सबसे लंबे समय तक ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने वाली महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का 96 वर्ष की आयु में 8 सितंबर को निधन हो गया। बीबीसी और सीएनएन सहित 24×7 चैनलों ने उनकी मृत्यु से संबंधित हर घटना की सूक्ष्मता से रिपोर्टिंग की। उनका अंतिम संस्कार 19 सितंबर को हुआ। तब तक लोग शाही परिवार, विशेष रूप से नए महाराजा किंग चार्ल्स III और उनकी पत्नी के विभिन्न कार्यक्रमों और कार्यक्रमों को देखते रहे। महारानी एलिजाबेथ ने 70 से अधिक वर्षों तक शासन किया और इसलिए उनके निधन से दुनिया भर में भिन्न- भिन्न किस्म की प्रतिक्रियाएँ आती रही हैं लेकिन इंग्लैंड में निसन्देह यह उनके पिता की मौत के बाद की शायद सबसे बड़ी घटना है। इसलिए उनके अंतिम संस्कार में दुनिया भर के राष्ट्राध्ययक्षों ने भाग लिया। निस्सन्देह ब्रिटेन में लोग उन्हे मात्र अपने राष्ट्राध्यक्ष के रूप में ही नहीं देखते थे, अपितु दुनिया के एक बड़े हिस्से पर शासन करने वाली राजसत्ता का प्रतीक मानते रहे। उन्होंने ब्रिटेन को दुनिया भर में सबसे बड़ा औपनिवेशिक देश बनाया। भारत ने भी 11 सितंबर को एक दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया था। दुनिया भर के नेता 19 सितंबर को अंतिम संस्कार के जुलूस में शामिल हुए। लंदन पुलिस ने लोगों को पहले से ही आगाह कर दिया था कि लोग नियमों का पालन करें और किसी भी प्रकार के देरी के लिए तैयार रहें। यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों के राष्ट्र प्रमुख लंदन पहुँच रहे हैं। भारत से भी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू महारानी के अंतिम संस्कार समारोह मे हिस्सा लिया।
यह प्रश्न बार-बार चर्चा में आता है कि एक मजबूत लोकतंत्र होने के बावजूद भी यूनाइटेड किंगडम अभी भी राजशाही के साथ क्यों चिपका हुआ है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों के लिए यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जहाँ राजशाही विरोधी भावनाएँ भी बढ़ रही हैं फिर भी ‘दायरे’ का हिस्सा बनी हुई हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में रूढ़िवादी लॉबी आक्रामक रूप से राजशाही समर्थक बनी हुई है और बाजार की ताकतों ने उनकी ‘लोकप्रियता’ का दोहन किया है। परेशान करने वाली बात यह है कि ब्रिटिश रॉयल्स अमेरिकी जनता में इतने लोकप्रिय क्यों हैं जिन्होंने 1776 मे अमेरिकी क्रांति मे ब्रिटेन और उसकी राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह कर उसे उखाड़ फेंक कर संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना की थी। आज कैरिबियाई देशों मे वहा के मूल निवासियों में बहुत गुस्सा है और छह देशों ने संकेत दिया था कि वे आने वाले वर्षों में गणतंत्र बनना चाहते हैं। ये देश हैं एंटीगुआ और बारबुडा, बहामास, बेलीज, ग्रेनाडा, जमैका, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट लूसिया, सेंट विंसेंट और ग्रेनेडाइंस। यह प्रक्रिया बारबाडोस से शुरू हुई जो 30 नवंबर, 2021 को एक गणतंत्र बन गया । तीन अन्य देश डोमिनिका, गुयाना और त्रिनिदाद और टोबैगो 1970 के दशक में गणराज्य बन गए। इन देशों में राजसत्ता के विरुद्ध प्रदर्शन भी हुए और स्थानीय लोगों ने कहा कि ब्रिटिश राज सत्ता अफ्रीकियों के साथ क्रूरता और दासता के लिए औपचारिक माफी मांगे और क्षतिपूर्ति के माध्यम से इसकी भरपाई की है। यह बताया गया है कि यूरोपीय दास व्यापार में 14 मिलियन से अधिक अश्वेतों को कैरिबियन में लाया गया था और 10 मिलियन का उपयोग अरब व्यापार में किया गया था। ये देश ब्रिटिश दायरे से बाहर हैं लेकिन फिर भी 54 सदस्यीय राष्ट्रमंडल का हिस्सा हैं। सवाल यह है जिन लोगों के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया गया है, वे ‘राष्ट्रमंडल’ का हिस्सा बनकर कैसे खुश हो सकते हैं, जिस पर ब्रिटेन का क्राउन और कुलीन लोग इतना गर्व महसूस करते हैं।
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भारत पर 1858 से 1947 तक ब्रिटिश साम्राज्य का शासन था, हालांकि इससे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 से भारत के बड़े हिस्से को नियंत्रित करना शुरू कर दिया था। स्वतंत्रता के बाद, भारत ने ब्रिटेन के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे और एक बड़ा भारतीय प्रवासीवर्ग अब यूके में रहता है जो बेहद सफल है। और राजनीतिक रूप से प्रभावशालीभी । हालांकि, ऐसे लोगों का भी एक वर्ग है जो यह महसूस करते हैं कि जैसे अंग्रेज उन्हें फायदा पहुंचाने आए हैं और ये दो अलग-अलग विरोधी पक्ष हैं। एक, हिंदुत्व अभिजात वर्ग और उनके अनुयायी जो अभी भी अंग्रेजों के यहा होने का ‘जश्न’ मनाते हैं क्योंकि उनके लिए भारत की गुलामी मुगल काल से शुरू हुई थी और इसलिए ब्रिटिश व्यापक हिंदू आबादी के लिए मुक्तिदाता के रूप में आए। दुर्भाग्यवश , अम्बेडकरवादियों केभी एक बड़े वर्ग को भी लगता है कि अंग्रेजों ने शिक्षा के माध्यम से उनके लिए ‘मुक्ति’ का द्वार खोल दिया। हालांकि अंग्रेजों ने कभी भी वर्नवादी व्यवस्था पर कोई चोट नहीं पहुंचाई और भारत मे शासन मे उनके सबके बड़े हथियार सवर्ण जातिया ही थी। हाल ही मेंअमेरिका मे फॉक्स टीवी एंकर की व्यापक आलोचना हुई जब उसने अपने शो में ब्रिटिश साम्राज्य की महानता को लोगों के समक्ष रखा ‘। एंकर टकर कार्लसन ने कहा, ” ब्रिटिश साम्राज्य परिपूर्ण नहीं था, लेकिन यह किसी भी अन्य की तुलना में कहीं अधिक मानवीय था। यह अबनहीरहा और लोगों को मुश्किल से याद भीनहीं है। महारानी एलिजाबेथ द्वितीय वास्तव में ग्रेट ब्रिटेन की अंतिम जीवित कड़ी थीं। आज सोशल मीडिया परकई लोगों ने उनकी मौत का जश्न मनाया. जब अमेरिकी सरकार 20 साल बाद अफगानिस्तान से हटी, तो हमने हवाई पट्टी, शिपिंग कंटेनर और बंदूकें पीछे छोड़ दीं। जब अंग्रेजों ने भारत से हाथ खींच लिया, तो उन्होंने एक पूरी सभ्यता, एक भाषा, एक कानूनी व्यवस्था, स्कूल, चर्च और सार्वजनिक भवन छोड़ दिए, जो आज भी उपयोग में हैं। उदाहरण के लिए, बंबई में अंग्रेजी द्वारा निर्मित रेलवे स्टेशन यहाँ है। वाशिंगटन, डीसी में अभी ऐसा कुछ नहीं है, काबुल या बगदाद में बहुत कम है। आज भारत ब्रिटेन की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली है, जिस राष्ट्र ने कभी इस पर शासन किया था और फिर भी, आजादी के 75 वर्षों के बाद, क्या उस देश ने एक भी इमारत का निर्माण किया है जो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा बनाए गए बॉम्बे सेंट्रल रेलवे स्टेशन के से अधिक खूबउसरत हो ? नहीं, दुख की बात है कि ऐसा नहीं हुआ है। एक नहीं। “
दुर्भाग्य से, भारत में भी कई ऐसे हैं जो ब्रिटिश राज के बारे में टकर के विचारोंसे शायद सहमत हो । लेकिन वे इस बात से आँख नहीं चुरा सकते कि भारतमे बौद्ध, राजपूत , मुगल, मौर्य , चोलआदि के दौर की महान वास्तुकलाअंग्रेजों के आँसे से पहले से ही दिखाई दे रही थीऔर आज भी मौजूद है ।आजादी के बाद भी भारत मे ऐसे बहुत से स्मारक बने है जो बेहतरीन कला का नमूना है। यह सुझाव देना कि भारत में मुंबई के वीटी रेलवे स्टेशन जैसी संरचना नहीं थीया अब तक नहीं बन पाई है केवल विक्टोरियन अहंकार को दर्शाता है। अंग्रेजों ने भारत में इतने लंबे समय तक शासन किया कि उनके लिए स्थानीय लोगों को अपने प्रशासन में शामिल किए बिना शासन करना असंभव था। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने विशाल रेलवे नेटवर्क बनाया ताकि हिमालय से महंगी लकड़ी को कोलकाता बंदरगाह तक आराम से पहुँचाया जा सके। चूंकि उन्हें एक प्रभावी और वफादार नौकरशाही की जरूरत थी जो उनके साथ बातचीत कर सकेऔर उनके काम काज को निष्ठापूर्वक कर सके इसलिए उन्होंने अंग्रेजी भाषा को बढ़ावा दिया औरअपने कार्यक्रमों मे बहुत सुधार लाए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई चीजें जो हमें सकारात्मक लगती हैं, वे इसलिए नहीं हैं क्योंकि अंग्रेज चाहते थे बल्कि यह एक संपार्श्विक ( colateral) लाभ था। बेशक, उनके काम की गुणवत्ता निस्संदेह उन चीजों से कहीं बेहतर है जो हम आज कर रहे हैं चाहे वह पुल हो या रेल की पटरियाँ या रेलवे स्टेशन।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक ‘तटस्थ’ पार्टी होने के नाते, जिसका एकमात्र हित भारत के विशाल खनिज संसाधनों का अपने समाज और देश के लाभ के लिए शोषण करना था, अंग्रेजों का जाति प्रश्न और अस्पृश्यता के मुद्दों को संभालने में रवैयाभारत के सवर्ण हिन्दुओ के मुकाबले मे बेहतर था। कोई भीव्यक्ति यह साधारण सवाल पूछ सकता है कि अंग्रेजों के बिना राजनीतिक और सत्ता संरचना में हाशिए के समुदायों की भागीदारी का पूरा सवाल असंभव नहीं तो मुश्किल तो होताही । उन्होंने कुछ हद तक हाशिए के वर्गों की मदद की अन्यथा उच्च जाति के अभिजात वर्ग ने दलितों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से अपने स्तर तक नहीं आने दिया। हमें कानून प्रदान करने के अलावा, भले ही इसका उद्देश्य हमें नियंत्रित करना था, लेकिन इसने अंततः इसने बहुत हद तक ऐसे समाजों की मदद ही की। आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा अंग्रेजी बोलने वाला देश बन गया जिसने भारतीय समुदाय को डायस्पोरा में एक शक्तिशाली समूह बनने में मदद की। इन सबके बावजूद, तथ्य यह है कि अंग्रेज हमें आजाद कराने के लिए नहीं बल्कि अपनी आर्थिक शक्ति कोबढ़ाने और हमारे संसाधनों को लूटने के लिए भारत आए थे। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक कार्यक्रम में बताया कि भारत में ब्रिटिश लूट आज के अनुमान के अनुसार 45 ट्रिलियन डॉलर के करीब थी। जयशंकर कहते हैं, ” भारत को पश्चिम द्वारा अपने हिंसक रूप में दो शताब्दियों का अपमान झेलना पड़ा, यह 18 वीं शताब्दी के मध्य में भारत आया। एक आर्थिक अध्ययन ने यह अनुमान लगाने की कोशिश की कि अंग्रेजों ने भारत से कितना धन बाहर निकालातो यह आज के मूल्य में $45 ट्रिलियन के बराबर है”।
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अभी 8 सितंबर को जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भव्य प्रतिमा का उद्घाटन कर रहे थे, जहां राजपथ का नाम बदलकर ‘कर्तव्यपथ’ कर दिया गया है। मोदी ने गुलामी के प्रतीकों को खत्म करने और भारतीय होने पर गर्व करने का आह्वान किया उसे समय महारानी एलिजाबेथ की मृत्यु का समाचार भी आया और नरेंद्र मोदी इंग्लैंड की महारानी की मृत्यु पर प्रतिक्रिया देने वाले पहले लोगों में से थे, उन्होंने ट्विटर पर एक बहुत ही ‘व्यक्तिगत’ संदेश दिया:
“महामहिम महारानी एलिजाबेथ द्वितीय को हमारे समय के एक दिग्गज के रूप में याद किया जाएगा। उन्होंने अपने राष्ट्र और लोगों को प्रेरक नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में गरिमा और शालीनता का परिचय दिया। उनके निधन से आहत हूं। इस दुख की घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके परिवार और ब्रिटेन के लोगों के साथ हैं।”
उन्होंने आगे कहा, ‘ 2015 और 2018 में ब्रिटेन की अपनी यात्राओं के दौरान मेरी महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के साथ यादगार मुलाकातें हुईं। मैं गर्मजोशी और दयालुता को कभी नहीं भूलूंगा । एक बैठक के दौरान उसने मुझे वह रूमाल दिखाया जो महात्मा गांधी ने उसे उसकी शादी में उपहार में दिया था। मैं उस इशारे को हमेशा संजो कर रखूंगा
भारत सरकार ने 11 सितंबर को राष्ट्रीय शोक की घोषणा की, हालांकि कई लोगों ने इस पर सवाल उठायाकि क्या भारत को ऐसा करना चाहिए था लेकिन वास्तव में यह परंपराओं के अनुसार किया गया था और कई देश ऐसा कर रहे हैं। हम ब्रिटेन के साथ अपने संबंधों को नजरअंदाज नहीं कर सकते, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। हम सभी के लिए इतिहास से सीखना और आगे बढ़ना महत्वपूर्ण है। आधुनिक दुनिया में, हम ग्रेट ब्रिटेन के महत्व और उनके साथ अपने संबंधों को जानते हैं, हालांकि दोनों देश संबंधों को एक अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। अंग्रेजों के लिए, भारत, ‘राष्ट्रमंडल’ का सबसे बड़ा देश है, लेकिन एक भारतीय के रूप में, हम राष्ट्रमंडल के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं सिवाय उन खेलों के जहां भारतीय किसी भी अन्य अंतरराष्ट्रीय आयोजन के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रमंडल का हिस्सा बनने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका सिर्फ इसलिए निभाई क्योंकि उन्होंने भारत के संबंधों को महत्व दिया। यह उनके आग्रह पर ही थाकि ‘एक गणतंत्र” ‘ भी ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का हिस्सा बना जिसके राष्ट्र प्रमुख के रूप में महारानी एलिजाबेथ नहीं थी लेकिन फिर भी उसे इसका हिस्सा बनने की अनुमति दी गई थी। आज रवांडा जैसे देश भी जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा नहीं थे, आधिकारिक तौर पर राष्ट्रमंडल में शामिल हो गए हैं। शायदयही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है कि यह विभिन्न देशों को एक साथ लाता हैजो ब्रिटिश शासन के अधीन थे । ये सभी देश अब ‘पावर हाउस’ हैं और मजबूत व्यापारिक भागीदार बन सकते हैं। वैसे भी, राष्ट्रमंडल का हमारे लिए उस ऐतिहासिक वंश केसाथ रिश्तों के अलावा कुछ भी नहीं है, लेकिन जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है, ब्रिटिश साम्राज्य के लिए इसका एक अलग अर्थ है, विशेष रूप से राजशाही जो अपनी शक्ति का वर्णन करने के लिए इसका उपयोग करती है। तथ्य यह है कि द क्वीन या किंग ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड के अलावा यूनाइटेड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन और उत्तरी आयरलैंड के प्रमुख हैं और 14 अन्य देश अबभी ब्रिटिश रेल्म का हिस्सा हैं।
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एक सवाल अक्सर सबके दिमाग मे कौंधता है और वो ये के जब अधिकांश एशियाई, अफ्रीकी और कैरेबियाई देशों में ब्रिटेन से आजादी के बाद एक गणतंत्र होने या अपनी खुद की राजशाही होने की भावना काफी मजबूत रही हैवही ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंडमे नए सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग का रुख आश्चर्यजनक हैजब ये देश दुनिया के सबसे बेहतरीन लोकतंत्र होने का दावा करते हो ? आखिर राजशाही और लोकतंत्र का ये घालमेल क्या है और क्यों है ये समझने की जरूरत है। अन्य उपनिवेशों की तरह इन देशों मे क्यों ऐसी भावना नहीं आती कि हमारा भी अपना ‘राष्ट्र प्रमुख’ हो ? । राजशाही के संबंध में इन देशों में भारतीय उपमहाद्वीप में भारत और अन्य देशों के लोगों की तरह भावनाएँ क्यों नहीं हैं? कठोर वास्तविकता यह है कि टकर कार्लसन जैसे ‘विशेषज्ञ’ संयुक्त राज्य अमेरिका में बड़ी संख्या मे मौजूद हैं क्योंकि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों के नेतृत्व वास्तव में राजशाही के साथ ‘विशेष’ संबंध रखना पसंद करते हैं। यह अकारण नहीं है कि हैरी और मेघन मार्कल की शाही शादी को विभिन्न टेलीविजन चैनलों लगभग तीन करोड़ लोगों ने देखा।और ऐसे ही उनकी लोकप्रियता कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में समान रूप से अधिक है।
ब्रिटिश राजशाही के साथ इन देशों के इस संबंध को डिकोड करना बहुत महत्वपूर्ण हो ताकि हम समझ सके कि पश्चिम की राजनीति और रणनीति क्या है ?
राजशाही वंशवाद हैलेकिन अंग्रेजों की जरूरत है
ऑस्ट्रेलिया मे जब एक आदिवासी संसद सदस्य ने महारानी के प्रति निष्ठा की शपथ लेने से इनकार कर दिया तो उन्हें इसे फिर से करने के लिए कहा गया। अबमहारानी की मृत्यु के बाद इन सभी देशों की सांसदों, विधानसभाओऔर सरकारों को किंग चार्ल्स के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ी है। ब्रिटेन सहित सभी देशों के पासपोर्ट पर आपको राजसत्ता के प्रति निष्ठा का शपथ पत्र देना होता है। राजशाही राजवंश है और आधुनिक लोकतांत्रिक सिद्धांतों के साथ बिल्कुल अजीब लगती है। जब प्रिंस चार्ल्स को आधिकारिक तौर पर नए राजा के रूप में घोषित किया जा रहा था और हमने देखा कि कैसे लॉर्ड्स एंड कॉमन्स की पूरी ब्रिटिश संसद राजा को सुनने के लिए घंटों खड़ी रही। उनके बैठने की भी जगह नहीं थी। वे सभी राज दरबार में पुराने दरबारियों की तरह लग रहे थे, किसी भी लोकतंत्र में एक बेहद असंभव परिदृश्य।
भारत में अक्सर गांधी परिवार के लिए वंशवाद का उपयोग किया जाता है। क्या इससे बड़ी विडंबना यह हो सकती है कि जिस व्यक्ति और परिवार को ‘वंशवाद’ के रूप में दोषी ठहराया जा रहा है, वह वास्तव में लोगों के दिलों को जीतने के लिए भारत की सड़कों पर चल रहा हैऔर शासक अभिजात वर्ग के हमले का सामना कर रहा हैहालांकि ये बात और है कि परिवार के तीन सदस्यों ने देश पर लगभग 38 वर्ष तक शासन किया लेकिन ये हकीकत है के वे चुनाव प्रणाली के जरिए ही सत्ता मे रहे और लोगों ने समय आने पर उन्हे पदों से हटा भी दिया। अभी तो 2014 से काँग्रेस पार्टी बिल्कुल शून्य की और है। एक हकीकत ये है हमारे देश के राजनीतिज्ञों और लोगों के लिए भी वंशवादी ही रोल मोडेल हैं। आखिए इतने राजा महाराजों को हम क्यों पसंद करते है और क्यों नहीं उनकी आलोचना करते। राजनीति में वंश नहीं हो सकता क्योंकि उन्हें सभी प्रक्रियाओं का पालन करना पड़ता है और अगर जनता उन्हें नहीं चाहती है, तो वे वापस नहीं आ पाएंगे। राजीव गांधी के चुनाव हारने के बाद 1989 के बाद से राहुल गांधी और अन्य गांधी वास्तविक अर्थों में सत्ता में नहीं हैं। राहुल गांधी के पास प्रिंस चार्ल्स के समान विशेषाधिकार नहीं है जो बिना किसी सवाल के राजा बन गए और दुनिया के सभी बड़ेदेशों के चुने हुए प्रतिनिधि और राज्याध्ययक्ष उनके राजा बनने का जश्न मनाते हैं।
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ब्रिटिश राजशाही निश्चित रूप से सबसे शक्तिशाली संस्था है जिसने देश को एकजुट रखा है और यह उनके स्वर्णिम साम्राज्य का प्रतीक है। कहीं न कहीं, यह न केवल अंग्रेजों के लिए बल्कि अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में राज सत्ता का हिसा रहे गोरे यूरोपियन लोगों के लिए भी एक ‘फील गुड’ का कारकभी है। यह भी सत्य है कि ब्रिटिश राज घराने ने अपने को आधुनकिता और लोकतंत्र से जोड़ कर रखा है और ये ‘कनेक्टिविटी’ उन्हे लोगों मे और अधिक लोकप्रिय बनाती है जिनसे हर व्यक्ति जुड़ना चाहता है। उदार लोकतंत्रों में बड़ेबिल्डिंगों, महलोंआदि के निर्माण पर पैसा खर्च करना मुश्किल है क्योंकि लोग सवाल करेंगे लेकिन लोग उन रॉयल्टी और उनकी शैली कोशायद इसलिए पसंद करते हैंकि अंदरूनी तौर पर हम सभी उनके धनाढ्य होने का सेलब्रैशन करते है। यही कारण है कि पूंजीवादी समाजों में अब राज परिवारों के किए गए गलत कामों के बारे में सवाल नहीं पूछे जाते बल्कि ‘भव्यता’ को एक बड़े बाजार आयोजन के रूप में मनाया जाता है। लोग अभी भी राजा और रानी या राजकुमार और राजकुमारियों की या उन ‘परियो’ को देखना पसंद करते हैंजिन्हे हमने केवल कहानियों और कविताओ मे पढ़ा है और शायद ब्रिटेन में रॉयल्टी हम में से प्रत्येक को अपने निजी जीवन के बारे में सब कुछ जानने की अपनी अतृप्त प्यास को ‘बुझाने’ के लिएअवसर प्रदान करती है। इसलिए रॉयल्टी अब एक नया चुंबक है जिसके पास बाजार और सत्ता और अभिजात वर्ग को प्रभावित करने के लिए राजनीतिक शक्ति नहीं बल्कि नरम सांस्कृतिक शक्ति है। ब्रिटिश रॉयल्टी और उनके सार्वजनिक कार्यों को संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य जगहों पर इस अभिजात वर्ग द्वारा अपने स्वयं के अश्लील धन और खर्च को सही ठहराने के लिए विपणन किया जाता है। नए राजा के सामने खड़ेदरबारी राजनीतिक अभिजात वर्ग को देखें तो यह स्पष्ट रूप से बताता है कि वे राजघराने की नरम सांस्कृतिक शक्ति को समझते हैं और इसलिए अपने अधिकार या प्रासंगिकता को चुनौती देने के लिए डर से कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
असली सवाल स्थानीय लोगों की संप्रभुता का है
ऐसा नहीं है कि राजशाही के खिलाफ कोई बड़बड़ाहट नहीं है, लेकिन तथ्य यह है कि यह केवल राजशाही या छद्म लोकतंत्र का सवाल नहीं है। कोई ये नहीं कह सकता कि ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजी लेंड मे लोकतंत्र की जड़े गहरी नहीं है। ये देश तो दुनिया मे सबसे बेहतरीन लोकतंत्र के रूप मे जाने जाते है। लेकिन यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि ब्रिटेन की राजशाही वास्तव में श्वेत वर्चस्ववाद या श्वेत दुनिया के ‘शानदार अतीत ‘ का प्रतीक है। शायद यही भावना संयुक्त राज्य अमेरिका में दक्षिणपंथियों के श्वेत वर्चस्ववादियों को रॉयल्स का समर्थन करने और मीडिया को बाजार में उनके गुणगान को प्रचारित करने के लिए मजबूर करती है। राजशाही के सवाल का मतलब अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड मेवहा के मूल निवासियों और उनकी संस्कृति के विनाश के बारे में एक सवाल है। श्वेत बरचसवावाद को दुनिया मेंबनाए रखने के लिए राजशाही की ‘महानता’का ढोंग करते रहना जरूरी है ताकि आदिवासियों और मूलनिवासियों के प्रश्न इन ऑपनिवेशिक देशों मे उठाए ही न जा सके। इन सभी देशों में बड़ा जनसांख्यिकीय परिवर्तन भी देखा गया जहां स्वदेशी लोगों को वन क्षेत्रों की ओर अधिक धकेल दिया गया, जबकि यूरोपीय आतताइयों ने उनकी भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर लिया।। दुर्भाग्यवश आज भी इन देशों की नीति ने स्वदेशी समुदायों को कुछ भी नहीं बल्कि अजीब और चौंकाने वाली बात ये भी है कि दुनिया को ‘मानवाधिकार’ और जाति और रंग भेद के विरुद्ध पाठ पढ़ाने वाले इन सभी ‘महान’ देशों ने अभी भी संवैधानिक मान्यता नहीं दी है। क्राउन के साथ हुई संधियों को भुला दिया गया है। एक आसान सा सवाल पूछा जा सकता है कि इन देशों के सरकारी ढांचे में स्वदेशी लोग कहां हैं जो अल्पसंख्यकों और अप्रवासियों के लिए ‘सकारात्मक कार्रवाई’ करने का दावा करते हैं। इन देशों के मूल निवासियों के प्रति इतनी नफरत क्यों। स्वदेशी लोगों के साथ व्यवहार का सवाल शायद ब्रिटिश राज के इतिहास का सबसे काला अध्याय रहा है। गंदा तथ्य यह है कि इसने न केवल आदिवासियों और स्थानीय लोगों को ‘अलग-थलग’ किया बल्कि उन्हे और अधिक हाशिए पर फेंक दिया। स्थानीय आदिवासी समुदाय कोई सवाल या विद्रोह न कर सके इसलिए उन्हे हर तरीके से आर्थिक तौर पर पंगु बना दिया गया और अफ्रीका से ‘दासों’ को भी अमेरिका और अन्य देशों मे लाया गया लेकिन उन्हें सम्मान और मानवाधिकार नहीं दिए।वे केवल गोरों के लिए अपना जीवन खपाते रहे लेकिन उन्हे न्यूनतम वेतन तक नसीब नहीं हुआ। उन्हे सपने दिखा कर दूर दूर से लाया गया था ताकि स्थानीय समुदायों के किसी भी किस्म के प्रतिरोध को आसानी से कुचल जा सके । जब 25 मार्च, 1807 को किंग जॉर्ज III ने गुलामी ‘उन्मूलन’ किया , तो उन्होंने कैरिबियन और अफ्रीका में अपनी विशाल कृषि भूमि के लिए पहले से ही एक और योजना बना ली थी। उन्होंने ‘गुलामी’ के स्थान पर एक नया शब्द विकसित किया जिसे भारत मे गिरमिटिया मजदूर कहा गया। हालांकि इनके साथ ‘कान्ट्रैक्ट’ होता था फिर भी इन्हे ये तक पता नहीं होता था कि ये कहा जा रहे हैं। इन ‘श्रमिकों’ को भारत और ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय उपनिवेशवादियों के अन्य उपनिवेशों से विशेष रूप से कैरिबियन में अमेरिका ले जाया गया जहां यूरोपीय व्यापारियों या जमींदारों के पास गन्ने के बड़े खेत थे। इसने स्थानीय समुदायों और अंग्रेजों के जाने के बाद बाहर से लाए गए लोगों के बीच हितों का टकराव पैदा कर दिया। राज ने स्थानीय समुदायों की उपेक्षा करने या शायद उन्हें सबक सिखाने के लिए ठेका मजदूरों का इस्तेमाल किया।अनेकों झूठे वादों पर भारत से जिन लोगों को इन देशों मे ले जाया गया उनमें से अधिकांश हमारे समाज के सबसे हाशिए के वर्गों, दलितों और पिछड़ी जातियों के लोग थे। इन लोगों को कैरेबियन और अफ्रीका में कॉलोनियों में हजारों किलोमीटर दूर कृषि फार्मों में फेंक दिया गया था। इसलिए स्थानीय समुदायों के साथ टकराव अपरिहार्य था। लोगों को आक्रोश, संस्कृति की हानि और अपने प्रियजनों के साथ उनके संबंधों का सामना करना पड़ा।
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भारत में भी, अंग्रेजों ने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला हत्याकांड के लिए कभी माफी नहीं मांगी , जिसमें आधिकारिक तौर पर 379 लोग मारे गए थे, लेकिन अनौपचारिक गिनती लगभग 1,500 मौतों की बताई जाती है। भगत सिंह और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की फांसी के साथ-साथ भारत के लोगों पर की गई क्रूरता राज के इतिहास का एक काला अध्याय है। अंग्रेजों द्वारा भारत की बर्बरता और शोषण के और भी कई अध्याय हैं। भारत 1943 में बंगाल के अकाल को नजरअंदाज या भूल नहीं सकता है और इसके कारण बंगाल में 30 लाख मौतों के लिए प्रधान मंत्री चर्चिल कैसे जिम्मेदार थे। राजशाही इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकती कि उसने भारतीयों की रक्षा के लिए कुछ नहीं किया। इससे संबंधित कभी कोई पछतावा नहीं हुआ। चर्चिल ने भारतीयों को ‘खरगोशों की तरह प्रजनन’ के लिए दोषी ठहराया और भारत को 1 मिलियन टन गेहूं से वंचित कर दिया, जिसे वायसराय ने बंगाल के अकाल से निपटने के लिए अनुरोध किया था।
आज एशिया का संकट वास्तव में अपने पूर्व उपनिवेशों को ब्रिटिश राज का ‘उपहार’ है। चाहे भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच सीमा विवाद का मुद्दा हो या तिब्बत के साथ-साथ जम्मू कश्मीर का मुद्दा, इन मुद्दों को जानबूझकर उबाल पर रखने में भूमिका ‘मध्यस्थ’ की भूमिका निभाते रहने की ब्रिटिश रणनीति थी। विभिन्न देशों के बीच अविश्वास इतना गहरा रहा है कि कोई भी दुसाहस दुनिया को मानव इतिहास की शायद सबसे बड़ी आपदा के करीब ला सकता है क्योंकि तीन परमाणु राष्ट्रों का एक-दूसरे के साथ सीमा विवाद है। फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व के अधिकार से वंचित करना आज विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है।
इतने क्रूर अध्यायों के बाद भी ब्रिटिश राजशाही लोगों और लोकतंत्रों में इतना लोकप्रिय क्यों है। एक बात जो मैंने पहले ही स्पष्ट कर दी है, वह है ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास और शक्ति की भावना लेकिन कई अन्य कारक हैं जिन्हें हमें समझने की जरूरत है जो अंग्रेजों को दूसरों से बेहतर बनाते हैं।
ब्रिटिश राजशाही समय के साथ बदली और उसने लोकतंत्र को मजबूत किया और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं किये
ब्रिटिश राज के सबसे बड़े विरोधाभासों या विडंबनाओं में से एक यह था कि हमारे अधिकांश राजनीतिक नेताओं ने इंग्लैंड के प्रतिष्ठित कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपनी ‘शिक्षा’ प्राप्त की। यह भी समझने की जरूरत है कि ब्रिटेन अपनी सैन्य शक्ति के कारण ही एक महाशक्ति नहीं था बल्कि इसलिए भी था कि राज के दौरान, उसने औद्योगीकरण, साहित्य, उदारवाद और खेल में प्रगति की। अंग्रेज हमारे पास ‘खोजकर्ता’ या ‘आक्रमणकारियों’ के रूप में आए होंगे, फिर भी उन्होंने न केवल हमारी सर्वोत्तम और सबसे खराब प्रथाओं का दस्तावेजीकरण किया बल्कि हमें विशाल बुनियादी ढांचा प्रदान किया। एक देश के रूप में ब्रिटेन ने भले ही इतने सारे देशों और लोगों को अपना उपनिवेश बनाया लेकिन एक समाज और एक शासन संरचना के रूप में इसने विश्वसनीय और जानकार संस्थानों का निर्माण किया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पसंद का सम्मान किया। यह भी एक तथ्य है कि गुलामी का आविष्कार अंग्रेजों ने नहीं किया था बल्किबड़े बड़े स्थानीय राजाओ, सरदारों द्वारा पहले से ही इसका इस्तेमाल किया जा रहा था और अंग्रेजों ने इस चाल को समझा और इसेअपने आर्थिक मजबूती के लिए बढ़ाया क्योंकि वे ‘व्यापारी’ लोग थे। सबसे बड़ी विडंबना यह हो सकती है कि अधिकांश नेताओं, विपक्षी नेताओं, सामाजिक आंदोलन के नेताओं, असंतुष्टों, प्रकाशकों को जो अपनी-अपनी सरकारों के साथ तालमेल बिठाने में असमर्थ हैं, उन्हें यूनाइटेड किंगडम में सांस लेने और आनंद लेने के लिए जगह मिली। आज भी ब्रिटेन दुनिया केउन गिने चुने देशों मे जो विविधता से परिपूर्ण हैं। । लंदन ट्यूब में एक यात्रा आपको इस विविधता की शक्ति के बारे में बताएगी जो किसी भी अन्य देश की तुलना में ब्रिटेन मे बहुत अधिक दिखाई देती है।
ब्रिटेन में रह रहेउसके पूर्व उपनिवेशों के लोगों ने इस देश द्वारा प्रदान किए गए जीवन और अवसरों का भरपूर आनंद लिया।फलतः उपनिवेशवाद-विरोधी भावनाइस राजनीतिक और बौद्धिक अभिजात वर्ग केअवसरवाद के कारण वाष्पित हो जाती हैक्योंकि जो लोग ब्रिटेन और पश्चिमी दुनिया के अन्य हिस्सों में समाज और क्षाशन व्यवस्था के विषय मे नेरटिव बनाते है और उनके ‘उदार लोकतंत्रों’ के फलो का आनंद लेते हैं, वे कही न कही ये मानके चलते हैं के राज ने हमारे ऊपर शासन अवश्य किया लेकिन हमे दिया भी बहुत कुछ है । । यह भावना कई जगहों पर और गहरी हो गई है और हमारे हिस्सों में लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता के कारण ये नेरटिव विशेषज्ञ ये कहने मे भी नहीं डरते कि गोराशासन हमसे बेहतरथा। भारत को छोड़कर, जहां जवाहर लाल नेहरू एक बेहद लोकप्रिय नेता थे और जनता द्वारा सम्मानित थे, जिन्होंने संस्थानों का निर्माण किया और एक संपूर्ण लोकतांत्रिक थे, बाकी दुनिया ने ऑपनिवेशिक शासन के विरोधी नायकों को अपने ही देशों में निरंकुश होते देखाक्योंकि उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के नायक किसी भी विश्वसनीय संस्थान का विकास नहीं कर सके और अपनी संस्थाओं से बड़े हो गए, कानून से भी ऊपर पहुँच गए।
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पश्चिम विशेष रूप से यूनाइटेड किंगडम की ताकत वह प्रणाली है जिसे उन्होंने अपने लिए बनाया जहां संस्थानों की स्वायत्तता फली-फूली और लोगों को न केवल सम्मान के साथ जीने का अधिकार प्राप्त था बल्कि आपके व्यक्तिगत जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं था। इसके विपरीत, उपनिवेशवाद से छुटकारा पाने वाले सभी देश वास्तव में एक स्वायत्त शासन संरचना प्रदान करने में असमर्थ थे। जातीयऔर धार्मिक टकराहट बढ़ गया और दक्षिणपंथी राजनीतिक नेतृत्व हर जगह हावी हो गया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ, हमने कट्टरवाद और नकली राष्ट्रवाद की वृद्धि और लोकतांत्रिक मूल्यों के गंभीर क्षरण को देखा जो कागज पर ही रह गए। दक्षिण एशिया को देखें, बहुसंख्यक राष्ट्रवाद अल्पसंख्यकों के लोगों को पचा नहीं पा रहा है। हिंदू भारत में मुसलमानो को देखना नहीं चाहते, मुसलमान पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं को पसंद नहीं करते हैं, बौद्ध म्यांमार और श्रीलंका में मुसलमानों से नफरत करते हैं, इस ऐतिहासिक तथ्य की अनदेखी करते हुए कि हम सदियों तक एक साथ रहते थेऔर अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हमारा संघर्ष साझा था। । अंग्रेजों को छोड़े 75 साल से अधिक समय बीत चुका हैलेकिन आज भी यदि लोग ये कहे के उनका शासन और व्यवस्था बेहतर थी तो ये हमारे लोकतंत्र मे आई गिरावट के कारण हुआ है। भारत में शुरुआत में हमारी सही प्राथमिकताएं थीं लेकिन आज भारत सामाजिक असमानता के मुद्दे को संबोधित किए बिना पूंजीवादी मॉडल का पालन करना चाहता है और इसका परिणाम ब्राह्मणवादी प्रभुत्ववादी शक्तियों का विकास है और अल्पसंख्यकों पर हिंसा। के कारण वे औरअधिक हाशिए परचले गए है।
ब्रिटेन अभी भी हमें आत्मनिरीक्षण और सुधार के लिए बहुत कुछ प्रदान करता है। जुलाई 2022 में, प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन ने अंततः अपनी ही कंजर्वेटिव पार्टी में बहुत का भरोसा खो देने को स्वीकार कर इस्तीफा दे दियाऔर अपनी पार्टी को एक नया नेता चुनने के लिएकहा। यूके में प्रक्रिया में तीन महीने लगते हैं क्योंकि जो लोग नेतृत्व की दौड़ में भाग लेना चाहते हैं उन्हें पार्टी के अपने वोटिंग सदस्यों के पास जाना पड़ता है। यदि नेता पद के चुनाव मे अधिक लोग हैं तो तीन चार रौंद होते है ताकि अंतिम दौड़मे दो ही प्रतिद्वंदी रहे। । महारानी एलिजाबेथ की मृत्यु के कुछ दिन पहले ही प्रक्रिया पूरी हो गई थीऔर लिज़ ट्रस नई प्रधान मंत्री बनी और फिर महारानी ने उन्हें अगली सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। क्या आप भारत में ऐसी प्रक्रिया के बारे में सोच सकते हैं जहां नेता तब तक चिपके रहेंगे जब तक कि उन्हें बाहर न कर दिया जाए? और इन दिनों भारत में पैटर्न स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि यदि कोई सरकार से असहमति जताने की कोशिश करता है, तो वह जल्द ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) या खुफिया एजेंसियों के निशाने पर आ जाएगा जहा अधिकारी उसका वित्तीय और अन्य विवरण मांगेगा। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सरकारी तंत्र का दुरुपयोग दुनिया के हमारे हिस्से में दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है । मैं कभी सोच भी नहींसकता कि हमारे पास एक नया नेता चुनने के लिए इतना धैर्य होगा कि तीन महीने इंतज़ार करें। यह तो आपके संसद सदस्यों और विधानसभाओं को खरीदने के लिए पैसे की थैलियां तैयार होंऔर उन्हे बड़े बड़े होटलों और रेसॉर्टों मे कैद करके रख दिया जाता हो ताकि वे दलबदल न कर सके या कोई उन्हे खरीद न सके। ये हमारे लोकतंत्र की गिरावट को ही प्रदर्शित करता है।
अंत में, द क्वीन के अंतिम संस्कार प्रक्रिया और उसके प्रबंधन को देखें जो हमारी सुरक्षा एजेंसियों और बड़े आयोजनों का प्रबंधन करने वालों को बड़ा विजन प्रदान करते हैं। यह देखना हमेशा आकर्षक है कि ब्रिटेन में चीजें कैसे प्रबंधित की जाती हैं, जहां लोग बिना किसी परेशानी के प्रक्रिया का आनंद लेते हैं। जून 2002 में, मैं नेपाल का दौरा कर रहा था जब टेलीविजन पर शाही परिवार के नरसंहार की खबर आई। मुझे एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में भाग लेने के लिए काठमांडू जाना था, लेकिन जानकारी बहुत देर से मिली। उन दिनों लोगों से संपर्क करना मुश्किल भी था क्योंकि संचार माध्यम अभी भी कम थे। इसलिए जाना मजबूरी भी था। जब मैं पहुंचा तो काठमांडू हवाई अड्डे पर कोई टैक्सी नहीं थी और हवाई अड्डे से बाहर आने पर केवल बड़े-बड़े दलाल ही दिखाई दे रहे थे जो मुंह-मांगी ले रहे थे लेकिन अच्छी बात यह थी कि मुझे समकलीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा मिले और फिर उन्होंने उस दिन मुझे अपने साथ एक दोस्त के घर पर रहने की व्यवस्था की । हम लोग हवाई अड्डे से पैदल ही वहाँ पहुंचे । देश भर में लोग सड़कों पर थे और उनके अंदर बहुत गुस्सा था क्योंकि सरकारी जानकारी पर उनका विश्वास नहीं था। रेडियो और टीवी पर यह घोषणा की जा रही थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार लोगों को अपना सिर मुंडवाना चाहिए और एक सप्ताह तक नमक नहीं खाना चाहिए। राजा और उसके परिवार का अंतिम संस्कार तुरंत ही अगले दिन करवा दिया गया जिसमें लोगों को अपने प्रिय शाही परिवार को सम्मान देने के लिए पर्याप्त समय भी नहीं मिला। इसका एकमात्र कारण था कि ‘संदेह की सुई’ दिवंगत राजा के पुत्र, जो स्वयं मारा गया था, पर नहीं बल्कि राजा ज्ञानेंद्र और उनके परिवार पर था। वैसे भी, नए राजा के राज्याभिषेक की पूरी प्रक्रिया इतनी फीकी और फूहड़ थी कि कोई भी व्यवस्था से नफरत करेगा। जिस समय देश सदमे में था, नया राजा वास्तव में लोगों से नहीं जुड़ सका और अपने राज्यारोहण की तैयारी में व्यस्त था।
भारत में मृत्यु को लेकर राजनीतिक पाखंड अधिक है
भारत में हमने अपने राजनेताओं की मृत्यु देखी है। अगर यह हिंसक मौत है तो राजनेताओं के लिए चुप रहना और शांति के लिए बोलना मुश्किल है। वे इसका इस्तेमाल चुनाव में करना चाहते हैं जैसे इंदिरा जी की हत्या पर हुआ। दुनिया के हमारे हिस्से में सबसे बड़ी समस्या उस प्रक्रिया का राजनीतिकरण है जो इसे बड़े पैमाने पर असंगठित और असहनीय बनाती है। बेशक, लोगों में नेता के लिए प्यार होता है और वे उसके शरीर को देखना चाहते हैं, उसे छूना चाहते हैं और श्मशान के पास जाना चाहते हैं, लेकिन यह उन लोगों के लिए सुरक्षा और प्रोटोकॉल के बड़े मुद्दे पैदा करता है जिन्हें शांति से चीजों का प्रबंधन करना होता है। इसके विपरीत, लंदन में जिस तरह से चीजों का प्रबंधन किया जा रहा है, उसे देखें, जो हम सभी को यह देखने का अवसर देता है कि कैसे एक मृत्यु को भी बड़ी गरिमा के साथ बिना उपद्रव किए मनाया जा सकता है।
आपने नए महाराजा के चेहरे पर माँ को खोने का दर्द देखा। दस दिनों तक चले शोक में राज परिवार के सभी लोग न केवल महारानी के शव के साथ थे अपितु लोगों से भी मिल रहे हैं। राज परिवार के इस शालीन तरीके के कारण ही लोकतान्त्रिक देशों में उनके प्रति प्यार और सम्मान दिखाई देता है हालांकि उनसे सवाल पूछने वाले भी बहुत हैं। और पूछ भी रहे हैं लेकिन उन्हें कोई सजाए-मौत नहीं देता और वे लोकतान्त्रिक विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा हैं।
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ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्व उपनिवेशों के लिए, हमें उनके उद्देश्यों और विरासत के नुकसान के साथ-साथ अपने संसाधनों के शोषण पर सवाल उठाने का अधिकार है, लेकिन जब तक हम एक समाज और एक राष्ट्र के रूप में स्वतंत्र रूप से निर्मित अपने सभी व्यवहारों का लोकतंत्रीकरण नहीं कर लेते हैं, तब तक कुछ भी नहीं होगा। जब तक विविध समुदायों को एक साथ लाने के लिए प्रयास नहीं होंगे और अपने संकीर्ण राजनीतिक लक्ष्यों के लिए उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने के लिए नहीं इस्तेमाल नहीं करेंगे, जब तक हम विश्वसनीय शिक्षा प्रणाली विकसित न कर पाए जो हमारे छात्रों और शिक्षकों के दिमाग को खोलती है, तब तक देश में एक वर्ग हमेशा कहेगा कि औपनिवेशिक शासन ही अच्छा था। यह एक तथ्य है कि सत्ता पर काबिज अभिजात वर्ग ने व्यवस्था को हमेशा नियंत्रित किया और अंग्रेजों ने हमें बहुत नुकसान पहुंचाया लेकिन भारत में दलितों और आदिवासियों द्वारा एक ही सवाल ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग से पूछा जा सकता है कि क्या उन्होंने कभी इन समुदायों से उनके साथ की गई ऐतिहासिक ज्यादतियों और अत्याचारों के लिए माफी मांगने के बारे में सोचा? वह तो आज भी भू-संपदा और संपत्ति के अधिकार के साथ ही शिक्षा के अधिकार को छीन रहा है। इन सभी के अपने काले अध्याय हैं और आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका एक मानवीय, नियम पर आधारित समाज का निर्माण करना है जो सुनिश्चित करता है कि हममें से प्रत्येक को फलने-फूलने और सम्मान के साथ अपना जीवन जीने का अवसर मिले। उपनिवेशवाद अतीत है लेकिन पूंजीवाद इसका नया रूप है जो इसे हमारे कुलीन वर्ग के माध्यम से आगे बढ़ा है और आज के शिक्षित युवाओं, विद्वानों, डॉक्टरों और इंजीनियरों को उनके ‘पूर्व’ औपनिवेशिक स्वामी को निर्यात किया गया है जो हमारे देश का न होते हुए भी यहाँ का मुख्य ‘नियंत्रक बन जाता है, और हम उस पर गर्व करते हैं। अपने देश में उनकी ‘उपलब्धियों’ पर गर्व करते हैं जो कभी हमारी थी ही नहीं। हम उनके लिए ‘ताली’ बजाते हैं जबकि वे केवल धनोपार्जन और एक बेहतर जीवन के लिए उन देशों में रह रहे थे और उनका इतिहास हमारे शोषण का रहा है। इसलिए अब इस प्रकार के वैश्वीकरण के नेरटिव से हम अपने यहाँ की समस्याओं के लिए शोषकों को दोष नहीं देते, बल्कि खुद अपने ही समाज और व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं। और ऐसा हो भी क्यों न ? यह प्रक्रिया तब तक जारी रहेगी जब तक हम विश्वसनीय संस्थान, विश्वविद्यालय और कॉलेज बनाने में असमर्थ हैं। हम इस समय पहले से कहीं अधिक विभाजित हैं लेकिन हम इसके लिए अंग्रेजों को दोष नहीं दे सकते हैं। हम पर शासन करने वाले झूठे राष्ट्रवाद का निर्माण करते हैं, जिसका अर्थ केवल दो प्रकार के नागरिकों का निर्माण करना है, एक अधिकार संपन्न और दूसरे शोषित के रूप में जो पूरी तरह से शोषकों पर निर्भर हो। हमें अपने स्वयं के दोषों से सीखने की जरूरत है और अब हम उन सभी बुराइयों के लिए औपनिवेशिक आकाओं को दोष नहीं दे सकते हैं जो आज हमारे पास हैं और हम अपने संकट को हल करने में असमर्थ हैं। जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता दुनिया के हमारे हिस्से में अंग्रेजों की रचना नहीं थी और सत्तर साल बाद भी हम इसे दूर करने में असमर्थ हैं और इसके खिलाफ हमारी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को दर्शाता है।
भारतीय समाज और राजनीति में अश्लीलता बढ़ रही है
क्या यह सच नहीं है कि हमारे प्रजातांत्रिक शासक राजशाही से भी बदतर हैं जिनका रोल मॉडल वैसे ही पुराने राजे-महाराजे हैं। उनकी जीवन-शैली में अश्लीलता भरी है। देखिए हमारे ‘नेता’ कैसे रहते हैं और अपनी ‘सुरक्षा’ पर कितनी शान से पैसा खर्च करते हैं। महारानी एलिजाबेथ के ताबूत की सुरक्षा के नाम पर एक ‘बाइक’ सवार 6 कारों के एक छोटे से काफिले में आगे आगे चल रहा था। क्या भारत में भी ऐसा होना संभव है। एक स्थानीय सांसद के काफिले में पचास से अधिक गाड़िया होती हैं और यदि कोई मुख्यमंत्री एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है, तो हम यातायात को रोकते हैं और काफिले में विभिन्न प्रकार के 100 से अधिक वाहन होते हैं। अगर प्रधानमंत्री यात्रा करते हैं तो आप सोच भी नहीं सकते कि क्या होगा। क्या हमने कभी अपने प्रधानमंत्री को लोगों से व्यक्तिगत रूप से हाथ मिलाते हुए देखा है ? पिछले 10 दिनों के वीडियो और चित्र देखेँ तो राज परिवार के सदस्य लोगों से मिल रहे हैं और अलग-अलग जगहों पर जा कर लोगों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं।
हम खुद को लोकतांत्रिक कहते हैं लेकिन सामंतवाद हमारी संरचना का हिस्सा है। हमारे राजनीतिक नेता हमारे माई बाप हैं, और आम आदमी उन्हें मसीहा के रूप में देखता है। हम अपने नेताओं को एक साथी इंसान के रूप में नहीं बल्कि विशेष रूप से बनाए गए किसी मसीहा के रूप में देखते हैं। नतीजा यह है कि हम एक लोकतांत्रिक राजतंत्र हैं जहां हम एक नए राजा को प्रधानमंत्री के रूप में चुनते हैं, जिनके शब्द और कार्य केवल राजतंत्र को दर्शाते हैं, भले ही वह लोकतंत्र के बारे में बात करते हों। सामंतवाद और जातिवाद से ग्रस्त समाज कभी भी एक शक्तिशाली लोकतंत्र का निर्माण नहीं कर सकता। बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि राजनैतिक लोकतंत्र तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि हम सामाजिक रूप से लोकतांत्रिक नहीं बन जाते। शशि थरूर ने अंग्रेजों से क्षतिपूर्ति की मांग की थी लेकिन यह वैचारिक रूप से तब सही लगती अगर उन्होंने वीभत्स जाति व्यवस्था के बारे में भी यही बात की होती। क्या भारत में ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग वही करेगा जो वह अंग्रेजों से मांग रहा है। हकीकत यह है कि क्षतिपूर्ति तो दूर की बात है हम लोग तो यह भी स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि हमारे समाज के प्रभुत्ववादी वर्ग ने इस देश के बहुजन समाज के लोगों के साथ अन्याय और अत्याचार किया। इसलिए अंग्रेजों से क्षतिपूर्ति की बात ऐसे लोगों के मुंह से केवल पाखंड ही नजर आएगी जो अभी भी अपनी जातिवादी-वर्णवादी व्यवस्था पर गर्व करने का दंभ दिखाते हैं।