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आडवाणी को भारतरत्न देने से इस सम्मान का मूल्य कम हुआ है

जिन्होंने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद शुरू करते हुए 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस कराया और संपूर्ण देश में सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया। सिर्फ हिंसा की राजनीति की। उन्हें  भारतरत्न पुरस्कार से सम्मानित करने से देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की राजनीतिक निर्णय की शुरुआत हुई है। इसपर नरेंद्र मोदी ने […]

जिन्होंने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद शुरू करते हुए 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस कराया और संपूर्ण देश में सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया। सिर्फ हिंसा की राजनीति की। उन्हें  भारतरत्न पुरस्कार से सम्मानित करने से देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की राजनीतिक निर्णय की शुरुआत हुई है।

इसपर नरेंद्र मोदी ने अपने ट्विटर हेंडल पर, खुल कर कहा कि “जिस दल की लोकसभा में सिर्फ दो ही सदस्य थे, आज उसी दल का लोकसभा में बहुमत है। हमारी सरकार पिछले दस सालों से सत्ता में है। अब वह तीसरी बार भी आने वाली है। आज हमारे दल को यह हैसियत दिलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ही हैं।”

बिल्कुल इस बारे मे कोई शक नहीं है। नरेंद्र मोदी और एक बात बताना भूल गए। 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब उनका इस्तीफा मांगने के लिए विरोधियों के साथ खुद उनके दल के कुछ लोग ज़ोर दे रहे थे तो वह आडवाणी ही थे जिन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुये नरेंद्र मोदी का इस्तीफा होने से बचा लिया था। अगर ऐसा न होता तो नरेंद्र मोदी का राजनीतिक सफर 2002 में ही खत्म हो गया होता।

हालांकि 1984 तक नरेंद्र मोदी संघ के प्रचारक थे, लेकिन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में  भाजपा की हार को देखते हुए संघ ने, अपने कुछ प्रचारकों मे से कुछ लोगों को भाजपा के लिए विशेष रूप से भेज दिया इनमें नरेंद्र मोदी भी एक थे। लालकृष्ण आडवाणी ने ही उन्हें गुजरात भाजपा के लिए भेजा था। नरेंद्र मोदी इसिलिये उन्हें अपना गुरु कहते रहे हैं।  पालनपुर प्रस्ताव में (1989) लालकृष्ण आडवाणी को बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद को लेकर राजनीति करने वाले प्रस्ताव को मंजूरी देते हुए  रथयात्रा निकालने का मार्ग प्रशस्त हो गया। रथयात्रा के आयोजन में नरेंद्र मोदी ने अपनी भूमिका निभाई। लेकिन मंदिर-मस्जिद विवाद के चलते भारत में 1989 के भागलपुर दंगे में 3000, उसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हुए दंगों में तथा आतंकवाद की घटनाओं में 25 हजार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई है।  अकेले भागलपुर (3000) और गुजरात के दंगों में (2000) का आँकड़ा मिलाकर पांच हजार मौतों का है।

इसके अलावा मुंबई तथा देश के अन्य हिस्सों में दंगे तथा उससे संबंधित आतंकवादी घटनाओं के कुल आंकड़ों का हिसाब पच्चीस हजार से अधिक लोगों की मौत का है। इन सभी मौतों के लिए लालकृष्ण आडवाणी के द्वारा शुरू की गई राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की वजह से हमारे देश की गंगा-जमनी संस्कृति को नष्ट करने तथा उसकी जगह पर  हिंदुत्ववादी राजनीति को ही जिम्मेदार माना जाना चाहिए। बेशक इसके लिए सौ वर्ष पहले संघ की स्थापना तथा उसके भी दस साल पहले हिंदू महासभा 1915 में स्थापना हुई थी। विनायक दामोदर सावरकर के द्वारा उसी दौरान हिंदुत्ववादी दर्शन पर लिखा गया दस्तावेज  ‘हिंदूत्व’ के नाम से संकलित है। 1924 में लाला लाजपत राय द्वारा लाहौर से निकलने वाले ट्रिब्यून नामक अखबार में तेरह लेख लिखकर हिंदू और मुसलमान के दो राष्ट्र होने के सिद्धान्त और भारत के बँटवारे का  बीजारोपण करने की कोशिश की गई थी।

उसके बावजूद सिर्फ महात्मा गाँधी को बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। 1916 में बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना और लोकमान्य तिलक के बीच हुये लखनऊ समझौते में मुसलमानों को 37% आरक्षण देने की पहल की गई थी। यह मुस्लिम जनसंख्या की तुलना में अधिक थी, जिस पर आजतक संघ, जनसंघ, हिंदू महासभा या भाजपा का आक्षेप इतिहास के पन्नों में दिखाई नहीं देता है। 79 उम्र के महात्मा गाँधी द्वारा अपने संपूर्ण जीवन में ऐसा कोई भी समझौता नहीं करने के बावजूद हिन्दुत्ववादियों द्वारा उन्हें ही बंटवारे का गुनाहगार ठहराया जाता है। यह कहाँ तक उचित है?

सिर्फ किसी दल को सत्ताधारी बनाने के लिए आजादी के बाद भारत में पहली बार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की राजनीति की शुरुआत हुई। वास्तव में इसकी शुरुआत सबसे पहले पंजाब में 1908-9 में ही हो चुकी थी। उसी के आधार पर 1915 में भारतीय स्तर पर हिंदू महासभा को बनाया गया। लेकिन महात्मा गाँधी की हत्या की साजिश में हिंदू महासभा की हुई बदनामी के कारण उसे कोई भी राजनीतिक कामयाबी हासिल नहीं हो रही थी। इसके बाद संघ के प्रमुख गोलवलकर ने 1951 में ‘भारतीय जनसंघ’ नाम से अपनी दूसरी राजनीतिक इकाई शुरू की थी। लेकिन 1977 में जनता पार्टी के निर्माण में जनसंघ का अस्तित्व समाप्त हो गया था। लेकिन दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी में विवाद होने की वजह से पुराने राने जनसंघ के लोगों ने अपने आपको अलग करते हुए  1980 में भारतीय जनता पार्टी बना ली।

सांस्कृतिक संगठन के नाम पर 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा 1964 में विश्व हिंदू परिषद की नींव पड़ी।  उस समय गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख थे। उन्होंने  उसके साथ ही विभिन्न क्षेत्रों के लिए सौ से अधिक विभिन्न संगठनों भी निर्माण किया। इनमें (1) विद्यार्थियों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, (2) वकीलों के लिए अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, (3) डाक्टरों के लिए आरोग्य भारती, (4) औद्योगिक मजदूरों के लिए भारतीय मजदूर संघ, (5) किसानों के लिए भारतीय किसान संघ, (6) सामाजिक कार्य के लिए भारत विकास परिषद, (7) इतिहास के विषय पर काम करने के लिए भारतीय विकास संकलन योजना, (8) बच्चों के क्षेत्र में काम करने के लिए बालगोकुलम, (9) शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए भारतीय शिक्षण मंडल, (10) हिंदूत्ववादी राजनीतिक गतिविधियों के लिए भारतीय जनता पार्टी, (11) ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदूत्ववादी प्रचार-प्रसार करने के लिए दीनदयाल शोध संस्थान, (12) गोहत्या बंदी के खिलाफ आंदोलन के लिए गौ संवर्धन, (13) गांव में काम करने के लिए ग्राम विकास, (14) ग्राहकों की समस्याओं के निराकरण करने के लिए ग्राहक पंचायत, (15) पारिवारिक समस्याओं के निराकरण के लिए कुटुंब प्रबोधन, (16) कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठरोग निवारण समिति, (17) खेल जगत के लिए क्रीड़ा भारती, (18) छोटे उद्योगों के लिए लघु उद्योग भारती, (19) डाक्टरों के लिए नेशनल मेडिकोज ऑर्गनाइजेशन, (20) सेना से सेवानिवृत्त हुए लोगों के लिए अखिल भारतीय सैनिक सेवा परिषद, (21) बौद्धिक और अकादमिक क्षेत्र के लिए प्रज्ञा प्रवाह, (22) महिलाओं का संगठन राष्ट्रसेविका समिति, (23) शिक्षकों का संगठन राष्ट्रीय शिक्षक महासंघ, (24) अन्य धार्मिक पंथों के लिए राष्ट्रीय सिख संगत, (25) सहकार क्षेत्र के लिए सहकार भारती, (26) विभिन्न जातियों में काम करने के लिए सामाजिक समरसता मंच, (27) साहित्य के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के लिए साहित्य परिषद, (28) समाजकार्य के क्षेत्र में काम करने के लिए सेवा भारती, (29) देश की सीमा क्षेत्र के लोगों के लिए सीमा जनकल्याण समिति,  (30) कला के क्षेत्र के लिए संस्कार भारती,  (31) संस्कृत भाषा के विकास के लिए संस्कृत भारती, (32) स्वदेशीकरण के लिए स्वदेशी जागरण मंच,  (33) आदिवासियों के लिए अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, (आदिवासियों को आदिवासी न कहते हुए, जानबूझकर उन्हें वन में रह रहे वनवासी कहा जा रहा है), (34) शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए विद्याभारती,  (35) भारत तथा भारत के बाहर रह रहे भारतीयों के लिए विश्व हिंदू परिषद,  (36) वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों में हिंदुत्ववादी दर्शन का प्रचार-प्रसार करने के लिए विज्ञान भारती आदि। ये सिर्फ कुछ बानगियाँ हैं। इनके अतिरिक्त भी बहुत सारे संगठन हैं। इससे पता चलता है कि संघ ने सौ वर्ष में शायद ही जीवन का कोई क्षेत्र छोड़ा होगा जिसमें उन्होंने अपनी पैठ बनाने की कोशिश नहीं की होगी।

लालकृष्ण आडवाणी बंटवारे के पहले सिंध प्रांत में कराची में संघ का काम करते थे। भारत में आने के बाद सबसे पहले वह पत्रकार की भूमिका में संघ के द्वारा शुरू किए गए ऑर्गनायज़र और पांचजन्य जैसी पत्रिकाओं में काम किया और उसके बाद जनसंघ और 1980 के बाद बनी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और विभिन्न भूमिकाओं में रहे हैं।

आज लालकृष्ण आडवाणी को भले ही भारत रत्न जैसे पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला वर्तमान सरकार ने लिया है लेकिन यह सवाल उठता है कि आखिर आडवाणी ने भारत को तोड़ने के अलावा कौन सा ऐसा काम किया है जिसके लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च सम्मान दिया जाना चाहिए। सत्ता में रहते हुये उनकी कौन सी नीतियाँ थीं अथवा उनका कौन सा विचार दर्शन था जिससे इस देश की एकता और अखंडता को मजबूती मिली? अथवा भारत के बहुजन समाजों का उन्होंने क्या भला किया है?

नरेंद्र मोदी नीट भारत सरकार आज भले ही एकतरफा निर्णय लेकर उन्हें भारतरत्न से नवाजे लेकिन यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि भारत जैसे 140 करोड़ की जनसंख्या वाले बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश में किसी एक धर्म का ध्रुवीकरण करते हुये देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकनेवाले व्यक्ति को यह सम्मान मिलने से क्या उसकी गरिमा कम नहीं हुई है। क्या यह भारत के सेक्युलरिज्म का चरित्रहरण करते हुये स्वतंत्रता आंदोलन से निकले हुए मूल्यों का अपमान नहीं है?

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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