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नेपाल में कर्णाली और भारत में घाघरा : हर कहीं नदियों के साथ हो रहा है दुर्व्यवहार

घाघरा उत्तर भारत में गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है। भारत में यह नेपाल के चीसापानी से बहराइच जनपद में प्रवेश करती है। दरअसल, नेपाल में कैलाली प्रांत में तिब्बत के हिमनदों से निकलकर यह नदी बहुत बड़े हिस्से को प्रभावित करती है, जो वहाँ की जन संस्कृति और जैव विविधिता को जीवनदान देती है। तिब्बत में यह नदी मापचा चुँगो हिमनद पर समुद्र तल से 3962 मीटर ऊपर से निकलती है। फिर तिब्बत में यह मापचा सांपों के नाम से जानी जाती है। नेपाल में इसे कर्णाली नदी के नाम से जानते हैं। यह नेपाल की सबसे लंबी नदी है। इसकी लंबाई 507 किलोमीटर है। नेपाल में दो बड़ी नदियाँ कर्णाली में अपनी यात्रा समाप्त करती हैं। पहली है सेती नदी और दूसरी भेरी नदी। यह नेपालगंज के पास सुर्खेत में अपनी यात्रा समाप्त कर कर्णाली को और खूबसूरत बना देती है। चीन में कर्णाली नदी की अंदर कुल लंबाई 113 किलोमीटर है और नेपाल में यह 507 किलोमीटर लंबी है।

 इस प्रकार हिमालय से बिहार के सारण जिले के चिराँद नामक स्थान पर गंगा मे मिलने तक कर्णाली-घाघरा कुल 1070 किलोमीटर की दूरी तय करती है। नेपाल के विभिन्न शोधकर्ताओं की मानें तो कर्णाली नदी के ऊपर 31 जल विद्युत परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, जिनमें से अधिकांश का इस्तेमाल नेपाल के लिए नहीं अपितु भारत, बांग्लादेश और दक्षिण एशिया के अन्य देशों को सप्लाई के लिए होगा। इन जल विद्युत परियोजनाओं से नेपाल को विदेशी मुद्रा तो अर्जित होगी, लेकिन कर्णाली के बेहद खूबसूरत पहाड़ी इलाकों, शिवालिक क्षेत्रों और तराई में बहुत बुरा असर पड़ेगा।

चीसापानी में कर्णाली का सौंदर्य 

नेपाल के चीसापानी से कर्णाली नदी जब भारत में प्रवेश करती है, तो इसके दो हिस्से होते हैं, एक कौड़ियाला और दूसरी गिरुआ। कैलाली राज्य में स्थित चीसापानी भारत-नेपाल सीमा पर स्थित नेपालगंज से लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ पहुँचने में लगभग 4 घंटे लगते हैं, क्योंकि रास्ते में नेपाल के अत्यंत महत्वपूर्ण वनक्षेत्र बर्दिया नैशनल पार्क से गुजरना होता है, जहाँ पर गाड़ियों का आवागमन वन विभाग द्वारा नियंत्रित होता है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ पर बड़ी संख्या में बाघ मौजूद हैं, इसलिए यातायात नियंत्रित किया जाता है, ताकि जानवर और यात्री दोनों सुरक्षित रहें।

चीसापानी कर्णाली नदी पर बने एक विशेष पुल के लिए जाना जाता है जो नेपाल-अमेरिका के सहयोग से बना है, जो 500 मीटर लंबा, 10 मीटर चौड़ा और 125 मीटर ऊंचा है। यह 1993 में बनकर तैयार हुआ था। आज यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है और यहाँ का लैंडमार्क कहा जा सकता है, जहाँ खड़े होकर लोग फोटोग्राफी करते हैं। कर्णाली नदी का जलस्तर यहाँ बहुत अधिक है और मनभावन भी दिखता है। यहाँ से लगभग पाँच किलोमीटर दूर पहाड़ियों और चट्टानों के बीच से जब कर्णाली गुजरती है तो बेहद रमणीक दिखती है।

चीसापानी तक आते-आते कर्णाली का पाट बहुत चौड़ा हो जाता है और ये दोनों नदियाँ विशाल जैव विविधता और घनघोर जंगलों से गुजरती हैं जो नेपाल और भारत की समृद्ध प्राकृतिक विरासत हैं। चीसापानी में राफ्टिंग भी होती है क्योंकि पानी का बहाव बहुत तेज है।

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नदियों की संस्कृति को समझने के लिए हमें नेपाल से लेकर भारत के तराई क्षेत्र की सामाजिक भौगोलिक परिस्थितियों को देखना पड़ेगा। नेपाल के कैलाली प्रांत का अंतिम शहर है चीसापानी, जहाँ से कर्णाली नदी दो हिस्सों में बंटती है और यह भारत की सीमा में दो नदियों के रूप में प्रवेश करती है। चीसापानी बेहद गरम मौसम का क्षेत्र है, जिसे हम अपनी शब्दावली में तराई कहते हैं। हालांकि, चीसापानी से मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर पितमारी नामक स्थल पर काफी चट्टानें दिखाई देती हैं और तापमान थोड़ा कम रहता है। पितमारी में कर्णाली पहाड़ों से घिरी हुई होती है और आगे चलकर मैदान की तरफ बढ़ती है। पहाड़ी मार्ग में नदी की चौड़ाई कम होती है, लेकिन गहराई अधिक होती है और जैसे-जैसे वह तराई के क्षेत्र में प्रवेश करती है वैसे-वैसे उसकी चौड़ाई बहुत अधिक बढ़ जाती है। पितमारी में नदी से उठती हवाएँ और नदी तट पर बड़े-बड़े पत्थरों के ऊपर खड़े होकर नदी को देखना अच्छा लगता है।

एक बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि नदी और पहाड़ों ने एक अल्हड़ संस्कृति को जन्म दिया है। यह मुख्यतः जनजाति, पशुपालकों की संस्कृति का क्षेत्र है और उत्तराखंड की लोक संस्कृति से मिलता जुलता है। ये लोग दिल के साफ होते हैं और अपने मेहमानों का जी खोल कर स्वागत करते हैं। नदी और पहाड़ों की इस परंपरा ने खान-पान पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। आपको हर प्रकार का भोजन यहाँ मिलता है। कर्णाली नदी में विविध प्रकार की मछलियाँ पाई जाती हैं। चीसापानी जैसा छोटा-सा कस्बा, जिसकी आबादी शायद 5000 से भी कम हो, आज पर्यटकों की बहुत पसंदीदा जगह है। हालांकि, जून की गर्मियों में इस क्षेत्र में आना ही बहुत खतरनाक है, क्योंकि तापमान 45 अंश सेल्सियस से ऊपर पहुँच जाता है और दोपहर में बाहर निकलना लगभग असंभव है। अच्छी बात यह कि चीसपानी में छोटे-छोटे होटल और रेस्टोरेन्ट बेहद स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध करवाते हैं, जिसमें स्थानीयता की खुशबू है। कर्णाली नदी की अलग-अलग किस्मों की मछलियाँ, खस्सी या चिकन मिलता है। अच्छी बात यह कि उसके साथ यहाँ हरी सब्जी हर जगह मिलेगी। स्थानीय दाल, जो सोयाबीन की तरह है, भी खाने के लिए मिलती है।

पीतमारी में मैंने दस किलोग्राम की गोल्डन महासिर फिश को देखा, जिसे एक स्थानीय निवासी ने पकड़ा था और वह उसे बनाने जा रहा था। चीसापानी के लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पड़कना, सूअर, भेड़ बकरी और पशु पालन है। यहाँ के खाने-पीने के रेस्टोरेन्ट में हर प्रकार का शाकाहारी, मांसाहारी भोजन उपलब्ध होता है। यह बात भी लोग कह रहे हैं कि गोल्डन महासिर जैसी मछलियों की संख्या कम हो रही है। इस क्षेत्र में पहले डॉल्फिन भी दिख जाती थी, लेकिन अभी इनका दिखना बहुत मुश्किल है।

भारत में प्रवेश और घाघरा के बनने की कहानी

कर्णाली चीसापानी थोड़ा आगे चलकर भारत में तिकोनिया (बहराइच) से प्रवेश करती है और दो भागों में जाती है, पहला हिस्सा कौड़ियाला बर्दिया राष्ट्रीय उद्यान से होकर गुजरता है और दूसरा गिरुआ भारत में कतर्निया घाट वाइल्ड लाइफ रिजर्व से आगे बढ़ते हुए बहराइच जनपद के बिछिया कस्बे में स्थित कैलाशपुरी-गिरिजापुरी में मिलता है। यहाँ इसे घाघरा बैराज के नाम से जाना जाता है। यहीं इसे लोअर शारदा कैनाल से जोड़ा गया है। भारत में यदि कोई रिवर लिंकिंग का काम हुआ है तो वह घाघरा और शारदा को जोड़ने का हुआ, जिसके फलस्वरूप मध्य उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल में बहुत से इलाकों को सिंचाई की सुविधा मिल पाई है। घाघरा बैराज से ही घाघरा नदी की शुरुआत होती है। घाघरा बैराज की कुल लंबाई 716 मीटर है और इसमें 35 गेट हैं।

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बहराइच और लखीमपुर खीरी जनपद के वन क्षेत्रों से गुजरती घाघरा वाकई एक विशालकाय नदी है, बेहद खूबसूरत भी। कैलाशपुरी-गिरिजापुरी में जो घाघरा बैराज है, वह संरक्षित वन क्षेत्र में है। कतर्निया घाट वाइल्ड लाइफ सेंचुरी भारत और नेपाल के बीच बाघों का अभयारण्य है। नेपाल मे कर्णाली वहाँ के प्रसिद्ध वाइल्ड लाइफ सेंचुरी बोर्दिया नेशनल पार्क से होकर गुजरती है तो भारत में  प्रवेश के साथ ही यह कतर्निया घाट के घनघोर जंगलों के बीच से गुजरती है। कतर्निया घाट वाइल्ड लाइफ सेंचुरी 551 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई है जो 1976 मे बनाई गई थी। यहाँ 2003 के बाद टाइगर प्रोजेक्ट बना है। पूरा इलाका थारु आदिवासियों का क्षेत्र है। असल में उत्तराखंड से तराई में आई शारदा नदी भी थारु आदिवासियों के इलाकों से ही होकर गुजरती है। इसलिए यदि घाघरा शारदा नदियों को मिलाकर देखें तो यह भारत-नेपाल की थारु बेल्ट का निर्माण भी करती है। थारु आदिवासी भारत और नेपाल में दोनों जगहों पर हैं। भारत में ये उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार मे स्थित हैं। टाइगर प्रोजेक्ट के चलते थारु समुदाय के लोगों और अन्य वन आधारित समुदायों के अधिकारों पर असर पड़ा है।

कहा जाता है कि कतर्निया घाट में विभिन्न प्रकार के वन्य जीव हैं और यहाँ घाघरा में घड़ियाल और मगरमच्छ भी पाए जाते हैं। कभी-कभी डॉल्फिन भी दिख जाती है। असल में घाघरा बैराज तो कतर्निया घाट के दिल में है और यहाँ पर तो दिन में आराम से खड़े होने पर लोग सावधान रहने के लिए कहते हैं, क्योंकि बाघ लगातार इस क्षेत्र में आते हैं और स्थानीय निवासियों एवं उनके जानवरों पर हमले करते रहते हैं।

शारदा नदी से मिलन

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के लिपुलेख दर्रे के पास कालापानी नामक स्थान पर ओम पर्वत से निकलने वाली धारा को ही काली नदी का स्रोत कहा जाता है, जिसमें कुटी नामक गाँव में आदि कैलाश से आने वाली कुटियांगती नदी के मिलन के बाद काली नदी बनती है, जो भारत और नेपाल की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण भी करती है। अपने स्रोत से उत्तराखंड के पंचेश्वर पहुँचने तक, काली नदी में पाँच प्रमुख नदियों का संगम होता है। ये हैं काली, दरमा या उत्तरी धौली, गोरी, पूर्वी रामगंगा और सरयू नदी। इन पाँच नदियों के स्थान को पंचेश्वर महादेव कहते हैं। वहाँ पर एक प्राचीन मंदिर है। पंचेश्वर में काली के साथ सरयू नदी का ही मिलन होता है, लेकिन काली के साथ तीन नदियों का जल और सरयू में गोमती और पूर्वी रामगंगा के जल के कारण इसे पाँच नदियों का संगम कहा जाता है। हालांकि, तब तक इन दोनों नदियों में मिलने वाली नदियों की संख्या असल में अधिक हो जाती है। यहाँ से यह नदी टनकपुर की ओर आती है और भारत में उसे शारदा नदी कहते हैं, जबकि नेपाल में वह महाकाली के नाम से ही जानी जाती है।

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टनकपुर बनबसा में भारत-नेपाल संधि के तहत एक बैराज बना है, जिससे ये जल दोनों देशों के मध्य विभाजित होता है। भारत की ओर जो जल आता है, वह खटीमा के रास्ते सुरई के खूबसूरत जंगलों से होते हुए झनकइया नामक स्थान पर उत्तर प्रदेश में प्रवेश करता है। यह स्थान पीलीभीत टाइगर रेंज में है। शारदा नदी में भरपूर पानी रहता है। सुरई के जंगल और पीलीभीत टाइगर रेंज में नदी के पानी में घड़ियाल, मगर और अजगर भी रहते हैं। यहाँ का पानी साफ-सुथरा है। लखीमपुर जिले में शारदा नदी पर एक बैराज है, जो शारदा बैराज के नाम से जाना जाता है। इस जगह को शारदा नगर भी कहते हैं। इस बैराज का उद्देश्य उत्तर प्रदेश के मध्य और पूर्वी जिलों के किसानों सिंचाई के पानी की सुविधा मुहैया करवाना होता है। इस बैराज मे पानी की आपूर्ति के लिए घाघरा नदी पर बने बैराज से एक लिंक नहर बनाई गई है, ताकि उसमें साल भर तक पानी बना रहे। घाघरा बैराज से शारदा बैराज तक इस लिंक नहर की लंबाई 28.5 किलोमीटर है। इस प्रकार इस क्षेत्र में शारदा नदी और उसकी सहायक नहर दोनों दिखाई देते हैं, हालांकि हमारी यात्रा के समय नहर में पानी नहीं दिखाई दिया था।

जब बांध के गेट खुलते हैं तो पानी मुख्यधारा में ही जाता है, ताकि कंक्रीट और रेत से नहरों का नुकसान न हो। शारदा सहायक परियोजना 1968 में शुरू हुई थी लेकिन अंततः जून 2000 में पूरी तरह से तैयार हो पाई। इस परियोजना के जरिए दरियाबाद, बाराबंकी, हैदरगढ़, प्रतापगढ़, प्रयागराज को पाँच नहरों से खेती के लिए 16 जिलों को पानी की सप्लाई होती है।

दरअसल, घाघरा की कहानी बेहद महत्वपूर्ण है। अक्सर घाघरा पर यह आरोप लगता है कि यह नदी तबाही अधिक लाती है, लेकिन इसके पीछे हमारी सिंचाई परियोजनाओं की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। घाघरा और शारदा का संगम उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जनपद के ईशानगर ब्लॉक के ईशापुर गाँव के आस-पास होता है, लेकिन घाघरा बैराज को भी लोअर शारदा नहर से लिंक किया गया है। घाघरा बैराज से नदी बहुत विशाल रूप में बहराइच की ओर प्रस्थान करती है। लखीमपुर और सीतापुर के मध्य ईशानगर क्षेत्र में घाघरा और शारदा नदी मिलती है, लेकिन दोनो नदियों की भयानक बाढ़ के चलते हर वर्ष हजारों एकड़ जमीन बाढ़ की विभीषिका का शिकार बनती है।

नदी के रास्ता बदल देने और कटान होने के कारण खेती को हो रहे नुकसान का अभी तक सही प्रकार से अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता। लखीमपुर-सीतापुर की सीमा पर लखीमपुर खीरी के ईशानगर ब्लॉक से 30 किलोमीटर दूर हसनपुर कटोली कस्बे से 15 किलोमीटर मुसेपुर या मल्लपुर के आस-पास शारदा और घाघरा संगम होता है। दोनों ही नदियाँ हर वर्ष इस क्षेत्र में भयानक तबाही लाती हैं, जिसके फलस्वरूप कटान होता है और वे अपने मूल रास्ते से दूर हट रही हैं। हमारे लिए यहाँ पहुंचना असंभव था, लेकिन एक स्थानीय साथी संजय ने, जो गुड़गांव में काम करते हैं। उन्होंने अपनी बाइक पर बैठाकर बेहद मुश्किल हालात में भी संगम स्थल के नजदीक पहुंचाया।

रीवल गंज के पास ‘सरयू घाट’

बाढ़ के कारण अधिकांश क्षेत्र रेगिस्तान की तरह बालू से घिरा हुआ था। खेतों के रास्ते में भी बालू ही भरी पड़ी थी जिसमें गाड़ी फंस रही थी। फिर भी संजय अपनी बाइक को कंटीली झाड़ियों से बचाकर मुझे शारदा-घाघरासरयू के क्षेत्र तक ले गए। दोनों नदियों के पाट के बालू और रेत से चारों तरफ हजारों एकड़ खेत पूरी तरह से बर्बाद हो चुके थे। एक किसान ने बताया, कि मानसून में तो पूरा गाँव डूब जाता है। उनका कहना था कि सरयू नदी अपने मूल तट से कम से कम सात से आठ किलोमीटर आगे आ गई है। अब किसान कुछ नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे इसे प्रकृति का प्रकोप मान कर चुप बैठ जाते हैं। जबकि दूसरी तरफ सरकार मानो इसके इंतज़ार में ही है। वन विभाग ने बहुत से स्थानों पर वृक्षारोपण भी करता है, लेकिन मानसून में ये सब पानी में डूब जाते हैं। घाघरा और शारदा का तटीय क्षेत्र पूरी तरह धूल से पटा हुआ है। आसमान में चारों ओर सफेदी की चादर रहती है। आश्चर्य यह होता है कि लोगों के लिए यह कोई बड़ा सवाल नहीं है।

असल में घाघरा-शारदा के मिलन के बाद घाघरा का आकार विशालकाय होता चलता है। चलहरी घाट नामक स्थान पर घाघरा नदी को देखकर यह अंदाज नहीं लगाया जा सकता कि यह नदी ही है या कोई समुद्र। चलहरीघाट बहराइच और सीतापुर जिले को जोड़ता है। यहाँ उत्तर प्रदेश राज्य पुल निगम द्वारा बनाए गए पुल की लंबाई 3.26 किलोमीटर है और यह 10 मीटर चौड़ा है। फरवरी 2017 से यह पुल यातायात के लिए खोल दिया गया है, लेकिन इसके नीचे देख कर पता चल जाता है कि घाघरा का जल स्तर कितना अधिक है और मानसून में वह अपने साथ कितनी तबाही लाता है। असल में यह पूरा क्षेत्र शारदा और घाघरा का दोआबा क्षेत्र है और दोनों नदियों में बाढ़ आने से इन क्षेत्रों में व्यापक तबाही आती है। यदि बनबासा बांध से अधिक पानी छोड़ा गया तो पूरे लखीमपुर खीरी, पीलीभीत और सीतापुर में बाढ़ का तांडव होता है। यदि घाघरा बैराज से पानी छूटा तो सीतापुर, बाराबंकी, बहराइच आदि जिले प्रभावित होते हैं। बाकी अन्य नदियों के लगातार मिलने से पूरे पूर्वांचल में बाढ़ भयानक तबाही लाती है। गोरखपुर में राप्ती के मिलने से बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बलिया और आजमगढ़ तक फैलता है।

उत्तर प्रदेश में घाघरा और शारदा का क्षेत्र सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित रहता है। केंद्र सरकार की नेशनल रीमोट सेन्सिंग सेंटर, इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनईजेशन और नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एजेंसियों ने मिलकर बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का एटलस तैयार किया है, जिसका पहला वॉल्यूम मार्च 2023 में आया है। इसके अनुसार, वर्ष 1971-78 तक देश भर के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का 24% सिर्फ उत्तर प्रदेश में था। बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान का 23% अकेले उत्तर प्रदेश में ही हुआ। इन एजेंसियों द्वारा एकत्र की गई जानकारी के अनुसार, 1998 से लेकर 2022 तक उत्तर प्रदेश में आने वाली भयावह बाढ़ों की संख्या लगातार बढ़ी है। जहाँ 2003 में मात्र 7 जिले बाढ़ प्रभावित थे, वहीं  2022 में 54 जिले बाढ़ से प्रभावित थे। उत्तर प्रदेश में हर वर्ष लगभग 27 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन बाढ़ से प्रभावित होती है, जिससे लगभग 437 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। प्रदेश की आपदा प्रबंधन रिपोर्ट बताती है कि पिछले वर्षों से वर्षा में लगातार कमी आने से प्रदेश का बहुत बड़ा हिस्सा सूखाग्रस्त रहता है।

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मैंने चीसापानी और घाघरा-शारदा की यात्रा जून महीने में की थी जब अधिकांश स्थानों पर तापमान 48 से 50 डिग्री तक था और तपा देने वाली गर्मी थी। ऐसी स्थिति में गर्मी का हमला जान पर भी भारी पड़ सकता है। बहराइच, गोंडा, सीतापुर और लखीमपुर खीरी नेपाल से जुड़े तराई के वे क्षेत्र हैं, जहाँ बेइंतिहा गर्मी का प्रकोप जारी है। सभी क्षेत्रों में दोपहर के समय कहीं पर भी बैठने की जगह नहीं है। अधिकांश समय नदी वनों और खेतों के बीच से गुजरती है और कई स्थानों पर उसका पाट बहुत चौड़ा है तो कई जगह पर उसके पास अपने पानी के हिसाब से जगह नहीं है, इसलिए मानसून या घाघरा बैराज से पानी छोड़ने पर वह अपनी जगह तलाशती है।

अयोध्या की सरयू 

बहराइच-गोंडा के मध्य पसका सूकरखेत के पास त्रिमुहानी घाट पर सरयू और घाघरा का संगम होता है। अब गोंडा से उत्तर प्रदेश तक की पूरी यात्रा में घाघरा को सरयू का नाम दे दिया गया है। पहले केवल अयोध्या में ही इसे सरयू नाम दिया गया था, लेकिन अब पूरे प्रदेश में आधिकारिक तौर पर इसे सरयू के नाम से जाना जाएगा। त्रिमुहानी घाट के पास में एक ‘मोक्ष धाम’ है और घाट पर नदी की हालात बेहद खराब है। स्थानीय धोबी वहाँ कपड़े सुखाते हैं। पानी बेहद प्रदूषित है और नदी बड़ी-बड़ी झाड़ियों के बीच से गुजरती है। यहीं पर स्थानीय नाले का प्रदूषित पानी भी सरयू में मिल रहा है। चूंकि बहराइच से लेकर पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में घाघरा-सरयू-शारदा नदियाँ लगातार कटान करती रहती हैं और इनका अपना तट हमेशा काटता रहता है, इसलिए बहुत से स्थानों पर इनकी लोकेशन बदल गई है। उसे ठीक प्रकार से चिन्हित करना मुश्किल होता है। बस इतना है कि ग्रामीण और शहरी जनता को केवल इनसे संबंधित घाटों का पता होता है। उसके अलावा ऐसे लगता है, जैसे लोगों की कोई दिलचस्पी नहीं।

नदियाँ जंगलों और दूर खेतों के बीच से बहती हैं, इसलिए अधिकांश समय उन तक पहुंचना कम से कम बाहर वाले लोगों के लिए मुश्किल होता है। जो लोग आस-पास के गांवों में रहते हैं, उनमें रहना बहुतों की मजबूरी होती है। बहुत से लोग वहाँ से निकल जाते हैं। घाघरा-शारदा का क्षेत्र असल में लखीमपुर खीरी, बहराइच और गोंडा की सीमाओं को मिलाता है। इन दोनों नदियों से कैनाल निकाली गई है, जिसके कारण बाढ़ के दौरान मूल नदी में उफान होता है, क्योंकि कैनाल बंद कर दी जाती है। जैसे हरियाणा दिल्ली के यमुना के पानी को लेकर होता है। घाघरा और शारदा में खतरनाक बाढ़ के पीछे असल में इन बांधों का अव्यवस्थित व्यवस्था है। हर वर्ष बाढ़ से रूहेलखण्ड और पूर्वांचल में करोड़ों रुपये की क्षति होती है। सैकड़ों जानें जाती हैं और हजारों एकड़ जमीन बर्बाद होती है।

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बाराबंकी में घाघरा नदी पर 127 वर्ष पुराना पुल बना है, जिससे यहाँ से पूर्वांचल को जोड़ने वाली ट्रेन सेवाएँ निर्बाध गति से चलती रहती हैं। यहाँ पर नदी की चौड़ाई बहुत अधिक है और पुल की ऊंचाई भी नदी से लगभग 111 मीटर पर है। 1896 में बना यह लोहे का यह पुल एक किलोमीटर लंबा है और अंग्रेज गवर्नर जनरल लॉर्ड एल्गिन ने इसका उद्घाटन किया था, इसलिए इसे एल्गिन ब्रिज भी कहते हैं। मानसून के समय इस पुल पर रेड एलर्ट घोषित कर दिया जाता है, क्योंकि घाघरा का पानी तेज़ रफ्तार से और ऊंचाई को छूटता है। कई साल पानी की ऊंचाई 107 और 108 मीटर तक गया है।

गोंडा के बाद घाघरा का विशाल स्वरूप सरयू के रूप में अयोध्या में दिखाई देता है। अयोध्या में सरयू पर बहुत से घाट बने हैं और शाम को आरती भी होती है। पिछले कुछ वर्षों में प्रदेश सरकार के अयोध्या-फोकस के चलते अयोध्या में निर्माण कार्य बढ़ा है और कुल मिलाकर इस प्रकार से हो रहा है कि आनेवाले तीर्थयात्रियों की सुविधा बनी रहे। हालांकि नदी और उसके आस-पास के इलाकों में धूल की सफेद चादर अक्सर परेशान करती है। असल में अभी भी निर्माण कार्यों के करते हुए स्थानीयता को भुला दिया जाता है। अयोध्या अब बहुत बड़ी हो चुकी है। हर तरफ सड़कों का चौड़ीकरण और धार्मिक स्थलों के  निर्माण का काम सरकार कर रही है।

दरअसल, अयोध्या को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहना चाहिए, क्योंकि यहाँ न केवल भगवान राम के जन्मस्थल के रूप में हिन्दुओं की आस्था का केंद्र है, बल्कि बौद्ध साहित्य में इसे साकेत भी कहा जाता है। यह जैन धर्म के अनुयायियों का भी प्रमुख केंद्र रहा है। अयोध्या में देश-विदेश के सूफियों ने अपना डेरा जमाया और लोगों को मानवता और प्रेम का पाठ पढ़ाया। असल में अयोध्या एक खूबसूरत जगह थी। एक समय सरयू के तट पर शाम के समय माहौल बेहद खूबसूरत बन जाता था। अब उसमे नाटकीयता अधिक दिखाई देती है, क्योंकि धर्मस्थलों पर स्थान-स्थानो पर ‘सेल्फ़ी प्वाईंट’ और बड़े बुजुर्गों के लिए ‘वाटर पार्क’ बनाया गया है। पंप द्वारा सरयू से पानी सप्लाई होता है। अयोध्या के सरयू तट पर राम घाट और वहाँ पर मौजूद पुराने मंदिरों की एक शान थी। वहाँ बैठकर या उसे दूर से देखकर एक प्राचीनता का एहसास होता था। आज वह शहरों के युवाओ के लिए छुट्टी मनाने वाला पार्क हो गया है, जहाँ लोग कूद-फांद कर वीडियो बनाते हैं और सेल्फ़ी खींचते हैं।

सरयू नदी पर हवा की रफ्तार बहुत तेज होती है और बहुत बार नाव चलाना बहुत मुश्किल है। अधिकांश नाव चालक मछुआ समुदाय से आते हैं। सभी अब अयोध्या के बड़े धार्मिक स्थल बनने की उम्मीद में हैं, ताकि उनका व्यापार बढ़े। अधिकांश समय सरयू का पानी गंदला और धुंधला दिखाई देता है। सरकार का फोकस मुखतः अयोध्या को एक धार्मिक शहर बनाने का है, बाहर सरयू पर ‘वाटर गेम्स’ या बोटिंग के विषय में कोई विशेष प्रयास नहीं दिखाई देते। खैर, इतने वर्षों में अयोध्या कम से कम वीआईपी लोगों के लिए आसान हो गई है, क्योंकि सड़कें चौड़ी हैं और हेलीपैड की व्यवस्था तो रामघाट के पास ही है। बहुत परेशानी वाली बात नहीं है। यह जरूर है कि उसकी पुरानी खुशबू नहीं दिखाई देती। जिस उन्मुक्तता से हम अयोध्या की स्थानीयता का आनंद आज से 20 वर्ष पूर्व ले सकते थे अब वह स्थानीयता नहीं है।

अयोध्या के बाद बस्ती, आजमगढ़ होते हुए, घाघरा देवरिया जनपद के बरहज पहुँचती है। यहाँ पास में ही उसमें राप्ती नदी का विलय होता है और उसका पानी और विशाल नजर आता है। पूर्वांचल में अनेक छोटी बड़ी नदियां घाघरा में मिलकर उसे और बड़ा करती है।

बिहार में बालू खनन 

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बाद घाघरा बिहार में गोपालगंज, सीवान और सारण जिले के रेवल गंज के पास घाघरा नदी अपने अंतिम पड़ाव पर गंगा से मिलने के लिए जाती है। असल में सारण बिहार के छपरा जिले का नया नाम है, जिसका मुख्यालय छपरा शहर है। इसलिए कभी-कभी पुराने अभिलेखों में छपरा जिला ही लिखा गया है, लेकिन यह अब सारण जिला है। आप यदि गूगल पर देखेंगे तो आपको संगम रेवलगंज बताएगा, लेकिन जैसा कि हम बताते आए हैं, उत्तर प्रदेश और बिहार में नदियाँ अब पानी नहीं रेत और बालू माफियाओ के हिस्से चढ़ गई हैं। हर वर्ष पूरे क्षेत्र में भयानक बाढ़ से बहुत कटान है। रेवलगंज के रेलवे स्टेशन के पीछे घाघरा दिखाई देती है। एक घाट भी बना हुआ है, लेकिन यदि आप लोगों से संगम के विषय में पूछते हैं तो लोग नहीं बताते।

यहाँ पर लोग घाघरा को सरयू कहते हैं, क्योंकि उसमें स्नान कर पुण्य मिलता है। जब गंगा के साथ संगम की बात पूछता हूँ तो एक सज्जन बेहद भोलेपन से कहते हैं, ‘अरे, आप संगम पूछ रहे हैं, वो तो इलाहाबाद में है।’ बहुत से लोगों से हम प्रयास करते हैं कि वह हमें बता सके कि गंगा कहाँ पर मिलती है घाघरा या सरयू से? हम पूरे शहर का दो-तीन चक्कर लगाते हैं, लेकिन अधिकांश लोग यही कहते हैं कि अब नदी बहुत दूर खिसक चुकी है और जाना मुश्किल है।

शहर में एक सज्जन बताते हैं कि हमें ‘तीनधारा’ में जाना पड़ेगा जो चिराँद नामक जगह पर है। रेवलगंज से चिराँद की दूरी कम से कम 30 किलोमीटर है। रेवलगंज से हाईवे पर पहुंचते ही, बड़े-बड़े ट्रकों की मीलों लंबी लाइन दिखाई देती है। ट्रेफिक दूर-दूर तक केवल घिसट कर चलता है। पूरे वातावरण में जबरदस्त प्रदूषण है, क्योंकि हर तरफ केवल रेत और बालू का गुबार है। ऐसा लगता है कि पूरा क्षेत्र प्रदूषण में किसी भी प्रकार दिवाली के बाद वाली दिल्ली से बिल्कुल पीछे नहीं है।

चिराँद में नदी में खड़ी नावें लगातार बालू ढोती मिलती हैं। इन्हें देखकर डरावना अनुभव होता है

किसी प्रकार से हम चिराँद पहुँचते हैं तो नदी तट पर जाकर जो नजारा देखता हूँ, वह भयभीत कर देने वाला है। नदी में हजारों की संख्या में नावें खड़ी हैं, जो बालू भर कर ला रही हैं। चारों ओर रेत और बालू के गुबार की चादर दिखाई देती है। सांस लेना दूभर है। मैंने नदी के तट पर हो रहे इस काम के वीडियो बनाए और फोटो भी खींचा था। अचानक मुझे समझ आता है कि यहाँ तो बहुत खतरा है। मुझे सत्येन्द्र दुबे का ध्यान आता है जिनकी 2003 में हत्या कर दी गई थी। हम इधर-उधर भटकते और पूछते हैं कि ‘तीनधारा’ जाना है। कोई उत्तर नहीं मिलता। सभी यही कहते हैं कि यही पवित्र जगह है। आप पूजा-पाठ कर स्नान कर सकते हैं। हम नदी के तट पर मौजूद एक मंदिर की सीढ़ियों से यह सब देख रहे थे। फिर एक व्यक्ति ने कहा कि आपको तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ेगा और वहाँ से यदि कोई नाविक तैयार हो गया तभी आप तीनधारा जा पाएंगे।

चिराँद के बारे में पढ़ा था कि पुरातत्व के अनुसार यह बहुत ऐतिहासिक जगह है, लेकिन पुरातत्व विभाग का एक संग्रहालय यहाँ बेहद बुरी हालत में है। अगर यह एक ऐतिहासिक जगह है तो बिहार सरकार ने क्यों इसे खदान की राजधानी बना दिया है। लगता है रोजगार के नाम पर ग्रामीण भारत में केवल नदियों से खदान ही सबसे बड़ा रोजगार है। धूल भरे नदी के तट पर घूमते-घूमते हम बालू ढोने वाली नाव वालों से पूछ रहे थे कि तीनधारा ले चलो। बहुत मान-मनौव्वल के बाद अशोक राय नामक एक नाविक हमें ले जाने को तैयार हो गया। वह जगह कम से कम 10-15 किलोमीटर पर है, इसलिए 1500 रुपये से नीचे तो नहीं लूँगा। किसी तरह से उसे 1000 रुपये में राजी किया गया और बोट से तीनधारा की और चल पड़े। असल में तीनधारा का मतलब है, घाघरा और गंगा के साथ में  सोन नदी का मिलना।

स्टीमर के सहारे हम लगभग 20 मिनट में दूसरे किनारे तक पहुंचे। जहाँ अशोक नाव से हमको उतरने के लिए कहता है। फिर हम गंगा-घाघरा के किनारे चलते-चलते उस ओर चलते हैं, जिधर से सोन नदी आती है। फिर उनके संगम स्थल पर अपने को खड़ा पाकर बेहद संतुष्टि का अनुभव होता है। मैंने सोचा कि घाघरा-गंगा के तट पर भयावह तरीके से बालू खनन हो रहा है। वैसे शायद यहाँ न हो लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सोन नदी गंगा और घाघरा के तट के किनारे से समानांतर चलती है और उनके मध्य में केवल एक टापू की दीवार है। मुझे लगता है वर्षों बाद यह दीवार खत्म हो जाएगी और दोनों नदियों का संगम वैसे ही नहीं दिखाई देगा जैसे गंगा और घाघरा का।

खनन माफियाओं ने हमारी नदियों का चरित्र बदल दिया है और शायद इस देश की उत्पीड़ित जनता को भी यही लगता है कि यह सोना उगलने वाली नदी है। सोन नदी असल में छत्तीसगढ़ राज्य के मरवाही जिले की अमरकंटक की पहाड़ियों से निकलती है और मध्य प्रदेश होते हुए उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में कैमूर की पहाड़ियों के बाद बिहार में प्रवेश करती है। मुझे लगता था कि खदान का काम केवल घाघरा में हो रहा है लेकिन उस तरफ जाकर पता चला कि सोन तो वाकई में ‘सोना’ है, क्योंकि उससे लाल बालू निकलती है जिसे मोरंग अथवा दिल्ली में बदरपुर कहते हैं। सामान्य सफ़ेद बालू की तुलना में दुर्लभ और महंगी है।

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स्थानीय लोगों के पास बालू ढोने वाली नावें होती हैं। बहुत-सी नावों में तो खाना बनाने की व्यवस्था भी होती है। संगम के मुहाने पर खड़ा देख मुझे इस बात का संतोष होता है कि मैं अपनी यात्रा को पूरा कर पाया और जो शुरुआत मैंने चीसापानी, नेपाल से की थी वह तमाम मुश्किलों के बावजूद पूरी कर पाया। लेकिन जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश और बिहार में नदियों के प्रति लोगों का ‘लगाव’ देख रहा हूँ, वह बेहद चिंतित कर देने वाला और शर्मनाक है। अपनी प्राकृतिक संपदाओं को हम तबाह कर रहे हैं। मैं नहीं कहता कि लोगों के नहाने से ही नदिया गंदी हो रही हैं बल्कि यह भी हकीकत है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा, घाघरा, यमुना, सोन, गंडक आदि नदियों में बालू खनन अंधाधुंध जारी है। यह नेताओं की आय का भी बहुत बड़ा स्रोत है और शायद लोग भी यह मानते हैं। हर वर्ष नदियों में आ रही बाढ़ से लाखों हेक्टेयर जमीन पानी में डूब रही है, फसलें बर्बाद हो रही हैं। यदि गांवों में तटबंध बन जाए और बांधों से छोड़े जाने वाले पानी के लिए अतिरिक्त चैनल बना दिए जाएँ  तो शायद इस पर नियंत्रण हो सकेगा। वैसे भी बांधों पर बहस पुरानी है और यहाँ उस पर बहस नहीं करूँगा, लेकिन यह समझना जरूरी है कि जिन नदियों के घाटों पर जाकर हम उनकी पूजा करते हैं, उनमें नहाते हैं, उन नदियों को सुरक्षित और स्वच्छ बनाने के प्रयास में जनता स्वयं क्यों नहीं शामिल होती, ताकि सरकार और काम करने वाली संस्थाओं के ऊपर भी दबाब पड़े।

फिलहाल, घाघरा और सोन अपनी पहचान गंगा में समाहित करके और उसके स्वरूप को और विशाल बनाते हुए पटना की ओर प्रस्थान करती हैं और इस प्रकार गंगा अपनी यात्रा लगातार जारी रखती है।

विद्या भूषण रावत सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं।

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