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पूर्वान्चल में बुनकरों को सरकारी राहत योजनाओं के लाभ की वास्तविकता

एक लोकतान्त्रिक देश में वोट बहुत महत्वपूर्ण है और इसे नागरिक को जन्म से मिलने वाला बुनियादी अधिकार समझा जाता है। आंकड़ों के अनुसार 184 (90 प्रतिशत) लोगों के पास वोटर पहचान पत्र था। 20 लोगों (10 प्रतिशत) के पास वोटर कार्ड नहीं था। इनसे जब वोटर पहचान पत्र नहीं रहने के कारण के बारे में पूछा गया तो  कुछ लोगों ने फॉर्म भरने के बारे में कहा तो कुछ लोगों ने बताया कि कुछ तकनीकी कारणों से उनका आवेदन नहीं पूरा हुआ तो कुछ ने बताया कि कुछ गलतियों या उपयुक्त दस्तावेज नहीं रहने के कारण आवेदन खारिज कर दिया गया है।

आजमगढ़ के पतिराम प्रजापति के परिवार में सात सदस्य हैं। लॉकडाउन के पहले वे किसी और के पावरलूम में काम करते थे और महीने में 1600 रुपया कमाते थे। अब उनके पास कोई काम नहीं है। उनके पास जन-धन खाता है और इस खाते में सरकार की ओर से कुछ पैसा डाला गया। पतिराम ने बताया की वे राहत किट लेने के लिए गये थे, वहाँ बहुत ज्यादा भीड़ थी।

इसी बीच पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया। उन्हें लाठी की मार पड़ी। वे खाली हाथ वापस आए। जाति के सवाल को दिमाग में रखने से स्थिति स्पष्ट हो जाती है। प्रजापति उन 17 अति पिछड़े वर्ग में शामिल है जिन्हें उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने 2016 में अनुसूचित जाति का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया। इस प्रस्ताव पर वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित होने का आरोप लगा। अदालत ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया। समाजवादी पार्टी के प्रस्ताव को इससे पहले केंद्र सरकार द्वारा खारिज किया जा चुका था। पतिराम की कहानी दिखाती है कि किस तरह से सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर रहने  वाला समुदाय जाति के आधार पर प्रताड़ना और भेदभाव का शिकार होता है।

बनारस के जलालीपुरा के महबूब आलम आरोप लगाते हैं कि जरूरतमंदों को राशन नहीं दिया गया बल्कि धर्म विशेष के लोगों को राशन मिला।

लोहता के शमशाद अहमद ने इलाके में पानी  निकासी की समस्या और गंदे पानी को लेकर पुलिस  और सरपंच से संपर्क किया। इन समस्याओं के कारण लोग बीमार हो रहे थे। लेकिन किसी ने इसकी सुध  नहीं ली। महिलाओं ने राशन की मांग करते हुए सरपंच के घर पर पूरा एक दिन धरना दिया। सरपंच  ने कहा ‘तुम लोगों को जितना भी मिलता है उतना ही मांगते हो। यहाँ से चले जाओ, तुम्हें कुछ नहीं  मिलेगा।’

लॉकडाउन के दौरान राजनीतिक और सांप्रदायिक भेदभाव एक सामान्य परिदृश्य था और उसका भय इतना ज्यादा फैल गया था कि घर में राशन खत्म हो जाने पर भी लोग दुकान अथवा राहत सामग्री बांटनेवाली जगह तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे बहुत से लोगों के अनुभव हैं जिन्होंने हमसे साझा किए।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बुनकरों, दस्तकारों, किसानों, मजदूरों, स्त्रियों और विद्यार्थियों के लिए हजारों योजनाएँ चलाई जा रही हैं और लगातार नई-नई योजनाएँ बनाई भी जा रही हैं। यह मैं नहीं कहती बल्कि यह स्वयं सरकार के दावे हैं जो लगातार मीडिया के जरिये हम तक आते रहते हैं। किसान सम्मान निधि, जन-धन योजना, आयुष्मान योजना, प्रधान मंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, रोजगार गारंटी योजना, वृद्धावस्था पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना सहित शौचालय योजना, हर घर जल योजना आदि के मध्याम से लोग सुखमय जीवन बिता रहे हैं। प्रधानमंत्री जी के ड्रीम प्रोजेक्ट लगभग हर शहर और जिले में साकार होते चले जा रहे हैं। स्टेच्यू ऑफ यूनिटी, विश्वनाथ कॉरीडोर, सेंट्रल विस्टा, साबरमती पुनरोद्धार परियोजना क्या किसी और समय में बन सकती थीं? इसलिए हमने सोचा कि पूर्वाञ्चल के कुछ इलाकों में घूम कर लोगों की खोजख़बर ली जाय। इस प्रक्रिया में हमने बुनकरों की ओर रुख किया और पूर्वान्चल के गोरखपुर, मऊ और आजमगढ़ के साथ-साथ प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के कुल 204 परिवारों से बातचीत की और यह जानने की कोशिश की कि फिलहाल उन्हें कौन-कौन सी सुविधाएं मिल रही हैं और अगर नहीं मिल रही हैं तो इसके पीछे क्या कारण हैं।

“राज्य सरकार की एक योजना के तहत सर्जनात्मक और उत्पादक गतिविधि जैसे मिट्टी की कलाकृति, चित्रकारी, लकड़ी के खिलौने बनाने, नक्शा बनाने, फ़ैशन डिज़ाइनिंग, बुनाई, इंब्रायडरी जैसे कामों में लगे शिल्पियों और कारीगरों को आर्थिक मदद तथा कर्ज देने के लिए जारी किया गया था। ये सभी काम सूक्ष्म उद्योग में आते हैं।”

राशन कार्ड धारक

सर्वेक्षण में शामिल कुल 204 में से 165 परिवार (81 प्रतिशत) के पास राशन कार्ड हैं और 39 परिवार (19 प्रतिशत) के पास कार्ड नहीं हैं। इसका मतलब कि इन 39 परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली का कोई लाभ नहीं मिला। इनमें से 14 परिवारों ने राशन कार्ड के लिए आवेदन किया है लेकिन उपयुक्त दस्तावेज या पर्याप्त दस्तावेज नहीं होने के कारण अथवा धीमी चाल में चल रही प्रक्रिया के कारण उन्हें अभी तक कार्ड नहीं मिला है। 5 परिवारों ने अपने पास आधार कार्ड नहीं रहने के कारण राशन कार्ड न मिलने की बात बताई।  कुछ लोगों ने एजेंटों को 200-300 रुपए देने के बावजूद राशन कार्ड नहीं मिलने की बात बताई। पूछने पर उन्हें निकट भविष्य में मिलने की अस्पष्ट प्रतिश्रुति (वादा) मिली।

आजमगढ़ जिले के मुबारकपुर क़स्बे की मालती देवी गोंड आर्थिक रूप से पिछड़े दलित परिवार से आती हैं और वे मिट्टी से बनी झोपड़ी में रहती हैं। उनके पति देख नहीं सकते और उनका 14 साल का एक बेटा है। उन्होंने बताया कि  मेरे पास राशन कार्ड और जन धन खाता नहीं होने के कारण लॉकडाउन के समय कोई भी सरकारी राहत नहीं मिली। उनके पास जमीन नहीं है और वे दूसरों के खेत में खेत मजदूरी करती हैं। यह मौसमी काम है। मालती देवी और उनके पति को कभी वृद्धावस्था पेन्शन और दिव्यांग पेन्शन नहीं मिली। उनकी कहानी  इस बात की तसदीक करती है की सरकारी कल्याणकारी  योजनाओं के प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रुपया खर्च करने के बावजूद इनका लाभ उन तक अपवाद स्वरूप ही पहुंचता है, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के रेवड़ी तालाब मुहल्ले के तारिक खान ने बताया की उनके यहाँ समुदाय के कुछ लोगों के पास राशन कार्ड नहीं थे। लोगों  ने मिलकर संबन्धित अधिकारी को पत्र लिखा और उस पर समुदाय का दस्तखत लिया गया। इसके बाद लोगों को राशन मिलना शुरू हुआ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली देश में गरीब परिवारों को सस्ता अनाज मुहैया करने की सबसे प्रमुख योजना है। इस योजना के तहत सरकार गरीबों को रियायती दर पर अनाज देती है। इसका मकसद गरीबों को रियायती दर पर अनाज देने के साथ-साथ अनाज की बाजार कीमत को स्थिर रखना और बफर स्टॉक बनाए रखना आदि है। 1990 तक इस व्यवस्था के द्वारा सभी लोगों को अनाज दिया जाता था।

लेकिन राजकोषीय घाटे के बढ़ते बोझ, जिसका आंशिक कारण सब्सिडी भी थी, के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली को 1997 में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में तब्दील कर दिया गया। इस नई योजना में देश की आबादी को सरकार द्वारा तय गरीबी रेखा के तहत दो हिस्सों में बांटा गया। पहली सूची में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों (बीपीएल) और दूसरी सूची में गरीबी सीमा रेखा से ऊपर (एपीएल) के परिवारों को रखा गया। बाद में सबसे ज्यादा गरीब परिवारों को मदद देने के लिए अंत्योदय अन्न योजना भी शुरू की गई। राशन कार्ड बनाने के लिए आधार कार्ड, पुराना राशन कार्ड, पहचान पत्र, पासबुक और फोटो की अनिवार्यता कर दी गई।

कुल 208 परिवारों में 168 परिवार (81 प्रतिशत) के पास  राशनकार्ड थे। 165 में से 145 परिवारों (88 प्रतिशत) को सफ़ेद राशनकार्ड जारी किया गया था। इन्हें हर महीने प्रति सदस्य को 5 किलो अनाज ( ढाई किलो गेहूँ और ढाई किलो चावल) गेहूँ की दर 2 रुपए प्रति किलो और चावल की दर 3 रुपए प्रति किलो  के हिसाब से तय की गई है।

8 परिवारों (5 प्रतिशत) के पास लाल रंग का कार्ड था। ये सबसे गरीब परिवार थे, जिन्हें अंत्योदय योजना के तहत प्रति महिना 5 किलो अनाज नि:शुल्क दिया जाता है।

12 परिवार ( 7 प्रतिशत) के पास पीला कार्ड है। ये लोग गरीबी सीमा रेखा के ऊपर हैं, इसलिए इन्हें राशन नहीं दिया जाता है। अधिकतर लोगों के घर राशन दुकान से आधा किलोमीटर के दूरी पर थे। कुछ लोगों के लिए यह 2 किलोमीटर दूर था।

लॉकडाउन के समय अप्रैल महीने ( 2020) में सरकार ने एक योजना शुरू की। इसके तहत लोगों को महीने में दो  बार राशन दिया जायेगा। पहली बार उन्हे गेंहू, चावल और एक किलो चना मुफ्त दिया जायेगा और दूसरी बार उन्हें पुरानी दर से अनाज लेना होगा। यह योजना 8 महीने चलनी थी।

165 कार्ड धारक परिवारों में से 116 परिवार को महीने में  दो बार राशन मिला। पहली बार उन्हें मुफ्त में दिया गया और महीने में दूसरी बार उन्हें 2 रुपए प्रति किलो की दर पर गेंहू और 3 रुपए प्रति किलो की दर पर चावल खरीदना पड़ा।

इस योजना को लागू करने में भी कई खामियां पाई गईं। लोगों को सिर्फ पहले 5-6 महीने ही इस योजना का लाभ मिला जबकि इसे नवम्बर, 2020 तक चलना था।

आजमगढ़, गोरखपुर और मऊ में 47 परिवार (28 प्रतिशत) ऐसे थे जिन्हें राशन कार्ड नहीं होने के कारण  लॉकडाउन के समय बाहर से राशन खरीदना पड़ा।

उल्लेखनीय है कि सभी जगहों पर एक समान मात्रा में अनाज का वितरण नहीं  हुआ। कुछ जगहों पर लोगों को 1-2 किलो अनाज ही दिया गया तो कुछ जगहों पर 51 किलो अनाज दिया गया। राशन वितरण में समरूपता नहीं थी। भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे। कई जगहों पर लोगों ने राशन दुकानदार पर निर्धारित से कम अनाज देने और बचे हुए अनाज को पहले की दर पर बेचने का आरोप लगाया। इन कारणों से लॉकडाउन के समय सबसे जरूरतमंदों को सबसे कम राशन मिला।

आधार कार्ड धारक 

भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) एक  वैधानिक प्राधिकरण है। इसकी स्थापना भारत सरकार द्वारा 12 जुलाई , 2016 को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिक मंत्रालय के मातहत की गई। इसे आधार अधिनियम 2016 (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ और सेवाओं का लक्षित) अधिनियम के प्रावधानों के तहत स्थापित किया गया। आधार अधिनियम कानून 2016 को  आधार और अन्य कानून (संशोधन) अधिनियम , 2019  के द्वारा संशोधित किया गया।

यूआईडीएआई की स्थापना भारत में रहने वाले सभी लोगों को एक विशिष्ट पहचान नंबर (आधार) देना है। इसमें  नकली और फर्जी पहचान की संभावना को समाप्त करने  की पर्याप्त क्षमता होनी चाहिए और यह आसानी से कम खर्चे पर पहचान को सत्यापित किया जा सके।

पहला आधार नंबर 29 सितंबर, 2010 को महाराष्ट्र के नंदुरबार के रहने वाले को जारी किया गया। अब  तक भारत में रहने वाले 124 करोड़ से ज्यादा लोगों को आधार कार्ड जारी किया गया है।

आधार अब अनिवार्य दस्तावेज बन गया है। आप किसी सरकारी दफ्तर में जाते हैं तो सबसे पहले आप से आधार मांगा जाता है। हमारे सर्वे ने भी इस बात की पुष्टि की है। सर्वे में भाग लेने वालों में 198 लोगों (97 प्रतिशत) के पास आधार कार्ड है और सिर्फ 6 (3 प्रतिशत) लोगों के  पास आधार कार्ड नहीं है। लोगों ने आधार कार्ड नहीं होने के कई कारण गिनाये। एक तो ऑफिस बंद हो जाना और दूसरा अधिकारियों द्वारा किसी न किसी कारण से आधार कार्ड नहीं देना।

मतदाता पहचान पत्र धारक

भारत एक संवैधानिक लोकतन्त्र है। यहाँ केंद्रीय और राज्य सरकारों का गठन संसदीय चुनाव के द्वारा होता है। नियमित, मुक्त और निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न होना इस संसदीय लोकतन्त्र का मूल तत्व है। इन चुनावों से  सरकार का स्वरूप निर्धारित होता है।

भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था सार्वजनिक बालिग मताधिकार पर आधारित है। इसका मतलब 18 साल (पहले यह 21 साल था) से ज्यादा उम्र के सभी लोग चुनाव में मतदान कर सकते हैं। सभी जाति, धर्म, आस्था और लिंग के लोग मतदान कर सकते हैं। दिमागी रूप से बीमार और कुछ अपराधों में दोषी करार दिये लोगों को मतदान नहीं करने दिया जाता है।

एक लोकतान्त्रिक देश में वोट बहुत महत्वपूर्ण है और इसे नागरिक को जन्म से मिलने वाला बुनियादी अधिकार समझा जाता है। आंकड़ों के अनुसार 184 (90 प्रतिशत) लोगों के पास वोटर पहचान पत्र था। 20 लोगों (10 प्रतिशत) के पास वोटर कार्ड नहीं था। इनसे जब वोटर पहचान पत्र नहीं रहने के कारण के बारे में पूछा गया तो  कुछ लोगों ने फॉर्म भरने के बारे में कहा तो कुछ लोगों ने बताया कि कुछ तकनीकी कारणों से उनका आवेदन नहीं पूरा हुआ तो कुछ ने बताया कि कुछ गलतियों या उपयुक्त दस्तावेज नहीं रहने के कारण आवेदन खारिज कर दिया गया है। इससे कुछ लोगों के लापरवाह होने या उपयुक्त जरूरी दस्तावेज के बारे में जानकारी नहीं रहने का पता चलता है।

बुनकर और शिल्पी कार्ड धारक

राज्य सरकार की एक योजना के तहत सर्जनात्मक और उत्पादक गतिविधि जैसे मिट्टी की कलाकृति, चित्रकारी, लकड़ी के खिलौने बनाने, नक्शा बनाने, फ़ैशन डिज़ाइनिंग, बुनाई, इंब्रायडरी जैसे कामों में लगे शिल्पियों और कारीगरों को आर्थिक मदद तथा कर्ज देने के लिए जारी किया गया था। ये सभी काम सूक्ष्म उद्योग में आते हैं। इन्हें सस्ते ब्याज पर कर्जा दिया गया था। बुनाई उद्योग में बुनकर कार्ड बुनाई करने वालों को और शिल्पी कार्ड जरदोज़ी का काम करने वालों के लिए निर्धारित किया गया था।

कुल 204 लोगों में 109 (54 प्रतिशत) लोगों के पास बुनकर कार्ड और 9 (4 प्रतिशत) लोगों के पास शिल्पी कार्ड था। 86 (42 प्रतिशत) लोगों के पास इन दोनों में से कोई भी कार्ड नहीं है।

बनारस के सरायमोहाना के रहने वाले दीपक कुमार गौड़  और बाबूलाल राजभर कहते हैं ‘काँग्रेस सरकार में हमें बुनकर कार्ड पर 1000 रुपए मिलते थे। लेकिन जब से बीजेपी सरकार आई है तब से हमारे बैंक खाते में एक नया पैसा नहीं आया है।’

हमने पाया की पिछली सरकारों से इतर उत्तर प्रदेश की वर्तमान योगी आदित्यनाथ सरकार ने पहली जनवरी, 2020 को इस योजना की किसी तरह की मांग नहीं रहने की बात करके शिल्पी कार्ड योजना को बंद कर दिया।

(Ref: https://nsfdc.nic.in/hi/shilpi-samriddhi-yojana)

किसी भी आदमी को इस कार्ड पर कोई लाभ नहीं मिला है। कार्ड तो कुछ लोगों के जरूर बन गए हैं लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। लोगों के पास शिल्पी और बुनकर कार्ड हैं लेकिन उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। योजना की मांग है और बुनकर तथा जरदोज़ी कारीगरों को मदद की जरूरत है।

प्रधान मंत्री जन धन योजना खाता के लाभ और लाभार्थी

प्रधानमंत्री जन धन योजना वित्तीय समावेश के लिए  राष्ट्रीय अभियान है। इसका उद्देश्य सुलभ और सस्ते में मूल बचत और जमा खाता, प्रेषित रुपया, कर्जा,  बीमा, पेन्शन आदि तक लोगों की पहुँच को सुनिश्चित करना है। इस योजना के तहत कोई व्यक्ति, जिसका अन्य किसी बैंक में खाता नहीं है, अपना मूल बचत और जमा खाता किसी भी बैंक या बैंक मित्र में खोल सकता है।

बैंक में जिनका पहले से खाता नहीं है वे एक मूल बचत खाता खोल सकते हैं। इस खाते में कोई न्यूनतम राशि रखने की जरूरत नहीं  है। प्रधानमंत्री जन धन योजना के खाता धारक को रुपे डेबिट कार्ड दिया जायेगा। रुपे कार्ड में एक लाख रुपया तक (28 अगस्त, 2018 के  बाद खाता खोलने वालों के लिए इस राशि को बढ़ाकर 2 लाख कर दिया गया है) की दुर्घटना बीमा राशि का प्रावधान है। प्रधानमंत्री जन धन खाते में जमा राशि पर ब्याज  मिलेगा। योग्य खाताधारकों के लिए 10000 रुपए तक ओवर ड्राफ्ट यानी अधिविकर्ष अथवा उधारी की सुविधा है।

प्रधानमंत्री जन धन योजना खाता धारक प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेन्शन योजना और मुद्रा योजना का लाभ उठाने के पात्र हैं।

लॉकडाउन के समय जन धन योजना के तहत मिलनेवाली आर्थिक मदद के लिए बैंकों के आगे लोगों के कतार में खड़े होने की सूचना मिली। उनके खाते में सरकार ने पैसा भेजा है या नहीं, इसे जानने के लिए लोग कतार में खड़े थे। जिन लोगों के पास यह खाता नहीं था, वे  खाता खोलने के फॉर्म लेने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन आरोप है कि बैंक वाले लोगों को फॉर्म नहीं दे रहे  थे। बैंकों के बाहर लंबी कतार थी और किसी तरह की सामाजिक दूरी नहीं बनाई गई। लोगों की कमाई का रास्ता पूरी तरह बंद हो चुका था, इसलिए उनके पास सरकार के ऊपर आश्रित होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

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पेंटागन के बिल्ले यहीं शिवाले में बनते हैं

 

ऊपर के आंकड़ों से पता चलता है कि सिर्फ 98 लोगों (48 प्रतिशत) के पास जन धन खाता था और 106 लोगों (52 प्रतिशत) के पास यह खाता नहीं था। ये आरोप लगा कि बैंक सिर्फ प्रभावशाली लोगों को फॉर्म दे रहे थे, न कि उनको जिन्हें जरूरत थी।

राहत योजना के तहत सरकार ने जन धन खाते में तीन बार 500 रुपए डालने की घोषणा की थी। हमारे सर्वे में शामिल जन धन खाता धारकों में केवल 57 लोगों (58 प्रतिशत) को  सरकार से आर्थिक मदद मिली। इनमें 50 लोगों को तीन बार में 1500 रूपए मिले, 9 लोगों को दो बार में 1000 रुपए और 2 लोगों को सिर्फ एक बार 500 रुपए मिले।

जन धन खाता होने के बावजूद 41 (42 प्रतिशत) लोगों को सरकार से पैसे की कोई मदद नहीं मिली। पुराना गोरखपुर के रहने वालों को कोई पैसा नहीं मिला। 

राहत और पेंशन के वास्तविक हालात

बनारस जिले में स्थित लोहता के हारून अहमद के परिवार में पाँच  सदस्य हैं। वे कहते हैं ‘मैंने लॉकडाउन के समय जनधन फॉर्म भरा और मैं सरकार से 1000 रुपए की आर्थिक मदद की उम्मीद कर रहा था, लेकिन मुझे कुछ नहीं  मिला।’ उन्होंने डरावनी आवाज में आगे कहा ‘मैं अपने  परिवार की देखभाल करने के लिए कोई दूसरा काम देख रहा हूँ। लेकिन अगर मुझे कोई काम नहीं मिलेगा तो मेरे पास आत्महत्या करने के अलावा कोई रास्ता नहीं  रहेगा।’

“समय बीत गया है लेकिन मानसिकता नहीं बदली है। सांप्रदायिकता का ज़हर बड़ी बारीकी से लोगों के ज़ेहन में भरा गया है। जिस देश का प्रधानमंत्री लोगों को कपड़ों से पहचानने का दावा करता हो और चैनल नोटो में चिप की जानकारी देते हों और सीधे-सीधे मुसलमानों को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार बताते हों वहाँ ऊपर लिखे गए अनुभवों की संख्या कितनी ज्यादा होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है।”

बुजुर्ग नागरिकों के लिए सरकार की पेन्शन योजना उन्हें आर्थिक सुरक्षा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है  और साथ में इससे समाज के कुछ अहम क्षेत्र में आर्थिक  विकास की शुरुआत होती है। भारत में इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेन्शन योजना इसी तरह की योजना है। यह योजना 2007 में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने शुरू की थी और इसे नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम के नाम  से जाना जाता है। वरिष्ठ नागरिकों, विधवाओं और दिव्यांगों को पेन्शन देकर लाभार्थियों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराना इस योजना का मूल मकसद है।

सामने आए आंकड़े के अनुसार 204 परिवारों में से 196 परिवार (96 प्रतिशत) पेन्शन लेने के पात्र नहीं हैं या होने पर भी उनका पंजीकरण नहीं किया गया है। सिर्फ  8 परिवारों में पेन्शन पाने वाले लोग हैं। इनमें 4 लोगों को  लॉकडाउन के समय 1500 रुपए पेन्शन मिली थी।

चौहट्टा मुहल्ले के आफ़ताब कहते हैं कि ‘उन्होंने खाता खोला और माँ की पेन्शन के लिए आवेदन किया लेकिन उन्हें कुछ  नहीं मिला।’

विधवा पेन्शन पाने वाले इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेन्शन के भी हकदार हैं। सर्वे में शामिल 8 परिवारों (4 प्रतिशत) में विधवाएँ थीं और 196 (96 प्रतिशत) परिवारों में कोई विधवा नहीं थी। इन 8 विधवाओं में से लॉकडाउन के समय सिर्फ 4 को पेन्शन मिला। उन्हें 3000, 1500,  और 1000 रुपए पेन्शन मिली। एक अन्य महिला को पेन्शन मिली लेकिन उसने रकम बताने से इनकार किया।

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अर्थव्यवस्था के कुठाराघात ने बनारस में खिलौना बनानेवालों को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है

उज्ज्वला योजना के पीछे की कालिमा

समाज कल्याण मंत्रालय द्वारा 1 मई, 2016 को स्वच्छ ईंधन, बेहतर जीवन के नारे के साथ प्रधानमंत्री उज्जवला योजना की शुरूआत हुई। पेट्रोलियम और प्राकृतिक  गैस मंत्रालय इस योजना को लागू कर रही है।

यह योजना धुआँमुक्त ग्रामीण भारत की बात करती है और इसका लक्ष्य 5 करोड़ परिवारों को मदद पहुंचाना है, खास कर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं को मुफ्त में गैस कनैक्शन देना। साथ ही रियायती दर पर पूरे देश को कनेक्शन देना (2019 तक इसके पूरा हो जाने का बात कही गई थी)। इस योजना से एलपीजी  का उपयोग बढ़ेगा जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्या, वायु  प्रदूषण और जंगल की कटाई कम होगी।

मौजूदा सरकार ने इस योजना का बहुत प्रचार किया। सभी जगहों पर लोगों को इस योजना का बैनर दिखता है और टेलीविजन पर इसके विज्ञापन देखे जा सकते हैं। लेकिन हमारे सर्वे के आंकड़े में सिर्फ 21 महिलाएँ  (10 प्रतिशत) इस योजना के तहत पंजीकृत हैं। शेष 183 महिलाओं (90 प्रतिशत) का इस योजना में पंजीकरण भी नहीं हुआ है। कई औरतें पिछले एक-दो साल से उज्जवला गैस पाने की कोशिश कर रही हैं और 4-5  बार फॉर्म भर चुकी हैं, लेकिन अभी तक गैस नहीं मिली है।

उज्जवला योजना के तहत पंजीकृत 10 प्रतिशत महिलाओं में से 10 महिलाओं को लॉकडाउन के समय गैस मिली। अन्य पंजीकृत 11 महिलाएं गरीबी रेखा से नीचे हैं। उन्हें गैस सिलेन्डर नहीं मिला। सरकार की योजना के  अनुसार 2019 तक पूरे देश में सभी के पास गैस कनैक्शन हो जाना चाहिए था। लेकिन हम जानते हैं कि कितने परिवार मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं। लोगों ने उज्जवला गैस  के लिए आवेदन किया है फिर भी वह उन्हें नहीं मिला। यह  बनारस के नक्खी घाट में देखा गया जो प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है।

सर्वे में हिस्सा लेने वालों में 23 (11 प्रतिशत) लोगों ने राशन, जन-धन योजना के तहत आर्थिक मदद, गलत या बढ़ा हुआ बिजली बिल या जल निकासी से जुड़ी समस्याओं और राहत के लिए स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार से संपर्क किया। आम तौर पर लोग इन मुद्दों पर स्थानीय और राज्य सरकार के रुख से  संतुष्ट नहीं हुए।  हमारे सर्वे के 181 (89 प्रतिशत) लोगों ने स्थानीय सरकार से संपर्क नहीं किया।

लल्लापुरा, बनारस के रुख़साना ने बताया की घर में खाना नहीं रहने के कारण उन्हें कोरोना बीमारी की जगह भूख से मर जाने का डर ज्यादा लग रहा था। वे स्थानीय सरकार से मदद नहीं मांग पाईं क्योंकि सभी लोग बीमारी फैलने के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। प्रतिक्रिया के डर से बनारस के कोयला बाजार के खुर्शीद आलम और गुलाब ने कहा ‘हम ज्यादा नहीं बोल सकते, लेकिन हाँ, हमेंसरकार से कोई मदद नहीं मिली है। उनकी तरफ से बहुत ज्यादा परेशान किया गया।’

लॉकडाउन के दौरान भेद-भाव 

फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग के दौरान हमें धार्मिक भेद-भाव का शिकार होने वाले लोग मिले। उन्हें सांप्रदायिक कारणों से कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से वंचित करने से लेकर कोरोना वायरस के फैलाने तक का जिम्मेदार ठहराना शामिल है। नीचे कुछ उदाहरण दिए गए हैं :

आरी कारीगर आफताब ने कहा ‘काम की खोज करने  के लिए मैं दूसरे शहर गया था और दूसरे दिन पहली ट्रेन से मैं वापस आ गया। ट्रेन से उतरने के बाद पुलिस ने मेरा नाम पूछा और मुझे कोरेंटाइन कर दिया जबकि मेरे साथ के हिंदुओं को जाने दिया गया।’ आफताब ने आगे और कहा, ‘हमें रात 9 बजे तक दुकान बंद  करने को कहा जाता है लेकिन हिंदुओं को इस समय के बाद भी दुकान खोले रखने दिया जाता है।’

लॉकडाउन के बाद सरकार एक के बाद एक राहत योजनाओं की घोषणा कर रही थी। इसी तरह की एक  मोदी राहत किट थी जिसमें गेंहू का आटा, चावल,  दाल, तेल, चीनी, चाय पत्ती, नमक आदि सामान था।  इस किट को बनारस के शिवाला, रेवड़ी तालाब और मदनपुरा में बांटा गया। इन इलाकों में भारी संख्या में  बीजेपी के वोटर हैं।

रज़ाउद्दीन (बदला हुआ नाम) ने बताया ‘लॉकडाउन  के समय मोदी किट का वितरण हो रहा था। इसलिए मैं और मेरा दोस्त कृष्णा (बदला हुआ नाम) किट लेने गए। उन्होंने हम दोनों का नाम पूछा लेकिन सिर्फ कृष्णा को किट दिया।’ रज़ाउद्दीन आगे कहते हैं ‘उन लोगों ने खुले तौर पर कहा कि ये किट हिंदुओं के लिए है, मुसलमानों के लिए नहीं है। इस मुश्किल समय में भी लोग हिन्दू और मुसलमानों में नफरत फैला रहे हैं।’

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बनारसी साड़ी के कारोबार का एक साहित्यिक आकलन

राहत वितरण में लोगों को धार्मिक और जातीय भेद-भाव का सामना करना पड़ा। कुछ जगहों पर लोगों पर लाठी  चार्ज किया गया। कुछ लोगों ने बताया की राहत वितरण के समय वहाँ मौजूद सरकारी अधिकारियों ने लोगों से कहा की यह सिर्फ हिंदुओं के लिए है। अधिकारियों ने लोगों से कहा कि राहत के लिए वे उनके पास जाएँ जिन्हें उन लोगों ने वोट दिया है।

बनारस के बड़ी बाजार के मोहमद सलीम और नक्खीघाट के नसीरुद्दीन, जैनूल आबेदिन, कौसर जहां, गुलाम नबी और निसार अहमद ने बताया कि साम्प्रदायिक तनाव के कारण माहौल खराब हो गया है। माहौल इतना जहरीला हो गया है कि उन्होंने सरकार से संपर्क भी नहीं किया क्योंकि राशन वितरण में धर्म के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है।

बड़ी बाजार के इकबाल अहमद ने अपना अनुभव साझा किया। वे सामान लेने के लिए हिन्दू दुकानदार के पास गये तो वहाँ लोगों ने उन्हे देखकर नफरती बातें कही  ‘कोरोना आ गया, इसे कुछ मत दो, कोरोना आ  जायेगा।’

मोहम्मद तालिब रेवड़ी तालाब के रहने वाले हैं। वह जब दुकान पर आटा खरीदने गये तो दुकानदार ने उन्हें आटा देने से मना कर दिया। दुकानदार ने कहा ‘तुम मुसलमान हो, हम तुम्हें आटा नहीं देंगे।’ उन्हे देखकर लोगों ने ‘मियां आ गया’ कहकर प्रताड़ित किया। मियां सम्मानसूचक शव्द है लेकिन अब यह सांप्रदायिक कलंक बना दिया गया है। तालिब याद करते हैं, ‘लोगों ने कहा कोरोना आ गया, हम तुम्हें नहीं देंगे,  भागो।’ तालिब ने उनसे पूछा ‘आप लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं? मुझे आटा दीजिये। हम सालों से यहाँ रहते आए हैं। तब कोरोना नहीं था, अब कोरोना आ  गया?’ आरोप है कि इन लोगों ने मुस्लिम मुहल्लों से  आने वालों को रोकने के लिए रास्ते को टीन से रोक दिया था।

‘आज हमें सब्जी खरीदने या कहीं और जाना है तो भगा दिये जाने के डर से ज्यादा पीटे जाने/ मार दिये जाने  का डर होता है। अब बाहर जाना मुश्किल है। हम  बाहर जाने से बचते हैं। मजा करने या मनोरंजन के  लिए हम कहीं नहीं जाते। हम सोचते हैं कि हालत ठीक होने पर हम बाहर जायेंगे। अब माहौल ठीक होने में  एक साल लगेंगे।’ तालीब अफसोस जताते हैं।

वारिसा बानो कहती हैं कि लॉकडाउन के समय भी बजरडीहा के हिन्दू और मुसलमान समुदाय सद्भाव और शांति से रहे। लेकिन मुहल्ले से बाहर सड़क पर मुसलमानों को भेद-भाव का सामना करना पड़ा। यह खबर आई कि बजरडीहा में तबलीगी जमात के लोग छुपे हैं। हिन्दू दुकानदार मुसलमानों को सामान  देने से मना कर देता है। उसके बाद कोई डॉक्टर सक्सेना कथित तौर पर बजरडीहा के मरीजों को देखने से मना कर देते हैं। डॉक्टर सक्सेना के क्लीनिक के बाहर कैमरा लगा है। यह आरोप लगा कि डॉक्टर ने अपने कर्मचारियों से आने वाले मरीजों के बारे में पता करने और अगर वे बजरडीहा से हैं तो उन्हे अंदर नहीं आने के आदेश दे रखे थे।

रेवड़ी तालाब के नसीम अहमद अंसारी ने बताया की जब  वो राशन लेने के लिए गये तो राशन देने वालों ने उनसे उनके राजनीतिक संबंध, झुकाव या स्पष्ट रूप से उन्होंने किसे वोट दिया था, के बारे में जानना चाहा। यह सिर्फ निजता का उल्लंघन का बड़ा मामला नहीं है बल्कि सरकार में बैठी राजनीतिक पार्टी को वोट नहीं देने वालों पर भेद-भाव करने का व्यवस्थित ज़रिया है। नसीम को अधिकारियों से शिकायत करने का कोई मतलब नहीं दिखा।

समय बीत गया है लेकिन मानसिकता नहीं बदली है। सांप्रदायिकता का ज़हर बड़ी बारीकी से लोगों के ज़ेहन में भरा गया है। जिस देश का प्रधानमंत्री लोगों को कपड़ों से पहचानने का दावा करता हो और चैनल नोटो में चिप की जानकारी देते हों और सीधे-सीधे मुसलमानों को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार बताते हों वहाँ ऊपर लिखे गए अनुभवों की संख्या कितनी ज्यादा होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है। मुसलमानों में डर का क्या आलम है इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि उन्होंने तस्वीरें खिंचवाने तक से मना कर दिया।

ये हमारे देश की मेहनतकश जनता के दुर्भाग्य और विडम्बना के वास्तविक दृश्य हैं।

 

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