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घोड़े भड़के, तो भड़के क्यों?

वैसे तो संघी गिरोह को पूरे संविधान पर ही आपत्ति है। वे इस संविधान को बदलने की फिराक में हैं। माननीय उपराष्ट्रपति ने अनुच्छेद-142 को निशाने पर लिया है। उनका कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय सुपर संसद जैसा व्यवहार कर रहा है। इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद-142 को जिम्मेदार ठहराया है। भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने हेतु आदेश जारी करने की शक्ति देता है। इसलिए इस अनुच्छेद को सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण शक्ति (सुप्रीम पॉवर ऑफ सुप्रीम कोर्ट) के रूप में भी जाना जाता है। वे सुप्रीम कोर्ट को मिले इस पॉवर पर भड़के हुए हैं। उनका कहना है कि यह अनुच्छेद लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ मिसाइल हमला करता है और इस अनुच्छेद का उपयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं कर सकता।

घोड़े भड़क रहे हैं। सुबह के अखबार रोज यही संदेश दे रहे हैं। कभी कोई जगदीप धनखड़ भड़क रहे हैं, तो कभी कोई निशिकांत दुबे। अखबार बता रहे हैं कि घोड़े भड़क रहे हैं, वह भी सुप्रीम कोर्ट पर। इन घोड़ों को सुप्रीम कोर्ट की मानहानि की कोई चिंता नहीं हैं। लेकिन ये सभी ऐसे घोड़े हैं, जो हिनहिनाने की जगह ‘हुआं-हुआं’ कर रहे हैं। भड़के हुए घोड़ों की यही पहचान होती है कि वे हिनहिनाने की जगह ‘हुआं-हुआं’ करने लगते हैं।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ सर्वोच्च न्यायालय पर भड़के हुए हैं और यह भड़ास उन्होंने राज्यसभा में प्रशिक्षुओं के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए निकाली है। अपने संबोधन में उन्होंने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय सुपर संसद जैसा व्यवहार कर रहा है। इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद-142 को जिम्मेदार ठहराया है। भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने हेतु आदेश जारी करने की शक्ति देता है। इसलिए इस अनुच्छेद को सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण शक्ति (सुप्रीम पॉवर ऑफ सुप्रीम कोर्ट) के रूप में भी जाना जाता है।

हमारे उपराष्ट्रपति माननीय जगदीप धनखड़ सुप्रीम कोर्ट को मिले इस पॉवर पर भड़के हुए हैं। उनका कहना है कि यह अनुच्छेद लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ मिसाइल हमला करता है और इस अनुच्छेद का उपयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं कर सकता। कोई भी अखबारी रिपोर्ट यह नहीं बताती है कि अपनी भड़ास का संदर्भ उन्होंने तमिलनाडु बताया है, लेकिन उनके पूरे संबोधन से यह स्पष्ट है कि वे तमिलनाडु के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों से भड़के हुए है। अखबार यह भी नहीं बताते कि यह भड़ास उनके शिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा था या नहीं, लेकिन मेरी मंद बुद्धि यही समझती है कि जिस पद पर बैठकर किसी प्रशिक्षण कार्यक्रम में उन्होंने ऐसा संबोधन दिया है और पूरे देश की मीडिया में जिसकी रिपोर्टिंग हुई है, तो उन्होंने पूरे देश को ही प्रशिक्षित करने का काम किया है। उन्होंने पूरे देश को ही संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ भड़काने की कोशिश की है। राकेश अचल ने अपने एक दैनंदिन आलेख में टिप्पणी की है कि धनखड़ साहब को सुप्रीम कोर्ट पर भड़कने का कोई नैतिक अधिकार है नहीं। वे जिस पद पर बैठे हैं, उसकी मर्यादा है। उन्हें अपने पूर्ववर्ती उपराष्ट्रपतियों से इस मर्यादा का पाठ सीखना चाहिए। शायद अचल जी को नहीं मालूम कि संघी घोड़े मर्यादा का पाठ सीखते नहीं, केवल सिखाते हैं और वह भी केवल विपक्षियों को। जो विपक्षी संघ के सही सबक को सीख जाते हैं, वे सब संघी रथ में जुट जाते हैं और बहती गंगा में हाथ धोकर पुण्य कमाना शुरू कर देते हैं। जो सबक नहीं सीखते, वे पापी और केवल पापी हैं और सीबीआई-ईडी के दरवज्जे से नरक में प्रवेश करते हैं।

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राजनीति में आने से पहले हमारे उपराष्ट्रपति महोदय राजस्थान हाइकोर्ट के वरिष्ठ और गरिष्ठ वकील थे। 1990 से भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों का कामकाज संभालते हुए वाया प. बंगाल के राज्यपाल पद पर पहुंचे। इस सफर में उन्होंने जनता दल और कांग्रेस का भी पानी पिया है, लेकिन इसका स्वाद उन्हें अच्छा नहीं लगा। फिर भाजपा के घाट पर आकर जम गए। तो यह नहीं माना जाना चाहिए कि हमारे उपराष्ट्रपति को संविधान और उसके अनुच्छेद-142 का कोई ज्ञान नहीं है। पूरा-पूरा ज्ञान है, तभी भड़क रहे हैं और कह रहे हैं कि लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ यह परमाणु मिसाइल है। वे संघी राज्यपालों को, जो राज्यों के विधेयकों को बिना किसी कारण वर्षों से दबाए बैठे हैं, लोकतांत्रिक शक्ति बता रहे हैं और विपक्ष की राज्य सरकारों को गैर-लोकतांत्रिक बता रहे हैं।

वैसे तो संघी गिरोह को पूरे संविधान पर ही आपत्ति है। वे इस संविधान को फूटी आंखों नहीं देखना चाहते। माननीय उपराष्ट्रपति ने तो केवल अनुच्छेद-142 को ही निशाने पर लिया है। बाबा साहब आंबेडकर को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने पूरे संविधान पर ही अपनी भड़ास नहीं निकाली। सभी जानते है कि बाबा साहब का इस देश के लिए संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान था। यह बाबा साहब ही थे, जिन्होंने हिंदू धर्मशास्त्रों के सामंती मूल्यों की जगह धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, सद्भाव, भाईचारा, मानवीय गरिमा जैसी पश्चिमी अवधारणाओं को ढूंढ-ढूंढकर हमारे संविधान में ठूंसा है। आज यही संविधान हिंदुत्व के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है। बाबा साहब की हिंदुत्व से घृणा जगजाहिर थी। संघी गिरोह की भी बाबा साहब से ऐसी ही घृणा जगजाहिर है। इसीलिए, पिछले चुनावों में इस संविधान को बदलने के लिए भाजपा ने जनता से 400 पार का आशीर्वाद मांगा था, लेकिन जनता ने उल्टा उसे बहुमत से ही वंचित कर दिया।

फिर भी, उपराष्ट्रपति ने सवाल खड़ा कर ही दिया है और गोदी मीडिया इसे उछाल रहा है – सर्वोच्च न्यायालय बड़ा या राष्ट्रपति? क्या सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है? अब आप कितना भी कहते रहिए, न सर्वोच्च न्यायालय, न राष्ट्रपति, सबसे बड़ा बाबा साहब का संविधान। इस संविधान ने राजतंत्र को नहीं, लोकतंत्र को प्रतिष्ठित किया है। राजतंत्र में राजा ही सर्वशक्तिमान था, उसकी इच्छा ही कानून था, क्योंकि वह इस धरा पर ईश्वर का प्रतिनिधि था। सामंतवाद की इस अवधारणा को पूंजीवाद ने और बाबा साहब के संविधान ने पूरी तरह से उखाड़ फेंका और लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की। इस दुनिया में लोकतंत्र के भी अलग-अलग रूप हैं। बाबा साहब के नेतृत्व में भारत ने अमेरिका के अध्यक्षीय प्रणाली वाले लोकतंत्र को नहीं, संसदीय प्रणाली वाले लोकतंत्र को चुना है, जहां राष्ट्रपति की इच्छा और मनमर्जी से राजकाज नहीं चलता। यहां कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियां पूर्णतः परिभाषित हैं और राज्य के सभी अंग और उसके पदाधिकारी संविधान से बंधे हैं और कोई उसके ऊपर नहीं हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी नहीं। विधायिका कानून बना सकती हैं और न्यायपालिका को इस बात की समीक्षा करने का पूरा अधिकार है कि यह कानून संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप हैं कि नहीं। यदि कानून संविधान-सम्मत नहीं है, सर्वोच्च न्यायालय को पूरा कानून ही रद्द करने का अधिकार है। विधायिका और राज्य के पदाधिकारियों के निरंकुश आचरण पर अंकुश लगाने के लिए ही संविधान में अनुच्छेद-142 का खूबसूरत प्रावधान बाबा साहब ने किया है। फासीवादी हिंदुत्व की निरंकुश तानाशाही की ओर कदम बढ़ाती सत्ताधारी पार्टी की आंखों में आज यही अनुच्छेद खटक रहा है, क्योंकि राज्यों के अधिकारों की रक्षा के लिए ढाल बनकर यह खड़ी हो गई है।

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उपराष्ट्रपति इस देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं, जब वे यह कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति को आदेश दिया है। हकीकत यह है कि सर्वोच्च न्यायालय इतनी अज्ञानी नहीं है कि वह राष्ट्रपति को आदेश दे। इस देश के संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति उस केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करता है, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश वास्तव में केंद्रीय मंत्रिमंडल के लिए हैं, न कि सीधे राष्ट्रपति को। उपराष्ट्रपति की वास्तविक पीड़ा यही है कि तमिलनाडु मामले में असली छीछालेदारी प्रधानमंत्री मोदी की हुई है, न कि राष्ट्रपति माननीया द्रोपदी मुर्मू की। प्रधानमंत्री की असली परेशानी यह है कि तमिलनाडु मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को न उनसे निगलते बन रहा है, न उगलते और अब तमाम विपक्ष शासित राज्य अपने लंबित विधेयकों के लिए उठ खड़े हुए हैं, जिन्हें राज्यपालों या राष्ट्रपति ने जनता की इच्छा को नकारते हुए असंवैधानिक तरीके से लंबे समय से रोक रखा है और विपक्ष शासित राज्यों के कामकाज में बाधा डाल रहे हैं।

उपराष्ट्रपति यह भूल जाते हैं कि तमिलनाडु मामले में संविधान के जिस अनुच्छेद पर वे भड़के हुए हैं, उसी अनुच्छेद का उपयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राम मंदिर के पक्ष में भी फैसला दिया था। पूरे देश की जनता ने इस सुप्रीम अन्याय को सहा है। अन्याय इसलिए कि इसी सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना है कि बाबरी मस्जिद को तोड़ा जाना एक आपराधिक कृत्य था। इस अपराध को सुनियोजित रूप से करने में पूरा संघी गिरोह शामिल था और इसके बावजूद किसी को सजा नहीं मिली। सजा दी गई, तो इस देश के अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को उनसे उनकी बाबरी मस्जिद की जमीन छीनकर। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह अन्याय उपराष्ट्रपति जी को याद नहीं आया, क्योंकि फैसला हिंदुत्व की राजनीति के रास्ते को आसान बना रहा था। उन्हें याद आया, तो आपातकाल का फैसला। उनका कहना है कि आपातकाल लगाया गया और सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं कहा, कुछ नहीं किया। वे शायद भूल गए कि इस देश के तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर आपातकाल के फैसले पर अपने हस्ताक्षर किए थे। जो उपराष्ट्रपति आज कह रहे हैं कि राष्ट्रपति सर्वोच्च है, उनको चुनौती नहीं दी जा सकती, वहीं उपराष्ट्रपति आपातकाल के समय के राष्ट्रपति की सर्वोच्चता को मानने के लिए तैयार नहीं है। इसे कहते हैं चित भी मेरी, पट भी मेरी और …मेरे बाप का। वे कह रहे हैं कि जिस सर्वोच्च न्यायालय ने तब हस्तक्षेप नहीं किया था, आज वह क्यों हस्तक्षेप कर रहा है?

भाजपा का एक और घोड़ा है, जो सुप्रीम कोर्ट पर भड़का हुआ है और उपराष्ट्रपति के साथ ‘हुआं-हुआं’ कर रहा है। दिनेश शर्मा 2017 से 2022 तक उत्तरप्रदेश के उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने भी सर्वोच्च अदालत की आलोचना की है और कहा है कि कोई भी संसद या राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकता है, क्योंकि राष्ट्रपति न्यायाधीश को नियुक्त करता है। इस प्रकार, उनका मानना है कि राष्ट्रपति मालिक हैं और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश उनके नौकर। इसलिए राष्ट्रपति की अकरणियों पर भी उन्हें चुप रहना चाहिए। बाकी संविधान जाएं तेल लेने!

एक तीसरे घोड़े भी हैं, जो वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट के सरकार से पूछताछ पर भड़के हुए हैं। मोदी सरकार को सुप्रीम अदालत में इस कानून के विवादास्पद प्रावधानों पर अमल न करने का वादा करने को मजबूर होना पड़ा है। ये घोड़ा सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई पर आरोप लगा रहा है कि वे देश में गृहयुद्धों को भड़का रहे हैं। ये तीसरे घोड़े निशिकांत दुबे हैं, जो गोड्डा से सांसद है। अब इस देश में गृहयुद्ध कौन भड़काना चाहता है, सभी देख समझ रहे हैं। इसे कहते हैं – उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। लेकिन फ़ासिस्टों के काम करने की यही जानी-पहचानी शैली है, जिसे देश की आम जनता को भी समझ लेना चाहिए। अभी सड़कों पर देश की जनता को कई भाजपाई घोड़े भड़कते हुए दिखेंगे। सबका निशाना सर्वोच्च न्यायालय ही होगा, जिसे हमारे देश का संविधान इसके लिए अधिकृत करता है कि वह देखे कि सत्ताधारी पार्टी संवैधानिक प्रावधानों और उसकी भावना के अनुसार काम कर रही है या नहीं।

पिछले सप्ताह ही देश ने बाबा साहब की जयंती मनाकर उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की है। भाजपाई घोड़ों को भी दिखावे के लिए ही सही, बाबा साहब को अपनी श्रद्धांजलि देने को मजबूर होना पड़ा है। इस दिन भाजपाइयों ने जोर शोर से घोषणा की थी कि संविधान के असली पहरेदार तो वे ही है, इस देश में संविधान उन्हीं के कारण बचा हुआ है। लेकिन एक-दो दिनों में ही बिल्ली थैले से बाहर आ गई है। संविधान के अनुच्छेद-142 के बहाने हो या वक्फ कानून की आड़ में, संविधान और उसके प्रमुख अंग न्यायपालिका पर उनका हमला तेज हो गया है, ताकि उसे धौंस पट्टी और दबाव में लेकर अपने मनमाफिक काम करवा सके।

संघी गिरोह के पास घोड़ों की कमी नहीं है। एक से बढ़कर एक हैं उनके पास। वे केवल सुप्रीम कोर्ट को ही आंख नहीं दिखाते, जनता को भी दिखाते हैं। उनके अस्तबल में एक और नायाब नमूना है। नाम है ऊषा ठाकुर, मध्यप्रदेश के महू से विधायक है। मंत्री भी रह चुकी हैं। प्रधानमंत्री मोदी की तरह वे भी नॉन-बायोलॉजिकल हो चुकी है, जिनका भगवान से सीधा रिश्ता है। सोशल मीडिया में उनका भी एक वीडियो तैर रहा है। हासलपुर में किसी सभा को संबोधित करते हुए वह कह रही हैं-  जो लोग बीजेपी को वोट नहीं देते, वे पाप के भागी हैं। ऐसे लोग अगले जन्म में ऊंट, भेड़-बकरी या कुत्ते-बिल्ली जैसे जानवर बनेंगे। भगवान से मेरी सीधी बातचीत है। यह वही विधायक हैं, जिसने नवरात्र में गरबा स्थलों में मुस्लिम युवकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक बड़ी मुहिम छेड़ी थी।

कुल मिलाकर, अब संघी गिरोह अब दो बैसाखियों के सहारे बनाए गए संसदीय बहुमत के बल पर देश की संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने पर आमादा है। इसलिए आम जनता के लिए यही समय है देश के संविधान को बचाने का, ताकि देश पर मनुस्मृति थोपने की संघी गिरोह की परियोजना को शिकस्त दी जा सके।

प्रश्न सामयिक है – घोड़े भड़के, तो भड़के क्यों? उत्तर भी सीधा-सरल-सा है – क्योंकि वे हिंदुत्व की रथ में जुते हैं, जिन्हें मनुस्मृति के अलावा और कुछ नहीं दिखता।

संजय पराते
संजय पराते
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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