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ग्राउंड रिपोर्ट

शहरों में मेहनतकशों के घरों पर बुलडोजर न्याय नहीं, आवास की भीषण समस्या पर पर्दा डालना है

मनुष्य की तीन चिंताओं रोटी कपड़ा और मकान में सब की सब किसी न किसी रूप में भयावह होती जा रही हैं। रोटी के लिए अस्सी करोड़ लोगों का सरकारी अनाज पर निर्भर होते जाना यह बताता है कि सरकार और पूँजीपति वर्ग लोगों को रोजगार देने में पूरी तरह नाकाम हो चुके हैं। कपड़े का संकट भी कम नहीं है लेकिन मकान सबसे भयावह संकट में घिरा हुआ है। बेहतर आवासीय पर्यावरण निम्नमध्यवर्ग के लिए एक दुर्लभ सपना बन चुका। ऐसे में किसी राज्य सरकार का बुलडोजर नीति में भरोसा और सत्ता की ताकत से लोगों का घर गिरा देना और उन्हें बेघर कर देना एक राजनीतिक षड्यंत्र और अक्षम्य अपराध के सिवा कुछ नहीं है। जो लोग राजसत्ता की बुलडोजर नीति की तरफ़दारी कर रहे हैं वे वास्तव में समस्या को एकांगी तरीके से देखने को अभिशप्त हो चुके हैं। अंजनी कुमार अपने इस लेख में भारत की आवास समस्या के लगातार विकराल होते जाने को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख और समझ रहे हैं। उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र के नजरिये से मेहनतकश वर्ग के प्रति सरकारों और पूँजीपतियों की बेइमानियों को उजागर करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है।

संसद के बीते मानसून सत्र में एक सवाल के जवाब में शहरी और आवास मामलों के मंत्री तोखन साहू ने राज्य सभा में बताया कि 2019 से 2023 के बीच पांच सालों में केवल दिल्ली में 30 हजार घरों को दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा गिराया गया। अकेले 2023 में 16 हजार से अधिक घरों को गिराया गया। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि यह अभियान 2024 में भी बड़े जोर-शोर से जारी है।

एक अन्य स्वतंत्र संस्थान के अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में 50 हजार से अधिक घरों को नष्ट किया गया। दिल्ली में आपातकाल के समय से देखें, तो ‘अवैध’ कालोनियों, घरों, बस्तियों को गिराने, खत्म करने का एक ना खत्म होने वाला सिलसिला दिखता है। यदि हम मुंबई की ओर ध्यान दें, तब वहां ‘अवैध’ बस्तियों को गिराने का काम अंग्रेजों के समय से चलता आ रहा है। इसके लिए कभी गंदगी हटाने के नाम का सहारा लिया गया और कभी अतिक्रमण के सहारे घरों को गिरा दिया गया।

शहरों में इन कथित अवैध आवासों को गिराने का जो सिलसिला है उसका रुख अब छोटे शहरों की तरफ हो  गया है। हम इस तरह की घटनाओं को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, वाराणसी से लेकर राजधानी लखनऊ में भी देख सकते हैं। इस साल के जून के महीने में जब अकबरनगर की लगभग 2000 आवासीय और अन्य संरचनाओं को ढहाया गया, तब इसे लेकर काफी विरोध हुआ।

राज्य सरकार इस कार्य को पर्यावरण और विकास की संरचनाओं के संदर्भ में उचित ठहरा रही थी, वहीं विरोध करने वाले लोग शहर में एक बनी-बनाई सामाजिक और आवासीय सरंचना को नष्ट करने का आरोप लगा रहे थे। योगी की सरकार ने ‘विकास’ के नाम पर आयोध्या में जिस तरह बुलडोजर का प्रयोग किया उसका राजनीतिक नतीजा लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी भाजपा की हार के रूप में सामने आया। लेकिन, जिनके घरों, दुकानों को गिराया जा चुका था, वह फिलहाल तो उन्हें वापस नहीं मिलनेवाला है।

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अवैध कब्जा, निर्माण, गैरकानूनी, अतिक्रमण आदि वे शब्दावलियां हैं जो आवासों को गिराने को वैध बनाने के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। कानूनी दांवपेंच और आदेश अमूमन स्थानीय विकास प्राधिकरणों या ऐसी ही संस्थाओं द्वारा जारी नोटिस से तथा मेट्रोपोलिटन कोर्ट से लेकर उच्चतम न्यायालय तक के आदेश इसमें शामिल होते हैं। इनके द्वारा जारी हुए नोटिस कुछ और शब्दावलियों को साथ लिये आते हैं।

कई बार इनमें इतिहास के ऐसे हवाले आते हैं जो समय के हिसाब से 50 से 100 साल पीछे तक जाते हैं। जिनके संदर्भ को वर्तमान पीढ़ी के लिए समझ पाना भी मुश्किल होता है। ऐसा मामला अभी हाल ही में दिल्ली के खैबर पास कॉलोनी को ढहाने के समय सामने आया। लोग बेहद पुराने दस्तावेज लेकर अपने आवास की वैधता को सामने रख रहे थे, लेकिन इस मामले में उनके दावे को स्वीकार नहीं किया गया और पूरी बस्ती ढहा दी गई।

उत्तराखंड के हलद्वानी में मामला थोड़ा भिन्न रहा। वहां रेलवे के किनारे बसी एक बहुत बड़ी बस्ती को ढहाने के लिए पुलिस बल से लेकर कानूनी प्रक्रियाओं का प्रयोग किया गया। लोगों ने प्रतिरोध जारी रखा और सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल वहां बसे लोगों को ‘इंसान’ मानते हुए और कानूनी दावों में कमजोरी को चिन्हित करते हुए उन लोगों को उजाड़ने के आदेश पर रोक लगा दिया है।

इस ‘बुलडोजर नीति’ में धर्म, जाति, क्षेत्र, सांप्रदायिकता जैसी शब्दावलियों का प्रयोग भी काफी बढ़-चढ़कर किया जाता है। यह हाल ही से शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है, लेकिन, सांप्रदायिक शब्दावलियों का प्रयोग जिस तरह सरकारों में बैठे मंत्री, अधिकारी और अन्य लोग करने लगे हैं, वह निश्चित ही नई शक्ल में हैं और काफी खतरनाक है।

इसे अपराध से निपटने में एक सीधी ‘न्याय-व्यवस्था’ की तरह भी पेश किया जा रहा है। और, यह दावा भी सरकार में बैठे जिम्मेदार लोगों द्वारा किया जा रहा है। हालांकि, जब न्यायालय ने इन मामलों में हस्तक्षेप किया तब सरकार के जिम्मेदार लोगों ने माननीय न्यायालय को बताया कि बुलडोजर का प्रयोग अवैध निर्माणों को हटाने के लिए किया गया है। लेकिन, आम समाज में कोर्ट में कही गई बात से अधिक तवज्जो अपराध से सीधे निपटने के ‘दावों’ को दी गई। अवैध या अतिक्रमण को हटाने के नाम पर जो कार्रवाईयां शहरों तक सीमित थीं, वे अब कस्बों और गांवों तक पहुंचने लगी हैं।

यह एक ऐसी परिघटना है जो पूरी दुनिया में एक बेहद नायाब तरीके की है और निश्चित ही भारत के संविधान की मूल अवधारणाओं से मेल नहीं खाती है। पिछले दशक से जब कानून का अर्थ महज एक बल प्रयोग में बदल गया है और राजनीतिक दृष्टिकोण, जो कानून की आत्मा होता है, इससे निकल चुका है या यह महज घटिया स्तर के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो गया है, इसका प्रयोग सिर्फ और सिर्फ एक दंड देने में बदलता गया है।

शहरों में मेहनतकश और उनके आवास की समस्या

शहर गांव से आगे की व्यवस्था थी। जब हम सभ्यता कहते हैं तो उसका सीधा अर्थ नगर व्यवस्था से है जिसकी अपनी एक शासन व्यवस्था होती है। इसमें शासकों के रहने की विशाल व्यवस्था होती है। इसके बाद सरकार के नुमाइंदों, रिश्तेदारों और हिस्सेदारों की होती है। फिर सैनिक और प्रशासक आदि आते हैं। अंत में, शहर का रखरखाव और रोजमर्रा की जरूरतों और कामों को पूरा करने वालों की बसावट आती है। किलेबंद शहरों में, इसके बाहर से आने वाले लोगों के लिए कभी अंदर और कभी बाहर रखने की व्यवस्था थी।

भारत के प्राचीनतम नगर व्यवस्था का एक रूप हड़प्पा सभ्यता में देखा जा सकता है। मध्ययुग के सबसे अंतिम शहर को दिल्ली में शाहजहानाबाद में देखा जा सकता है जो अब चांदनी चौक, दरियागंज और जामा मस्जिद से लगा हुआ पूरा इलाका है। जब अंग्रेजों ने दिल्ली को आधुनिक शहर में ढालना शुरू किया तब इन्होंने न सिर्फ लाल किला में तोड़फोड़ किया, बल्कि चांदनी चौक के पूरे इलाके में खंडहर बना देने वाले कार्य भी किये।

जैसे जैसे यह शहर आधुनिक राजधानी और लोगों के आवास में बदलता गया, वैसे-वैसे टूटता, बनता और फैलता गया। 1975 में इसकी मध्ययुगीनता पर सबसे बड़ा हमला संजय गांधी के नेतृत्व में हुआ और साथ ही मजदूरों की बस्तियों को शहर से बाहर कर दिया गया। 1980-90 के दशक में इस शहर के दस्तकारों, मजदूरों और निम्नमध्यवर्गीय समूहों ने यमुना के तट से लेकर आस-पास के दलदली इलाकों में बसना शुरू किया।

इन सामाजिक समूहों का काम करने के लिए फैक्टरियां, सेवा से जुड़े क्षेत्र तो थे लेकिन इस शहर ने उनको कोई आवास नहीं दिया था। मजदूर रेलवे लाइनों के किनारे और यहां तक कि नालों के किनारे की जमीनों पर बस गये। देश की राजधानी में आवास एक बड़ी समस्या बन गई। 2000 में सरकार ने दिल्ली से फैक्टरियों को ही खत्म करने का निर्णय लिया जिससे कि मजदूर यहां से निकल जाएँ।

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इसके बावजूद न तो शहरी जिंदगी में मजदूर वर्ग की मांग कम हुई और न ही फैक्टरियों की संख्या में कमी आई। जिन जगहों से मेहनतकशों को उजाड़ा गया वे जरूर मंदिरों, आधुनिक मकानों, मेट्रो जैसी संरचनात्मक गतिविधियों के लिए आवंटित हो गईं। बसी हुई बस्ती को उजाड़ने और उस जमीन को ‘वैध’ तरीके से आवंटित करने में एक बात निहित थी, और वह थी जमीन। इस जमीन पर कब्जा एक निर्णायक पक्ष था जिसमें एक ओर अवैध लोगों की बसावट थी और दूसरी ओर वैध निर्माण।

दिल्ली के आवास का यह संकट और उसके निवारण की पद्धति भारत के हर शहर में कमोबेश एक ही तरह की है। औद्योगिक गतिविधियां गांव की अतिरिक्त आबादी को शहर में आने का आधार होती हैं। औद्योगिक गतिविधि का अर्थ है किसी जमीन पर स्थिति एक पूरी संरचना, जिसमें एक उद्योग के भीतर मशीन नाम की पूंजी के साथ, काम करने वाला श्रमिक वेतन भुगतान के आधार पर अपना श्रम लगाता है। बिना श्रम के यह उद्योग काम नहीं करता।

श्रमिक इस औद्योगिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा होता है। सरकार इन उद्योगों के लिए, जहां ये मशीनें काम करती होती हैं, जमीन तो उपलब्ध कराती है लेकिन उस मशीन को चलाने वाले श्रमिको के लिए कोई जमीन उपलब्ध नहीं कराती है। इन औद्योगिक इलाके से बाहर निकलने के बाद ये श्रमिक आवास के लिए जमीन की तलाश करते हैं। यह तलाश ही जमीन के मूल्य वृद्धि का एक आधार बन जाता है।

हम आये दिन उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा औद्योगिक विकास का विज्ञापन देखते हैं जिसमें सरकार कंपनियों को पूंजी आउटले और पूंजी उपलब्धता का वादा करते हुए दिखती है। इन बहुत सारे दावों में से जमीन उपलब्धता और वित्त का प्रबंध दोनों ही इसका हिस्सा होती है। दूसरी ओर सरकार आवास योजनाएं भी घोषित करती होती है। इनमें निम्न आयवर्ग के लिए योजनाएं होती हैं,।

लेकिन, यदि हम उत्तर प्रदेश की न्यूनतम वेतन भुगतान, औसत वेतन, बचत और रोजगार की स्थिति को देखें और आवास योजनाओं में जारी किए गये मूल्यों के साथ तुलना करें तब हम एक ऐसी जगह पहुंचते हैं जहाँ मजदूरों के कम से कम 50 प्रतिशत हिस्से की पहुंच इन आवास योजनाओं तक दिखती ही नहीं है। दूसरे यह भी कि जितनी बड़़ी संख्या में लोग शहरों की ओर बढ़ रहे हैं उस अनुपात में घरों की व्यवस्था भी नहीं है।

गौरतलब है कि आवास की जरूरत न सिर्फ जमीन के दामों को आसमान पर उछाल रही है, बल्कि बने हुए आवास भी आम लोगों की पकड़ से बाहर हो रहे हैं। नवम्बर, 2023 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर की एक रैली में दावा किया कि पिछले 6 सालों में गरीब लोगों को 55 लाख घर उपलब्ध कराये गये। प्रधानमंत्री आवास योजना का संदर्भ देते हुए उन्होंने उन घरों की कीमत न्यूनतम 10 लाख बताई। हालांकि, इस आवास योजना में खर्च का एक बड़ा हिस्सा उस घर के मालिक को भी भुगतान करना  होता है। मूलतः आवास योजनाएं ‘आवास के अभाव’ को अधिक प्रदर्शित करती हैं।

आवास की खोज और बुलडोजर की नीति साथ-साथ     

सरकार की विभिन्न आवास योजनाएं दिखाती है कि वे लोगों को आवास देना चाहती हैं। इसी तरह, निजी क्षेत्र में काम कर रही रीयल स्टेट कंपनियां बड़े पैमाने पर आवास योजनाएं चलाती रहती हैं। 2005 के बाद के समय में तो रीयल स्टेट एक समानांतर आर्थिक व्यवस्था के रूप में उभर कर आई और यह आर्थिक संपन्नता की प्रतीक बन गई। ऐसे में सवाल उठता है कि मेहनतकश और निम्न मध्य आयवर्ग के लोग जब अपने आवास बना लेते हैं तब उन्हें वैध करार देकर उन्हें मान्यता क्यों नहीं दी जाती है? अमूमन इन कथित अवैध जगहों को खाली कराकर उन्हें वैध बनाने की ही प्रक्रिया अपनाई जाती है।

भारत में जिस तरह की आवास की समस्या है वह अपने साथ औपनिवेशिक और पूंजीवादी संकट के साथ-साथ एक सामंती संरचना को भी साथ लेकर चली आ रही है। भारत के शहर मूलतः अंग्रेजों की प्रशासनिक इकाइयों की तरह उभरे न कि औद्योगिक केंद्रों की तरह। इसके कारण प्रशासनिक और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियों, जिनमें कैंटोन्मेन्ट, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि हैं, के लिए जगहें बनाई गईं। जेल, कोर्ट आदि इसी का हिस्सा थीं। शहर की चौहद्दी भी इसी तरह से बनी।

इन शहरों में बसने वाले शुरुआती लोग इन्हीं गतिविधियों की जरूरत के अनुसार शहरों से जुड़े हुए थे। ऐसे शहरों में ‘सर्वेंट क्वार्टर’ आज भी देखे जा सकते हैं। इन्हीं शहरों में बाहरी छोर पर औद्योगिक गतिविधियां शुरू हुईं, जैसे दिल्ली, मुंबई, कानपुर, कोलकाता आदि। उन्हें जमीनें और अन्य सुविधाएं आवंटित की गईं। जमीन का वितरण और मालिकाना आवास समस्या की जड़ बन गया।

मजदूर से जिस श्रम की जरूरत थी वह उसके शरीर का हिस्सा था। भारत का पूंजीपति वर्ग उसके श्रम को लेकर जितना आतुर था उसका सौंवा हिस्सा भी उस श्रम को पैदा करने वाली स्थितियों को लेकर नहीं था। इसके पीछे बड़ा कारण श्रम के मूल्य को कम से कमतर बनाकर रखना था। भारत के रेलवे और अन्य सार्वजनिक उद्यमों में भी जब आवासीय कालोनियां बनाई गईं, वहां भी आवश्यक श्रम संसाधनों को आवास दिया गया और शेष को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया गया।

ज़्यादातर पूंजीपतियों को तो इन जरूरी कार्यभारों से ही मुक्त रखा गया। मजदूर अपने ऊपर होने वाले खर्च को कम करने के लिए न्यूनतम खर्च वाले आवास की खोज में ऐसी जगहों पर रहने के लिए मजबूर होते रहे जिनकी ओर खुद उस जमीन के कथित मालिक भी ध्यान नहीं देते थे। हम मजदूरों की झुग्गी बस्तियों को देखें तब उनकी बनावट में लगे सामानों में अमूमन कबाड़ से उठाई हुई वस्तुएं या न्यूनतम निवेश आधारित संरचनाएं ही मिलेंगी।

यह दोनों ही कारणों से है; पहला यह कि वह जगह उसकी अपनी नहीं होती है और दूसरा यह कि उसकी आय इस सीमा को पार नहीं करने देती है। यही कारण है कि हम जैसे-जैसे शहरों का फैलाव देखते हैं मजदूरों की बस्तियां उसी अनुपात में शहर के अंदरूनी हिस्सों से सिमटती और बाहर की ओर फैलती जाती हैं। दिल्ली में रिंग रोड की तीन श्रेणियां शहर के इसी फैलाव को दिखाती हैं।

सन 1947 के बाद जरूर कुछ नये शहर बनाये गये जिनकी नींव 1930-40 के दशक में ही पड़ गई थी, जैसे जमशेदपुर, बोकारो, भिलाई आदि टाउनशिप, जिन्हें गांवों के अधिग्रहण के आधार पर बनाया गया। उन अधिग्रहित समूहों को उजड़ने के बाद इन्हीं औद्योगिक केंद्रों में काम के लिए आना पड़ा। ऐसे में, स्थानीय समूह और बाहर से आये समूहों के बीच तनाव भी देखने का मिला। ऐसे तनाव हम मुंबई, पुणे, कानपुर, सूरत जैसे सभी शहरों में देख सकते हैं।

ये दोनों ही समूह वैध तौर पर न बसाये जाने की वजह से अपनी वैधता के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र या संप्रदाय का सहारा लेने लगे। इसी के आधार भारत में शहर की वह राजनीति पैदा हुई जो लगातार दंगों से अभिशप्त रही। भारत के किसी भी शहर के मोहल्ले भारतीय संविधान के ‘सेक्युलर’ संरचना के आधार पर कभी नहीं मिलेंगे। दिल्ली जैसे शहर में जाति, धर्म, क्षेत्र आदि आधारित मोहल्लों को आसानी से देखा जा सकता है। यह बात अन्य शहरों में भी देखी जा सकती है।

इस प्रकार शहरों की आधुनिकता जहां एक ओर इसके केंद्र को अभिजात बनाती है वहीं उसके बाहरी हिस्से को उतनी ही हीन अवस्था की ओर ठेलती है। केंद्र से परिधि की ओर ठेलने की प्रक्रिया में बल प्रयोग एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। इसे हम ‘बुलडोजर नीति’ कह सकते हैं। शहरों में होने वाला हाशियाकरण श्रमिक और मेहनतकश समुदाय पर दोहरी मार की तरह होता है। इससे न सिर्फ उनकी सामाजिक संरचना टूटती है, उन पर आर्थिक बोझ भी बढ़ जाता है।

भारत में आवास समस्या सिर्फ रहने भर की समस्या नहीं है। यह जमीन के पूंजीकरण से जुड़ी हुई समस्या है। जैसे-जैसे जमीन का मूल्य बढ़ता जाता है वैसे-वैसे जमीन की बसावट की प्रकृति भी बदलती जाती है। मुंबई और दिल्ली जैसी जगहों में जब उद्योगों की तुलना में जमीन का मूल्य अधिक हो गया तब पूंजीपतियों ने उद्योगों को बंद कर उन जमीनों को बेचना या दूसरे कार्यों में लगाना ज्यादा मुनासिब समझा। दिल्ली के कई औद्योगिक क्षेत्रों में इस तरह की प्रवृत्ति को आसानी से देखा जा सकता है।

नोएडा और ग्रेटर नोएडा में उद्योगों से अधिक गति रीयल स्टेट कारोबार की देखी गई। जमीन के कथित पूंजीकरण का दायरा सिर्फ शहरों तक सीमित नहीं रहा। सड़क परियोजनाओं ने इसे गाँवों तक पहुंचा दिया। इन्हीं के साथ बुलडोजर भी गांव तक पहुंचा। इसी तेजी के साथ जमीन की दावेदारी बढ़ी, चाहे वह सरकार की ओर से हो या गांव के जमीन मालिकों की ओर से। इसे लेकर झड़पों में बढ़ोत्तरी को हम आसानी से देख सकते हैं।

निश्चित ही भारत में आवास की समस्या काफी भयावह है। यह शहर से लेकर गांव तक जिस तेजी से फैली है, उस अनुपात में भारत का ‘विकास’ बहुत कम पहुंचा है। भारत में आवास की समस्या एक बिडम्बना की तरह है जिसका अंत बेहद त्रासद और आम जन के लिए भयावह संत्रास की तरह है। इसे हल करने का एक ही तरीका है – और वह है जमीन पर रहने का मौलिक अधिकार। इसे हर हाल में सुनिश्चित करना चाहिए। अगर यह ईमानदारी से सुनिश्चित हो सका तब समझ में आने लगेगा कि बुलडोजर-नीति मानवता के खिलाफ एक अक्षम्य अपराध है।

अंजनी कुमार
अंजनी कुमार
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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