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बुद्ध की ऐतिहासिक विरासत को बचाने के लिए पूरा जीवन लगा देने वाले एक इतिहासकार

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित कुशीनगर आज दुनिया भर के बौद्ध लोगों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। बौद्धकाल में कुशीनगर को कुशिनारा के नाम से जाना जाता था और यह मल्ल राजाओं की राजधानी थी।  कुशीनगर के बौद्ध इतिहास को समाप्त करने के बहुत से प्रयास हुए  और अभी भी चल रहे […]

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित कुशीनगर आज दुनिया भर के बौद्ध लोगों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। बौद्धकाल में कुशीनगर को कुशिनारा के नाम से जाना जाता था और यह मल्ल राजाओं की राजधानी थी।  कुशीनगर के बौद्ध इतिहास को समाप्त करने के बहुत से प्रयास हुए  और अभी भी चल रहे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के एक प्रमुख मंत्री ने कहा के कुशीनगर भगवान राम के पुत्र कुश के नाम पर बनी नगरी है। इसी तरह से और भी ऊटपटाँग बातों के किले बनाए जाते हैं और कुशीनगर के खिलाफ एक साजिश तैयार करने की कोशिश की जाती है। दरअसल यदि ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता अलेक्सेंडर कनिंघम 19वीं शताब्दी में यहाँ पर खुदाई का काम नहीं करते तो यह दबा का दबा ही रह जाता।

जब उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने बहुजन नायकों को लेकर बहुत से जिलों का निर्माण किया।  संत कबीर नगर, महामाया नगर, ज्योतिबा फुले नगर आदि नए जिले बने। इस कड़ी में कुशीनगर को 13 मई 1994 को जिला देवरिया से काटकर एक पृथक जिला बना दिया गया। उसके बाद से जिले में इसके ऐतिहासिक महत्त्व को लेकर कई कार्य हुए लेकिन समय समय पर सरकारों के बदलने के कारण इसकीबौद्ध विरासत को लेकर होने वाले कार्य रुक से गए।

सन 2014 से नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने दुनिया भर में भारत की ‘बुद्धिस्ट’ विरासत को लेकर बातें रखी और सरकार का अन्तराष्ट्रीय अजेंडा यही था कि बुद्धिस्ट विरासत का इस्तेमाल भारत की शक्ति को बनाने में किया जाए इसलिए पूरब की ओर देखो की नीति बनायी गयी। मोदी जी बुद्धिस्ट कार्यक्रमों में शरीक होने लगे। यह भी हकीकत है कि संघ का एक बड़ा धड़ा बुद्ध को विष्णु का अवतार बनाने पर तुला हुआ है। इसी के चलते बहुत से बौद्ध स्थलों के बारे में सरकारी जानकारियों में अब बुद्ध पूर्व और बुद्ध बाद के घटनाक्रम जोड़े जा रहे है ताकि वैदिक सत्ता का नियंत्रण कायम रखा जा सके। कुशीनगर को लेकर भी सत्ताधारियों की यही नीति दिखाई दे रही है जिसमें वे बुद्ध पूर्व कुशीनारा को राम के पुत्र कुश से जोड़ कर देख रहे हैं।

फिर भी जापान के सहयोग से कुशीनगर का विकास करने का प्रयास किया गया, हालांकि इसमें भी लोगों की कोई भूमिका न रहे और सरकार इसको बौद्ध स्थल विकसित करने के नाम पर अपनी सोच थोपती रहे।  कुशीनगर का अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा वर्षों से उद्घाटन की बाट जो रहा है।  कुछ समय पूर्व अधिकारियों ने कुशीनगर कस्बे से 20 किलोमीटर दूर फाजिल नगर के एक प्रमुख जगह को पावा नगर घोषित कर उसके विकास का काम शुरू कर दिया। फाजिल नगर में दोनों ओर पेड़ लगाए गए हैं लेकिन उसके अलावा कोई विशेष कार्य नहीं हुआ है।

कुशीनगर की बुद्धिस्ट विरासत की महत्ता मात्र इससे नहीं है कि यहाँ बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ और उससे सम्बंधित सभी शोध अब सबके सामने हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि बुद्ध ने इस क्षेत्र में 20 वर्षों तक जन संपर्क किया लेकिन प्रश्न यह है कि यदि यह क्षेत्र बौद्ध मतावलंबियो के लिए इतना महत्वपूर्ण है तो फिर ऐसे प्रयास क्यों नहीं किये गए जिससे पता चल सके कि बुद्ध किन-किन स्थानों से गुजरे और यह कि क्या इस क्षेत्र में ऐसे और महत्वपूर्ण स्थल तो नहीं हैं जो हमारी महान सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हों।  आखिर जब बुद्ध लुम्बिनी अथवा गया से यहाँ आये होंगे तो कोई न कोई सड़क मार्ग रहा होगा और वह स्थान-स्थान पर रुकते होंगे लेकिन बुद्ध की ऐसी ऐतिहासिक धरोहर को बचा कर रखने या उसकी खोज करने के कोई विशेष प्रयास नहीं किये गए और बुद्ध की सारी विरासत को कुछ स्तूपों और उनके परिनिर्वाण स्थल तक ही सीमित कर दिया गया।

ऐसा क्यों हुआ होगा, इसको समझना कोई मुश्किल कार्य नहीं है। सरकारों की अपनी प्रथमिकताएँ हैं और उससे भी अधिक हमारे बौद्धिक वर्ग पर ब्राह्मणवाद की छाया वैसे कोई भी काम नहीं होने देगी जिसमे वैदिक विरासत का विकल्प और उनसे बेहतर इतिहास दिखाई देता हो। जिन अधिकारियों पर यहाँ की जिम्मेवारी होती है वे शहर को ‘बेहतर’ बनाने के अलावा कुछ और जानते नहीं हैं। किसी के दिमाग में भी ये बात नहीं आती कि आखिर जिस क्षेत्र में बुद्ध ने अपना अंतिम समय व्यतीत किया हो वहाँ उनसे सम्बंधित और ऐतिहासिक शिलालेख या पुरातात्विक महत्त्व की और भी बहुत-सी चीजें छुपी हो सकती हैं?

अब इन प्रश्नों पर से पर्दा हटाने का काम एक स्थानीय शोधकर्ता डॉ. श्याम सुन्दर सिंह ने किया है। डॉ सिंह अब अध्यापन कार्य से सेवानिवृत्ति के बाद बुद्ध की विरासत पर काम कर रहे हैं। पूरे क्षेत्र में घूमे हैं। 1975 से उन्होंने इतिहास विश्रुत श्रमणकालीन मल्ल राजधानी पावा की खोज के लिए अपना अनुसंधान शुरू किया और 45 वर्ष के अथक परिश्रम के बाद उनका कार्य पूरा हुआ है। वह कहते हैं कि पावा का मुख्य केंद्र फाजिल नगर ब्लाक की उस्मानपुर ग्राम सभा का वीरभारी अभिधान वाहक ध्वन्शावशेष है जो उनकी अपनी भाषा में शताब्दियों पूर्व से अपने उत्थान हेतु नग्नावस्था में प्रतीक्षरत है।  

डॉ. सिंह बंजारा पट्टी स्थित अपने घर में बहुत मुश्किल हालात में रहते हैं। अभी लगभग 70 वर्ष की उम्र में वह केवल इस बात से चिंतित हैं कि उनके पास जो महत्वपूर्ण दस्तावेज और सामग्री है उसका सही इस्तेमाल कैसे होगा? क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो ये सभी ऐतिहासिक दस्तावेज और जानकारियाँ जिनका बहुत बड़ा राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व हो सकता है, सभी उनकी मौत के बाद दफन हो जायेंगी।  वह कहते हैं कि उनके पास अब इधर-उधर जाने की क्षमता नहीं है और उन्हें चलने-फिरने में भी परेशानी होती है। कोरोना काल में उनकी पत्नी का देहांत भी हो गया और वह बहुत अकेलापन महसूस करते हैं।  फिर भी वह अपनी जानकारी को सरकार को देना चाहते हैं।

इस क्षेत्र के पूर्व प्रधान शारदा प्रसाद बताते है कि पूरा इलाका महत्वपूर्ण खंडहरों से भरा पड़ा है लेकिन ईमानदारी से कोई भी प्रयास सरकारी तौर पर नहीं हुआ है। क्षेत्र में मौर्या और कुशवाहा लोगों की बहुतायत है जो स्वयं को बुद्ध की विरासत का उत्तराधिकारी कह रहे हैं इसलिए उस संस्कृति को बचाने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं।

“शारदा प्रसाद हमें एक टीले पर ले चलते हैं और कहते हैं कि बड़ी मुश्किल से ये बचे हैं लेकिन बहुत समय तक नहीं बच पायेंगे। पूरे क्षेत्र में भ्रमण कराते हुए वह हमें डॉ श्याम सुन्दर सिंह के पास लिए चलते हैं जो इस क्षेत्र के इतिहास को लेकर बहुत अधिक शोध कर चुके हैं और कहते है कि मल्ल राजाओ की राजधानी पावानगर यहीं पर वीरभारी स्थल पर थी। बंजारा पट्टी से करीब तीन किलोमीटर पर स्थित वीरभारी अवशेष को देखने पर पता चलता है कि पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगाने के बावजूद वहाँ पर एक बड़ा मंदिर बन चुका है क्योंकि सभी जानते है अतिक्रमण करने के लिए मंदिर बनाने से अच्छा कोई और उपाय नहीं हो सकता।”

इस स्थल की खुदाई के बाद यहाँ पर बेहद महत्वपूर्ण जानकरी मिल सकती है। पूर्व प्रधान शारदा प्रसाद कहते हैं कि अपनी प्रधानी में उन्होंने यहाँ पर विकास के बहुत प्रयास किये।  बुद्धकालीन स्मारक बनाने के लिए उन्होंने पर्याप्त भूमि का आवंटन किया था लेकिन उन स्थलों पर भी बिजलीघर बन और अनेक लोग कब्जा कर रहे हैं। सरकार की क्या योजना है किसी को पता नहीं है? लेकिन उस्मानपुर क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत को बचाना जरूरी है।

हालांकि फाजिल नगर या बघौच घाट से यहाँ आने के लिए पक्की सड़क है लेकिन अभी तक इस स्थल की महत्ता के विषय में कोई जानकारी नहीं है। पावानगर के नाम पर जो जगह फाजिल नगर के नज़दीक विकसित की जा रही है उसे डॉ श्याम सुन्दर सिंह पूरी तरह से खारिज कर देते हैं। वह कहते हैं कि अपने महापरिनिर्वाण से एक दिन पूर्व बुद्ध यहाँ ठहरे थे और यहीं से भोजन करने के बाद उन्होंने कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया था। वह बताते हैं कि यहाँ पर एक बहुत बड़ा जलकूप भी था और अन्दर से ही सीधे कुशीनगर तक पहुँचने के लिए मल्ल राजाओं ने एक अंडरग्राउंड रास्ते का निर्माण भी किया था।

हम लोग डॉ श्याम सुन्दर सिंह और शारदा प्रसाद के साथ वीरभारी टीले पर गए और विस्तारपूर्वक बातचीत की। डॉ सिंह कहते हैं यह मल्ल राजाओ की राजधानी थी और बुद्ध से पहले यहाँ महावीर आये थे और उनका परिनिर्वाण यही हुआ।

“डॉ सिंह कहते हैं कि पहले समय में भिक्खु या ऋषि-मुनि लोग शहर के भीतर नहीं रुकते थे और महावीर भी यहाँ से पांच सौ मीटर आगे एक डीह में रुके थे। महावीर के यहाँ आने का कारण उनके एक प्रिय शिष्य का बौद्ध बन जाना था। उसको मनाने के लिए महावीर वैशाली से यहाँ आये लेकिन उनका शिष्य उनकी बात को स्वीकार नहीं कर पाया। और उसी दिन महावीर का महापरिनिर्वाण हो गया। डॉ सिंह बताते हैं कि 1945 से पूर्व यह वैशाली से कुशीनगर जाने का मुख्य मार्ग था लेकिन अंग्रेजों द्वारा तमकुहीराज को बढ़िया बनाने के चलते फाजिलनगर वाले मुख्य मार्ग का निर्माण हुआ और फिर इस रास्ते को लोगों ने भुला दिया।”

ह कहते हैं कि यह क्षेत्र जैन मतावलंबियो के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन जब कोई विशेष प्रयास नहीं हुए तो जैन मतावलंबियो ने वैशाली को ही उनका परिनिर्वाण स्थल मान लिया।

डॉ सिंह कहते है कि कनिंघम के बाद कार्लाईल भी फाजिल नगर तक आने के बाद चले गए। उन्हें इस स्थान के विषय में शोध करते हुए 1996 में पता चला। बुद्ध रात्रिभोज करके यहाँ से निकले थे और उनका स्वास्थ्य ख़राब हुआ था।

वह कहते हैं कि भारत में बौद्धकालीन परम्पराओं और स्थलों को नष्ट करने में पुष्यमित्र शुंग की सबसे बड़ी भूमिका रही है जिसने साकेत से कुशीनगर तक बौद्ध स्थलों को बर्बाद किया और बौद्ध लोगों का कत्लेआम किया ताकि ब्राह्मण-धर्मी जातिवादी वर्चस्व यहाँ कायम रह सके। इस क्षेत्र में सभी महत्वपूर्ण बुद्धिस्ट स्थलों को नष्ट करने के बाद उसने पावा में यज्ञ किया और ब्राह्मण धर्म की स्थापना की। डॉ सिंह बताते हैं कि इस क्षेत्र की खुदाई में आक्रान्ता द्वारा जलाये गए दरवाजे मिले हैं ।

वीरभारी टीले के विषय में वह कहते हैं कि पावा नगर उत्तर भारत का सबसे संपन्न और महत्वपूर्ण नगर था। यह गुप्तकाल और कुषाणकाल में भी बौद्ध राज्य की राजधानी था और बाद में मल्ल राजाओं की राजधानी बना। यहाँ पर 15 फीट चौड़ी सड़क थी जो वैशाली को कुशीनगर से जोड़ती है। खुदाई में पांच सौ मीटर तक ये रोड मिली है।

आशा है पुरातत्व विभाग और इतिहासकार उनसे इस संदर्भ में संपर्क करेंगे ताकि इस महत्वपूर्ण स्थल पर एक ऐतिहासिक स्मारक बन सके जो पावा नगर की समृद्ध बौद्ध-जैन संस्कृति की जानकारी दुनिया को दे सके। जो लोग कुशीनगर आएँ वे इस क्षेत्र में आकर बौद्ध परम्पराओं और संस्कृति की महान विरासत को स्वयं अनुभव कर सकें। भारत के सर्वांगीण विकास के लिए यहाँ की स्वर्णिम बौद्धकालीन विरासत को न केवल बचा के रखना होगा अपितु उसका ईमानदारी से दस्तावेजीकरण भी करना होगा।

निश्चित रूप से इसमें डॉ श्याम सुन्दर सिंह जैसे स्थानीय इतिहासकारों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है जिन्होंने इन जगहों पर रहकर ही अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी। उम्मीद है हमारे नीति निर्माता और प्रशासन के लोग इस पर विचार कर यथोचित कार्यवाही करेंगे।

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1 COMMENT
  1. बुद्ध के धरोहरों के संरक्षण की नितांत आवश्यकता है।

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