मीरजापुर। ‘जमाना हुआ करता था जब चुनार के पॉटरी उद्योग की तूती बोला करती थी, अब तो जैसे-तैसे यह पॉटरी उद्योग खुद को बचाने के लिए अंतिम सांसें गिन रहा है।’ यह कहते हुए गणेश प्रसाद प्रजापति अतीत में खो जाते हैं, फिर बोलते हैं ‘कौन नहीं था इसका (पॉटरी की ओर इशारा करते हुए) मुरीद, कहां-कहां से लोग खिंचे चले आते थे। लेकिन अब तो जैसे लगता है कि, कहीं आने वाले दिनों में यह (चुनार का पॉटरी उद्योग) सपना ना बन कर रह जाए।’ गणेश प्रसाद प्रजापति की यह चिंता जायज भी है। क्योंकि, भले ही चुनार के ग्लेज पाटरी उद्योग को जीआइ का तमगा मिला है पर सुविधाओं की अभी भी दरकार है। जिसके अभाव में चुनार के पॉटरी उद्योग का बाजार बेजार बना हुआ नज़र आता है। यहां की बंद पड़ी उंची चिमनी नई तकनीक के आगे खंडहर में तब्दील हो गई है। चुनार कस्बे के भरपुर निवासी गणेश प्रसाद प्रजापति चुनार के सुविख्यात पॉटरी उद्योग से नाता रखते हैं।
गणेश मूर्ति कला केंद्र नाम से इनका प्रतिष्ठान है, प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ति एवं मिट्टी से बनी तार मूर्ति, गिफ्ट आइटम के विक्रेता हैं। वर्तमान और अतीत दोनों को सलीके से रखते हुए वर्तमान की उन आवश्यकताओं पर जोर देते हैं जिससे इस पॉटरी उद्योग को संजीवनी मिल सकें।
दरअसल, यह पीड़ा चुनार कस्बे के हर उस शख्स से जुड़ी हुई है जो चुनार के पॉटरी उद्योग से जुड़ा हुआ है या कभी जुड़ा हुआ था। देश में कहने को तो बदलाव हो रहा है। आधुनिक संसाधनों से तमाम छोटे बड़े उद्योग, कल-कारखाने लैस हो रहे हैं। कुटीर उद्योग धंधों को सरकार बढ़ावा भी देने की बात कहती है, लेकिन नाम जैसे ही चुनार के पाटरी उद्योग का जुबां पर आता है वैसे ही यहां की बदहाली, बंद पड़ी चिमनी जो खंडहर के रूप में तब्दील हो चुकी है का दृश्य अनायास ही मन मस्तिक पर प्रभाव डालने लगता है।
गौरतलब हो कि, अपनी ऐतिहासिक एवं पौराणिक विरासत के साथ-साथ राजा भर्तृहरि की नगरी चुनार पूरे देश में कभी अपने पॉटरी उद्योग (चीनी मिट्टी), रेड क्ले (लाल मिट्टी) के लिए प्रसिद्ध रहा है। चुनार की ग्लेज पाटरी को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (भौगोलिक संकेतक) मिलने के साथ ही यहां के पॉटरों में भी खुशी देखी गई थी हैं। इस कारोबार से जुड़े लोगों की माने तो चेन्नई की जीआइ कोर्ट में तकरीबन तीन वर्ष चली लंबी प्रक्रिया के बाद यह उपलब्धि हासिल हो सकी थी।
तब ऐसा माना जा रहा था कि, कभी चुनार की पहचान रहे चीनी मिट्टी उद्योग को मिली इस उपलब्धि के बाद इसकी दीन-हीन हो चुकी दशा में सुधार होगा। लेकिन इस उपलब्धि के बाद भी कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ है। अंतिम सांसें गिन रहा चुनार का पाटरी उद्योग वर्तमान में ग्लेज पाटरी उद्योग मृत प्रायः नजर आ रहा है। जिसे जीवंत बनाए रखने के लिए जनप्रतिनिधियों की उदासीनता और शासन-प्रशासन की बेरुखी भी प्रमुख रही है।
इस कारोबार से जुड़े हुए लोगों का कहना है कि, चुनार के पाटरी कारोबार को फिर से दौड़ती हुई पटरी पर लाने के लिए कवायत तो तमाम हुए हैं, लेकिन सही क्रियान्वयन न होने से तथा महज घोषणाबाजी, बयानबाजी तक सीमित होने से यह कारोबार गति नहीं पकड़ पा रहा है। आलम यह है कि, कुछ वर्षों पूर्व तक चुनार में जहां कई चिमनिया धुआं उगला करती थी, कालांतर में महज एक चिमनी के सहारे इस पूरे कारोबार को जिंदा रखने की कवायत की जा रही है। नतीजा यह हुआ कि, कुछ को छोड़ दीजिए तो इससे जुड़े करीब-करीब सभी कारखानेदार अन्य व्यवसायों से जुड़ अपनी रोजी रोटी संचालित करने लगें हैं। पाटरों का मानना है कि, वेंटिलेटर पर पड़े इस उद्योग को यदि फिर से उसका असल मुकाम हासिल कराना है तो सरकारी स्तर पर ठोस कार्ययोजना के साथ इस उद्योग को बढ़ावा देने का प्रयास करना होगा, तभी जाकर इसे इसके पुराने स्वरूप में लौटाया जा सकता है।
नब्बे का दशक रहा स्वर्णिम काल
वर्ष 1955 में प्रारंभ हुए चुनार के पाटरी उद्योग कारोबार का अतीत जितना ही बेहद सुनहरा और स्वर्णिम काल भरा रहा है, वर्तमान में उतना ही धुंधला होता जा रहा है। स्थानीय लोगों की माने तो चुनारगढ़ के तिलस्मी किले के बाद यदि किसी चीज ने राष्ट्रीय स्तर पर चुनार को पहचान दिलाई तो वह थे चुनार में बनने वाले चीनी मिट्टी के बर्तनों ने। यहां बनने वाले चीनी मिट्टी के खिलौने, जार, मर्तबान, मूर्तियां काफी लोकप्रिय थीं, लेकिन धीरे धीरे संबंधित अधिकारियों की गलत नीतियां और जनप्रतिनिधियों के सिर्फ कोरे वादों से भरी घोषणाओं, सरकारों की अनदेखी, की वजह से मौजूदा समय में अंतिम सांसें गिनते हुए पाटरी उद्योग डूबता जहाज साबित हो चुका है। यह उद्योग इतिहास के पन्नों में दर्ज होने के कगार पर है और अभी भी यदि संबंधित विभाग इसके प्रति गंभीर हो जाए तो बात बन सकती है।
स्थानीय पत्रकार कविंद्र साहू, रंजीत साहनी बताते हैं कि, ‘चुनार का पाटरी कारोबार का बाजार तो काफी बड़ा है, लेकिन सामान खुर्जा, बुलंदशहर से आता है, ऐसे में पहले जैसा अब माहौल नहीं रह गया है क्योंकि, एक समय हुआ करता था कि, यहां के पाटरी कारोबारियों के प्रतिष्ठानों पर खरीददारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी आज हालात यह है कि, कुछ खास पर्व अवसरों को छोड़ दिया जाए तो पाटरी दुकानों पर सियापा पसरा हुआ नजर आता है तब दुकानदारों को पाटरी सामानों को साफ-सुथरा रखते हुए ही देखा जा सकता है।’
मिर्ज़ापुर के चुनार में चीनी मिट्टी के खिलौनों व मूर्तियों का बड़ा बाजार तो है, लेकिन यहां के पाटरी कारोबार से जुड़े सभी कारखाने धीरे-धीरे एक-एक कर लगभग बंद हो चुके हैं। खुर्जा, बुलंदशहर में लागत मूल्य सस्ता होने के चलते चुनार के व्यवसायी वहां से माल लाकर यहां बेचने लगे हैं। पाटरी कारोबार से जुड़े कृष्णा यादव बताते हैं कि,
‘नई तकनीक और स्पेशल भट्ठियों के समावेश से बात बनेगी, जब तक यह सुविधाऐं नहीं हासिल होती हैं तब तक चुनार के पुरातन पाटरी कारोबार को पटरी पर लौटाने की बातें बेमानी ही कहीं जाएगीं।’
पत्रकार कविंद्र साहू, रंजीत साहनी आगे कहते हैं कि, ‘यहां पाटरी उद्योग के फेल होने की सबसे बड़ी वजह है लागत मूल्य का अधिक होना। लागत मूल्य पर कोई ध्यान ही नहीं देता है। पहले कोयले के दाम बढ़े, तब विकल्प के तौर पर डीजल भट्ठी का सहारा लिया गया। अब डीजल और गैस के दामों में बेतहाशा वृद्धि ने लागत और बढ़ा दी। जरूरत इस बात है कि, सरकार द्वारा राजकीय पाटरी सेंटर में लगी पुरानी भट्ठियों के स्थान पर नेचुरल गैस से चलने वाली स्पेशन टनल क्लिन (भट्ठी) का निर्माण कराया जाए, जो 1200 डिग्री पर माल पका सके। तब जाकर कुछ सहुलियत और इसे संजीवनी मिल सकती है।
इसी प्रकार कच्चे माल के दामों में बेतहाशा वृद्धि, सीधे तौर पर परिवहन की सुविधा न होना, नई तकनीक की जानकारी का अभाव ऐसे प्रमुख कारण रहे हैं। जिनकी वजह से आज चुनार का पाटरी उद्योग अपनी अंतिम सांस गिन रहा है। पांच वर्ष पूर्व तक जहां चुनार में एक दर्जन से अधिक कारखानों की भट्ठियां सुलगती थीं आज हालात ये है कि, सिर्फ एक भट्ठी की चिमनी धुंआ दे रही है। बंद पड़ा पाटरी सेंटर भूंसे का गोदाम बन चुका है। हालात सुधरे तब कारोबार भी पटरी पर दौड़ता हुए दिखाई दे।
पाटरी उद्योग के प्रमुख कारोबारी तथा हीरा पाटरी वर्क्स के मालिक महेंद्र बताते हैं ‘चुनार के पाटरी उद्योग के विकास के लिए तत्कालीन प्रदेश सरकार द्वारा चीनी मिट्टी पात्र विकास केंद्र की स्थापना 1954 में की गई थी। तब केंद्र से कच्चा माल उपलब्ध होने के साथ तैयार माल पकाने के लिए सरकारी स्तर पर बनाई गई भट्ठियां किराए पर पाटरों को उपलब्ध होने लगीं थीं। नए-नए डिजाइन बनाने के लिए यहां रिसर्च एवं डेवलपमेंट सेंटर की भी स्थापना हुई थी जिसमें तकनीकी आधार पर रिसर्च कर पाटरों को जानकारियां दी जाती थीं। कालांतर में इस केंद्र की उपेक्षा और बढती जा रही लापरवाही के चलते वर्षों से इस केंद्र पर ताला लटका पड़ा है। जहां लोग झांकने से भी कतराते हैं।’
अवधेश वर्मा चुनार पाटरी कारोबार के उत्थान और पतन की कहानी को बड़े ही व्यापक ढंग से बताते हुए सात दशक के बीच में हुए परिवर्तन और पाटरी कारोबार के स्वरूप पर मंडराते काले बादलों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि, ‘महज किसी चीज का तमगा दे देने मात्र से ही इसके पुराने स्वरूप को हासिल नहीं किया जा सकता है। जरूरी यह है कि, इनके विकास के लिए जो जरूरी कदम हो उसे उठाया जाए, सहुलियत के साथ कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए, बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। तब जाकर माना जा सकता है कि, चुनार के प्राचीनतम पॉटरी उद्योग कारोबार को पटरी पर लौटाए जाने की कवायत की जा रही है, अन्यथा सब बेमानी है।’
तमगा मिला, तमन्ना आज भी अधूरी
बताते चलें कि, वर्ष 2021 में जब चुनार के ग्लेज पाटरी कारोबार को जीआइ का तमगा हासिल हुआ था तब इस कारोबार के बोझिल होते स्वरूप के पुनः वापस लौटकर आकर लेने की उम्मीद जगी थी। पाटरी कारोबार से जुड़े हुए लोगों ने जीआइ का तमगा हासिल होने पर जमकर प्रशंसा भी की थी, इसी के साथ ही चुनार के पाटरी उद्योग की दशा के सुधार के लिए भी सरकार से सुध लेने की अपील की थी और ऐसी उम्मीद भी जताई थी। लोगों ने चुनार में स्थापित पाटरी सेंटर को फिर से चालू कराकर नई तकनीक के आधार पर काम शुरू कराये जाने की भी बात कही थी, ताकि चीनी मिट्टी उद्योग को बढ़ावा मिल सके। लेकिन चुनार के ग्लेज पाटरी कारोबार को जीआइ का तमगा हासिल होने के तीन वर्ष बीतने के बाद भी कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ है। बंद पड़ी उंची चिमनी, पाटरी सेंटर पर लटकता हुआ ताला, पूरे सेंटर परिसर में उंगे हुए जंगली घास-फूंस जंगली जीव जंतुओं का ठिकाना बने हुए हैं। जहां लोग भटकना तो दूर रहा उधर झांकना भी गंवारा नहीं समझते हैं।
पाटरी सेंटर का हो जीर्णोद्धार
रामदुलार प्रजापति की माने तो चुनार के ग्लेज पाटरी को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (भौगोलिक संकेतक) दिलाने के लिए चुनार पाटरी समिति ने काफी प्रयास किया था। जिसके बाद ही जाकर यह सफलता मिली थी। वह ज़ोर देते हुए कहते हैं कि, ‘अब जरूरत इस बात है कि, पाटरी उद्योग को सरकारी संजीवनी मिले तब जाकर कुछ हला-भला हो।’ न्यूनतम रेट पर कच्चा माल उपलब्ध कराने के साथ सरकार यहां के पाटरी सेंटर की भट्ठियों का जीर्णोद्धार कराएं इस पर भी जोर देते हुए वह कहते हैं कि, आधुनिक संसाधनों से लैस होकर ही इस कारोबार को ऊंचाईयों पर ले जाने के साथ ही नया स्वरूप दिया जा सकता है। वरना, बदलाव नहीं होने की दशा में स्थिति और भी बद से बद्तर हो जायेगी।
चुनार के पाटरी कारोबारियों में संजय विश्वकर्मा, लक्ष्मीकांत गुप्ता, संतोष प्रजापति और महिला कारोबारी श्यामरति प्रजापति की माने तब, ‘दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई महंगाई व तकनीक के अभाव ने उन्हें अपनी भट्ठियों को बंद करने पर विवश कर दिया। प्रोत्साहन और सरकारी स्तर पर सहयोग के बजाए मिलने वाले आश्वासनों के बलबूते भला वह कितने दिन तक टिक पाते, ऐसे हालात में काम भी कठिन हो चला और एक-एक कर भट्ठियों को बंद करने का सिलसिला जारी रहा।’
सभी एक स्वर में स्वीकारते हैं कि ‘पाटरी उद्योग में निर्मित मिट्टी के बर्तनों की डिमांड आज भी वैसे ही बनी हुई है जैसे पहले थी। बशर्ते हम लोगों को कच्चा माल मिलने लगे तब काफी हद तक सहुलियत मिल जाए। सभी कहते हैं कि, ‘वह लोग खुर्जा से माल मंगाकर बेचते हैं। यदि सरकार इस ओर ध्यान दे तब फिर से ये उद्योग अपनी ऊंचाई पर पहुंच सकता है और चुनार का पाटरी कारोबार फिर से पटरी पर लौट आए।’
सपने दिखाकर विभाग भी भूला
चुनार के प्राचीनतम पाटरी कारोबार को जीवंत बनाए रखने के लिए उद्योग विभाग के अधिकारियों ने भी पाटरी उद्योग को बढ़ावा देने के नाम पर कारखानेदारों को समय-समय पर सुहावने सपने दिखाने में कोई गुरेज नहीं किया है, लेकिन नतीजा हमेशा सिफर ही रहा है। सरकारी स्तर से हमेशा उपेक्षा मिलने के कारण इस उद्योग को वह स्थान नहीं मिला, जिसका यह हकदार रहा है। हालांकि चुनार विधानसभा क्षेत्र से विधायक अनुराग सिंह बताते हैं कि, ‘उन्होंने स्वयं मुख्यमंत्री से लेकर अन्य संबंधित लोगों से भी चुनार के पाटरी कारोबार में उत्पन्न होने वाली अड़चनों को दूर करते हुए कारोबारियों को सहुलियत देने की बात की है। इसी के साथ इस कारोबार के प्रमुख व्यापारियों से लेकर अन्य के साथ समाधान का रास्ता निकालने का निरंतर प्रयास किया है। जिसका प्रतिफल रहा है कि, चुनार के ग्लेज पाटरी को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (भौगोलिक संकेतक) दिलाने का सपना साकार हो पाया है।’
हालात के साथ बदलता रहा हूनर
मूर्तियों की सप्लाई करने वाले चुनार मूर्ति व्यापार से जुड़े हुए कारोबारी बताते हैं कि, ‘लक्ष्मी गणेश की मूर्तियों का बाजार हर दिन बढ़ता जा रहा है। पूरे देश में अब इसकी डिमांड होती है। इसके लिए पूरे एक वर्ष काम भी किया जाता है। कई लोगों को रोजगार भी मिलता है। दिपावली के पहले सारी मूर्तियां बिक जाती हैं। बढ़ती डिमांड की वजह से उत्साह भी जगा है। कई यूनिट यहां पर लग चुकी हैं। यहां पर रहने वाले ज्यादातर लोग मूर्तियां बनाते हैं। इसी की बिक्री के सहारे अपना पूरा परिवार संचालित करते हुए आए हैं।’ लगभग, 20 करोड़ तक का कारोबार दिवाली के महीने में हो जाता है। पहले पॉटरी उद्योग का बोलबाला था, लेकिन ज्यादा लागत आने और सरकारी सहयोग नहीं होने के चलते यह उद्योग पूरी तरह से बंदी के कगार पर पहुंच गया है। जिससे व्यापारी और कारीगर बेरोजगार होते चले जा रहे थे। उसके विकल्प में प्लास्टर ऑफ पेरिस से लक्ष्मी गणेश की मूर्तियां बना रहे हैं। कई राज्यों से लोग यहां पर मूर्तियां खरीदने आते हैं, जो अपने जनपदों में ले जाकर बेचते हैं।
पत्थर, पॉटरी उद्योग और पर्यटन की नजर से समृद्ध है चुनार
मिर्ज़ापुर जनपद का चुनार तहसील क्षेत्र पत्थर कारोबार, पॉटरी उद्योग और पर्यटन की नजर से समृद्धशाली है। चंद्रकांता की प्रणेयस्थलीय चुनार का उल्लेख सुविख्यात उपन्यास ‘चंद्रकांता’ में चुनारगढ़ और चुनार किले के नाम से किया गया है। प्रसिद्ध उपन्यासकार देवकीनन्दन खत्री ने अपने उपन्यास ‘चंद्रकांता’ में चुनारगढ़ को ही केंद्र में रखा है।
इसके साथ ही यह इलाका पत्थर और पॉटरी उद्योग के लिए भी जाना-पहचाना जाता है। इसके बाद बारी आती है यहां के पर्यटन के दृष्टिकोण से रमणीक स्थलों की जिन्हें विकसित करने की जरूरत पर जोर देते हुए यहां के लोग बताते हैं कि, ‘पर्यटन की नजर से इस इलाके को विकसित करने और चुनार के पॉटरी उद्योग को भी पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में पर्यटन की असीम संभावनाएं है। चुनार का ऐतिहासिक किला जर्जर हो चुका है। अगर इसके रखरखाव पर विशेष ध्यान दिया जाए, उसे विकसित किया जाए तो यहां पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।
अनदेखी ने पछाड़ा
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में शुमार बुलंदशहर का खुर्जा तहसील क्षेत्र पॉटरी उद्योग के लिए विख्यात हो चुका है। एक समय था कि, देश ही नहीं विदेशों में चुनार के पाटरी उद्योग की धाक जमी हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे यह टूटटी हुई सिमटी गई। आज स्थिति यह है कि, खुर्जा पॉटरी उद्योग की क्रॉकरियां देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी प्रसिद्ध हैं। खुर्जा में बनने वाली क्रॉकरियों में हर तरह की वेरायटी देखने को मिलती है।
आंकड़ों पर गौर करें तब खुर्जा पॉटरी उद्योग का सालाना कारोबार लगभग 150 करोड़ रुपये का है। हालांकि, इसमें निर्यात कुल कारोबार का महज 10 से 15 फीसदी होता है। यहां बने मिट्टी के बर्तनों की अमेरिका, ब्राजील, अफ्रीकी और यूरोपीय देशों में भारी मांग है। 2017 और 2020 के बीच वार्षिक कारोबार 250-300 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। बुलंदशहर खुर्जा के लोग भी चुनार के पॉटरी उद्योग की सराहना करते हुए नहीं थकते हैं। खुर्जा की रहने वाली शिक्षिका नाजरीन बेगम चुनार के पाटरी उद्योग और यहां के मिट्टी के बर्तनों की चर्चा करते हुए बताती हैं कि, ‘बेशक इसमें कोई दो राय नहीं की खुर्जा के मुकाबले चुनार के मिट्टी के बर्तनों का कोई जोड़ नहीं है, हालात की वजह से चाहे जो भी स्थितियां उत्पन्न हुई हो, लेकिन पिछले 10 वर्षों पूर्व की चर्चा करते हुए वह बताती हैं कि, वह जब भी अपने मिर्जापुर ननिहाल आती थीं तब यहां के बने हुए मिट्टी के बर्तनों से लेकर अन्य सामानों को वह ले जाना नहीं भुलती थीं।’ आगे, वजह बताती है वह यहां की गुणवत्ता से लेकर अन्य किफायती वज़ह जिनसी लोकप्रियता को वह आज भी सराहने से नहीं चूकती हैं।
(कौशलेंद्र स्वतंत्र लेखक/पत्रकार हैं)