अमर जवान ज्योति दिल्ली का न केवल एक लैंडमार्क था अपितु हमारी ऐतिहासिक विरासत भी, जहाँ प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान शहीद हुए जाँबाजों की याद में ब्रिटिश सरकार ने स्मारक बनाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने 1971के भारत-पाक युद्ध के शहीद सैनिकों के सम्मान में यहाँ 1972 में अमर जवान ज्योति की स्थापना की ताकि देश के लोग अपने सैनिकों के पराक्रम और शहादत को याद रख सकें। तब से लेकर आज तक इंडिया गेट न केवल एक ऐतिहासिक स्थल रहा है अपितु पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र रहा है। सरकार कहती है कि पहले देश के सैनिकों के लिए कोई स्मारक नहीं था और अब उन्होंने इसे एक वार मेमोरियल बना दिया है इसलिए ये कहना के अमर जवान ज्योति बुझा दी गई है, गलत है। सरकार कहती है कि दो जगह ‘ज्योति’ को मेंटेन करने में काफी खर्च आता है इसलिए यह लौ अब युद्ध स्मारक में ही जलेगी।
देश भर में इस घटना के ऊपर बहुत से सवाल खड़े किए गए इसलिए आलोचना से बचने के लिए सरकार ने एक नया ‘मुद्दा’ दे दिया। प्रधानमंत्री ने एक ट्वीट करके कहा कि इंडिया गेट के प्रांगण में मौजूद ऐतिहासिक कैनोपी जिस पर एक समय जॉर्ज पंचम की मूर्ति लगई हुई थी।1968 उसे वहाँ से हटा दिया गया था। बाद में बहुत से लोगों ने गांधी जी की मूर्ति को इसके अंदर लगाने की बात कही लेकिन उस पर सहमति नहीं बनी क्योंकि यह कहा गया कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अवशेष के अंदर गांधी को क्यों बैठाया जाए। दूसरे लोगों का कहना था कि ऐतिहासिक धरोहरों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए क्योंकि ये हमारे इतिहास का हिस्सा हैं। अब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सुभाष चंद्र बोस की एक बेहतरीन आदमकद प्रतिमा का अनावरण 23 जनवरी को करेंगे ताकि देश के लोग अपनी इस महान विरासत का ‘सम्मान’ कर सकें।
दरअसल नरेंद्र मोदी शुरू से ही देश के पटल से नेहरू गांधी परिवार की विरासत को डिलीट कर देना चाहते है और इसके लिए वह ऐतिहासिक तथ्यों और स्थलों से भी छेड़छाड़ कर रहे हैं जो बेहद खतरनाक है। मोदी और उनके मित्र यह जानते हैं कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में उनकी विचारधारा के लोगों का कोई भी योगदान नहीं है इसलिए वह नेहरू के समकालीन लोगों के सवालों और तथाकथित मतभेदों को उभारकर नेहरू को ‘बौना’ साबित करने के लगातार प्रयास कर रहे हैं। संघ परिवार का यह प्रयास इसलिए रहा है क्योंकि नेहरू देश में सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे और आर एस एस उनके चलते देश में कभी मुख्यधारा का संगठन नहीं बन पाया।
सवाल यह है कि क्या नेहरू और सुभाष एक दूसरे के दुश्मन थे ? क्या उनमें कोई मतभेद नहीं थे? जैसे व्हाट्सप्प विश्वविद्यालय द्वारा फैलाया जाता है कि नेहरू सुभाष से डरते थे और उनकी लोकप्रियता से घबराते थे? क्योंकि आजकल बात यह नहीं है कि आपके पास तथ्य हैं या नहीं लेकिन यह कि आपकी पहुँच कितनी है? आपको कितने लोग पढ़ते हैं और इस पहुँच वाली बात ने बड़े-बड़े गधों को भी लेखक बना दिया है क्योंकि लोग उनकी ‘बात’ पढ़ते है। आज के बाजार युग में मार्क्स को भी लोग किनारे कर देते। आज लोग इतिहास जानने की कोशिश करते हैं। चलिए पहले सामान्य सवाल पर आते हैं। हाँ, नेहरू और सुभाष में मतभेद थे लेकिन दोनों ने एक दूसरे का बहुत सम्मान किया। यहाँ तक कि गांधी को महात्मा भी सुभाष ने कहा और उनकी आजाद हिन्द फौज की विभिन्न टुकड़ियों के नाम गांधी ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और नेहरू ब्रिगेड आदि था। सुभाष ब्रिगेड के कमांडर कर्नल शहनवाज खान थे, जो आज के सिनेमा स्टार शाहरुख खान के नाना थे। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की ट्रैनिंग स्कूल के प्रमुख थे हबीबुर्रहमान और लक्ष्मी बाई ब्रिगेड की प्रमुख थीं कैप्टेन लक्ष्मी सहेगल।
नेहरू और सुभाष की मित्रता इसलिए भी मजबूत थी क्योंकि काँग्रेस पार्टी के अंदर प्रगतिशील वाममार्गी विचारधारा के वे दो ही प्रमुख सारथी थे। वे समाजवादी धर्मनिरपेक्ष भारत की परिकल्पना करते थे जहाँ सबके लिए जगह थी। नेताजी की विचारधारा उनकी आजाद हिन्द फौज की बनावट में साफ दिखाई देती है जिसमें आजादी के नायकों के नाम पर विभिन्न ब्रिगेड थी। यहाँ तक कि उनकी सेना में देश की विविधता दिखाई देती थी। उसमें हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, महिलाएँ सभी शामिल थे। आजाद हिन्द फौज में दलितों की भी पर्याप्त भागीदारी थी जिस पर अभी बहुत ज्यादा अध्यायन नहीं हुआ है।
[bs-quote quote=”जापान और जर्मनी दोनों ही द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूरी तरह से बर्बाद हो चुके थे। उनके फर्जी राष्ट्रवाद और नस्लवाद ने उन्हें सारी दुनिया का दुश्मन बना दिया। लेकिन विश्वयुद्ध की बर्बादी ने उन्हें सबक सिखा दिया कि मात्र सैन्य ताकत के बल पर आप मजबूत नहीं बन सकते। जर्मनी और जापान दोनों यह समझ गए कि दुनिया में यदि अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी है तो शिक्षा और ज्ञान के दम पर हो सकती है। सैन्य शक्ति के दंभ से नहीं। आज जापान और जर्मनी दुनिया में सबसे बड़े उदाहरण हैं कि कैसे फासीवादी तानाशाह शासकों के कारण बर्बाद हुए देश तभी आगे बढ़ सकते है जब वे आधुनिकता को अपनाते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सुभाष चंद्र बोस काँग्रेस के प्रमुख स्तम्भ थे लेकिन गांधी से मतभेदों के चलते उन्होंने पार्टी छोड़ी। इसमें कोई शक की बात नहीं के सुभाष चंद्र बोस को काँग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने में गांधी के तौर-तरीके को कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन इन प्रश्नों पर तो ज्यादा बात ही नहीं होती। इसमें कोई संदेह नहीं कि नेताजी एक चमत्कारी व्यक्तित्व थे और यही कारण है कि उनकी आजाद हिन्द फौज में सेनानियों की संख्या बहुत अधिक थी। आजाद हिन्द फौज के निर्माण के बाद भी उन्होंने अपने साथियों को सम्मान देना नहीं छोड़ा।
जैसे नेताजी देश प्रेम से ओत-प्रोत थे और वैसे ही अन्य स्वाधीनता संग्राम सेनानी। सभी का लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद को हटाकर स्वदेशी शासन व्यवस्था लागू करने की थी लेकिन यह भी एक हकीकत है कि नेताजी के सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी भूल जापानी और जर्मन फासीवादी शक्तियों से सहयोग लेने का प्रयास था। जब पूरी दुनिया की लोकतान्त्रिक शक्तियां अपने गिले-शिकवे भुलाकर एक हो रही थीं। हिटलर, मुसोलिनी और अन्य तानाशाहों के विरुद्ध खड़ी हो गई थीं उस समय उनके साथ जुड़कर भारत की आजादी का स्वप्न देखना भी खतरनाक था। हम सब जानते हैं कि वैचारिकी के तौर पर नेताजी देश की विविधता और धर्मनिरपेक्षता का सम्मान करते थे और हिटलर या किसी और फासीवादी के साथ उनका कोई वैचारिक तालमेल नहीं था। यह तो केवल उस रणनीति के तहत था जो अक्सर युद्ध के समय अपनाई जाती है। दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त। लेकिन कई बार ऐसी रणनीति राष्ट्र के लिए बेहद घातक हो सकती है।
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इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता के जापान और जर्मनी की हार के बाद मित्र राष्ट्रों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया। जहाँ जर्मनी में हिटलर और उसके सहयोगियों पर सार्वजनिक मुकदमे चले, जिसे हम न्यूरेमबर्ग ट्रायल्स के नाम से जानते हैं, तो जापान के साथ भी ऐसा ही हुआ। दोनों देशों में मित्र देशों का नियंत्रण रहा और वहाँ लोगों ने फासीवाद और नाजीवाद के विरुद्ध बात कही। जापान और जर्मनी दोनों ही द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूरी तरह से बर्बाद हो चुके थे। उनके फर्जी राष्ट्रवाद और नस्लवाद ने उन्हें सारी दुनिया का दुश्मन बना दिया। लेकिन विश्वयुद्ध की बर्बादी ने उन्हें सबक सिखा दिया कि मात्र सैन्य ताकत के बल पर आप मजबूत नहीं बन सकते। जर्मनी और जापान दोनों यह समझ गए कि दुनिया में यदि अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी है तो शिक्षा और ज्ञान के दम पर हो सकती है। सैन्य शक्ति के दंभ से नहीं। आज जापान और जर्मनी दुनिया में सबसे बड़े उदाहरण हैं कि कैसे फासीवादी तानाशाह शासकों के कारण बर्बाद हुए देश तभी आगे बढ़ सकते है जब वे आधुनिकता को अपनाते हैं। नस्लवाद को वैचारिक तौर पर गलत मानते हैं।
[bs-quote quote=”जब से नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक एजेंडे के तहत जवाहर लाल नेहरू को बदनाम करने के लिए नेताजी का इस्तेमाल शुरू किया तब से हमारा मीडिया भी इसके लिए तैयार हो गया। उनकी पुत्री अनीता बोस और अन्य रिश्तेदारों से बातचीत करने लगा। अनीता बोस ने बहुत से साक्षात्कारों में यह साफ किया कि नेहरू और नेताजी के बहुत से मतभेद थे लेकिन वह बहुत अच्छे दोस्त भी थे और एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
विश्वयुद्ध के कारण दुनिया ने जो भीषण तबाही देखी उससे निकल पाना बेहद कठिन था। 2 अरब की आबादी में से लगभग 8 करोड़ लोग इस भयावह तबाही का शिकार हो गए जो पूरी आबादी का लगभग 4% था। मित्र देशों का जर्मनी और जापान पर पूरी तरह से नियंत्रण हो चुका था और उनकी सेना द्वारा ऐसे तंत्रों को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया जहाँ से घृणा पैदा हो रही थी और उसके लिए हथियारों की सप्लाई की जा रही थी। मित्र देशों के सामने केवल यह चुनौती नहीं थी कि युद्ध अपराधियों को सजा मिले अपितु यह भी थी कि जर्मनी और जापान का कैसे पुनर्निर्माण किया जाए। यह कठिन कार्य था और इसके लिए जर्मनी, जापान और दुनिया के अन्य हिस्सों में युद्ध के लाखों अपराधियों पर चुन-चुन कर मुकदमे चले, सजाए हुईं और उनको अपने देशों से बाहर खदेड़ दिया गया। फासीवाद और नस्लवाद से जर्मनी और जापान तो बाहर आ गए लेकिन उनसे हमारे देश का एक छोटा या बड़ा तबका बहुत प्रभावित है। आज आप जर्मनी और जापान में तो फासीवादियों को याद भी नहीं कर सकते लेकिन हमारे यहाँ 2014 के बाद हिटलर और भी अधिक लोकप्रिय हुआ और उसकी आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद होकर खूब बिका। आज नस्लवाद और जातिवाद के अहंकार के तहत ऐसी ताकतें विश्व-विजय का सपना देख रही हैं जिनके लिए विश्वविजय कुछ नहीं अपितु अल्पसंख्यकों को धमकाना और प्रताड़ित करना है।
नेताजी को लेकर भारत में जिस ‘रहस्य’ को बनाए रखा गया उसका उद्देश्य उनके नाम का इस्तेमाल कर उनको उस विचारधारा का मुखौटा बनाना था जिसके विरुद्ध उनकी लड़ाई थी और इसके लिए आवश्यक था कि नेहरू को खलनायक बनाया जाए। संघ के एजेंडे में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध कुछ नहीं है क्योंकि उनकी पूरी सोच इस्लाम, मुसलमान, मुग़ल आदि तक सिमट जाती है। इसलिए जरूरी था कि सुभाष को अपना हीरो बनाने के लिए उनके विरुद्ध नेहरू की साजिश को दिखाया जाए। यह काम उन्होंने सरदार पटेल से शुरू किया और बाबा साहेब अंबेडकर से लेकर नेहरू तक सभी समकालीन लोगों को हथियार बनाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। तथ्य कभी भी हिन्दुत्व का शक्तियों का हथियार नहीं रहा। उनकी सबसे बड़ी ताकत है अफवाह। कभी उनको किसी बाबा के रूप मे दिखाया तो कभी यह बताया कि सारी साजिश नेहरू की ही थी। लेकिन नेताजी की बेटी अनीता बोस ने कुछ वर्ष पूर्व हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में एक बात कही कि उन्हें नेताजी की मृत्यु की खबरों पर अविश्वास करने का कोई कारण नजर नहीं आता। उन्होंने कहा कि मुझे इस विषय में कोई और ऐसी सूचना या जानकारी नहीं है जो यह साबित कर सकती हो कि ऐसा नहीं हुआ है। मैंने उन बहुत से लोगों से बातचीत की जो उस दुर्घटना के चश्मदीद गवाह थे और उस हवाई यात्रा में सफर कर रहे थे जिसमें नेताजी थे और जो दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी।
[bs-quote quote=”7 मार्च 1938 को अन्तराष्ट्रीय पत्रिका टाइम्स ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने कवर पेज पर रखा जिसमें वह कहते हैं : हमारे देश की मुख्य समस्या गरीबी, अशिक्षा, बीमारी है और इसे वैज्ञानिक सोच और समाजवाद के जरिए ही सुलझाया जा सकता है। वह आगे कहते हैं कि इस कार्य के लिए क्रांतिकारी भूमि सुधारों की जरूरत होगी और जमींदारी प्रथा का पूर्णतः खात्मा करना पड़ेगा। औद्योगिक विकास केवल राज्य के अंतर्गत होगा और सभी संसाधनों पर राज्य का अनिवार्यतः नियंत्रण होगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
हिंदुस्तान टाइम्स के प्रसून सोनवलकर को दिए गए अपने इंटरव्यू में अनीता बोस ने यह भी कहा कि नेताजी की मृत्यु पर किसी भी किस्म का विवाद खत्म होना चाहिए, क्योंकि इसका कोई लाभ नहीं है। वह कहती हैं कि यह कहना कि नेताजी ‘गुमनामी’ बाबा हैं और पहाड़ों में रह रहे हैं, दरअसल उनका अपमान करना है। ऐसा कैसे संभव है कि एक व्यक्ति जिसे देश की इतनी चिंता थी और जो देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार था वह अपने परिवार के सदस्यों के संपर्क में नहीं है और देश की समस्याओं को हल करने की न सोच कर गुमनामी की जिंदगी जीना चाहता है। यह एक बहुत ही बेकार की कंट्रोवर्सी है। कभी-कभी भी इस बात को सुनकर मुझे बेहद गुस्सा आता है। मेरे पिता ने अपने देश के लिए इतना कुछ किया। अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनकी मौत पर इतना विवाद खड़ा किया जा रहा है। क्या उनकी प्रसिद्धि का यही एक कारण है। यह भारत की आजादी के लिए उनके योगदान के ऊपर कोई बहुत निष्पक्ष प्रतिबिंब नहीं है।
जब से नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक एजेंडे के तहत जवाहर लाल नेहरू को बदनाम करने के लिए नेताजी का इस्तेमाल शुरू किया तब से हमारा मीडिया भी इसके लिए तैयार हो गया। उनकी पुत्री अनीता बोस और अन्य रिश्तेदारों से बातचीत करने लगा। अनीता बोस ने बहुत से साक्षात्कारों में यह साफ किया कि नेहरू और नेताजी के बहुत से मतभेद थे लेकिन वह बहुत अच्छे दोस्त भी थे और एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। अनीता बहुत बार दिल्ली आती रही हैं और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के घर पर कुछ दिनों तक रही हैं। उन्होंने बताया कि नेहरू ने अपने व्यस्त शेड्यूल के बावजूद उनका खयाल रखा।
इंडिया टुडे से बातचीत मे अनीता बोस यह भी कहती हैं कि यह कहना कि भारत की आजादी केवल अहिंसक रास्ते से आई उतनी ही गलत है जितना यह कि कहना कि आई एन ए के कारण ही भारत आजाद हुआ। वह कहती हैं कि गांधी, नेहरू, सुभाष भारत के हीरो हैं और इनको अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। नेताजी से संबंधित सभी सरकारी फाइलें अब खुली कर दी गई है। अब छुपाने के लिए कुछ नहीं है। ऐसे आरोप लगाए गए कि नेहरू ने नेताजी की जासूसी कराई। सवाल है कि नेताजी की मृत्यु के बाद कौन सी जासूसी कारवाई जाती। उनके परिवार के सदस्यों की सुरक्षा के लिए जरूर ऐसा किया जाता रहा होगा। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को बदनाम करने की बहुत कोशिश की गई लेकिन वह कामयाब नहीं हुई। इन्हें गुप्त फ़ाइलों में एक दस्तावेज सामने आया वह था – 12 जून 1952 को नेहरू ने वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय को एक नोट भेजा जो निम्न था :
विएना में श्री सुभाष चंद्र बोस की पत्नी की वित्तीय मदद के संबंध मे मंत्रालय की राय और सहयोग मांगा गया था। वित्त मंत्रालय ने उनके इस प्रपोज़ल को स्वीकार कर लिया और उनके भतीजे अमियनाथ बोस को इसकी जानकारी दी। नेताजी की बेटी अनीता बोस के विषय में एक ट्रस्ट बनाया गया जिसमें जवाहर लाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री श्री बी सी रॉय थे और उसमें एकमुश्त राशि रख दी गई जो अनीता को उनकी 21 वर्ष की उम्र मे स्थानांतरित कर दी जानी थी।
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अखबार द हिन्दू इन दस्तावेजों के आधार पर बताता है कि 15 अप्रेल 1954 को सुभाष चंद्र बोस की बेटी के सिलसिले में ट्रस्ट डीड साइन की गई जिसमें कहा गया जिसमें उनकी पत्नी को बेटी का वारिस बनाया गया और यदि दोनों में से कोई भी मौजूद नहीं है तो फिर काँग्रेस पार्टी को यह पैसा आएगा। अखबार बताता है कि नेताजी की पत्नी ने पैसे लेने से इनकार कर दिया लेकिन उनकी पुत्री अनीता को 1965 तक आल इंडिया काँग्रेस कमेटी ने पैसे भेजे।
हिंदुस्तान टाइम्स को दिए अपने इंटरव्यू में अनीता बोस कहती हैं कि ‘यदि मेरे पिता आज जीवित होते तो अपने आपको देश की राजनीति में इन्वाल्व करते। इसके बहुत से नतीजे होते। देश के सामने नेहरू का एक विकल्प भी होता लेकिन हम इस बात का ख्याल रखेँ कि कुछ प्रश्नों पर उनकी राय बिल्कुल एक थी। वो दोनों चाहते थे कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में सांप्रदायिक शक्तियों की जगह मजबूत न हो। वह दोनों इस संदर्भ में आधुनिक थे कि वे दोनों औद्योगीकरण चाहते थे। दूसरी ओर उनमें मतभेद भी हो सकते थे जैसे मैं सोचती हूँ कि पाकिस्तान के संदर्भ में उनकी राय भिन्न होती। वास्तव में किसी को भी विभाजन के बाद की त्रासदी का अंदाजा रहा होगा। लोगों की मौतों और तबाही ने दोनों ओर इतना जख्म दे दिया था कि उनसे निपट पाना मुश्किल था लेकिन यदि वह विभाजन नहीं रोक पाते जैसे वह और गांधी इसको रोकना चाहते थे, तो मेरे विचार से वह पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बनाने की बात करते।
नेहरू सुभाष के रिश्तों का एक सच यह भी है कि नेहरू की पत्नी कमला नेहरू के गिरते स्वास्थ्य के लिए बोस ने उन्हें लिखा कि वे किसी भी काम के लिए उन्हें लिख सकते हैं। जब ब्रिटिश सरकार ने 1936 में नेहरू को कमला नेहरू के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए स्विट्ज़रलैंड जाने की अनुमति दी तो सुभाष उनके संपर्क में थे और कमला नेहरू की मौत के समय वह नेहरू और इंदिरा के पास थे। नेहरू के यूरोप जाने से पहले सुभाष ने उनको लिखा : आज के प्रथम श्रेणी के सभी नेताओं में आप अकेले हो जिनके बारे में हम सोचते हैं कि वह काँग्रेस को एक प्रगतिशील रास्ते पर ले जाएंगे।
7 मार्च 1938 को अन्तराष्ट्रीय पत्रिका टाइम्स ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने कवर पेज पर रखा जिसमें वह कहते हैं : हमारे देश की मुख्य समस्या गरीबी, अशिक्षा, बीमारी है और इसे वैज्ञानिक सोच और समाजवाद के जरिए ही सुलझाया जा सकता है। वह आगे कहते हैं कि इस कार्य के लिए क्रांतिकारी भूमि सुधारों की जरूरत होगी और जमींदारी प्रथा का पूर्णतः खात्मा करना पड़ेगा। औद्योगिक विकास केवल राज्य के अंतर्गत होगा और सभी संसाधनों पर राज्य का अनिवार्यतः नियंत्रण होगा।
नेहरू और बोस के आपसी मतभेदों को लेकर उनके एक दूसरे को लिखे पत्र भी पर्याप्त गवाही देते हैं। दोनों ने इसे स्वीकार किया लेकिन उनके मतभेद वैचारिक होने से ज्यादा काँग्रेस के अंदर दक्षिणपंथी समूहों की ताकतवर मौजूदगी को लेकर था जिसमें सुभाष नेहरू से अपना साथ देने की उम्मीद करते थे। काँग्रेस के अंदर सुभाष के सबसे बड़े विरोधियों का नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल कर रहे थे। ऐसा बताया जाता है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सुभाष चंद्र बोस के काँग्रेस अध्यक्ष बनने का जमकर विरोध किया। पहली बार में तो गांधी ने उनके ऑब्जेक्शन को खारिज कर दिया लेकिन दूसरी बार जब पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा किया गया तो पटेल ने सुभाष चन्द्र बोस का विरोध किया। पटेल के सुभाष बोस के साथ बहुत तनावपूर्ण रिश्ते रहे हैं। दरअसल सुभाष चन्द्र बोस सरदार पटेल के बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल के बहुत नजदीकी थे और उन्होंने उनकी बहुत सेवा की। 1933 में अपनी मृत्यु के बाद उन्होंने अपनी सारी संपत्ति सुभाष चन्द्र बोस के नाम इस उम्मीद में कर दी कि सार्वजनिक कार्य के लिए उसका उपयोग किया जाए। वल्लभ भाई पटेल इसके लिए तैयार नहीं हुए और पूरा मामला कोर्ट में पहुँचा जहाँ सुभाष चंद्र बोस केस हार गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध मे जर्मनी और जापान की हार के बाद, आजाद हिन्द फौज के हजारों सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया और ब्रिटिश हुकूमत ने उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया। सारे देश ने आजाद हिन्द फौज के जनरलों, प्रेम कुमार सहगल, गुरुबख्श सिंह ढिल्लो और शाहनवाज खान पर लाल किले पर मुकदमे को देखा। देश भर मे नारा गूंजा : 40 करोड़ की एक आवाज : सहगल, ढिल्लो शहनवाज। हकीकत यह कि अंग्रेजी हुकूमत यह देखकर परेशान हो गई जब उन्होंने देखा के पूरा देश आजाद हिन्द फ़ौज के महान सैनानियों के साथ खड़ा है। यह देश के विविधता और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की महान सोच का परिणाम था कि उनकी आजाद हिन्द फौज सही अर्थों में देश की महान सांस्कृतिक विरासत को बनाकर चल रही थी। उनके हर कदम पर यहाँ की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता झलकती थी।
[bs-quote quote=”हाँ, नेहरू और सुभाष में मतभेद थे लेकिन दोनों ने एक दूसरे का बहुत सम्मान किया। यहाँ तक कि गांधी को महात्मा भी सुभाष ने कहा और उनकी आजाद हिन्द फौज की विभिन्न टुकड़ियों के नाम गांधी ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और नेहरू ब्रिगेड आदि था। सुभाष ब्रिगेड के कमांडर कर्नल शहनवाज खान थे, जो आज के सिनेमा स्टार शाहरुख खान के नाना थे। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की ट्रैनिंग स्कूल के प्रमुख थे हबीबुर्रहमान और लक्ष्मी बाई ब्रिगेड की प्रमुख थीं कैप्टेन लक्ष्मी सहेगल।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
1945 में आई एन ए के मुकदमे में जवाहर लाल नेहरू ने आजाद हिन्द फौज के सभी सेनानियों की ओर से पैरवी की। आई एन ए डिफेन्स कमेटी में जो प्रमुख वकील शामिल थे उनमें नेहरू के अलावा आसफ अली, आर बी बदरीदास और जस्टिस अछरू राम थे। आई एन ए के बंदियों की हौसला अफजाई करने के लिए गांधी और नेहरू लगातार उनसे मिलते रहे और देश की ओर से उनके साथ खड़े होने की बात करते रहे।
सुभाष उम्र में नेहरू से बड़े थे लेकिन वह नेहरू को एक दूरदर्शी व्यक्तित्व के तौर पर देखते थे। दूसरी ओर, नेहरू सुभाष चंद्र बोस के बहुत नजदीकी रहे लेकिन गांधी का साथ नहीं छोड़ सकते थे। सुभाष को लगता था कि नेहरू का उनके प्रति लगाव कम हुआ है। अपने पत्रों में नेहरू ने सुभाष के साथ मतभेदों को स्वीकारा है लेकिन दोनों के पारिवारिक संबंध बहुत मधुर थे।
नेहरू पर नेताजी की जासूसी करने का आरोप वे लोग लगा रहे है जो सरदार पटेल को अपना मानते हैं लेकिन उनके और नेताजी के संबंधों पर चुप रहते हैं। आजादी के बाद से लेकर अपनी मृत्यु तक सरदार देश के गृहमंत्री थे और उनके बाद राजगोपालाचारी और फिर लाल बहादुर शास्त्री गृहमंत्री थे। नेहरू के मंत्री परिषद के सभी सदस्य अपने आपमें ताकतवर थे और यदि उस दौर में गृह मंत्रालय ने कुछ भी किया होगा तो उसके लिए गृहमंत्री को जिम्मेवार क्यों न माना जाए? मतलब यह कि जब किसी अच्छे कार्य का क्रेडिट लेना हो तो नेहरू को न देकर मंत्रियों को दिया जाए और जब किसी काम में असफलता हो तो उसका जिम्मा नेहरू पर थोप दिया जाए। आज के मीडिया का यही रोल है क्योंकि उनके लिए नेताजी या बाबा साहब अंबेडकर केवल नेहरू के साथ अपने संबंधों तक ही सीमित हैं। नेताजी को केवल उनकी सैनिक वर्दी तक सीमित करना वैसे ही है जैसे गांधी को स्वच्छ भारत और भगत सिंह की पूरी पहचान को उनकी शहादत तक केंद्रित कर देना। ये सभी लोग देश के लिए मर मिटे लेकिन सब में एक समानता थी वह थी देश के लिए धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य की अवधारणा।
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सुभाष और नेहरू के विषय में एक बेहद महत्वपूर्ण आलेख शहीद भगत सिंह का है जो जुलाई 1928 में किरती अखबार में छपा था। वह कहते हैं:
मुंबई में आप दोनों का एक भाषण सुना। जवाहरलाल नेहरू इसकी अध्यक्षता कर रहे थे और पहले सुभाष चंद्र बोस ने भाषण दिया। वह बहुत भावुक बंगाली हैं।
उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत इस बात से की कि हिंदुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष संदेश है। यहां सुभाष बाबू ने अपने भाषण में एक बार फिर वेदों की ओर लौट चलने की बात की। इसके बाद भी एक और भाषण में उन्होंने राष्ट्रवादिता के संबंध में कहा था। यह एक छायावाद और कोरी भावुकता है। साथ ही वह अपनी प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं..”
लेकिन जवाहरलाल नेहरू के विचार इससे बिल्कुल अलग हैं। उन्होंने अपने एक संबोधन में कहा कि प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए, राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे नहीं माननी चाहिए। चाहे वेद कहें या फिर पुराण । यह एक युगांतकारी के विचार हैं और सुभाष के विचार एक राज परिवर्तनकारी के हैं। एक के विचार में पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर देना सही है। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगांतकारी और विद्रोही..”
अंत में भगत सिंह युवाओ को नेहरू की सोच पर चलने को कहते हैं लेकिन यह भी चेतावनी देते हैं कि हमे अंधभक्त नहीं बनना है। हमे वेदों की ओर लौटने की नहीं वैज्ञानिक चिंतन की आवश्यकता है।
यह भी देखिये :
नेताजी सुभाष चंद्र बोस हों या जवाहर लाल नेहरू या भगत सिंह अथवा बाबा साहब अंबेडकर हों। ये लोग समकालीन थे और भारत के विषय में चिंतित थे। इन सभी के विचारों में मतभेद हो सकता है लेकिन एक बात में सभी एकमत थे और उन सभी का भारत धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी है और सभी भारत की विविधता का सम्मान करते हैं इसलिए आज के दौर के शासक जिनको इतिहास के पन्ने खुलने से भय लग रहा है वे हमेशा से इतिहास के पन्नों और उसकी पहचान को ही मिटा देना चाहते हैं। हमारे स्वाधीनता संग्राम की सबसे बड़ी खासियत यहाँ की विभिन्न जातियों और समुदायों की एकता थी। आज जो लोग इस देश में एक जाति, एक धर्म का पुरोहितवादी पूंजीवादी राज स्थापित करना चाहते हैं वे इन नायकों और इस संग्राम की विशाल ऐतिहासिक विरासत का दुरुपयोग कर उनके सपनों का विध्वंस कर देना चाहते हैं। अब देश की जनता को ही अपनी विरासत की रक्षा करनी है। क्योंकि एक नायक को दूसरे के खिलाफ भड़काकर न उस विरासत के साथ न्याय हो सकता है और न ही ऐसी ओछी हरकतों से देश मजबूत होगा। यदि वर्तमान शासक वाकई नेताजी का सम्मान करते हैं तो देश के अल्पसंख्यकों पर भरोसा करना शुरू करें और उन्हें देश के संसाधनों में हिस्सेदारी दें। देश के प्राकृतिक संसाधनों को निजी हाथों में सौंपकर और यहाँ की बहुसंख्यक आबादी को बेरोजगार बनाकर वे नेताजी के सपनों को आगे नहीं बढ़ा रहे अपितु ठेठ उसके विपरीत काम कर रहे हैं। नेताजी को सपनों का भारत मतलब लोगों को बराबरी का अधिकार, जमींदारी उन्मूलन और वैज्ञानिक चिंतन। धर्म का धंधा करके पूंजीपरस्त एजेंडे पर चलने वाले लोग क्या कभी ऐसा कर सकते हैं जिससे जनता जागरूक हो और अपने अधिकार ले सके? नेताजी के नाम पर नाटक करने वालों से सावधान रहने की जरूरत है।
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।
सच में नेताजी के नेता पर नाटक करने वालों से सावधान रहने की जरूरत है आज तक मैं भी सुभाष चंद्र की मौत को रहस्ययात्मक रूप में हम भी देखते और पढ़ते आ रहे थे, लेकिन विभिन्न प्रमाणों और उनकी बेटी अनिता बोस के तथ्यात्मक टिप्पणी से आपने इस लेख में जो जानकारी दिया काफी अहम है । यह लेख वर्तमान राजनीति में तमाम विवादों को सुलझाने में काफी मदद कर सकती है किंतु टीवी पर बैठे प्रवक्ता लोग तथ्य विहीन होते हैं। वह किसी चीज का अध्ययन करना नहीं जानते. केवल भावनात्मक मुद्दे उछाल कर जनता को गुमराह करते हैं उन्हें भी यह लिख पढ़ना चाहिए। इस शानदार लेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई सर।
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