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जौनपुर में खत्म होने के कगार पर बीड़ी उद्योग

जौनपुर। अटाला मस्जिद  के पास पहुँचकर जब मैंने नन्हें  भाई की फैक्ट्री के बारे में लोगों से पूछा तो लोगों ने सामने वाली गली में जाने का इशारा किया। गली पूरी तरह से सुनसान। एक पुराने पक्के अधगिरे मकान के पास मैंने गाड़ी रोक दीऔर नन्हें भाई की फैक्ट्री की ओर चल पड़ा। अंदर जाते […]

जौनपुर। अटाला मस्जिद  के पास पहुँचकर जब मैंने नन्हें  भाई की फैक्ट्री के बारे में लोगों से पूछा तो लोगों ने सामने वाली गली में जाने का इशारा किया। गली पूरी तरह से सुनसान। एक पुराने पक्के अधगिरे मकान के पास मैंने गाड़ी रोक दीऔर नन्हें भाई की फैक्ट्री की ओर चल पड़ा। अंदर जाते ही 3-4 मजदूर काम करते दिखे। नन्हें भाई नहीं थे। थोड़ी देर बैठने  के बाद वह आए। निराशा चेहरे पर साफ दिख रही थी। बोले ‘यह है नन्हें भाई की  बीड़ी फैक्ट्री।’ आंखों में निराशा का भाव लिए नन्हे भाई कहते हैं  ‘अब बिजनेस में पहले वाली बात नहीं रह गई है। 10 से 12 साल पहले मुझे बीड़ी के कारोबार में  30-40 हजार की अच्छी कमाई हो जाती थी, लेकिन आज बीड़ी का धंधा लगभग 80% खत्म हो चुका है। पुराने ख्यालों में खोते हुए नन्हें भाई  कहते हैं ‘एक समय वह भी था जब 2 से 3 दिन की शादियां होती थीं। कई दिनों तक बारात रुकी रहती थी। ढोल और नगाड़े की थाप पर लोग नाचते-गाते कई दिन बिता देते थे। तमाम प्रकार के पकवान खाते पीते थे। नशा करने वाले लोगों के सामने बीड़ियां या फिर हुक्का पेश किया जाता था। लोग बीड़ी का आनंद लेते थे। आंख से धुआं निकालने की मसखरी भी होती थी। क्या जमाना था वह। लेकिन समय के साथ सब कुछ धीरे बदलता चला गया। बीड़ी का स्थान तंबाकू ने ले लिया। तंबाकू का स्थान सुरती ने ले लिया। सुरती का स्थान गुटके ने लिया। आज बाजार में सबसे ज्यादा गुटका और शराब लोगों द्वारा पसंद किया जा रहा है। लेकिन आने वाले समय में इनका स्थान भी  कोई दूसरा ब्रांड ले लेगा।

नन्हें भाई अपनी बातें जारी रखते हुए आगे कहते हैं कि समय की मार के अलावा सरकारी मार ने भी बीड़ी उद्योग को चौपट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज बीड़ी पर 28% जीएसटी लग रहा है। इसके अलावा सरकार की तरफ से सख्त हिदायत है कि उत्पाद का कहीं प्रचार-प्रसार नहीं करना है। सार्वजनिक स्थानों पर बीड़ी पीना भी मना है। ऊपर से लिखा पढ़ी इतनी ज्यादा करनी पड़ती है कि मन करता है कि आज ही इस धंधे को बंद कर दूं। लेकिन क्या करूं पापी पेट का भी तो सवाल है। घर में छोटे-छोटे बच्चे बहुएँ सभी का मुंह देखना पड़ता है। अब इस उम्र में दूसरा काम भी तो नहीं होगा।’

पीले घर के पीछे बीड़ी कारखाना है, जहां की फोटो खींचने की मनाही थी

नन्हे भाई बीड़ी बनाने की प्रक्रिया को समझते हुए बताते हुए कहते हैं ‘तेंदू के पत्ते से बीड़ी बनती है और पत्ते पहाड़ों पर ज़्यादातर पाये जाते हैं।  पहले इस पत्ते को तोड़ते हैं। तोड़े गए पत्ते को एक आकार में काटा जाता है। सहकारी समितियां इन पत्तों को खरीदकर इनकी नीलामी करती हैं। जब हम इसे मंगाते हैं तब इसे पहले भिगोते हैं। उसके बाद उसे एक साँचे में आकार देते हैं। हल्का सुखाकर उसमें सुरती(तंबाकू) डाल करके पैक कर दिया जाता है और बाजार में भेज दिया जाता है। इसका तंबाकू गुजरात में पैदा होता है, जिसे पहले झरने में डालकर रगड़ा जाता है क्योंकि तंबाकू का पत्ता बड़ा होता है। रगड़े जाने के वह महीन हो जाता है तब जाकर वह खाने के योग्य बनता है।’

नन्हें दावा करते हुए कहते हैं भारत की इस सबसे बड़ी कॉटेज इंडस्ट्री से आज के समय में लगभग चार करोड़ लोग जुड़े हुए हैं। जिनमें से एक करोड़ केवल मजदूर हैं जो पत्ते की तुड़ाई करते हैं। खेती करने वाले किसान भी इसी श्रेणी में आते हैं।

चेहरे पर उदासी का भाव लिए नन्हें भाई आगे कहते हैं ‘मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसा भी देखना पड़ेगा, जब इतनी मेहनत करके जिस व्यवसाय को शुरू किया, अपनी आंखों के सामने उसे बंद होता हुआ भी देखूंगा। सरकार का टैक्स लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अब मजदूर भी सस्ते में नहीं मिल रहे हैं। बीड़ी को पसंद करने वाले भी अब कम ही लोग रह गए हैं। युवा वर्ग दूसरे प्रकार के नशे की ओर बढ़ चुका है। ऐसे में बीड़ी की खपत तो कम होनी ही है।’

कारखाने में चार से पांच मजदूर काम कर रहे थे। कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं था। किसी तरह से उनमें से एक व्यक्ति जब बाहर आया तो उसने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि पहले हम लोगों को 10-11 हजार रुपए मजदूरी महीने में मिल जाते थी। वहीं दूसरी तरफ आज 3-4 हजार रुपया मिल रही है। पहले कारखाने में 25-30 मजदूर काम किया करते थे। लेकिन आज तीन से चार या फिर किसी-किसी दिन 5 मजदूर भी काम पर आ जाते हैं। अगर यही हाल रहा तो अगले एक-दो सालों में यह फैक्ट्री बंद हो जाएगी।’

कारण बताते हुए वह आगे कहता है ‘देखा जाय तो आज गरीब-गुरवा और मजदूर वर्ग ही केवल बीड़ी पी रहा है। ऊपर से सरकार की तरफ से जीएसटी का भार। उस पर से तमाम प्रकार की रुकावटें। फिर आप ही बताइए कैसे यह धंधा चलेगा। एक न एक दिन तो इसे बंद होना ही था। इस धंधे में यह मंदी बीते 8-10 सालों में ज्यादा तेजी से आई है।’

जौनपुर जिले में सिपाह चौराहे की पास गुमटी की दुकान में गुटका, बीड़ी, सिगरेट और तंबाकू बेचने वाले नसीम अहमद कहते हैं ‘अब पहले की तरह लोग बीड़ी नहीं पी रहे हैं। आज बीड़ी की मांग बहुत कम हो गई है। पहले मैं जहां एक दिन में 10 से 15 बंडल बीड़ी बेच देता था, वही आज एक-दो बंडल बेचना भी मुश्किल हो गया है। आज ज्यादातर लोग गुटका, पान, सिगरेट, पान मसाला यही सब खाना पसंद कर रहे हैं।

नसीम अहमद अपनी दुकान में

जौनपुर जिले में रोडवेज के पास पान की गुमटी की दुकान चलाने वाले रामनाथ यादव कहते हैं ‘पहले के लोग बीड़ी पिया करते थे, क्योंकि उन लोगों के पास कोई और दूसरा ऑप्शन नहीं था। आज तो तंबाकू के नाम पर एक से बढ़कर एक ऑप्शन है। और फिर देखा जाए तो बीड़ी बहुत पुराना ब्रांड हो चुका है। बीड़ी आजकल केवल गरीब और मजदूर वर्ग ही पी रहा है।’

रामनाथ यादव

जौनपुर रोडवेज बस अड्डे के पास ही पान गुमटी की दुकान चलाने वाले लालजी यादव कहते हैं ‘हमारे यहां तो नाम मात्र की बीड़ी बिकती है। इसी को देखते हुए हमने बीड़ी रखना छोड़ दिया। अब हम अपने पास बीड़ी रखते भी नहीं है। समय और मांग के हिसाब से ही हम अपनी दुकान में सामान को रखते हैं।’

लालजी यादव

दूसरी तरफ बनारस में पान की दुकान चलाने वाले मशहूर नंदू पान वाले कहते हैं ‘आजकल बाजार में तरह-तरह के तंबाकू की किस्में आ गई हैं। अब कोई बीड़ी नहीं पीना चाहता। जब कोई बीड़ी नहीं पीना चाहेगा तो जाहिर सी बात है कि उसकी मांग घटेगी। जहां पर यह बनता है वहां भी धीरे-धीरे लोग बीड़ी बनाना छोड़ देंगे या कोई दूसरा पेशा अपना लेंगे। आज का युवा वर्ग ज्यादातर पान, गुटका और शराब यही पसंद कर रहा है।’

देखा जाय तो  बीड़ी बनाने का काम समूचे भारत में फैला हुआ है और इसमें महिलाओं एवं बच्चियां बहुत बड़ी संख्या में जुड़ी हुई हैं। नीति निर्माताओं एवं प्रशासकों का ध्यान अभी तक इस ओर नहीं गया है। लाखों की संख्या में ग्रामीण और शहरी गरीब महिला कामगार अपना परिवार इससे पालती हैं।

लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं इस रोजगार में जुटी हैं जो कांट्रेक्टर द्वारा दिए गए कच्चे माल को घर ले जाती हैं (या उनके घर, माल ठेकेदार द्वारा पहुंचा दिया जाता है) और प्रति दर के हिसाब से कार्य करती है। बीड़ी बनाने की प्रक्रिया सरल है और इसमें बहुत कम कौशल की आवश्यकता भी होती है। अतः कुछ बच्चे एवं अपाहिज लोग भी बीड़ी बनाने का काम करते हैं।

समस्त कच्चे माल का उत्पादन भारत में ही किया जाता है। ग्रामीण परिवारों द्वारा इसे पूरक आय के रूप में देखा जाता है।

बीड़ी बनाने के लिए तीन प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है।

तेंदू की पत्तियों को धोकर सुखाना और उचित आकार में काटना।

फिर उन्हीं पत्तियों पर तम्बाकू की अपेक्षित मात्रा फैलाना और उन्हें शंकु का आकार देना। दोनों छोरों को एक तिनके की सहायता से मोड़कर पतले छोर को धागे से बांधना।

भारत के 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से, बीड़ी उद्योग 17 राज्यों में संचालित होता है, जिसका 95% से अधिक उत्पादन 10 राज्यों में केंद्रित है। 2005-2006 में बीड़ी निर्माण फर्मों ने कुल बिक्री में 0.50% और विनिर्माण अर्थव्यवस्था द्वारा जोड़े गए सकल मूल्य में 0.6% का योगदान दिया। उद्योग ने लगभग 3.4 मिलियन पूर्णकालिक श्रमिकों को रोजगार दिया, जिसमें सभी क्षेत्रों में रोजगार का लगभग 0.7% शामिल है। अतिरिक्त 0.7 मिलियन अंशकालिक कर्मचारी थे। बीड़ी श्रमिक भी भारत में सबसे कम वेतन पाने वाले कर्मचारियों में से है। उद्योग ने विनिर्माण क्षेत्र (संगठित और असंगठित) में प्रदान किए गए सभी मुआवजे का केवल 0.09% की पेशकश की।

भारत में बीड़ी उद्योग के अपेक्षाकृत छोटे आर्थिक पदचिह्न को ध्यान में रखते हुए, बीड़ी पर उच्च उत्पाद शुल्क और नियमों से समग्र स्तर पर आर्थिक विकास बाधित होने की संभावना नहीं है, या छोटे बीड़ी श्रमिकों के बीच बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और आर्थिक कठिनाई पैदा होगी। औसतन, प्रति बीड़ी श्रमिक का आर्थिक वार्षिक उत्पादन लगभग 143 अमेरिकी डॉलर है, जो प्रति वर्ष बीड़ी धूम्रपान के कारण होने वाली कई लाख मौतों से होने वाले बड़े आर्थिक नुकसान से कम है।

बहरहाल जो भी हो,सरकारी स्तर पर इन लघु कुटीर उद्योगों को बचाने के लिए कोई बड़ी पहल नहीं की गयी तो आम लोगों की जीविका से जुड़ा यह व्यवसाय अपने साथ करोड़ों लोगों  की भुखमरी का भी कारण बनेगा।

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