जिस तरह अंग्रेजों ने भारत छोड़ने से पहले को पाकिस्तान बनाया था, ठीक उसी तरह उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाते हुए जाने से पहले 14 मई 1948 को फिलिस्तीन को विभाजित करके इजराइल बनाया था।
अरब की आबादी अधिक होने के बावजूद उन्होंने फिलिस्तीन की 55% जमीन यहूदियों को दे दिया था। इससे नाराज होकर फिलिस्तीनियों ने अगले दिन 15 मई से 8 महीने लंबा युद्ध शुरू कर दिया, जिसमें सभी अरब देश फिलिस्तीन और सभी पश्चिमी देश इजराइल के साथ आ गए थे। यह नजारा आज भी देखा जा सकता है, फर्क सिर्फ इतना है कि पश्चिमी देशों के दबाव में अब कई अरब देश इजराइल समर्थक बन गए हैं।
फिलिस्तीनियों को जबरन उनके घरों से निकाला जा रहा था। अरब मुसलमान इस दिन को ‘अल नकबा’ यानी विनाश के दिन के तौर पर याद करते हैं। जुलाई 1949 तक इजरायली सेना 7.5 लाख फिलिस्तीनियों को बेदखल कर चुकी थी। 1949 में युद्ध विराम की घोषणा के साथ युद्ध रुक गया। इस युद्ध के बाद फिलिस्तीन के ज्यादातर हिस्से पर इजरायल का कब्जा हो गया। जो जमीन जॉर्डन ने कब्जाई थी, उसे आज वेस्ट बैंक के नाम से जाना जाता है। मिस्र द्वारा कब्जा किया गया जो हिस्सा सिनाई रेगिस्तान से सटा था, वही आज की गजा पट्टी है। जहां से 7 अक्टूबर को हमास ने हमला किया। फिलिस्तीन की राजधानी यरुशलम भी दो हिस्सों में बंटी हुई है- एक जॉर्डन के पास है और दूसरे पर इजरायल का कब्जा है।
28 मई 1964 को काहिरा में अरब लीग की बैठक हुई और उस बैठक में 2 जून 1964 को फिलिस्तीन को इजरायल से आजाद कराने के लिए एक संगठन की स्थापना की गई, जिसका नाम ‘फिलिस्तीन मुक्ति संगठन’ (पीएलओ) पड़ा। 1974 के ‘ओस्लो समझौते’ के कारण यह संयुक्त राष्ट्र संघ में गैर-सदस्य पर्यवेक्षक के रूप में शामिल हुआ।
1967 के युद्ध में, इज़राइल ने मिस्र को हराया और सीरिया ने पूर्वी यरुशलम, पश्चिमी तट, गाजा पट्टी और गोलान हाइट्स पर कब्ज़ा कर लिया। इसे छह दिवसीय युद्ध भी कहा जाता है। इसराइल ने कब्ज़ा किए गए इलाकों में यहूदी बस्तियाँ बनानी शुरू कर दी और हज़ारों फ़िलिस्तीनियों को अपना घर छोड़ना पड़ा।
1973 में मिस्र के नेतृत्व में अरब देशों के एक समूह ने एक बार फिर इसराइल पर हमला किया। यह हमला यहूदियों के पवित्र दिन, नए साल के दिन यानी 6 अक्टूबर को ‘योम किप्पुर’ के दिन किया गया। इसराइल ने एक बार फिर अमेरिका की मदद से अरब देशों को हराया। 1974 संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 181 के तहत फ़िलिस्तीन को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। एक यहूदियों के लिए और दूसरा अरब मुसलमानों के लिए था और साथ ही यरुशलम को एक अंतरराष्ट्रीय शहर घोषित किया गया। यहूदियों को यह संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव सिर्फ़ कूटनीतिक कारणों से पसंद आया लेकिन अरब देशों ने इसे मानने से इनकार कर दिया।
1978 में अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात और इसराइल के प्रधानमंत्री मेनाकेम बेगिन के बीच शांति समझौता कराने की कोशिश की। इसे ‘कैंप डेविड समझौता’ के नाम से जाना जाता है और इसी तथाकथित शांति समझौते के कारण नोबेल पुरस्कार समिति ने अपने विश्व प्रसिद्ध ‘शांति पुरस्कार’ को दो राष्ट्राध्यक्षों (इज़राइल और मिस्र) के बीच बांटकर प्रदान किया था। हालाँकि, इसके तहत दिए गए सुझावों का कभी पालन नहीं किया गया। 6 जून 1982 को, इज़राइल ने फिलिस्तीनी उग्रवादियों पर हमला करने के लिए लेबनान में घुसपैठ की। इज़राइल समर्थित मिलिशिया ने बेरुत में शिविरों में रह रहे कई सौ से अधिक फिलिस्तीनी शरणार्थियों को मार डाला।
1987 में, फिलिस्तीन ने पहला ‘इंतिफादा’ यानी विद्रोह शुरू किया। वेस्ट बैंक, गजा पट्टी और इज़राइल में हिंसक झड़पें शुरू हो गईं। यह 1987 के पूरे साल जारी रहा। इसमें दोनों पक्षों के लोगों ने अपनी जान गंवाई। इस अराजकता का फायदा उठाकर, इज़राइल ने यरुशलम को अपनी राजधानी घोषित कर दिया और अमेरिका ने तुरंत इसका समर्थन किया। 1993 में, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के नेतृत्व में, छह महीने की गुप्त वार्ता के बाद, इज़राइल और फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के बीच दो समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। इसे ‘ओस्लो समझौता’ नाम दिया गया। इस समझौते के बाद भी दोनों देशों के बीच कोई समाधान नहीं निकल सका।
नई सदी की शुरुआत में, 2000 में, फिलिस्तीनियों द्वारा ‘दूसरा इंतिफादा’ शुरू किया गया था। इसका कारण इज़रायली नेता एरियल शेरोन का ‘अल-अक्सा’ का दौरा था, जिसे मुसलमानों के लिए पवित्र माना जाता है। दरअसल, ईसाई और यहूदी भी इसे अपना पवित्र स्थान, टेंपल माउंट मानते हैं। 2002-2004 के दौरान, आत्मघाती हमलों के प्रतिशोध में इज़रायल ने वेस्ट बैंक में घुसपैठ की। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने संयुक्त राष्ट्र को बताया कि वेस्ट बैंक और गोलान हाइट्स पर इज़रायल का कब्जा अवैध है। लेकिन इज़रायल ने हमेशा की तरह इस फैसले को नजरअंदाज कर दिया। 11 नवंबर 2004 को यासर अराफात की पेरिस के एक अस्पताल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। 38 साल तक गाजा पट्टी पर कब्जा रखने के बाद 2006 में इज़रायली सेना ने गजा पट्टी छोड़ दी।
उसके बाद, गजा पट्टी में हुए चुनावों में जीत हासिल करके ‘हमास’ सत्ताधारी पार्टी बन गई और आज भी, दोबारा चुनाव जीतने के बाद , ‘हमास’ गजा पट्टी पर राज कर रहा है। आज पूरी दुनिया की मीडिया इसे आतंकवादी संगठन बता रही है।
2008 में, फिलिस्तीन ने मिस्र द्वारा भेजी गई मिसाइलों से इज़रायल पर हमला किया। और जवाबी कार्रवाई में इज़रायल ने भी गजा पट्टी पर हमला किया और इस युद्ध में 1110 फिलिस्तीनियों की जान चली गई। जबकि 13 इज़रायली मारे गए।
2012 में, इज़रायल ने हमास के सैन्य प्रमुख अहमद जबारी को मार डाला। जवाबी कार्रवाई में, गजा पट्टी से रॉकेट दागे गए। इज़रायल ने हवाई हमला किया। इसमें छह इज़रायली और 150 फिलिस्तीनी मारे गए।
2014 में, हमास के आतंकवादियों ने तीन इज़रायली बच्चों को मार डाला। इज़रायली सेना ने जवाबी कार्रवाई की, जिससे सात सप्ताह तक युद्ध चला। लड़ाई के परिणामस्वरूप 2,200 फिलिस्तीनी और 67 इज़रायली सैनिक मारे गए, साथ ही छह बच्चे भी मारे गए।
2017 अमेरिका के रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यरुशलम को इज़रायल की राजधानी घोषित किया और अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम स्थानांतरित करने की घोषणा की। 2018 में गजा पट्टी में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। इज़रायली सेना पर पत्थरबाजी की गई क्योंकि फिलिस्तीन के पास कोई हथियार नहीं था। जवाबी कार्रवाई में इजरायली सेना ने 170 प्रदर्शनकारियों को मार डाला।
उपरोक्त कालक्रम मैंने जानबूझकर इसलिए दिया है क्योंकि ‘तरबूज तलवार पर गिरा या तलवार खरबूजे पर’, अंत में नुकसान खरबूजे को ही होता है। इस कहावत के अनुसार 14 मई 1948 को फिलिस्तीन की ज़मीन पर इज़रायल के निर्माण के बाद से लेकर 8 अक्टूबर 2023 तक लगातार हर युद्ध में इज़राइल फिलिस्तीन की ज़मीन अपने में मिलाता रहा है। फिलिस्तीन का कुल क्षेत्रफल अब दस प्रतिशत से भी कम रह गया है।
मेरा दावा है कि इज़राइल इस मौके का इस्तेमाल करके गजा पट्टी पर कब्जा करने में संकोच नहीं करेगा। इसकी संभावना इसलिए भी प्रबल दिखती है कि यह बेंजामिन नेतन्याहू के पास चरम ज़ायोनी राष्ट्रवाद का बुखार भड़काकर राजनीतिक जमीन हासिल करने का मौका है।
इज़राइल द्वारा हर लड़ाई का इस्तेमाल बची हुई फिलिस्तीनी भूमि पर कब्जा करने के अवसर के रूप में किया जाता है। ऐसा लगता है कि इजराइल बहुत ही चतुराई से ऐसी सभी घटनाओं का इस्तेमाल फिलिस्तीनी लोगों को भड़काने और संयुक्त राष्ट्र के किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार न करने के लिए अपने देश का विस्तार करने के लिए करता है और अमेरिका उसका समर्थन करता रहता है।
शनिवार 7 अक्टूबर को हमास द्वारा किए गए हमले के बाद भी भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिए वरदान ही साबित हुआ है क्योंकि नेतन्याहू ने अपने को भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त करने के लिए इजराइली सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों को कम करने वाला विधेयक पारित किया है।
इज़राइल के लोग लंबे समय से उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। हमास के इस हमले ने स्वाभाविक रूप से विपक्षी दलों को विरोध रोककर नेतन्याहू का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए मुझे इस हमले पर बहुत संदेह दिखाई देता है, क्योंकि हमास को इज़रायल ने ही बनाया था ताकि पीएलओ के प्रभाव को कम किया जा सके क्योंकि अमेरिका में ज़ायोनी लॉबी बहुत सक्रिय तरीके से अपनी भूमिका निभाती रही। अमेरिका के राष्ट्रपति चाहे रिपब्लिकन पार्टी से हों या डेमोक्रेटिक पार्टी से, पिछले पचहत्तर सालों से आँख मूंदकर इज़रायल का समर्थन करते देखे जा सकते हैं। पूर्व राष्ट्रपति बिडेन और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच यह होड़ लगी हुई थी कि कौन सबसे ज़्यादा इज़रायल का समर्थक है। लगभग हर अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने वीटो का इस्तेमाल इज़रायल की मदद करने और संयुक्त राष्ट्र में उसकी रक्षा करने के लिए किया है।
आज का इजराइल अमेरिका और फिलिस्तीन पर ब्रिटिश हुकूमत की मिली-जुली साजिश का नतीजा है। क्योंकि 1907 में ‘चैम वीज़मैन’ नामक एक यहूदी रसायनज्ञ ने महायुद्ध में ब्रिटेन के लिए नया और कारगर बम बनाने के लिए एक रसायन की खोज की थी और ब्रिटेन भी उसे ‘कुछ भी देने को तैयार था।’ इसलिए, यहूदियों का पहले से ही एक बड़ा नेता होने के नाते उसने अपने समुदाय के लिए फिलिस्तीन में एक राष्ट्र की मांग की। उस समय फिलिस्तीन ब्रिटेन के कब्जे में था। वह पहली बार फिलिस्तीन गया। उसने उस क्षेत्र में एक कंपनी खोली, जिसके कारण फिलिस्तीन में इज़रायल की नींव रखी गई।
इसके 3 साल के भीतर ही एक यहूदी राष्ट्रीय कोष बनाया गया, जिसके माध्यम से फिलिस्तीन में यहूदियों की एक कॉलोनी स्थापित करने के लिए जमीन खरीदी गई। इसके कारण पहली बार ‘मर्ज बिन आमेर’ में 60,000 फिलिस्तीनियों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। तमाम विरोध के बावजूद, यहूदियों के फिलिस्तीन में प्रवेश करने और फिलिस्तीनियों के फिलिस्तीन छोड़ने का सिलसिला सालों तक चलता रहा। 14 मई 1948 को इस क्षेत्र में यहूदियों के लिए एक अलग देश इज़राइल की स्थापना की गई।
जैसा फिलिस्तीन मैंने देखा
मुझे 13 साल पहले पहली बार एशियाई देशों की ओर से स्थापित ‘शांति का कारवां’ के साथ इस क्षेत्र में आने और एक सप्ताह तक गाजा पट्टी में रहने का मौका मिला था। इसीलिए मैं इस हमले को समझ नहीं पा रहा था कि 27/9 के आकार और 20-25 लाख की आबादी वाले गजा पट्टी में इजराइल ने बंदरगाह से लेकर एयरपोर्ट तक सब कुछ क्यों नष्ट कर दिया? सेना का तो सवाल ही नहीं उठता। मैंने केवल कुछ गार्ड देखे जैसे हमारे यहां होमगार्ड होते हैं। सब कुछ इज़राइल पर निर्भर था। पानी, बिजली, संचार के साधनों से लेकर सीवेज सिस्टम तक। गजा पट्टी में सब कुछ इज़राइल के रहमो-करम पर चल रहा था। सब जगह इजराइल का नियंत्रण था। इसीलिए संसद और गजा पट्टी की तथाकथित आज़ादी मुझे पूरी तरह से झूठी लगी। गाजा पट्टी में हमास सरकार के शासन के पीछे का रहस्य भी इज़राइल ही लगा था।
हमें गजा की संसद को संबोधित करने का अवसर मिला। हमने कहा कि जब तक फिलिस्तीन की मांगें धर्म से ऊपर नहीं उठतीं और वियतनाम की तरह मानवीय आधार पर नहीं होतीं, तब तक फिलिस्तीन को पूरी दुनिया के लोगों का समर्थन नहीं मिल सकता। इसलिए मेरी सलाह है कि फिलिस्तीन को केवल इस्लाम के लोगों द्वारा समर्थन नहीं बल्कि पूरी दुनिया का समर्थन जरूरी है। तब हमें क्या करना चाहिए?बेशक हमें बड़े पैमाने पर प्रयास करके फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए लड़ना चाहिए।
मैंने अपने भाषण में कहा कि ‘भारत फिलिस्तीन सॉलिडेरिटी फोरम’ के अध्यक्ष के रूप में मैं आपको आश्वासन देता हूं और घोषणा करता हूं कि फिलिस्तीन की लड़ाई उसके अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई है। इसे दुनिया के सभी सभ्य समाज के लोगों को मानवीय आधार पर समर्थन देना चाहिए। मुझे खुशी है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री महमूद अब्बास ने जवाब दिया कि ‘हम आपकी बात से 100 प्रतिशत सहमत हैं। गजा पट्टी और पश्चिमी तट पर रहने वाले ईसाई और कुछ यहूदी भी हमारे साथ हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया यह प्रचार करता रहता है कि फिलिस्तीन की लड़ाई पश्चिमी देशों के कब्जे के कारण इस्लाम का मुद्दा है। आप कुछ दिनों से गाजा पट्टी में हैं। क्या आपको यहां केवल अरब मुस्लिम समुदाय के लोग ही दिखाई दे रहे हैं?’
गाजा पट्टी के एक तरफ भूमध्य सागर है और दूसरी तरफ इज़राइल ने गजा पट्टी को 25-30 फीट ऊंची कंक्रीट की दीवारों से घेर रखा है। यह एक छोटा सा भू-भाग है जो मिस्र के सिनाई रेगिस्तान से सटा हुआ है, जिसे राफा बॉर्डर कहा जाता है। यही गाजावासियों के लिए दुनिया भर में यात्रा करने का रास्ता है। अनवर सादात के समय से इज़राइल के साथ शांति वार्ता के कारण मिस्र इज़राइल के इशारों पर नाचता रहा है और हम यह दृश्य अपनी आंखों से देखकर लिख रहे हैं।ऐसे में यह मेरे लिए एक पहेली है कि 7 अक्टूबर को इतनी बड़ी मात्रा में हथियार हमास के पास कैसे पहुंचे?
1917 के प्रथम विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य की हार के बाद ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया था। इस समय यहां की अधिकांश आबादी अरब मुसलमानों की थी और यहूदी यहाँ अल्पसंख्यक थे। 1920-40 के दौरान हिटलर द्वारा यूरोपीय देशों में यहूदी विरोधी भावनाएँ पैदा करने का अभियान चला इसलिए ब्रिटेन को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग देश बनाने का काम सौंपा गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की सेना ने लाखों यहूदियों का नरसंहार किया। इसी कारण दुनिया की एक बड़ी आबादी यहूदियों के प्रति सहानुभूति रखती है। इन परिस्थितियों का फायदा उठाकर ज़ायोनी लॉबी ने मित्र देशों के माध्यम से अपने अलग देश को जमीनी हकीकत में तब्दील कर दिया।
आज पचहत्तर सालों से लगातार अशांति और युद्ध की संभावना बनी हुई है। जब तक फिलिस्तीन समस्या का समाधान नहीं हो जाता, तब तक ऐसा ही चलता रहेगा, क्योंकि 1948 के बाद समय-समय पर हमलों के कारण इज़राइल ने लाखों फिलिस्तीनियों को भागने और पड़ोसी देशों में शरण लेने के लिए मजबूर किया है। हमें बेरुत और दमिश्क में फिलिस्तीनी निर्वासितों की कॉलोनियों में जाने का मौका मिला। उन लोगों को बहुत खराब परिस्थितियों में रहते हुए देखकर मैं उस रात सो नहीं सका। रात को सोने से पहले मुझे खाने का भी मन नहीं हुआ। मैं पूरी रात सोचता रहा कि दुनिया में किसी भी समुदाय को अपने जन्मस्थान से इस तरह विस्थापन का सामना नहीं करना चाहिए। चाहे वह हमारे अपने देश के कश्मीरी पंडित हों या पिछले कुछ महीनों से मणिपुर के मैतेई और कुकी समुदाय के लोग। असली सवाल राष्ट्र-राज्य की समस्या है। विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने बहुत पहले इसकी आलोचना की थी और मैंने इस पर एक लेख भी लिखा था
3 जुलाई 2023 को इज़रायली सेना ने वेस्ट बैंक में जेनिन शरणार्थी शिविर शुरू किया, जिसमें 1948 के युद्ध (ऑपरेशन होम एंड गार्डन) के बाद से विस्थापित 18,000 से अधिक फिलिस्तीनियों की आबादी है। यह उस साल इज़रायल की कार्रवाई का सबसे ताजा मामला था। इस तरह, स्वदेशी फिलिस्तीनियों, जिनमें बड़ी संख्या में अरब मुस्लिम और ईसाई भी शामिल थे, लगभग पूरे वेस्ट बैंक और गजा पट्टी में एक ही स्थिति का सामना कर रहे थे।
यहूदी यरुशलम को जन्म से अपना घर मानते हैं। उनका दावा है कि यह भूमि ईश्वर ने अब्राहम और उनके वंशजों को दी थी। वे इस बात पर विश्वास करते हैं। दूसरी बात, वे खुद को ईश्वर के चुने हुए एकमात्र समुदाय मानते हैं। इस मानसिकता वाले लोग ज्यादातर ज़ायोनी हैं। हिटलर भी इसी मानसिकता के कारण यहूदियों के खिलाफ था। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे प्रमुख माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने भी अपनी पुस्तकों में तर्क दिया है कि अन्य धर्मों के लोग हीन हैं और उन्हें बहुसंख्यक समुदाय की सद्भावना पर निर्भर रहना चाहिए।
इज़रायल के वर्तमान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू उन सभी सांप्रदायिक ‘ज़ायोनीवादियों’ के प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे हैं। यह हमला उनके लिए एक राजनीतिक जीवनरेखा साबित हुआ क्योंकि पिछले काफी दिनों से इज़रायल के लोग बेंजामिन नेतन्याहू के खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के आरोपों और इजरायल की न्यायिक प्रणाली पर नकेल कसने के उनके फैसले के कारण विरोध कर रहे थे। बेंजामिन नेतन्याहू अल्पमत में थे। बड़ी मुश्किल से वे प्रधानमंत्री के पद पर बने हुए थे। इस हमले के बाद इज़रायल के विरोधियों ने कहा कि हम बेंजामिन नेतन्याहू के साथ हैं। मतलब, इस हमले के पीछे कौन हो सकता है? इससे संदेह पैदा होता है। भले ही भारत की वर्तमान सरकार ने कहा हो कि हम इस घटना में इज़रायल के साथ हैं। सरकारी मीडिया ने हमास की निंदा करते हुए उसके मुकदमों में तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों को गजा पट्टी के खात्मे से लेकर अरबों से फिलिस्तीन की मुक्ति तक हर चीज की वकालत करते देखा है, जिससे विशेषज्ञ के रूप में उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठता है।