, एसटी परिवार, अन्य दूसरे परिवार (एससी और एसटी को छोड़कर) और फिर वैसे परिवार जहां महिलाओं की भूमिका प्रमुख है, शामिल हैं। जाहिर है जारी किए गए आंकड़ों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और उच्च वर्ग से संबंधित आंकड़ो को छिपाया गया है। इससे निश्चित रूप से जातिगत जनगणना के मुख्य उद्देश्य को धक्का लगा है।
जातिगत जनगणना को मंजूरी 2010 में इसलिए मिली थी क्योंकि कई पार्टियों की रुचि ओबीसी संख्या में है। सरकार ने कहा है कि इन आंकड़ों को संसद में रखा जाएगा। सरकार के अनुसार यह बजट डॉक्यूमेंट है इसलिए इसे सबसे पहले संसद में सार्वजनिक किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
जातिगत आंकड़ों को छिपाने का एकमात्र मकसद राजनैतिक ही हो सकता है। एक समाचार पत्र की हेडलाइन कहती है कि सामाजिक उथल-पुथल को टालने के लिए इस डाटा को छिपाया जा रहा है। यह सुनकर ऐसा लगता है कि आंकड़े सामने आ जाने से देश में दंगे शुरू हो जाएंगे। हम सच से डरते क्यों हैं? जब हमें एससी और एसटी के आंकड़ो से कोई समस्या नहीं है, धर्म आधारित आँकड़े घोषित करने से दिक्कत नहीं है, तो फिर ओबीसी और उच्च वर्ग की संख्या सामने लाने से सरकार क्यों हिचक रही है?
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ओबीसी आरक्षण की नीति पर किसी ठोस फैसले के लिए इन आंकड़ो को सामने लाना जरूरी है। आज जबकि नेशनल कमिशन फॉर बैकवर्ड क्लासेस (एनसीबीसी) और कई राज्य कमिशन अपने नियमित सर्वे को नहीं कर रहे हैं, जिससे हमें पता चलता कि फलां जाति को ओबीसी में रहना चाहिए या नहीं। ऐसे में हमें इस गणना के डाटा की सख्त जरूरत है। हमें यह जानने की जरूरत है कि क्या राजस्थान के जाट सच में आर्थिक व सामाजिक रूप से इतने पिछड़े हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की जरूरत है? सवाल यह भी है कि भारत में गरीबी और आर्थिक विकास जाति से नाभिनाल जुड़े हुए हैं। फिर हम सबसे बड़ी जाति समूह ओबीसी के आंकड़ो से इतना क्यों डर रहे हैं?
जब पिछली बार 2006 में ओबीसी आरक्षण पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस चल रही थी, तब हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं था। मंडल कमिशन ने 1931 की जनगणना को आधार बनाते हुए यह पाया था कि 52 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में आते हैं।इसके बाद नेशनल सैंपल सर्वे (NSSO) के एक डाटा से यह बात सामने आई कि आज करीब 41 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग (हिन्दू पिछड़ी जातियाँ) में शामिल हैं।
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इस डाटा से ओबीसी वर्ग डरा हुआ नहीं हैं बल्कि उच्च वर्ग जरूर चिंतित है। जैसे ही यह मालूम होगा कि कितने ओबीसी हैं, वे पूछना शुरू करेंगे कि उन्हें आरक्षण के बराबर प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया गया? अगर एससी और एसटी को उनकी जनसंख्या के अनुसार आरक्षण मिलता है तो फिर यही बात ओबीसी पर लागू क्यों नहीं होती? अब हमारे पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं इसलिए आंकड़े भी जारी नहीं किए जाते। जो यह नहीं चाहते कि ओबीसी से संबंधित डाटा सार्वजनिक किए जाए उन्हें शायद डर है कि आंकड़े आने के बाद दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार ओबीसी की संख्या के बारे में पूछा है। जब भी ओबीसी आरक्षण से सम्बंधित कोई मामला न्यायालय में आता है तो यही सवाल खड़ा होता है कि ओबीसी की जनसंख्या का कोई प्रमाणिक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है।लेकिन भारतीय सरकार जिसने कई दशकों के टालमटोल के बाद 2011 में जातिगत गणना कराई, अब इसका खुलासा नहीं करना चाहती। अगर सरकार इसे छिपा रही है तो इसका मतलब है कि सच्चाई जरूर बेहद कड़वी होगी।सरकार हालांकि इसे ज्यादा दिनों तक नहीं छिपा सकेगी।
2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में 24.4 प्रतिशत हिस्सेदारी दलितों की है। अनुसूचित जाति (एससी) की जनसंख्या 16 करोड़ 66 लाख 35 हजार 700 है, जो कुल आबादी का 16.2 प्रतिशत है। जबकि अनुसूचित जनजाति की आबादी 8 करोड़ 43 लाख 26 हजार 240 है, और यह देश की कुल जनसंख्या का 8.2 फीसदी है।सेन्सस-2011 के अनुसार देश की कुल 1 अरब 21 करोड़ की आबादी में 79.80 प्रतिशत हिन्दू,14.23 प्रतिशत मुस्लिम, 2.30 प्रतिशत ईसाई, 0.70 प्रतिशत बौद्ध, 0.37 प्रतिशत जैन, 1.72 प्रतिशत सिक्ख, 0.06 प्रतिशत व 0.82 रेसलर व अधार्मिक थे। सबके आँकड़े घोषित करने में कोई दिक्कत नहीं आयी, सिर्फ ओबीसी का ही आँकड़ा घोषित करने से देश का नुकसान हो रहा है? सेन्सस-2021 में कास्ट सेन्सस कराया जाना चाहिए। यह संविधान सम्मत है और सामाजिक न्याय के लिए जनगणना अभिन्न अंग है।
लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व समीक्षक हैं।
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