Sunday, October 13, 2024
Sunday, October 13, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारबिना सांस्कृतिक विकल्प के बहुजन राजनीति कभी सफल नहीं हो पाएगी

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

बिना सांस्कृतिक विकल्प के बहुजन राजनीति कभी सफल नहीं हो पाएगी

नन्द कुमार बघेल को छत्तीसगढ़ का पेरियार कहा जाता है। भाषण में जोश होता है और आर्य-अनार्य सिद्धांतो को लेकर वह बेहद मुखर रहे हैं साथ ही ब्राह्मणवाद के भी आलोचक रहे हैं। इस राज्य में आज से पहले जब ब्राह्मणों को अपशब्द कहे जाते थे तो ज्यादा कोई नोटिस नहीं करता था, लेकिन जबसे […]

नन्द कुमार बघेल को छत्तीसगढ़ का पेरियार कहा जाता है। भाषण में जोश होता है और आर्य-अनार्य सिद्धांतो को लेकर वह बेहद मुखर रहे हैं साथ ही ब्राह्मणवाद के भी आलोचक रहे हैं। इस राज्य में आज से पहले जब ब्राह्मणों को अपशब्द कहे जाते थे तो ज्यादा कोई नोटिस नहीं करता था, लेकिन जबसे उनके पुत्र भूपेश बघेल राज्य के मुख्यमंत्री बने, उनको बुलाने वालों की संख्या भी बढ़ी। लोगों ने सोचा की शायद बेटे के मुख्यमंत्री बनने के बाद पिता अपनी जुबान पर संयम रखेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

हालांकि नन्द कुमार बघेल जी के विरुद्ध छत्तीसगढ़ पुलिस की कार्यवाही मूलतः उनके उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में दिए गए तथाकथित बयान से है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ब्राह्मण विदेश से आये हैं और उनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। ऐसा कहा जा रहा है कि राम के प्रश्न पर भी उन्होंने ऐसे ही बयान दिए थे। जिसके कारण ‘सर्व ब्राह्मण महासभा’ ने उनके विरुद्ध शिकायत की और फिर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि वह अपने पिता का सम्मान करते हैं लेकिन उन्होंने मर्यादा की सीमा लांघी है जिसके कारण उनके विरुद्ध कार्यवाही होनी चाहिए।

वैसे नन्द कुमार बघेल जी ने कोई नयी बात नहीं कही, क्योंकि राम और कृष्ण या अन्य देवी देवताओं को लेकर बहुजन चिंतन निसंदेह ब्राह्मण चिंतन से अलग है। और जिन लोगों ने डाक्टर बाबा साहेब आंबेडकर, पेरियार, ज्योतिबा फुले और अन्य महापुरुषों को पढ़ा है, वे इन बातों को समझते हैं। बाबा साहेब ने 14 अक्टूबर 1956 को धम्म दीक्षा के दौरान लोगों से 22 प्रतिज्ञाएं करवायीं थी, जो आज भी मौजूद है। देवी देवताओं की पौरानिक्ताओं की अलग-अलग कहानियां हैं और सबकी सोच में विविधता है। जैसे रविदास और कबीर के राम तुलसी दास के राम नहीं है।

अब प्रश्न ये उठता है कि जिन सवालों के उत्तर हमें मिल चुके हैं उनका हंगामा करना जरुरी है क्या ? जब बाबा साहेब ने हमें एक नया रास्ता दिखाया तो उसका अर्थ साफ़ था कि अब हम ‘नवयान’ को अपनाएं और ब्राह्मणवाद की हर एक बात पर अपनी प्रतिक्रया न देते रहे। ऐसा करने का मतलब होगा उनके एजेंडे में फंसना। जो भी लोग ब्राह्मणवाद से बाहर निकले, उन्होंने अपने रास्ते को अपना कर अपनी जिंदगी को बदल दिया लेकिन जो लोग अभी जातिवाद से बाहर नहीं निकल पाए हैं, वे ही ब्राह्मणवादी ताकतों के साथ बहस करते हैं। सवाल इस बात का है कि इस बहस में उलझ कर आप क्या प्राप्त करेंगे ?

[bs-quote quote=”मैं ये बात साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैं धर्मों को अंतिम सत्य नहीं मानता। मैं यह भी नहीं मानता कि वो लोगों को किसी बात का समाधान दे रहे हैं, और न ही उनके नाम पर चलने वाली किताबें कोई ‘आसमानी’ है। लेकिन दुनिया में करोड़ो लोग ऐसा मानने को तैयार नहीं हैं। अब क्या मेरा तर्कवादी होना उनलोगों को बहस में आमंत्रित करेगा जो अपने-अपने धर्मों के देवताओं के झंडे लेके खड़े है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मैं ये बात साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैं धर्मों को अंतिम सत्य नहीं मानता। मैं यह भी नहीं मानता कि वो लोगों को किसी बात का समाधान दे रहे हैं, और न ही उनके नाम पर चलने वाली किताबें कोई ‘आसमानी’ है। लेकिन दुनिया में करोड़ो लोग ऐसा मानने को तैयार नहीं हैं। अब क्या मेरा तर्कवादी होना उनलोगों को बहस में आमंत्रित करेगा जो अपने-अपने धर्मों के देवताओं के झंडे लेके खड़े है। जिन लोगों ने किसी बात को स्वीकारा है, उनसे आप क्या बहस कर लोगे और इस बहस का क्या कोई अंत है ?

सब ने कहा है- ‘आर्य’ विदेश से आये। सवाल ये है कि जितने हज़ार वर्ष पूर्व का आप घटनाक्रम दिखा रहे हैं उस समय राष्ट्र या राज्य की कोई अवधारण थी क्या ? क्या कोई क़ानून के शासन की बात थी ? यूरोपीय चिंतको ने हर देश में ‘मूल निवासी’ सिद्धांत घुसा दिया और उसका मकसद साफ़ था कि अपने जिते हुए देशों में अपनी सल्तनत चलायी और वहां के स्थानीय आन्दोलनों को आपस में भिड़ा लेना उनका मकसद था।

मूल निवासी सिद्धांत केवल भारत में नहीं चलाया अपितु अफ्रीका के कालो के बीच में भी घुसा दिया और उसका नतीजा ये हुआ कि वहां के अधिकांश देशों ने आदिवासियों के लिए अन्तराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए. दरअसल अब इस सिद्धांत की नीव आदिवासियों की संस्कृति और उनके रहन-सहन वाले इलाकों की स्वायत्तता तक ही सीमित है क्योंकि सभी देश ये मानते हैं कि वे अपने देश के मूल निवासी है।

आखिर ‘ज्ञान’ का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने और अपनी कुत्सित चालों को छिपाने के लिए भी किया गया। दुनिया भर में सत्ता पर जिन लोगों का कब्जा था उन्होंने शिक्षा और ज्ञान को अपने हितों के हिसाब से प्रयोग किया। लोगों को शातिर चालबाजों का पता नहीं चला जब ये कहा गया कि क्रिस्टोफर कोलंबस ने 1492 में अमेरिका की खोज की या वास्कोडिगामा ने भारत की खोज 1498 में की। अब क्योंकि हम भक्त होते हैं इसलिए ये बाते हमारे दिमाग में नहीं आती कि क्या अमेरिका 1492 से पहले मौजूद नहीं था या फिर क्या भारत1498 के बाद बना। दरअसल कोलंबस और वास्कोडिगामा आतताई थे और उन्होंने करिबियन और भारत में मूल निवासियों की हत्याए की, उनपर बर्बता की और उन्हें अपना गुलाम बनाया।

ब्राह्मणवादी साहित्य और परम्पराओं ने ऐसा ही किया और हम केवल उसे निभाते रह गए जब तक कि ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब आंबेडकर और पेरियार ने उसकी वैचारिक खुदाई न कर दी। बाबा साहेब ने महाद का सत्याग्रह किया जिसमें चावदार तालाब से पानी पीने के अधिकार के लिए आन्दोलन किया और फिर 25 दिसंबर 1927 को महाड़ में मनुस्मृति का दहन किया। जिसमें उनके मित्र सहश्र्बुद्धे की महती भूमिका थी। आज महाड़ में चावदार तालाब में बाबा साहेब की एक मूर्ति के अलावा कोई ऐसी बात नहीं है जिससे जातिवादी लोग शर्म महसूस करें। अब उसे लगभग एक पार्क में बदल दिया गया है जहां लोग घूमने के लिए आ सकते हैं। महाड़ में जिस स्थान पर बाबा साहेब और उनके समर्थकों ने मनुस्मृति दहन किया उसका अब पता भी नहीं है ? आखिर ऐसा क्यों ?  मतलब साफ़ है ब्राह्मणवाद की वैचारिक लड़ाई से लड़ने में अभी भी हमारी राजनातिक शक्तियां ईमानदार नहीं हैं।

तमिलनाडु में एम् के स्टालिन ने एक के बाद एक फैसले लिए लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उनका विरोध कर सके ? क्यों ? तमिलनाडु में पेरियार की परम्परा और आन्दोलन एक गैर ब्राह्मणवादी आन्दोलन के रूप में विकसित हुआ था जिसमें पेरियार ने ब्राह्मणवादी परम्पराओं का विकल्प देकर उनके मृत प्रायः कर दिया। उत्तर भारत में पेरियार को केवल भगवानों की आलोचना करने वालों से देखा जाता है लेकिन पेरियार उससे बहुत बड़े थे. पिछड़ी जातियों को राजनितिक और सांस्कृतिक सत्ता शीर्ष में पहुचाने में पेरियार की भूमिका बेहद बड़ी है और इसलिए पेरियार ने कभी भी जुमलेबाजी में बात नहीं की। ब्राह्मणवादी सोच का मुकाबला केवल मानववादी सोच से हो सकता है जिस पर चलना कठिन है क्योंकि वो तर्क और मानवता का रास्ता है और आपको अपने जातीय हितों से ऊपर उठ कर काम करना पड़ेगा।

ब्राह्मणों यो भगवानों को गाली देकर आप दरअसल उन्हीं के एजेंडा में पहुंच जाते हैं। बेहद मुश्किल से दलित और पिछड़ों के बीच नेतृत्व निकल रहा है। और उसे आप केवल इस मापदंड से ना मापे कि उन्होंने ब्राह्मणों को सिर्फ अपशब्द कहा है। इससे कोई लाभ नहीं होगा और कोई भी नेता ऐसा नहीं करेगा। बहुत वर्ष पहले ‘विश्व शुद्र महासभा’ के कुछ लोगों ने लखनऊ विधानसभा एनेक्सी के एक कार्यक्रम में राम पर कुछ टिप्पणी की थी, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने उन्हें जेल पहुंचाया। आज बसपा और सपा में होड़ लगी है कि ‘परशुराम’ की मूर्ति कौन लगवाएगा और ‘प्रबुद्ध’ समाज किसके साथ है। आखिर ये नैरेटिव किसने बनाया कि ‘ब्राह्मण’ ही ‘प्रबुद्ध’ होते है ? और इस भाषा का मतलब साफ़ है कि बाकी समाज प्रबुद्ध नहीं है। अभी कुछ दिनों पहले, ट्विटर पर ‘बहुजन’ महारथी  मायावती को लेकर बड़े-बड़े फिल्म स्टार्स और तथाकथित ‘लिबरल्स’ के पुराने ट्वीट को लेकर उनसे माफ़ी मांगने के लिए कहा गया। हम सब इन लिबरल्स को अच्छे से जानते हैं और उनकी मानसकिता को भी समझते हैं। लेकिन अचानक से उनकी पुराने ट्वीट से कुछ को ही शर्म आयी, बाकी ने पल्ला झाड़ा कि ये तो पुराना मसला था। लेकिन इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि मायावती ने इन बातों में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखायी और ना ही उनके समर्थकों ने इस मसले पर कोई सवाल खड़े किए। कारण साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में ‘प्रबुद्ध’ जन की राजनीती करते हुए आप वो कोई भी सवाल नहीं उठाना चाहते जो ‘प्रबुद्ध’ लोगों को अपनी और खींचने से रोके।

[bs-quote quote=”मूल निवासी सिद्धांत केवल भारत में नहीं चलाया अपितु अफ्रीका के कालो के बीच में भी घुसा दिया और उसका नतीजा ये हुआ कि वहां के अधिकांश देशों ने आदिवासियों के लिए अन्तराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए. दरअसल अब इस सिद्धांत की नीव आदिवासियों की संस्कृति और उनके रहन-सहन वाले इलाकों की स्वायत्तता तक ही सीमित है क्योंकि सभी देश ये मानते हैं कि वे अपने देश के मूल निवासी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बहुत मेहनत से अपना एक मुकाम बनाया है। पूरे प्रदेश में गैर आदिवासियों की बहुतायत है। अमूमन हर एक आदिवासी क्षेत्र में अब बाहर के लोगों का कब्जा है। झारखण्ड और छत्तीसगढ़ उदहारण हैं कि कैसे ‘दिक्कुओ’ ने इन राज्यों में सांख्यिक बदलाव लाया है। हालांकि यदि मूल निवासी की बात करें तो छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री होना चाहिए था, लेकिन अब तो आदिवासी सांसद भी बस्तर से नहीं बनते।

भूपेश बघेल ने अपने पिता पर जो कार्यवाही की है वो ‘दुनिया’ को दिखाने के लिए ज्यादा है, लेकिन वह वैचारिक तौर पर उसका जवाब नहीं दे पाए। आप नन्द कुमार बघेल की बातों से असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी बातों में ऐसा कुछ नहीं था जिसको वह जवाब देकर भी ख़ारिज कर सकते थे। जिस बात के लिए उनके पिता को गिरफ्तार किया जा रहा था वह लखनऊ की घटना थी और उस पर लखनऊ प्रशासन ने तो अभी तक कुछ नहीं कहा। मजेदार बात यह की उसी दिन राजधानी रायपुर के एक पुलिस थाने के अन्दर संघी लठैतों ने एक इसाई पादरी को बुरी तरह  मारा और पुलिस तमाशबीन बनकर ये सब देखती रही। मतलब ये कि हिंदुत्व के नाम पर लठैती करने वाले किसी को भी पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान आदि भेजने की बात करें या किसी समुदाय का सामाजिक, आर्थिक बहिष्कार की बात करें तो कुछ नहीं होने वाला लेकिन अगर बहुजन समाज का कोई व्यक्ति ऐसी बात करता है तो उसके ही नेता तुरंत इस पर कार्यवाही करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि राजनीति में आने पर बहुजन समाज के नेताओं पर कितना जबरदस्त दवाब है। भूपेश बघेल ने कांग्रेस पार्टी के अन्दर के द्वन्द को जीत लिया लेकिन नन्द कुमार बघेल वाला मामला उनपर भारी पड़ सकता था इसलिए जो भी उन्होंने किया वो एक राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा है।

बहुजन या अम्बेडकरी चिंतन के लिए यह भी जरूरी है कि वे कैसे सवाल उठाए। कुछ सवाल तालिया तो दे सकते हैं लेकिन बड़े बदलाव की तरफ संकेत नहीं करते। फूले,पेरियार को या बाबा साहेब को समझने की आवश्यकता है कि उन्होंने ब्राह्मणवाद की आलोचना की लेकिन वे वही तक सीमित नहीं रहे। सभी ने ब्राह्मणवाद का विकल्प दिया और वो न केवल सामाजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक था अपितु बौद्धिक भी था। इन सभी ने लोगों से सीधे संवाद किया। पत्रिकाएं निकाली, शिक्षा और ज्ञान पर जोर दिया साथ ही तर्क और करुणा की बात की।  फूले ने ब्राह्मणवाद पर सबसे गहरी चोट की और ब्राह्मण विधवाओं के लिए ही अपना पहला आश्रम बनाया। उन्होंने उस बच्चे को गोद लिया जिसे उसकी माँ ‘भ्रूण हत्या निवारण केंद्र’ में लाई थी। फूले दम्पति ने अपने पुत्र का नाम यशवंत रखा। 1863 में काशीबाई नाम की एक ब्राह्मण विधवा गर्भवती हुई और उसने गर्भपात कराने की कोशिश की जो सफल नहीं हुई और बाद में उसने अपने बच्चे की हत्या कर उसे कुए में डाल दिया। घटना के पता चलने के बाद काशीबाई को जेल की सजा हुई लेकिन इस घटना का फूले दम्पति पर बड़ा असर पड़ा और फिर उन्होंने भ्रूण हत्या निवारण केंद्र की स्थापना की। जिसका उद्देश्य ऐसे बच्चों को गोद लेना था जिन्हें लोक लाज के चलते लोग मार देते थे। 1873 में फुले दम्पति ने अपने केंद्र में एक ब्राह्मण बच्चे को गोद लिया जिसका नाम उन्होंने यशवंत रखा।

बाबा साहेब से लेकर पेरियार तक सभी ने अपने समाज में बदलाव की बात की। पेरियार ने आत्मसम्मान विवाह की गैर ब्राह्मणवादी परम्परा को आगे बढ़ाया तो फूले ने सत्यशोधक विवाह पद्धति चलाई। बाबा साहेब ने तो नवयान का रास्ता दिखा दिया कि हमारा विकल्प क्या होगा। ये सभी बहुजन नायक ब्राह्मणवाद का विकल्प उनसे घृणा करके नहीं निकाल रहे थे। किसी ने भी ये नहीं कहा कि किसको कहा भेजना है। वे तो हमारे समाज को एक मानववादी विकल्प दे रहे थे। बाबा साहेब ने ऐसे ही नहीं कह दिया कि उन्हें फ़्रांसिसी क्रांति पसंद है और रूस की नहीं। समता, बंधुत्व और स्वतंत्रता उनके लिए ये मात्र तीन शब्द नहीं थे, बल्कि उनके वैचारिक पक्ष थे। वह ऐसी क्रांति चाहते थे जिसमे बंधुत्व की भावना हो।

दरअसल आजादी के बाद जो भी इन महान क्रांतिकारियों के रस्ते में चलने का दावा करते रहे उन्होंने विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया और केवल ब्राह्मणवाद के साथ नूरा कुश्ती करते रहे। वे उसको अपशब्द कहत रहे लेकिन अपने-अपने जाति के खूंटो से बंधे भी रहे। अपनी जातीय अस्मिताओं के अहंकार में दूसरे को नीचा समझ काम करने वाले काम के नाम पर ब्राह्मणों को गाली देकर समझते हैं कि उनका एजेंडा पूरा हो गया है। माफ़ कीजिएगा, कोई भी विचारधारा, केवल किसी की आलोचना से नहीं बनती अपितु उससे बेहतर विकल्प से बनती है। चाहे बाबा साहेब का नवयान हो या फूले का सत्यशोधक अथवा पेरियार का स्वाभिमान आन्दोलन ये इसलिए नहीं चले कि ये ब्राह्मणवाद की आलोचना कर रहे थे, बल्कि इसलिए कि इसमें लोगो को अपने जीवन को बदलने और सुधारने का मौक़ा मिला। क्रांतिकारी सदगुरु रविदास जी के ‘बेगमपुरा’ में समाजवाद छुपा है जो सबके लिए है। महापुरुषों को संकीर्णताओं में मत लाइए। आज के दौर में दलित, पिछड़ों, आदिवासियों कि सत्ता में भागीदारी, जल, जंगल,जमीन, आरक्षण आदि के प्रश्नों पर सरकारों और नेताओं से सवाल पूछे। न्यायपालिका में दलितों और पिछड़ों की भागीदारी पर सवाल उठाये तो अच्छा रहेगा।

सांस्कृतिक विकल्प हमारे समाज को दिए जा चुके हैं। आवश्यकता है कबीर, रविदास, फुले, आंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह, अयोथिदास, अय्यनकली, बसवा, राहुल संकृत्यायन आदि की विचारों की मजबूत धारा को जनता तक पहुंचाया जाए और उनके सामजिक-सांस्कृतिक विकल्पों को अपनाया जाए। जिन लोगों ने बाबा साहेब का रास्ता सांस्कृतिक तौर पर अपनाया उनके सामजिक सर्वेक्षण में आप देख सकते हैं कि शिक्षा और नौकरियों में वे ब्राह्मणों से भी आगे निकल चुके हैं। ऐसे ही पेरियार के आन्दोलन के लोग और रविदासी समुदाय के लोग भी आगे निकल चुके है। जिन लोगों ने वैकल्पिक संस्कृति को अपनाया है उनके सामने अस्मिता या पहचान का संकट नहीं है और वे ब्राह्मणवाद की माला जप कर अपना समय नष्ट नहीं करेंगे और चुपचाप जातिवाद की उस काली कोठरी से बाहर निकल आज़ादी से सांस लेते रहेंगे। एक बात याद रख लीजिये, आज के दौर में आप एक संवैधानिक भारत में हैं जहां एक नागरिक के तौर पर सबके बराबर अधिकार हैं और आप किसी को भी आधिकारिक तौर पर कही नहीं भेज सकते। वर्षों पूर्व कानपुर के एक कार्यक्रम में एक श्रोता ने मुझसे कहा कि ब्राह्मण यूरेशिया से आये और उन्हें वहां भेजा जाना चाहिए।  मैंने उससे कहा कि क्या उसको लगता है वह अपने जीवन में यह कर पायेगा ? सवाल ये है कि हम ऐसी बेहूदी बाते करके क्या कर लेंगे. जो काम नहीं हो सकता, उस पर चर्चा करके आप तालिया तो पिटवा सकते हो, पोपुलर हो सकते हो लेकिन उससे कोई समाधान नहीं है। आज हमारे देश का व्यक्ति चार साल में अमेरिका जा कर ग्रीन कार्ड लेकर वहां का नागरिक बनना चाहता है। और फिर वो सभी अधिकार चाहता है जो अन्य सभी के पास है। लेकिन हम अपने देश में सदियों से रहने वाले लोगों से सवाल पूछते रहते हैं। इन सवालों से दलित पिछड़ों के प्रश्नों का समाधान नहीं है। समाधान दो जगह है- एक तरफ सांस्कृतिक समाधान जिसका उत्तर अम्बेडकर, फुले, पेरियार, रविदास, कबीर आदि ने दे दिया है और दूसरा है राजनितिक। अभी हम इसलिए नहीं सफल हो रहे हैं क्योंकि राजनीति में ‘बहुजन’ के नाम पर पहुंच रहे नेता ब्राह्मणवाद के दरबारी हैं और वो इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने सांस्कृतिक विकल्प पर कभी ध्यान नहीं दिया। बाबा साहेब की वो बात आज भी उतनी ही सत्य है जो उन्होंने २6 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में कही थी कि बिना सामाजिक बराबरी के राजनैतिक परिवर्तन नहीं आ सकता। आज पिछड़ी जाति के नेता प्रमुख पदों पर होने की बावजूद भी कुछ विशेष नहीं कर पा रहे, तो इसके पीछे यही कारण है कि वे बहुजन समाज के इन विचारकों, चिंतकों और क्रांतिकारियों को ना तो ईमानदारी से पढ़े और ना ही समझे। समाज के लोग भक्तिभाव से नेताओं पर भरोसा करते हैं और उनसे कोई सवाल भी नहीं करते इसलिए वे ठगे से महसूस कर रहे हैं। सांस्कृतिक परिवर्तन के अभाव में बहुजन समाज कभी भी राजनितिक बदलाव नहीं ला पायेगा क्योंकि आपके लाख आलोचनाओं के बावजूद जिन नेताओं पर आपका भरोसा है उनके सलाहकार वो ही हों जिन्हें आप ‘यूरेशिया’ भेजना चाहते हैं। तो समझ लीजिए कि आप बहुत भोले हैं और अति-क्रांतिकारी दिखने के चक्कर में आप अराजनैतिक हो रहे हैं। और सवाल केवल अपने विपक्षियो से कर रहे है जो आपके कभी थे ही नहीं। मेरी एक बात याद रख लीजिए कई बार एक ईमानदार दुश्मन बेईमान दोस्त से अच्छा होता है। अपने दोस्तों को पहचानिए और सांस्कृतिक परिवर्तन का रुख कीजिए राजनीति आपको इग्नोर नहीं कर पाएगी।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

विद्या भूषण रावत

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
1 COMMENT
  1. वर्तमान समय के सामाजिक, सांस्कृतिक, जातिगत समीकरणों और एक सामाजिक – सांस्कृतिक कार्यकर्ता के लिए उनके विभिन्न आयामों और दांव पेंच को कवर करता शानदार लेख।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here