सामाजिक सामंतवाद और आर्थिक सामंतवाद के बीचोंबीच (डायरी 25 जनवरी, 2022) 

नवल किशोर कुमार

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समाज को कैसा होना चाहिए? यह सवाल मेरी जेहन में हमेशा बना रहता है। बहुत कम ही ऐसा होता है कि मैं किसी एक नतीजे पर पहुंच पाता हूं। हालांकि एक बात जिस पर मैं कायम रहता हूं वह यह कि समाज को समतामूलक ही होना चाहिए। यदि समता नहीं है तो समाज चाहे जैसा भी हो, समाज की परिभाषा को संपुष्ट नहीं कर सकता। मैं तो बिहार का रहनेवाला हूं और फिलहाल दिल्ली में रहता हूं। तो मेरे सामने कई तरह का समाज है। बिहार में भी मैं पटना जो कि वहां की राजधानी है, के एक गांव का हूं। हालांकि अब वह गांव गांव नहीं रहा। गांव की संस्कृति धीरे–धीरे खत्म होती जा रही है। सामंतवाद की बेड़ियां लगभग टूट चुकी हैं। अब वहां एक नया चलन है और वह आर्थिक सामंतवाद है।

सामाजिक सामंतवाद और आर्थिक सामंतवाद के बीच अंतर है। सामाजिक सामंतवाद सामंतों को क्रूर बना देता है और इतना क्रूर कि वह उत्पीड़ित वर्गों का हिंसक तरीके से शोषण करने से भी गुरेज नहीं करता है। छुआछूत भी इसका ही हिस्सा है। लेकिन आर्थिक सामंतवाद अलग है। इसमें उत्पीड़ित वर्ग के प्रति लचीला रुख अपनाया जाता है। आर्थिक सामंतवाद शोषित और पीड़ित जनों को रोजी–रोटी देने की बात करता है। वह चाहता है कि यह जो वंचित तबका है, वह काम करे। छुआछूत का प्रत्यक्ष प्रदर्शन नहीं किया जाता है।

हम कैसा समाज चाहते हैं। अंग्रेजों ने अपना काम तो कर दिया था। ज्ञान और धन का अधिकार शूद्रों को दे दिया था। उसके बाद की हुकूमतें अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रही हैं। अब हमारे सामने एक ऐसा समाज है जिसके पास असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बहुतायत है। वे आधुनिक युग के बेगार बनते जा रहे हैं। भारत सरकार ने श्रम कानूनों को लगभग खत्म ही कर दिया है। भूमि सुधार का सवाल मुंह बाए खड़ा है।

इसके पीछे भी अनेक कारण हैं। दरअसल, समय के साथ सामंतों की आवश्यकताएं बढ़ी हैं। अब इसको ऐसे समझें कि पहले के समय में सामंतों के यहां पालकी ढोनेवाले होते थे। वे ही साधन थे उनके लिए। लेकिन अब क्या है कि पालकी खत्म हो चुके हैं। उनकी जगह अत्याधुनिक गाड़ियां हैं। गाड़ियां भी ऐसी जिनकी कीमत लाखों में होना तो आम बात है। कई गाड़ियां करोड़ों में आती हैं। और जब गाड़ियां इतनी महंगी होंगी तो सामंतों को उसके रखरखाव के लिए आदमी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे पहले हाथियों को संभालने के लिए महावत रखे जाते थे। लेकिन एक अंतर है। महावत एक बेगार टाइप का आदमी होता था। पेट पर जीनेवाला आदमी। साल में उसे तीन–चार जोड़ी कपड़े और रोज पेट की भूख मिटाने भर की आवश्यकता होती थी। लेकिन अब तो सब बदल गया है। वैश्वीकरण ने सबकुछ बदल दिया है। अब तो महावत (गाड़ियों के संबंध में चालक व अन्य तरह के काम करनेवाले लोग) भी अपनी कीमत जान गए हैं। उन्हें अब मजदूरी चाहिए और वह भी ऐसी मजदूरी जो उनके हिसाब से हो। पहले की तरह नहीं कि भीख की तरह कुछ भी दे दिया तो वे मान जाएंगे।

अच्छा, एक अंतर और आया है समाज में। पहले हाथी केवल बड़े जमींदारों के पास ही होते थे। अब तो लग्जरी गाड़ियों के मालिकों की कोई कमी नहीं है। बेचारे सामंती आपसे में ही प्रतिस्पर्धा से परेशान हैं। तो ऐसे में उनके महावतों के पास विकल्प भी होता है कि एक सामंती यदि ढंग की मजदूरी नहीं देगा तो दूसरे सामंती के पास जाएंगे।

खैर, समाज में बदलाव होने ही चाहिए। बदलाव न हो तो समाज का अस्तित्व ही न रहे। तो कल लो बेगार थे, आज असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं। कानून उनके लिए भी है, लेकिन कागजों पर। फिर भी बेगाराें जैसी स्थिति नहीं है।

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मैं तो मुंशी प्रेमचंद की भूमिका को बेहद अहम मानता हूं। कितने शानदार रचनाकार थे वह। गोदान का प्रकाशन 1936 में हुआ था। प्रेमचंद ने तभी बता दिया था कि समाज बदलने वाला है और सामंतवाद का खात्मा होगा। गोदान में मुझे दो ही पात्र नजर आते हैं। एक तो होरी और दूसरा उसका बेटा गोबर। दोनों में जमीन–आसमान का अंतर है। एक होरी महतो है जो सामंती व्यवस्था को कबूल करने में भलाई समझता है तो दूसरी तरफ गोबर है जो अपने पिता से सवाल पूछता है कि आप बेगारी करने रोज क्यों जाते हैं। प्रेमचंद गोबर के माध्यम से यह दिखाते हैं कि धन संपत्ति अर्जित करने का अधिकार अंग्रेजों ने सभी को दे दी है और कोई भी मजदूरी कर अपना जीवन–यापन कर सकता है। यह एक बड़ा अधिकार था जो भारतीय समाज में तब नहीं था। याद करिए गोदान का वह अंश जब गोबर अपने गांव लौटता है तब जो उसकी ठाठ होती है। कितना खूबसूरत दृश्य खींचा है प्रेमचंद ने। एकदम अलहदा दृश्य है। गोबर की ठाठ के सामने सौ बीघा जोतवाले की चमक फीकी पड़ गयी।

यदि अंग्रेज पचास साल और रह जाते तब भारत में भूमि सुधार पूर्णरूपेण लागू हो जाता और सामंतों की सारी सामंती धरी की धरी रह जाती।

मैं तो आज इसे स्वयं के लिए महसूस करता हूं। मेरे पिता चपरासी के पद पर काम करते थे। पढ़े–लिखे नहीं थे। लेकिन मेरे पिता बेगारी नहीं करते थे। हालांकि जबतक उन्हें नौकरी नहीं मिली थी, उन्हें बेगारी भी करनी पड़ी थी। वह बताते हैं कि उनके पिता यानी मेरे दादा कुछ कमाते नहीं थे। उनके अंदर यह अहंकार था कि वे पांचू गोप के पोते हैं जिनके पास डेढ़ सौ बीघा जमीन था। 1914 में  अंग्रेजों ने सभी को उनके मूल गांव भोलाचक (वर्तमान में पटना एयरपोर्ट का पश्चिमी हिस्सा) से विस्थापित कर दिया। कुछ मुआवजा भी दिया था अंग्रेजाें ने और उसके जरिए पांचू गोप ने अपने बच्चों के लिए जगह–जमीन खरीदी। पापा बताते हैं कि दादा सब जमीन ताप गए अपने ही जीवन में। जब कभी जरूरत पड़ती तो खेत बेच देते थे। ऐसे में दिक्कतें बहुत होती थीं। मेरे पापा का जन्म 1940 के आसपास हुआ है। वे कहते हैं कि जब देश में पहली बार गणतंत्र दिवस मनाया गया था तब वे मजदूरी करते थे। आठ आना रोज मजदूरी होती थी। इसी आठ आने से पूरे परिवार की रोटी चलती थी। एक बार दादा ने एक सामंती से कुछ रुपए कर्ज लिया था, जिसे चुकाने के लिए मेरे पापा ने उसके यहां बेगारी भी की और उसके पैसे भी लौटाए।

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खैर, मेरे पापा ने स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीया है। जब उन्हें देखता हूं तो समाज कैसे बदलता है, इसकी पुष्टि पाता हूं।

तो मूल मसला यह है कि अब हम कैसा समाज चाहते हैं। अंग्रेजों ने अपना काम तो कर दिया था। ज्ञान और धन का अधिकार शूद्रों को दे दिया था। उसके बाद की हुकूमतें अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रही हैं। अब हमारे सामने एक ऐसा समाज है जिसके पास असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बहुतायत है। वे आधुनिक युग के बेगार बनते जा रहे हैं। भारत सरकार ने श्रम कानूनों को लगभग खत्म ही कर दिया है। भूमि सुधार का सवाल मुंह बाए खड़ा है।

यकीन मानिए, यदि अंग्रेज पचास साल और रह जाते तब भारत में भूमि सुधार पूर्णरूपेण लागू हो जाता और सामंतों की सारी सामंती धरी की धरी रह जाती।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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