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प्रशांत किशोर को लेकर मच रहा शोर और उसकी हकीकत

पिछले कुछ दिनों से प्रशांत किशोर सुर्खियों में हैं। यह चर्चा जोरों पर है कि लगभग 135 वर्षों की अपनी यात्रा में संघर्ष और सत्ता तथा उत्थान एवं पतन का हर रंग देख चुकी कांग्रेस पार्टी को नवजीवन देने वाली अगर कोई संजीवनी बूटी है तो वह प्रशांत किशोर के पास ही है। जीवन भर […]

पिछले कुछ दिनों से प्रशांत किशोर सुर्खियों में हैं। यह चर्चा जोरों पर है कि लगभग 135 वर्षों की अपनी यात्रा में संघर्ष और सत्ता तथा उत्थान एवं पतन का हर रंग देख चुकी कांग्रेस पार्टी को नवजीवन देने वाली अगर कोई संजीवनी बूटी है तो वह प्रशांत किशोर के पास ही है। जीवन भर राजनीति की जटिलताओं में उलझने और उन्हें सुलझाने वाले कांग्रेस के कद्दावर और अनुभवी नेता प्रशांत किशोर का प्रेजेंटेशन देखकर शायद चमत्कृत हो रहे हैं और अपनी कमतरी के अहसास से शर्मसार भी।

प्रशांत किशोर भारत के लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ कार्य कर चुके हैं। भाजपा (गुजरात विधानसभा चुनाव 2012 तथा लोकसभा चुनाव 2014), जेडीयू (2015 बिहार विधानसभा चुनाव), कांग्रेस (2017 पंजाब विधानसभा चुनाव), वायएसआरसीपी (2019 आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव), आप (2020 दिल्ली विधानसभा चुनाव), टीएमसी (2021 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव) तथा डीएमके (2021 तमिलनाडु विधानसभा चुनाव) की चुनावी सफलताओं में प्रशांत किशोर की अहम भूमिका मानी जाती है। एकमात्र असफलता जो उनके खाते में दर्ज है वह सन 2017 की है जब वे उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को विजय दिलाने में नाकाम रहे थे।

[bs-quote quote=”प्रशांत किशोर का रणनीतिक जादू मार्केटिंग और इवेंट मैनेजमेंट के उन घातक प्रयोगों में छिपा है जो ग्राहक को किसी अनावश्यक, कमतर और औसत प्रोडक्ट को बेहतर मानकर चुनने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते हैं। हमने नरेन्द्र मोदी को गुजरात के विवादित मुख्यमंत्री से सर्वशक्तिमान, सर्वगुणसम्पन्न, महाबली मोदी में कायांतरित होते देखा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

प्रशांत किशोर एक पेशेवर चुनावी रणनीतिकार हैं और वह अपने ग्राहक राजनीतिक दलों को जीत दिलाने के लिए भरपूर प्रयास करते हैं। एक सच्चे पेशेवर की भांति उन्होंने परस्पर विरोधी विचारधाराओं और परस्पर राजनीतिक विरोध रखने वाले नेताओं के साथ समान समर्पण से कार्य किया है। प्रशांत किशोर ने मई 2021 में एक निजी टीवी चैनल को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि वे अपने क्षेत्र में बहुत कुछ कर चुके हैं और अब वे चुनावी रणनीतिकार की भूमिका नहीं निभाना चाहते, उन्हें अवकाश चाहिए ताकि वे जीवन में किसी अन्य भूमिका के चयन के बारे में विचार कर सकें। शायद वे कोई नई भूमिका तलाश नहीं कर पाए और अब कांग्रेस के साथ जुड़ने की तैयारी में हैं। यह भी संभव है कि जिस नई भूमिका का वे जिक्र कर रहे थे वह राजनेता के रूप में नई शुरुआत से संबंधित हो। हमें यह स्मरण रखना होगा कि जेडीयू के सदस्य के रूप में सक्रिय राजनीति का उनका पिछला अनुभव अच्छा नहीं रहा था।

एक सशक्त और प्रतिस्पर्धी विपक्ष लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के प्रति अपनी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद यह कहना ही होगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में जान फूंकने और बिखरे हुए विपक्ष को एकजुट करने का उत्तरदायित्व अब एक ऐसे पेशेवर को मिलने वाला है जो विचारधाराओं और आदर्शों से अधिक अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्ध है – एक ऐसा प्रोफेशनल जो अपने हर क्लाइंट के लिए कुछ भी करने को तैयार है।

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प्रशांत किशोर स्वयं एक परिघटना हैं या किसी व्यापक परिघटना का एक ध्यानाकर्षण करने वाला चमकता हिस्सा हैं, इस बहस में न पड़ते हुए हम उनकी कार्यप्रणाली पर नजर डालते हैं। प्रशांत किशोर का रणनीतिक जादू मार्केटिंग और इवेंट मैनेजमेंट के उन घातक प्रयोगों में छिपा है जो ग्राहक को किसी अनावश्यक, कमतर और औसत प्रोडक्ट को बेहतर मानकर चुनने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते हैं। हमने नरेन्द्र मोदी को गुजरात के विवादित मुख्यमंत्री से सर्वशक्तिमान, सर्वगुण सम्पन्न, महाबली मोदी में कायांतरित होते देखा है।

भावुक और नायक पूजा के अभ्यस्त भारतीय मतदाता के लिए नरेन्द्र मोदी जैसे सुपर हीरो को गढ़ना शायद भारतीय लोकतंत्र की प्रयोगशाला का सबसे घातक प्रयोग था जिसने एक ऐसे लार्जर दैन लाइफ करैक्टर को जन्म दिया जिसकी चकाचौंध की ओट में हमें तेजी से एक धर्मांध और कट्टर समाज में बदला जा रहा है। यदि प्रशांत किशोर इस प्रयोग के कर्णधार नहीं थे तो भी बतौर सुयोग्य सहयोगी उन्होंने मोदी के छवि निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान अवश्य दिया है।

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नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनावों में महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे जमीनी मुद्दों का जादुई समाधान देने वाले नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया था। यदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और स्वयं सरकारी एजेंसियों के आंतरिक आकलन को आधार बनाएं तो भारत का प्रदर्शन स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार, आर्थिक प्रगति, प्रेस की स्वतंत्रता, मानव और अल्पसंख्यक अधिकारों के संरक्षण, लैंगिक समानता की स्थापना, कुपोषण मिटाने तथा भ्रष्टाचार नियंत्रण आदि सुशासन को सुनिश्चित करने वाले विभिन्न मानकों पर 2014 के बाद से निरंतर गिरा है। महंगाई और बेरोजगारी की भयावह स्थिति को समझने के लिए आंकड़ों में भटकने के बजाए दैनंदिन के अनुभव ही पर्याप्त हैं।

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने भूलें नहीं कीं और विपक्ष को वापसी के अवसर नहीं दिए। पहले कार्यकाल में नोटबन्दी के बाद तबाही और अफरातफरी का मंजर देखा गया।

सरे कार्यकाल में कोविड-19 के दौरान लाखों मजदूरों के पलायन के हृदय विदारक दृश्य देखने को मिले। हमने हमारी लचर और लाचार स्वास्थ्य सेवाओं को दम तोड़ते देखा। दवाओं और ऑक्सीजन की कमी से मृत्यु की घटनाओं तथा मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए परिजनों की अंतहीन प्रतीक्षा के दृश्य मुख्यधारा के मीडिया को भी दिखाने पड़े। खों लोगों के रोजगार छिन गए, आय कम हुई।

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एक वर्ष तक किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन चला और किसानों ने आंदोलन के दौरान तथा उसके स्थगन के बाद भी राजनीतिक हस्तक्षेप की रणनीति अपनाई तथा भाजपा को चुनावों में हराने की अपील की। इसके बावजूद भी भाजपा, लगभग हर निर्णायक अवसर पर सत्ता हासिल करने में कामयाब रही है और इसका एक बड़ा कारण नरेन्द्र मोदी की वह मायावी छवि है जिसे प्रशांत किशोर जैसे कुशल रणनीतिकारों ने गढ़ा तो अवश्य किंतु इस छवि की माया को भेदना अब शायद इसके निर्माताओं के लिए भी कठिन होगा।

एक ऐसे वक्त जबकि देश संवैधानिक मूल्यों, बहुलवाद और अपने सेकुलर चरित्र की रक्षा के लिए जूझ रहा है तब कांग्रेस पार्टी को अपनी विरासत का स्मरण करते हुए देश की मूल तासीर को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सैद्धांतिक दृढ़ता के साथ नैतिक संघर्ष करते दिखना चाहिए किंतु सत्ता हासिल करने के लिए बाजारवादी लटकों झटकों पर आधारित रणनीतियों को हासिल करना उसकी प्राथमिकता दिखती है।

[bs-quote quote=”प्रशांत किशोर को कांग्रेस में मिलते महत्व से बहुत आशान्वित हो जाना आत्म प्रवंचना ही होगी। प्रशांत किशोर की रणनीतियां अभी तक भारतीय राजनीति के घिसे-पिटे फॉर्मूलों को व्यवसायिक प्रबंधन और मार्केटिंग के सिद्धांतों के अनुरूप ढालकर बॉक्स ऑफिस में कामयाबी हासिल करने तक सीमित रही हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

प्रश्न अनेक हैं। क्या देश की लगभग सभी मुख्य राजनीतिक पार्टियां जनता से सीधे संवाद करने की कला इस हद तक भूल चुकी हैं कि उन्हें जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किसी ब्रांडिंग-मार्केटिंग-पैकेजिंग विशेषज्ञ या इवेंट मैनेजर की सहायता लेनी आवश्यक लग रही है?

क्या कॉरपोरेट मीडिया ने ज़मीनी मुद्दों और बुनियादी मुद्दों को गौण बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है? वाजपेयी जनता को जिस फील गुड फैक्टर की अनुभूति कराने में नाकाम रहे थे क्या वह अब सरकार समर्थक टीवी चैनलों और सोशल मीडिया समूहों की कोशिशों से जनता को आनंदित कर रहा है?

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क्या मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग पर पीड़क आनंद का आदी बन चुका है और अपनी दुर्दशा के लिए सत्ताधारी दल की विचारधारा द्वारा उत्तरदायी ठहराए गए समूहों- विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय- के साथ हो रहे अत्याचार उसे संतोष प्रदान करने लगे हैं? क्या राजनीति में ‘करने’ के बजाए ‘करते दिखना’ अधिक महत्वपूर्ण बनता जा रहा है?

क्या विपक्ष लगातार पराजय के कारण इतना हताश हो गया है कि उस पर नकारात्मकता हावी होने लगी है? क्या चुनावों के बाद होने वाले आत्म मंथन का उद्देश्य पराजय के सही कारण के स्थान पर सुविधाजनक कारण की तलाश मात्र होता है?

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‘आप’ के रूप में हम एक ऐसे राजनीतिक दल को देख रहे हैं जो बिना किसी स्पष्ट एवं सुपरिभाषित वैचारिक आधार के केवल सुशासन के दावे के बल पर सत्ता हासिल कर रहा है। क्या पूंजीवादी लोकतंत्र और वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के समर्थकों की शक्ति ‘आप’ के पीछे है? क्या भाजपा का संकीर्ण राष्ट्रवाद विश्व बाजार की ताकतों को रास नहीं आ रहा है और यदि उन्होंने ‘आप’ के रूप में उसका विकल्प तैयार करने की कोशिश नहीं की है तब भी क्या ‘आप’ में वे संभावनाएं तलाश रहे हैं?

तथ्य चौंकाते भी हैं और विचलित भी करते हैं। हाल ही में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा लखीमपुर खीरी में क्लीन स्वीप करती है, जिन इलाकों में किसान आंदोलन का सर्वाधिक प्रभाव था वहां भाजपा को आशातीत सफलता मिलती है, उन्नाव रेप पीड़िता की माता आशा सिंह को विधानसभा चुनाव में मात्र 1555 वोट (.63 प्रतिशत) मिलते हैं, पंजाब में किसान आंदोलन को एकजुट रखने में धुरी की भूमिका निभाने वाले वाम दलों को समवेत रूप से केवल .14 प्रतिशत मत मिलते हैं और आप 42.01 प्रतिशत मत प्राप्त कर 92 सीटें अर्जित कर लेती है।

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क्या इन परिस्थितियों में कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों का यह कर्त्तव्य नहीं बनता है कि वे उस सामूहिक सम्मोहन को तोड़ने के लिए संकल्पबद्ध हों जो जनता को प्रतिशोध, हिंसा और घृणा के नैरेटिव का अभ्यस्त बना रहा है?

प्रशांत किशोर को कांग्रेस में मिलते महत्व से बहुत आशान्वित हो जाना आत्म प्रवंचना ही होगी। प्रशांत किशोर की रणनीतियां अभी तक भारतीय राजनीति के घिसे-पिटे फॉर्मूलों को व्यवसायिक प्रबंधन और मार्केटिंग के सिद्धांतों के अनुरूप ढालकर बॉक्स ऑफिस में कामयाबी हासिल करने तक सीमित रही हैं। इन फॉर्मूलों से हम सभी अवगत हैं- नायक पूजा, क्षेत्रवाद, जातीय और भाषिक अस्मिता से जुड़े प्रश्नों तथा भावनात्मक मुद्दों को बढ़ावा देना। भाजपा की भाषा और मुहावरे का मृदु कांग्रेसी संस्करण तैयार करना अथवा गांधी परिवार के किसी सदस्य में नए महानायक की तलाश शायद प्रशांत किशोर की चुनावी रणनीति का हिस्सा हो। यदि प्रशांत किशोर को परिवर्तन का संवाहक मानने में हमें आनंद का अनुभव होता है तब भी हमें उनसे सत्ता परिवर्तन की उम्मीद ही लगानी चाहिए, कांग्रेसवाद की पुनर्स्थापना उनकी प्राथमिकता नहीं होगी।

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कांग्रेस को जब तक अपने मूल्यों और आदर्शों के खरेपन पर संशय बना रहेगा तब तक वह साम्प्रदायिक और विभाजनकारी शक्तियों के विरुद्ध जमीनी संघर्ष के लिए खुद को तैयार नहीं कर सकती। कांग्रेस यदि भाजपा सरकार को अपदस्थ करना चाहती है तो शायद प्रशांत किशोर की अगुवाई उसके कुछ काम आए किंतु यदि फ़ासिस्ट विचारधारा को पराजित करना है तो इस संघर्ष का नेतृत्व किसी विचारवान एवं सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले नेता को करना होगा। सैद्धांतिक संघर्ष समझौतापरस्त सोच से नहीं जीते जाते इससे केवल सत्ता हासिल की जाती है।

सत्ता के लिए अधीरता ठीक नहीं। बहुत दिन नहीं बीते हैं जब कांग्रेस 2004 से लगातार दस वर्षों तक सत्ता में रही थी। हमारी सामासिक संस्कृति, बहुलवाद और सेकुलरवाद की रक्षा के लिए संघर्ष कर चुनावों में पराजित हो जाने वाली कांग्रेस में यह सामर्थ्य अवश्य रहेगा कि वह मतदाता के सामूहिक सम्मोहन को तोड़ सके किंतु भाजपा के रंग में रंगी कांग्रेस यदि पुनः सत्ता हासिल कर भी लेती है तो यह संकीर्ण एवं असमावेशी राष्ट्रवाद के समर्थकों की विजय ही कही जाएगी।

डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखन करते हैं और रायगढ़ में रहते हैं।

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