विदर्भ! जन्मभूमि होने के कारण आज भी विदर्भ कहते ही मैं नॉस्टेल्जिक हो जाती हूँ। मगर पिछले कुछ वर्षों में विदर्भ सबसे ज़्यादा दो बातों के लिए बदनाम हुआ है – जिसमें देश और प्रदेश में विदर्भ में सबसे ज़्यादा होने वाली किसानों की आत्महत्याओं के लिए और दूसरी, हिंदुत्ववादी आरएसएस की, मनुस्मृति की पकड़ विदर्भ पर और विदर्भ के माध्यम से देश पर मजबूत होने के लिए। ‘मेरा महाराष्ट्र’ या ‘मेरा विदर्भ’ कहकर गौरवान्वित होने का अर्थ क्या होता है? उपर्युक्त पृष्ठभूमि पर क्या मुझे वाकई विदर्भ के प्रति गौरव महसूस करना चाहिए?
क्या मुझे गर्व करना चाहिए कि, यहाँ की धरती पर डॉ. बाबासाहेब ने धम्म-दीक्षा ग्रहण की, इस धरती को नवयान बौद्ध धम्म-दर्शन का सम्पुट प्राप्त हुआ; या फिर इस बात पर शर्मिंदगी महसूस करूँ कि इसी धरती पर मानवता, करूणा को कलंकित करने वाली खैरलांजी की शर्मनाक़ घटना घटित हुई!
गर्व करूँ कि स्वच्छता और साक्षरता का मंत्र फूँकने वाले गाडगे बाबा की यह कर्मभूमि है, या फिर यहाँ गुटखा, पान की पीकों से लिथड़े हुए रास्ते, इमारतें, बस स्टैंड, रेल्वे स्टेशन्स के शौचालयों की गंदगी और बदबू देखकर शर्म महसूस करूँ?
मोझरी, अमरावती के तुकडोजी महाराज पर गर्व करूँ, जो कहते थे, देव-देवकी (देवताओं से जुड़े आपसी रिश्ते-नाते)नहीं, गाँव-गावकी (गाँववालों के बीच परस्पर संबंध) होनी चाहिए; श्रीकृष्ण वाली गीता नहीं, ग्राम पंचायत पर आधारित ग्राम-गीता होनी चाहिए। गाँव का विकास और ग्राम-स्वराज की राजनीति होनी चाहिए या फिर ‘समृद्धि मार्ग’ पर रोज़ाना होने वाली दुर्घटनाओं के बरअक्स राजनीतिज्ञों द्वारा अरबपति बनने के लिए बनाए गए मृत्यु-मार्गोर्ं को देखकर शर्मिंदा होना चाहिए?
गाँव की ओर चलो, खेती करो – कहते हुए वर्धा में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना कर कृषि और कुटीर उद्योगों को ही गांधी जी ने जीवन-शैली माना। मगर आज इसके विपरीत लाखों किसानों को आत्महत्या करने के लिए बाध्य करने वाली शासकीय नीतियों को देखकर क्या मुझे निराश होना चाहिए? या फिर, मिट्टी को सोना बनाने वाले भूमिपुत्रों की छाती पर चढ़े, बलि की भूमि को हड़पने वाले वामन के निरंतर जारी षड्यंत्रों के तहत चलने वाले मृत्यु-सत्रों को दिल कड़ा कर चुपचाप देखते रहना चाहिए?
इन कारणों से अब मेरी नज़र में मेरा महाराष्ट्र महान होते-होते कब छोटा, संकुचित और असंवेदनशील बनता चला गया और मेरा विदर्भ अंचल भी कब पिछले बीस वर्षों में हज़ारों किसानों के लिए जानबूझकर श्मशान भूमि में बदलता चला गया, मुझे भी पता नहीं चला। हालाँकि अभी भी मेरी यादों में अपने बचपन में देखा हुआ किसानी यथार्थ बीच-बीच में झिलमिलाता रहता है।
इस विदर्भ अंचल में सभी जाति-धर्मों को मानने वाले मेरे दोस्त रहे हैं। मेरे बचपन का ननिहाल, जहाँ किसान होने का दुख नहीं था, बल्कि हँसी-खुशी का माहौल था, भले ही जीवन कड़े परिश्रम का रहा हो। सुबह से शाम तक खटने वाले हाथ थे, मगर घर में हमेशा आदमी, गाय, बैल, मुर्गियाँ, कुत्ते, बिल्लियाँ मिलजुलकर रहा करते थे। घर में बरामदे से लेकर पिछवाड़े के आँगन तक ज्वार, मिर्च, जौ, मूँगफली के बोरे भरे हुए रखे होते थे। इसी तरह कपास निकालने के बाद बचे पौधों के अवशेषों के लिए एक पृथक कमरा होता था। ऐसा होता था किसान का घर! अब शहरों में लोगों के घर की बैठक में बीन्स के रबड़ या रैग्ज़िन के बोरेनुमा फैशनेबल सोफे रखे होते हैं। मगर वहाँ होते थे सचमुच के बीजों और अनाजों के बोरे, जिन पर हम बैठते थे, उछलकूद करते थे। हमें उस ग्रामीण बैठक के लिए कभी शर्म महसूस नहीं हुई। जब वहाँ मिर्च के बोरे आते, तो छोटे बच्चों के हाथ-पैर में जलन न हो इसलिए उन्हें अलग रखा जाता था।
आज भी याद है, माँ के चाचा ‘तात्याजी’ कई बार हमें खेत पर ले जाते। माँ की दोनों चाचियाँ तालाब पर कपड़े धोने के लिए साथ ले जातीं। जब मामा खेती-किसानी सम्हालने लगे, तब हम तात्याजी के साथ कभी-कभी मंडी भी जाते थे। मंडी में उनकी बैठकी की जगह एकदम प्रवेश द्वार की प्राइम लोकेशन पर थी। जिस तरह तबियत से गाने वाला गवैया अपनी बैठकी नहीं छोड़ता, उसी तरह तात्याजी भी सुबह आठ बजे से दोपहर 12 बजे तक और फिर एक बजे से शाम सात बजे तक अपने ‘पसरे’ पर बैठते थे। सामने पान की टोकरी होती थी। हरेभरे पान उसमें सजे होते थे। कपूरी पान, बंगला पान, मीठा पान जैसे अनेक प्रकार के पानों के साथ एक डिब्बे में झक्क सफेद चूना रखा जाता था। पानों के बंडल के साथ एक पान पर चूना मुफ्त में दिया जाता था। उस समय के किसान मुझे बहुत अमीर मालूम देते थे। मेरे पिता के पिता, अर्थात दादा जी सिर पर टोकरी लेकर मोहल्ला-मोहल्ला फेरी लगाते थे। हालाँकि उनके खेत काफी दूर, रामटेक के पार सिवनी में थे। वहाँ जाकर खेती-किसानी की जाती और व्यापार नागपुर में होता। घर की सभी नानी-दादी, बुआ, मौसियाँ, जो पढ़ने नहीं जाती थीं, वे या तो खेतों पर हाथ बँटाने जातीं, या फिर घर में ही सब्जी-भाजी, दही-दूध या पान के पत्ते बेचने के लिए दिन भर काम करती थीं।
उस समय वे लोग कभी भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ या प्रवचन जैसे कार्यक्रमों के लिए जाते हुए मुझे खास नहीं दिखाई देते थे। ज़्यादातर लोग घर में शाम को दिया जलाते, या फिर पास के हनुमान या शंकर के मंदिर में बत्ती जलाने जाते, यहीं तक उनका भक्तिभाव सीमित था। किसान परिवारों की दिनचर्या में पूरी मेहनत के साथ रसोई पकाने, परोसने, साफसफाई, कपड़े-बर्तन धोना, अनाज पछीटकर साफ करना, कूटना-पीसना, मसाले बनाना, पापड़-बड़ी बनाकर सुखाकर रखना, तिल, जौ, मूँगफली साफ कर तेल की घानी पर ले जाया जाना शामिल रहता था। परस्पर बातचीत के लिए नदी-तालाब जैसे पनघट ही गप्पबाज़ी के अड्डे हुआ करते थे। या फिर खेतों से लौटते हुए, खेतों में काम करते हुए सभी औरतें एकदूसरे से शिकवा-शिकायतों, सुख-दुख का आदान-प्रदान करती थीं। उस समय तक चक्की आ चुकी थी। लड़कियाँ लगभग दसवीं तक पढ़ने जाने लगी थीं।
1971 में सातवीं कक्षा में पहुँचने तक मैंने यही दुनिया देखी। उसके बाद अचानक महँगाई बढ़ी। मिल की लाल ज्वार आने लगी। उस समय मेरे मामा का किसान परिवार था। उसकी खिल्लारी बैल जुती हुई रंगीन गाड़ी, खेतों में काम करने के कारण खुरदुरे हो चुके हाथ, पाँवों में फटी बिवाइयाँ, खास अवसरों पर पहनने के लिए एक, और रोज़ाना के लिए दो ही नौ गजी साड़ियाँ अदलबदल कर पहनने वाली मेरी दादी-नानी! सीधी-सादी, लगभग मेरी ही उम्र की मौसियाँ, वे भी लहँगा-चोली पहनने वाली! दो मामा पढ़ाई छोड़कर खेती-किसानी में लग गए थे। बाकी मामा नौकरी करने लगे थे।
धीरे-धीरे दिन पलटने लगे। जिन लोगों ने खेती छोड़कर नौकरी कर ली थी, उनके पक्के मकान बन गए। स्कूटर खरीदे गए। जिन घरों में महिलाएँ नौकरी करने लगी थीं, वे तो एकदम मध्यवर्गीय बन गए। ये मध्यवर्गीय परिवार खेती करने वाले युवकों को दामाद बनाने से इंकार करने लगे। वहीं किसान महिला की तुलना में किसान पुरुष चाहने लगा कि उसे कम से कम डी.एड. तक पढ़ी हुई पत्नी चाहिए, ताकि उसकी घर में आर्थिक मदद हो सके। समाज में समीकरण तय हो गया कि, किसान पुरुष पढ़ा-लिखा होने के बावजूद गँवार, मगर कम पढ़ा-लिखा नौकरी करने वाला पुरुष होशियार बाबू कहलाने लगा। उसे पाँचवें वेतनमान के बाद सातवाँ वेतनमान मिल गया; मगर दूसरी ओर गाँव की परिस्थिति बद से बदतर होती चली गई कि किसान पुरुष और महिला को रोज़गार गारंटी के तहत मिलने वाला न्यूनतम वेतन तक नियमित मिलने के लाले पड़ने लगे।
1980 से विदर्भ अंचल में शुरु किये गये किसान आंदोलन के पहले चरण में हम जैसी तीन-चार लड़कियाँ शामिल थीं। नागपुर विधानसभा के अधिवेशन के दौरान भीतर जाकर हम चार युवाओं ने किसान संगठन के परचे फेंके थे – मैं, शुभदा देशमुख, देवकुमार बाचिकवार और जगदीश काबरा। उस समय पहली बार पुलिस की ज़ोरदार थप्पड़ खाने का अनुभव मिला। साथ ही पुलिस द्वारा डिटेन किये जाने का क्या मतलब होता है, यह भी पहली बार जाना था। इसके बाद तो आंदोलनों में जेल, पुलिस द्वारा मारपीट, मानवाधिकार हनन के संदर्भ में सरकार और पुलिस द्वारा किये गये अत्याचारों का सिलसिला जारी रहा।
बहरहाल, पिछले साल दिल्ली में हुआ किसान आंदोलन देश का सर्वाधिक अवधि तक जारी रहने वाला आंदोलन था। उसमें असंख्य पुरुष किसानों के कंधे से कंधा भिड़ाकर ट्रैक्टर चलाते हुए आई पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और समूचे देश की महिला किसान शामिल हुई थीं। इनमें शामिल महाराष्ट्र की महिला किसानों में बड़ी संख्या एकल महिलाओं की थी। ये महिलाएँ आत्महत्या किये हुए किसान परिवारों की विधवा महिलाएँ थीं।
अप्रेल 2023 में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनविरोनमेंट एण्ड डेवलपमेंट नामक संस्था ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि अनेक भारतीय किसानों ने क्लाइमेट चेंज के कारण आत्महत्या की। उनके अध्ययन के अनुसार, 2022 में 2640 अर्थात सबसे ज़्यादा संख्या में महाराष्ट्र में, ख़ासकर विदर्भ में किसानों ने आत्महत्या की थी। कर्नाटक में 1170 और आंध्र प्रदेश में 481 आत्महत्याएँ होने के बावजूद वहाँ की सरकारों ने कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए। महाराष्ट्र शासन की संबंधित नीतियों पर किसी ने न तो श्वेत पत्र जारी किया और न ही किसी ने भी शासन-प्रशासन से जवाबतलब किया।
अपराध अनुसंधान विभाग और वित्त विभाग द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन के अनुसार किसान 20,000 रुपयों से लेकर 4,00,000 रुपये तक के कर्ज़ अदा नहीं कर पाए थे। इतनी कम रकम के लिए इस देश के किसानों ने आत्महत्या की है। महाराष्ट्र में प्रति दिन लगभग 08 किसान आत्महत्या करते हैं। अर्थात, लगभग रोज़ ही 08 किसान महिलाएँ विधवा होती हैं। अर्थात, महाराष्ट्र में प्रति वर्ष लगभग 2930 किसान महिलाएँ विधवा होती हैं। किसान विरोधी जुल्मी कानून और किसानों के जीवन का सरकार की नज़र में कोई महत्व नहीं है, वे नगण्य स्थान रखते हैं।
जब किसान आंदोलन में महाराष्ट्र के आत्महत्याग्रस्त परिवारों की किसान स्त्री शामिल हुई, तब उस संघर्ष में उसका जीवनसाथी किसान पुरुष उसके साथ नहीं था। उसका संघर्ष स्थानीय के साथ-साथ राष्ट्रीय, राजनीतिक और कानूनी स्वरूप धारण कर चुका था। हममें से अधिकांश लोग इस बात की कल्पना तक नहीं कर सकते कि इन एकल महिला किसानों को अपना संघर्ष कितने मोर्चों पर एक साथ करना पड़ता है!
उसकी मानसिक स्थिति कौन समझेगा?
‘वह’ खेती-किसानी का कर्ज़ चुकाने और उसके लिए धन जुटाने के दौरान निराश होकर जीवन-संग्राम अधूरा छोड़कर चला गया। मगर उसके पीछे छूटी ‘उस’ स्त्री का क्या? मैं ‘उस’के जीवन की कहानियाँ इकट्ठा करने के लिए चल पड़ी। सिर्फ विदर्भ अंचल की ही नहीं, पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा अंचल की भूमिकन्याओं से भी मैंने संवाद किया। सच कहा जाए तो वेदना के किसी भी क्षेत्र में झाँकने का अर्थ ही होता है उनकी यादों को ताज़ा कर उनके ज़ख़्मों को कुरेदना। इसलिए ऐसे प्रकरण में उनसे कहाँ और कैसे मिलना होगा, इस बात का ध्यान रखना भी ज़रूरी होता है। हम जिनके घर जाने वाले हैं, उन्हें हमारे जाने से किसी प्रकार की असुविधा न हो, इस बात की सावधानी भी बरतनी होती है। मृत्यु के बाद कुछ समय बीत चुका हो तो बातचीत थोड़ी आसान हो जाती है, क्योंकि संबंधित लोग कुछ सम्हल जाते हैं; परंतु जब दुर्घटना घटे अधिक समय न हुआ हो, उस स्थिति में व्यक्ति से या उसके परिवार से बातचीत करना ज़्यादा कठिन होता है। पिछले साल भर मैंने इन क्षेत्रों का दौरा किया। परिषद के बहाने कुछ लोगों से मिलकर मराठवाड़ा अंचल के कुछ किसान और गन्ना-कटाई वाली मज़दूर महिलाओं और 10-12 वर्ष की बच्चियों की समस्याओं को समझने की कोशिश की।
महिला संगठनों के कारण संभव हुआ संवाद
महत्वपूर्ण बात यह है कि, जहाँ महिलाओं, किसानों के या अन्य सामाजिक संगठन हैं, वहाँ उनके माध्यम से संबंधित घरों तक पहुँचना संभव हो पाता है क्योंकि वहाँ संवाद का एक रास्ता पहले ही तैयार हो चुका होता है। वहाँ के स्थानीय अंचल में आपका संगठन किस तरह काम करता है, उस पर यह बात निर्भर करती है।
मैंने विदर्भ के दो जिलों – यवतमाल और वर्धा का दौरा किया।
वहाँ सामाजिक आंदोलन में हमारे संगठन और संस्था की सक्रिय साथी नूतन मालवी और माधुरी खडसे अनेक सालों से काम कर रही हैं। वे किसान महिलाओं की समस्याओं पर काम करती हैं। पहले से खेती-किसानी की समस्याओं पर काम करने वाली देश भर में उन जैसी सक्रिय अनेक महिला कार्यकर्ताओं को महिला किसान अधिकार मंच ने आपस में जोड़कर एक राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय नेटवर्क तैयार किया है। इसका फायदा यह हुआ है कि पिछले पाँच सालों में महिला किसानों की समस्याओं को काफी ज़ोरदार तरीके से प्रस्तुत किया जाने लगा है। इस नेटवर्क के कारण ही किस जगह पर किसी किसान ने आत्महत्या की, यह समाचार तुरंत फैल जाता है। हालाँकि आत्महत्याओं को रोकने में अभी भी ये संगठन या आंदोलन असफल साबित हुए हैं।
आत्महत्याग्रस्त परिवार की महिला किसान से मुलाकात करते वक्त एक मानसिक दबाव काम करता है। फिर एक बार उनकी दुखद यादों को ताज़ा करना, उन्हें बोलने के लिये तैयार करना और उस उदास मौसम को बदलने के लिए हम कुछ नहीं कर सकते, पता होने के बावजूद इतनी संवेदनशीलता के साथ संवाद करने की कोशिश करना कि उनके घर की और उनकी भी मानसिक शांति भंग न हो पाए, उनकी भावनाएँ आहत न हो पाएँ। और फिर मुझ जैसी व्यक्ति, जो सिर्फ अध्ययनकर्ता और लेखिका ही नहीं है, एक कार्यकर्ता भी है। इसलिए उनसे किस तरह संवाद किया जाए कि वे अपनी विषम परिस्थितियों से बाहर निकल कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सके, यह भी ध्यान रखना होता है। मेरी अपनी संवाद-शैली के अनुसार मैं उनकी आपबीती सुनते हुए उन्हें परामर्श देती हूँ। प्रायः यह पद्धति सफल साबित होती है। इस तरह के व्यक्तियों के साक्षात्कार लेने के बाद जब उन्हें संगठन से जोड़कर मीटिंग, परिषद, मोर्चे या शिविर में सम्मिलित किया जाता है तो उनके व्यक्तित्व में बदलाव आता है। मेरा यह निरीक्षण रहा है।
हालाँकि दिमाग़ में अनेक सवाल मँडराते रहते हैं कि ‘उसने’ कर्ज़े से घबराकर आत्महत्या की और औरत के सिर पर कर्ज़ का पहाड़ छोड़कर चला गया। इस परिस्थिति में आखिर पत्नी ने भी क्यों आत्महत्या नहीं की, अपने पति की तरह? क्यों नहीं उतार फेंका अपनी ज़िम्मेदारी का बोझ? उस औरत के दिल-दिमाग़ पर क्या बीतता है? क्या इस पर किसी ने कभी सोचा? आत्महत्या करने वाले किसान के घर में बच्चों की मानसिक स्थिति के बारे में क्या कभी किसी ने विचार किया ? इतनी उद्विग्न और भयानक परिस्थिति में वह औरत अपनेआप को कैसे सम्हालती है? अपने दुखों के पहाड़ को परे हटाकर अपनी गृहस्थी चलाने के लिए वह अपनेआप को कैसे तैयार करती है?
जिस किसान को भूमिपुत्र कहकर कृषि-व्यवस्था की रीढ़ माना जाता है, क्या वाकई वह वैसा ही है? वस्तुस्थिति कुछ और ही बयान करती है। ‘वह’ टूट जाता है, विपरीत परिस्थितियों से दो-दो हाथ करने की बजाय अपनी जीवन-लीला समाप्त कर सभी मुसीबतों से छुटकारा पाने की बात सोचकर, घर-परिवार में किसी की चिंता किये बगैर ज़िंदगी से मुँह फेर लेता है। उसके पीछे छूट गए कर्ज़े का, घर-गृहस्थी का, बच्चों का समूचा बोझ उसकी औरत को उठाना पड़ता है। तो फिर उसे भी मज़बूत, जीवट की भूमिकन्या क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? इस तरह के अनेक सवाल मुझे परेशान करते हैं।
मैं मुंबई, नागपुर, उमरेड, वर्धा होते हुए यवतमाल जा पहुँची। अगस्त महीना चल रहा था। इस साल जुलाई महीने में ही ठीकठाक बारिश हो गई थी, फसल लहलहाने लगी थी। खेती-किसानी के काम बढ़ गए थे। टिपिर टिपिर बारिश हो रही थी। यवतमाल के दुर्गम भागों में जाते हुए एक बात की ओर मेरा ध्यान गया। भले ही शहर और महामार्ग गाँवों के पास ही थे, मगर गाँवों की हालत जस के तस थी। मेरे देश के गाँवों के रास्ते अभी भी वैसे ही उबड़खाबड़, बड़े-बड़े गड्ढ़ों वाले ही थे। कीचड़ में से गाड़ी आगे बढ़ नहीं पा रही थी। ड्राइवर ने आगे जाने से इंकार कर दिया। हम नीचे उतर गए और अंजना के खेत की ओर पैदल ही चल पड़े। माधुरी ताई खड़से ने यवतमाल अंचल में किसान महिलाओं का संगठन स्थापित किया था। (जिन किसान महिलाओं के साक्षात्कार लिए है, उनके अनुरोध पर उनके नाम और गाँवों के नाम बदल दिये हैं परंतु संगठन प्रतिनिधि और नेतृत्वकारी महिला साथियों के वास्तविक नाम यहाँ दिये गये हैं।)
जब हम खेत में पहुँचे, अंजना और सुनंदा दोनों वहाँ मौजूद थीं। सुनंदा ने सलवार के ऊपर पूरी आस्तीन का शर्ट पहना था। उसके हाथ में खुरपी थी। इन दिनों अधिकतर औरतें खेतों में इसी तरह के कपड़े पहनती हैं, क्योंकि खेतों में साड़ी पहनने पर वह खराब हो जाती है, टहनियों-काँटों से उलझकर फट जाती है, ज़ख्म हो जाते हैं। इसलिए यह पूरी आस्तीन का शर्ट पहनना बेहतर होता है। वह बहुत आराम से वहाँ काम कर रही थी।
सुनंदा जब अंजना को अपने साथ लेकर आई, हम गूलर के एक बड़े पेड़ के नीचे बैठ गए। अंजना एकदम दुबली-पतली, बीस-पचीस साल की लग रही थी। कुछ बातचीत शुरु होने के पहले ही माधुरी ताई को देखकर उसके सब्र का बाँध टूट गया। सुषमा उसे सम्हालने लगी। सुषमा ने बताया कि डेढ़ साल बीतने के बावजूद अभी भी उसके ज़ख्म हरे हैं। मैं उसे अक्सर समझाती हूँ, ‘‘बाई, हमें ही कमर कसनी पड़ती है। औरत जात इस तरह मर नहीं सकती। सब कहते हैं औरत मरती है तो उसकी गृहस्थी उजड़ जाती है, आदमी के मरने पर हमें ही उस गृहस्थी में पैबंद जोड़ने पड़ते हैं। सब कुछ ढँकना-सम्हालना पड़ता है।’’ उसी समय दो युवक मुँह पर मास्क लगाए, हाथ में कीटनाशक की स्प्रे मशीन लेकर पहुँचे। अंजना ने बताया कि उनमें से एक सचिन उस समय 14 साल का था और बड़ा बेटा सुनील तब 16 का था, जब उनके पिता चल बसे। मैंने आश्चर्य के साथ उससे पूछा, तुम्हारी उम्र क्या है? उसने बताया, 33 साल। एक बेटी भी है सोनाली, जो 12 साल की है। स्कूल गई है।
मैंने लड़कों से पूछा, तो क्या अब तुम दोनों खेती ही करते हो? उन्होंने बताया कि छिड़काव के लिए दिहाड़ी पर मज़दूर बुलाने पड़ते, पैसे खर्च होते; इसलिए हम दोनों ने यह ज़िम्मेदारी ले ली। हमारे पास आगे की पढ़ाई के लिए पैसा नहीं है। उनमें से एक जूनियर कॉलेज जाता है। वे जाति से कुणबी होने के बावजूद, घर में गरीबी के कारण बाप ने आत्महत्या करने के बावजूद उन्हें कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला। बड़ा बेटा माँ को खेती में मदद करने के साथ गैरेज में भी काम करता है।
पति की मौत हुई, वह दिन बहुत भयानक था। घर में अंजना की ननंद को देखने मेहमान आए हुए थे। देवर, देवरानी, बच्चे सबका खाना-पीना हो गया था। अंजना का पति अन्य पुरुषों के साथ घर की ऊपरी मंज़िल के कमरे में आराम करने गया। लोगों की आँख लग गई थी। अचानक सब को ज़ोर से गिरने की आवाज़ सुनाई दी। बाहर गली में खेलते हुए बच्चे दौड़कर घर में आए, उन्होंने बताया कि चाचा छत से कूद गए थे। अस्पताल ले जाते हुए उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। पोस्टमार्टम हुआ। सिर में गहरी चोट लगने के कारण उसकी मौत हो गई थी। उसने अपने भाई से कहा था कि बहुत कर्ज़ हो गया है, कैसे चुकाएगा? इस बार फसल अच्छी नहीं हुई थी। बहन की शादी का खर्च कैसे होगा? बेटे की बारहवीं के बाद एडमिशन कैसे करवाएगा? खेती के लिए लिया हुआ कर्ज़ा कैसे चुकाएगा? पिछली रात को सोने से पहले उसने अंजना से इतना ही कहा था कि उसकी इच्छा है कि बच्चे अच्छे से आगे पढ़ाई करें। उसने और कोई बात नहीं की। अचानक ऐसा कुछ होगा, इसकी कल्पना नहीं थी। बस एक बार बातचीत के दौरान उसने बैंक से कर्ज़ लेने बाबत बताया था। अंजना यही जानती थी।
अब आसमान टूट पड़ा था। घर में लोग हर तरह की बात कर रहे थे। घर में रोना-पीटना मचा हुआ था। अस्पताल से लाश आने तक यकीन नहीं हो रहा था। जेठ और दोनों बेटे एम्बुलेंस से उसकी ‘बॉडी’ ले आए। कुछ देर पहले तक तो वह ज़िंदा था और अब लोग कह रहे थे कि उसकी ‘बॉडी’ आ गई। घर के सभी लोग सदमे में थे। अपनी बारह साल की बेटी को धीरज बँधाऊँ या सूनी नज़रों से निहारने वाले सुनील को सम्हालूँ या फिर सास को दहाड़कर रोने से रोकूँ? अंजना की हिम्मत टूट गई थी। चौदह साल का सचिन उसके पास बैठकर उसे धीरज बँधा रहा था। आसपास के लोग, पुलिस और न जाने कौन कौनसे लोग उससे सवाल कर रहे थे। वह सिर्फ इतना ही बता पा रही थी कि बैंक का कर्ज़ा था। बाद में उसे बाकी बातों का पता चला। जिस हेडगेवार बैंक से उसके पति ने कर्ज़ लिया था, वह साहूकार की तरह चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर कर्ज़ की रकम बढ़ाते जा रहा था। वह सहकारी या सरकारी बैंक नहीं था। इसलिए वहाँ कर्ज़ माफ़ करने संबंधी कोई योजना भी नहीं थी। वस्तुस्थिति पता चलने पर अंजना और भी घबरा गई। उसे लगा कि वह भी अपनी जान दे दे। पर उसके बाद उसके बच्चों की क्या हालत होगी, वह कल्पना नहीं कर पाती थी। उसने सोचा, जो होगा देखा जाएगा और उसने खेती करना शुरु कर दिया।
बाद में एक दिन एक आदमी ने खेत के कुएँ के पास स्कूटर रोकते हुए उससे कहा कि, ‘‘यह खेत मेरा है। तुम्हारे आदमी ने उसे मुझे बेच दिया था। वह तो उस पर सिर्फ काम कर रहा था। अब सात-बारा (ज़मीन के राजस्व संबंधी दस्तावेज़) मेरे नाम पर है। तू भाग यहाँ से!’’ अंजना ने दूसरे खेत में काम करने वाली सुनंदा को आवाज़ देकर बुलाया। सुनंदा ने सुनकर कहा, ‘‘ऐसे कैसे हो सकता है?’’ उसने उस आदमी से पंचायत ऑफिस में आकर बात करने के लिए कहा। सुनंदा अपनी साइकिल पर अंजना को बिठाकर ऑफिस की ओर चल पड़ी। रास्ते में उसने रूककर अंजना के जेठ, सरपंच, पुलिस पाटील को फोन किया। अंजना का पति गाँव में लोकप्रिय था। उसकी ज़मीन पर जो आदमी ‘सात-बारा’ अर्थात ज़मीन संबंधी दस्तावेज़ दिखा रहा था, उसे गाँववालों ने बताया कि वहाँ अंजना खेती करेगी और तुम्हें उसके नाम पर ही ‘सात-बारा’ वापस करना पड़ेगा। वह डरकर भाग गया मगर अभी भी अंजना को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं।
उसके पति की मौत का कारण था, उसे फँसाकर साहूकार द्वारा कर्ज़ें की रकम बढ़ाते हुए कसा जाने वाला कर्ज़ का शिकंजा। इससे छुटकारा पाने का कोई रास्ता न देखकर कभी कोई एंड्रीन पीकर भी आत्महत्या करता है!
वर्धा जिले के सेलू रोड का एक गाँव! वैशाली (बदला हुआ नाम) ने बताया। कल बाजू में सोया हुआ पति बेचैन था, पता ही नहीं चला। घर में कोई झगड़ा नहीं था। सब कुछ ठीकठाक था। दो लड़के और एक लड़की स्कूल चले गए। मैं दूसरों के खेत पर मज़दूरी करने गई थी। वहाँ से तीन कोस पर हमारा खेत है। दोपहर के एक बजे अचानक मेरा देवर दौड़ते हुए आया और कहने लगा, भाभी चल, दादा ने एंड्रीन पी लिया है। मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा। मैं क्या कहती? वह कहता था बाहर के व्यवहार में दखलंदाज़ी मत कर। और अब अचानक क्या हो गया! इतना बड़ा कर्ज़ा चुकाने के लिए क्या अब मुझे बाहर नहीं निकलना पड़ेगा? कौन मदद देगा? कोई आदमी हो, जो मदद करे! जेठ दवाखाने में थे। उन्होंने बताया कि सत्तर हजार का कर्ज़ा था। मेरे सिर पर आसमान टूट पड़ा। आदमी मर गया, तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी, देवर आवारागर्दी करता है। जेठ-जेठानी भी हमारे आगे हाथ फैलाते थे। मैं किससे कहूँ? सब पूछ रहे थे कि उसने कैसे तुझे कुछ नहीं बताया! तुझे कुछ तो पता होगा! मुझे पता होता तो क्या मैं उसे अकेले खेत पर जाने देती? जेठ ने कहा कि अब उसका अंतिम संस्कार करने के लिए पैसे लगेंगे। मैंने गले में पहना मंगलसूत्र उतारकर उन्हें दे दिया। मेरा आदमी ही जब चला गया तो उसका क्या काम! तेरहवीं पर समूचा गाँव टूट पड़ा। आदमी का कर्ज़ चुकाने के लिए पैसा नहीं था, मगर उसके मरने के बाद तेरहवीं पर इतना खर्च! यही पैसा अगर पूरा घर मिलकर कर्ज़ा चुकाने में लगा देता तो? मगर अब दो-दो कर्ज़े मेरे ही सिर पर हैं। एक ही सवाल पूछती हूँ, ‘‘मैं उसकी औरत थी, मुझे बिना बताए मेरा आदमी क्यों चला गया? अब तो मुझे ही उसके पीछे का सारा जंजाल काटना पड़ेगा।’’ वैशाली का यह सवाल जायज़ और प्रातिनिधिक है।
जिस पति के साथ उसके मरने के बाद भी औरत का अस्तित्व जोड़ा जाता है, वह उससे कुछ शेयर नहीं करता था। उनमें कोई संवाद नहीं था। वह तो चला गया, कर्ज़े के साथ दिल पर भी बड़ा बोझ छोड़ गया। वह उससे हमेशा ही सब छिपाता रहा है। आखिर शादी का अर्थ क्या होता है?
इस तरह लगभग पचास महिला किसानों से मैं मिली। उन्होंने 5 और 6 अगस्त 2023 को भूमिकन्या परिषद आयोजित की थी।
इस परिषद के माध्यम से यह बात स्पष्ट हुई कि विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र और उत्तर महाराष्ट्र अंचल में जिन किसानों ने आत्महत्या की थीं, उनके परिवार की किसान, मज़दूर एकल महिलाओं की दैनिक ज़िंदगी में आर्थिक समस्याएँ जितनी भीषण हैं, उतना ही भयानक उनका मानसिक, लैंगिक, पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी है।
इस परिषद में महाराष्ट्र के मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, हिंदु, आदिवासी, खानाबदोश आदि विविध प्रकार की प्रगतिशील विचारों की महिलाओं का प्रतिनिधित्व था। कुछ बातों का विशेष उल्लेख करना होगा, जिनकी चर्चा अनेक महिलाओं ने की थी।
आत्महत्याग्रस्त किसान विधवाओं के लिए शासन ने कुछ योजनाएँ बनाई हैं, मगर उनका लाभ लेने की पहली शर्त है कि उनका नाम ‘सात-बारा’ अर्थात ज़मीन पर मिल्कियत संबंधी दस्तावेज़ पर दर्ज़ हो। घर के तमाम कागज़ों एवं राशन कार्ड पर उनका नाम दर्ज़ हो। परिवार की सूची में उनका नाम शामिल हो। पति की मौत के बाद अनेक महिलाओं को पता चलता है कि उसने पति-पत्नी का संबंध कागज़ों पर कहीं दर्ज़ ही नहीं करवाया है। यहाँ से शुरु होता है एक अनवरत संघर्ष। पति तो मर चुका है। समाज उसके नाम पर भरी गई मांग पोंछ देता है, पहना हुआ मंगलसूत्र निकलवा देता है; मगर उसे ही सिद्ध करना पड़ता है कि वह उसी की पत्नी है।
नांदोरा गाँव की नीना ने सवाल किया कि पति की मौत के बाद एक विधवा इतनी महंगाई में बच्चों को कैसे पालपोस सकती है? कोई औरत जब किसी कारण से समय-पूर्व बच्चे को जन्म देती है, उसे संदेह के आधार पर आरोप लगाकर घर से निकाल दिया जाता है कि वह पहले से प्रेग्नंट थी, उसका विवाहपूर्व किसी से संबंध था। इस परिस्थिति में कोई औरत क्या करे? मुस्लिम धर्म में तीन बार तलाक कहने पर पति-पत्नी अलग हो जाते हैं; मगर इसमें वह अकेली औरत आगे क्या करेगी, इस बात पर भी विचार करना ज़रूरी है। नीना को पति की मौत के बाद तहसील कार्यालय जाकर तमाम ज़रूरी कागज़ात जमा करने में बहुत दिक्कतें हुईं। उसके तीन बच्चे हैं। ससुराल के लोग उसे बहुत परेशान करते हैं। एक बार तो सास ने उसे जलाकर मारने की कोशिश भी की थी। काफी पापड़ बेलने के बाद उसे विधवा पेंशन मिलने लगी। आवास योजना के अंतर्गत कुछ धनराशि प्राप्त हुई। उसने जैसेतैसे थोड़ा पैसा जोड़कर घर बनाया है।
लोणी गाँव की सुचेता ने बताया कि पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने उसे घर में नहीं रखा। आखिर एक बेटे और बेटी को लेकर वह कहाँ जाती? उसने पंचायत में आवेदन लगाया। सरपंच ने उसे रहने के लिए एक कमरा दिलवाया। उसने शुरु में पचास हजार रूपये का कर्ज़ समूह से लिया और फिर धीरे-धीरे चुका भी दिया। वक्त-ज़रुरत पर ज्वार, गेहूँ और अरहर की सिर्फ घुँघनी खाकर दिन काटे। घोर गरीबी थी। जो भी काम रोजी पर मिल जाए, वही किया। खेतों में मजूरी की। बेटे को फीस के अभाव में कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल रहा था। उसने उसे जैसे तैसे बारहवीं तक पढ़ाया था। अब बेटा भी कुछ कमाकर माँ की सहायता करता है। बड़ी समस्या यह है कि इन एकल महिलाओं को ग्राम पंचायत से प्रमाण पत्र नहीं मिलता इसलिए नल-जल योजना का लाभ नहीं मिलता। ग्राम पंचायत आवास योजना की मंजूरी नहीं देती। इन समस्याओं का समाधान निकाला जाना ज़रूरी है।
चित्रा इन दिनों खुद एकल महिलाओं के साथ संगठन स्थापित कर रही है। ससुर ने घर से बाहर निकाला, तब संगठन ने ही उसे आसरा दिया। काफी जूझने के बाद उसे घर मिला। संगठन के साथ तहसील गई तो ग्राम सेवक ने भी मदद की। आज भी विधवा औरत को सम्मान नहीं दिया जाता। जिस तरह पुरुष के विधुर होने के बाद भी उसके तमाम अधिकार बरकरार रहते हैं, वैसे अधिकार औरत को क्यों नहीं मिलते? एक ओर तो कहा जाता है कि हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है तो दूसरी ओर, पत्नी होने के कारण मिलने वाले फायदे भी वे लूटना चाहते हैं! पति जीवित रहने तक मैं ‘घर की लक्ष्मी’ थी और अब उसके मरने के बाद ‘पाँव की जूती’ से भी गईबीती हो गई! कब तक यह सब सहना होगा?
सेलू गाँव की शेवंता ताई के पति ने आत्महत्या की। उसकी लाश एक नाले में मिली। कीटनाशक का सेवन करने के बाद उसके शरीर में तीव्र जलन होने लगी और वह एक नाले में कूद गया। उस समय उसका एक बेटा बारह साल का था। अब वह अठारह का हो गया है। उसने अपनी माँ की तमाम मुसीबतें देखी हैं। वह कॉलेज में पढ़ता है लेकिन आज भी अपनी माँ के साथ खेती के काम में, मजूरी करने हाथ बँटाता है। वह कहता है, माँ है इसलिए मेरे सिर पर छत है। पिता के मरने पर हमें बिना किसी सामान के घर से निकाल दिया था। माँ ने जैसे तैसे कागज़ जुटाकर आवास योजना में मिले पैसों से घर बनाया। पिता सारी कमाई दारू में उड़ाता था। माँ ने ही दूसरों के खेतों में मजूरी कर मुझे पालपोसकर बड़ा किया। माँ ने आत्महत्या कर मुझे अनाथ नहीं किया। उसने अपनी ज़िम्मेदारियों को झटका नहीं।
इन निरीक्षणों के दौरान यह भी देखा गया कि आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान ओबीसी जातियों के हैं। मगर उनकी आत्महत्या का मुद्दा जब कहीं भी उन जातिगत राजनीतिक संगठनों के एजेंडे में शामिल नहीं है, तब ये आत्महत्याग्रस्त किसान महिलाएँ तो उस आंदोलन में अदृश्य ही हैं।
सांगोला, सोलापुर आदि गाँव पश्चिमी महाराष्ट्र में होने के बावजूद अकालग्रस्त हैं। सांगली, सोलापुर, सांगोला क्षेत्र में आंबेडकर कृषि विकास संस्था का काफी बड़ा संगठन है। यहाँ प्रभा यादव से बहुत मदद मिली। मैंने उनके साथ ही इस क्षेत्र का दौरा किया। विदर्भ जैसी ही खेतों की स्थिति होने के बावजूद यहाँ आत्महत्या का अनुपात तुलनात्मक रूप में कम है।
यहाँ दौरे के दौरान कुछ महिलाओं की यह व्यथा दिखाई दी ।
निशा की माँ देवदासी थी। निशा के जन्म के बाद उसके पिता ने उसे अपना नाम देने से इंकार कर दिया। उसकी माँ ने उसे अपना नाम दिया। बचपन से ही उसका जीवन बहुत अभावग्रस्त रहा। अकेली माँ क्या-क्या करती! इसलिए निशा की शादी बचपन में ही कर दी गई। 17 की उम्र में उन्होंने पहले बेटे को जन्म दिया। 21 की उम्र में दूसरा बेटा हुआ और 25 साल की उम्र में पति गुज़र गया। बच्चों को पालते हुए ही उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। अब बेटा बीए में पहुँच चुका है। माँ ने उन्हें काफी मदद की और देवदासी बनाने से इंकार किया। आज निशा सम्मानजनक ज़िंदगी जी रही है। हालाँकि अन्य लोगों के जीवन को देखते-समझते हुए उन्हें अहसास हुआ कि उनकी माँ से पिता की शादी नहीं हुई थी, वह देवदासी थी, इसलिए उन्होंने अपना नाम देने से इंकार किया था। निशा को पति का नाम मिला मगर कोई अधिकार नहीं मिला। ज़मीन पर सात-बारा अर्थात स्वामित्व का हक़ नहीं मिला। वे देवदासी नहीं थीं, मगर परिवार की दासी तो मानी ही गईं न?
उमा डोंगरगाँव में रहती है। उसके पैदा होते ही पिता की नौकरी चली गई। अकालग्रस्त क्षेत्र होने के कारण खेती न के बराबर थी। साथ ही पिता बीमार पड़ गए। सारी ज़िम्मेदारी माँ के कंधों पर आ गई। माँ की मदद के लिए उसे छठवीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। वह माँ को घरेलू कामों में मदद करने लगी। 1986 में आठवीं कक्षा में पढ़ते हुए शादी हो गई। शादी के तुरंत बाद पति के साथ गन्ना कटाई के लिए बाहर जाना पड़ा। पति शराबी था। साथ ही शादी के कई सालों तक उन्हें बच्चा क्यों नहीं हुआ, यह सोचते हुए पति का शराब पीना और बढ़ गया। वह घर का तमाम किराना सामान फेंक देता, मारपीट करता। रोज़मर्रा के इस कष्ट से थककर उसने पति पर केस दर्ज़ करना चाहा परंतु गाँव के सयाने लोगों ने उसे समझाया। आगे चलकर आंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम से घर लौटने पर पति ने बहुत मारपीट की, सिर से खून बहने लगा, पर वह नहीं रुका।
पिछले पाँच सालों में उमा ने महिलाओं को संगठित किया। गाँव में शराबबंदी लागू की। शराबी लोग उसके इस काम से बहुत नाराज़ हुए और उसके पति को और भड़काने लगे। वह और ज़्यादा शराब पीने लगा। अंततः उसकी मौत हो गई। पति होने के बावजूद उसे उससे कभी कोई सुख नहीं मिला। देर से पैदा हुआ एक बेटा है।अगर वह एक सामान्य औरत की तरह कोई चाह मन में रखती भी है, तो बेटे को पालने-पोसने के विचार के कारण वह दोबारा शादी नहीं कर सकती। पति के नाम पर महार जाति के ‘वतनदार’ (गाँव की ज़मीन का एक हिस्सा महार जाति के लोगों को गाँव की सेवा करने के ऐवज़ में दिया जाता था) होने के कारण ज़मीन है। परंतु पत्नी के नाम पर करने के लिए कागज़ों की आवश्यकता होगी, जिसके लिए पैसा भरना होगा। परिणामस्वरूप अब तक ज़मीन उनके नाम पर स्थानांतरित नहीं हो पाई है।
कायदे से, इस तरह की सभी एकल महिलाओं के नाम पर, बिना किसी शुल्क के ज़मीन का हस्तांतरण सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। उन्हें प्रधानता के साथ ज़मीन का ‘सात-बारा उतारा’ (ज़मीन का लिखित स्वामित्व) प्रदान कर इन महिलाओं के अनिश्चित व असुरक्षित जीवन को सँवारने की कोशिश करनी चाहिए।
कुंदा भोसले के मायके की परिस्थिति ठीकठाक थी। शादी के बाद उसने खेती करना सीखा। मायके में खेती न होने के कारण वह खेती का काम नहीं जानती थी। पति राजनीति करने लगा। उस चक्कर में कर्ज़े पर कर्ज़ा लेता चला गया। उस पर इतना कर्ज़ा चढ़ गया कि उसे आधा एकड़ खेत गिरवी रखना पड़ा। हालत देखते हुए कुंदा ने कमर कसी। तब पहली बार उसका साबका शासकीय कार्यालय, न्यायालय, पुलिस आदि से पड़ा। जब उसके पति की मौत हुई, उस समय उसके गर्भ में सात महीने की बेटी थी। पति की मौत के कारण का पता नहीं चल सका इसलिए आत्महत्या का केस भी दायर नहीं हो सका। छह महीने गुज़रने पर पता चला कि उनका कुँआ किसी दूसरे आदमी को बेचा जा चुका है। पानी के अभाव में समूची फसल जल गई। सास-ससुर ने कोई मदद नहीं की, उल्टे उसी से उन्होंने पचास हजार रूपये माँग लिये। ग्राम सेवक से मिलने पर भी कुंदा को मदद नहीं मिली। काफी लड़ने-भिड़ने के बाद उसे कुँए का हिस्सा मिला और उसने खेती का काम जारी रखा। बेटियों को पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल के होस्टल भेजने पर लोग भला-बुरा कहने लगे। उनका आरोप था कि अपने स्वार्थ के लिए वह बेटियों को जानबूझकर दूर रख रही है। मगर उसने हार नहीं मानी। बेटियाँ पढ़ रही हैं। कुंदा अब किसान और खेत मज़दूर औरतों को संगठित करती है। उसकी इतनी ही अपेक्षा है कि उन्हें सामाजिक और राजनैतिक न्याय हासिल हो।
सच कहा जाए तो विदर्भ अंचल की अपेक्षा मराठवाडा अंचल के किसानों और गन्ना कटाई मज़दूरों की हालत ज़्यादा खराब है। यहाँ भी किसान आत्महत्या का अनुपात काफी ज़्यादा है। अंकुर ट्रस्ट की संस्थापक मनिषा तोकले के साथ वनिता भी काम करती है। उसने शाहीन इनामदार की परिस्थिति के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए जब बताया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। तस्लिमा की बहन पर चाचा ने बलात्कार किया। इस तरह के एकदम नज़दीकी रिश्तेदार या परिचित लोग भी गन्ना कटाई मज़दूरों की छोटी बच्चियों पर बलात्कार करते हैं। गन्ना कटाई के लिए जाने वाली महिलाओं की पेशगी भी सुरक्षित नहीं रहती। उनका बीमा भी नहीं होता। साथ ही, वे रात को जहाँ सोती हैं, वह जगह तक सुरक्षित नहीं होती। वे लोग सोते वक्त हँसिया पास में रखकर सोती हैं। शाहीन अविवाहित होने के कारण उसे पेन्शन भी नहीं मिलती। वनिता का सुझाव था कि सब प्रकार की एकल महिलाओं की जनगणना की जानी चाहिए और उन्हें लाभार्थी के रूप में पेन्शन योजना में समाविष्ट किया जाना चाहिए।
वर्षा बीड़ में रहती है। वह भी गन्ना कटाई के लिए जाती है। उसकी शादी 14 की उम्र में हुई और 18 की उम्र में पति मर गया। उसे दिखाई दिया कि पेशगी सिर्फ पुरुषों को ही दी जाती है, औरतें सिर्फ काम करती रह जाती हैं। उन्हें मुआवज़े के रूप में खास कुछ नहीं मिलता। औरतों को इस काम में काफी परेशानी भी होती है। घर का काम, बच्चों का काम निपटाने के लिए उन्हें सुबह से लगना पड़ता है। घरेलू काम निपटाने के बाद वे गन्ना कटाई के लिए जाती हैं। माहवारी के दौरान उन्हें इस काम में बहुत तकलीफ होती है मगर काम से कभी छुट्टी नहीं मिलती। गर्भवती औरतों को भी काम करना पड़ता है। 40-50 किलो का गट्ठर भी उसे उठाना पड़ता है। कभी-कभी औरतों की प्रसूति काम की जगह पर ही हो जाती है। पुलिस और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से तक कोई मदद नहीं मिलती। गन्ना कटाई मज़दूरों के समूहों में लोग औरतों पर बुरी नज़र रखते हैं। वहाँ काम करने वाली हरेक औरत को उपभोग करने की नज़र होती है ये। इसीलिए लड़कियों के बाल विवाह कर दिये जाते हैं। अभी भी 12 साल की बच्ची की शादी 60 साल के पुरुष से ब्याह दी जाती है। लड़कों की शिक्षा पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। वे भी बाल मजदूर के रूप में काम करते हैं।
मानवाधिकार अभियान और अंकुर ट्रस्ट की मनिषा तोकले ने गन्ना कटाई मज़दूरों की लड़कियों और औरतों की वस्तुस्थिति से अवगत कराया। पुरुषों के जागने से पहले शौचादि कर्म निपटाने पड़ते हैं। अन्यथा जिसके खेत में निपटने जाती हैं, वहीं पकड़कर ज़मीन मालिक लड़की से बलात्कार करने से नहीं झिझकते। कभी-कभी खेत में जाने पर खेत मालिक किसी अन्य द्वारा की गई विष्ठा तक साफ करवाने से बाज नहीं आता। इन लड़कियों और औरतों को खुले में ही नहाना पड़ता है। इन्हीं कारणों से लड़की की माहवारी शुरु होते ही तुरंत उसकी शादी कर दी जाती है, चाहे उम्र में 25 साल का अंतर ही क्यों न हो!
गन्ना कटाई कामगार महिलाओं की परिषद लेकर कामगार पंजीयन शुरु किया गया है। परंतु ग्राम पंचायत की ओर से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। इन गन्ना कटाई कामगारों के लिए विशिष्ट कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। जिस तरह भवन-निर्माण कामगारों के लिए कानून बनाए गए हैं, उसी तरह गन्ना कटाई महिला कामगारों का भी स्वतंत्र पंजीयन होना चाहिए। बच्चों और औरतों के लिए बीमा करवाया जाना चाहिए। पेशगी की रकम औरत के खाते में जमा हो, गर्भपात से उन्हें बचाया जाना चाहिए। औरतों को गर्भावस्था अथवा माहवारी के दौरान अस्वस्थ होने पर छुट्टी का प्रावधान हो। ज़मीन पर उसका नाम चढ़ा होने पर उसे कुछ हद तक राहत मिल सकेगी।
बीड़ निवासी सुरेखा ने बताया कि, पति की मौत के वक्त उसकी कम उम्र थी इसलिए उसके सास-ससुर ने सोचा कि वह दूसरी शादी कर लेगी और उन्होंने ज़मीन पर उसका नाम नहीं चढ़ाया। विधवा का स्थान हमेशा ही निम्नतम माना जाता है। संगठन की ओर से कोशिश की जाती रही। बच्चों की फ़िक्र थी इसलिए उसने कभी भी दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा। जो थोड़ी बहुत पेशगी मिली थी, खेतों में काम करके उसमें से चालीस-पचास हजार चुकाया। मायके वालों ने शादी का खर्च किया था। उनकी परिस्थिति भी अच्छी नहीं थी इसलिए बीस-पचीस हजार में उन्होंने शादी निपटाई। दूसरे के घर की बेटी अपने घर आकर मज़दूरी करती है तो मंज़ूर है, मगर अपनी बेटी को मज़दूरी के लिए भेजने की बजाय उसकी शादी करवा दी जाती है।
कामगारों को काम की जगह, सरकारी ज़मीन पर अस्थायी आवास बनाने की अनुमति होती है मगर उसके लिए उन्हें दरख़्वास्त लगानी पड़ती है। समूह के लोग, मुकादम या जिनके पास पैसा होता है, वे कोशिश करते हैं। मनिषा तोकले का कहना था कि समूह के लोग और मुकादम भी बदलते रहते हैं। औरतों की तकलीफों को सभी लोग नज़रअंदाज़ करते हैं। उन्हें राशन नहीं मिलता। औरतों को कार्यस्थल पर कितनी पेशगी मिलती है, इसकी जानकारी भी नहीं होती। इसलिए मज़दूर औरत के हस्ताक्षर लेकर उसके हाथ में ही उसकी मज़दूरी की रकम दी जानी चाहिए। यहाँ ‘एक व्यक्ति, एक हँसिया’ का नियम लागू करना ज़रूरी है।
इस अंचल में अभी भी समूह में काम करने वाली लड़कियों का गर्भाशय निकाल लिया जाता है। औरतें सैनिटरी नैपकिन्स का उपयोग नही करतीं। अस्वच्छता, घरेलू कामों का बोझ, दूर से पानी लाने के कारण उनमें एनिमिया जैसी बीमारियाँ अक्सर पाई जाती हैं। रोज़मर्रा के खर्चे और अस्पताल के खर्च के लिए दोहरी पेशगी लेनी पड़ती है। मंडल आयोग की सीमा में ये सभी माँगें आती हैं। ‘औरत के गर्भाशय से खिलवाड़ बंद किया जाए’ जैसा कानून बनाया जाना चाहिए। जहाँ भी अत्याचार होता है, वहाँ के स्थानीय पुलिस थाने में वैधानिक तौर पर शिकायत दर्ज़ की जानी चाहिए। गाँव के कुछ प्रभावशाली लोगों की दहशत के कारण औरतों पर होने वाले अत्याचार खुलकर सामने नहीं आते। महाराष्ट्र में चौदह लाख गन्ना कटाई कामगार हैं, जिनमें जलगाँव, यवतमाल और मराठवाड़ा अंचल में गन्ना कटाई मज़दूरों की संख्या ज़्यादा है। महिला कामगारों के पंजीयन बाबत जीआर 2022 में जारी हुआ परंतु उस पर अमल नहीं किया गया। इनमें पचास प्रतिशत से ज़्यादा दलित, आदिवासी परिवार होते हैं।
सच कहा जाए तो इन औरतों के तनाव और दबाव दूर होने चाहिए। जिस जगह पर अत्याचार घटित होता है, वहाँ के लोगों की गवाही लेकर महिलाओं के स्थायी निवास-स्थान पर स्थानीय पुलिस थाने में केस दर्ज़ होनी चाहिए। पुलिस-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था की पहुँच कामगारों तक होनी चाहिए। स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं द्वारा महिलाओं की सुविधानुसार शिविर आयोजित कर या उन्हें एकत्रित कर तत्संबंधी जानकारी दी जानी चाहिए। अपने कामगारों की देखभाल का पूरा जिम्मा ठेकेदार का होना चाहिए। बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था कहीं भी हो सकती है। झूलाघर या बच्चियों की सुरक्षा के लिए किसी महिला की स्वतंत्र नियुक्ति की जानी चाहिए। क्या इस मामले में महिला एवं बालविकास विभाग कोई मदद कर सकता है? इस दौरे में इस तरह के अनेक सवाल सामने आए।
न केवल विदर्भ, बल्कि समूचे महाराष्ट्र में इस तरह से किसान विधवा व अन्य एकल महिलाओं की गंभीर स्थिति दिखाई देती है। इन हालातों में भी क्या ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’ कहा जाना चाहिए?
इस दौरान जितनी भी एकल महिलाओं के साक्षात्कार लिये, पुणे में उनकी भूमिकन्या परिषद आयोजित की गई थी, उसका उद्घाटन किया ज़ेबुन्निसा शेख ने तथा अध्यक्ष थीं नूतन मालवी। दोनों विदर्भ से आई थीं। वे भी जब अन्य विभागों की स्थिति से अवगत हुईं, तब उन्होंने भी ज़ोर देकर कहा कि, महाराष्ट्र के किसान पुरुषों को बचाने का काम ये किसान भूमिकन्याएँ ही कर सकती हैं। इस अवसर पर एक न्यायपीठ का गठन कर एक जन सुनवाई की गई। इस न्यायपीठ में न्यायाधीश थीं तमन्ना इनामदार, मनिषा तोकले, अर्चना मोरे और निर्मला भाकरे। जब उन्होंने वहाँ उपस्थित औरतों की आपबीती सुनी, उन्होंने उपर्युक्त मुद्दे और सवाल खड़े किये।
इस दौरे में मुझे एक बात बहुत गहराई से महसूस हुई कि बेटी के जन्म के बाद ही बेटे की तरह बेटी का नाम भी सम्पत्ति संबंधी दस्तावेज़ों में चढ़ाया जाना चाहिए। बेटी के मन में यह विश्वास पैदा करना ज़रूरी है कि उसका भी स्वतंत्र अस्तित्व है और वह भी परिवार की अविभाज्य सदस्य है। इस देश के भूमिपुत्र अपनी उम्मीद खो चुके हैं। आज समूचे देश में कृषि-क्षेत्र में 72 प्रतिशत से ज़्यादा लड़कियाँ और महिलाएँ दिन-रात पसीना बहा रही हैं। मगर उनका अस्तित्व आज भी उनके पति के अस्तित्व पर निर्भर करता है। फिर भी इन औरतों ने परिस्थितियों से जूझना बंद नहीं किया है। गन्ना कटाई कामगार के रूप में औरत का काम हमेशा ही आधा हँसिया माना जाता रहा है। इससे ही उसकी मज़दूरी तय की जाती है। इसलिए बेगार मज़दूर की तरह काम करने वाली इन औरतों को कम से कम पूरा समान वेतन मिले, तो एक मनुष्य के रूप में जीने के लिए आवश्यक रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, साफसफाई जैसी आवश्यक चीज़ें वे जुटा पाएंगी।
विदर्भ अंचल महाराष्ट्र का एक भाग है, जो मेरी जन्मभूमि, कर्मभूमि और भाषा-भूमि भी रही है। अगर आज मेरे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या और किसान औरतों की गरीबी को लेकर कोई मूलभूत कदम नहीं उठाया जाता, तो मेरा राज्य मेरी नज़रों से गिर जाएगा।
आज वस्तुस्थिति है कि भविष्य में अगर किसान आत्महत्याओं को रोकना हो तो इन भूमिकन्याओं के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना होगा। वे किसानों के गले के कर्ज़ के फंदे को काटकर उसके रस्सी से अपने लिए गुलेल बना सकती हैं और साहूकारी, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, धर्मांधता, जातिवाद, रूढ़ि-परम्पराओं की गुलामी तथा शोषण के विरोध में इस गुलेल से इन टिड्डीदलों को मारकर भगा सकती हैं। इसीलिए जब इन भूमिकन्याओं की सिसकियाँ और वेदनारूपी आँसू एल्गार बनकर बाहर निकलेंगे, उस समय अग्निपुष्पों के गीत वायुमंडल में गूँज उठेंगे।