Saturday, July 27, 2024
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दलित साहित्य को नामदेव ढसाल जैसे सच बोलनेवालों की जरूरत (19 जुलाई, 2021 की डायरी)

दलित साहित्य की अबतक की उपलब्धियां बेहद खास रही हैं। मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि द्विजों के साहित्य के मुकाबले इसने अपने आपको खड़ा लिया है। एक प्रमाण के रूप में यह कि हंस जैसी राष्ट्रीय पत्रिका दलित विशेषांक निकालती है। वह भी एक नहीं, बल्कि दो-दो खंडों में। यह बेवजह […]

दलित साहित्य की अबतक की उपलब्धियां बेहद खास रही हैं। मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि द्विजों के साहित्य के मुकाबले इसने अपने आपको खड़ा लिया है। एक प्रमाण के रूप में यह कि हंस जैसी राष्ट्रीय पत्रिका दलित विशेषांक निकालती है। वह भी एक नहीं, बल्कि दो-दो खंडों में। यह बेवजह नहीं है। दलित साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है। कहना अतिश्योक्ति भी नहीं कि जितनी सक्रियता दलित लेखकों, साहित्यकारों और आलोचकों की है, ओबीसी साहित्य में उसकी आधी भी नहीं। ओबीसी साहित्यकारों के अपने फसाने हैं। ये फसाने इसलिए भी कि ओबीसी साहित्यकार स्वयं को दलितों से उपर द्विजों के बिल्कुल नीचे समझे जाने में गौरव का अनुभव करते हैं। ओबीसी साहित्य की यही सीमाएं उसे उबरने नहीं दे रही हैं।

खैर, कोई भी साहित्य अपने समाज का अनुसरण ही करता है। आज ओबीसी समाज की हालत ही ऐसी है। ऐसे में फिलहाल मुझे ओबीसी साहित्य से कोई खास अपेक्षा नहीं है।

पिछले तीन दिनों से मैं मराठी दलित कवि नामदेव ढसाल को पढ़ रहा हूं और मैं यह देख पा रहा हूं कि नामदेव उत्तर भारत के दलित कवियों से बिल्कुल अलग रहे। उत्तर भारत कहना संभवत: अतिश्योक्ति है। दरअसल, ये दिल्ली और इसके आसपास के लोग हैं। उनका पेशा क्या है, यह मेरे मनन का विषय नहीं रहा है। मेरे लिए उनकी रचनाएं महत्वपूर्ण रही हैं। फिर चाहे उनकी रचनाएं एकदम बकवास क्यों न हों।

[bs-quote quote=”ढसाल मूल रूप से कवि रहे। लेकिन वैसे कवि नहीं जैसे कि उत्तर भारत में कवि हुआ करते हैं। कहने का मतलब यह कि कवि का चोला ओढ़कर नहीं रहते थे ढसाल। न अपने व्यक्तिगत जीवन में और ना ही अपनी रचनाओं में। जातिगत भेदभाव के कारण शोषण और उत्पीड़न उनकी कविताओं के विषय थे, लेकिन ये उनकी सीमाएं नहीं थीं। ढसाल ने सहानुभूति बटोरने वाला साहित्य नहीं लिखा। उनकी कविताओं में पारदर्शिता थी। वे शब्द थे, जो स्लम में रहने वाले लोग बोलते हैं। वह भी बिना किसी आडंबर के और ऐसे भी नहीं जिससे लगे कि ये शब्द जबरदस्ती ठूंस दिए गए हों।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

एकदम सीधे तौर कहूं तो यह कि दिल्ली में कुछ ऐसे भी हैं जो साहित्य के नामपर कचरा फैलाते हैं, लेकिन उनका प्रभाव इतना है कि प्रतिष्ठित पत्रिकाएं उन्हें अतिथि संपादक का रूतबा भी दे देती हैं।

लेकिन दिल्ली से दूर जो अलग-अलग राज्यों में अपनी रचनाएं रच रहे हैं, भले ही रूतबा नहीं रखते लेकिन उनके साहित्य में वजन है। तीन-चार महीने से सोच रहा हूं कि दिल्ली से दूर रहने वाले इन साहित्यकारों की रचनाओं पर कुछ लिखूं। इसी क्रम में नामदेव ढसाल की किताबें इन दिनों मेरे सिरहाने हैं।

नामदेव ढसाल का जन्म 15 फरवरी, 1949 को महराष्ट्र के पुणे जिले के पूर नामक गांव में हुआ था। व बाद में अपने पिता लक्ष्मण ढसाल के साथ बंबई चले आए। लक्ष्मण ढसाल एक बूचड़खाने में काम करते थे। यहीं से नामदेव ढसाल के व्यक्तित्व का निर्माण शुरू हुआ। ढसाल दलित पैंथर आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में एक रहे। उनका निधन 15 जनवरी 2014 को हो गया।

ढसाल मूल रूप से कवि रहे। लेकिन वैसे कवि नहीं जैसे कि उत्तर भारत में कवि हुआ करते हैं। कहने का मतलब यह कि कवि का चोला ओढ़कर नहीं रहते थे ढसाल। न अपने व्यक्तिगत जीवन में और ना ही अपनी रचनाओं में। जातिगत भेदभाव के कारण शोषण और उत्पीड़न उनकी कविताओं के विषय थे, लेकिन ये उनकी सीमाएं नहीं थीं। ढसाल ने सहानुभूति बटोरने वाला साहित्य नहीं लिखा। उनकी कविताओं में पारदर्शिता थी। वे शब्द थे, जो स्लम में रहने वाले लोग बोलते हैं। वह भी बिना किसी आडंबर के और ऐसे भी नहीं जिससे लगे कि ये शब्द जबरदस्ती ठूंस दिए गए हों। यही ढसाल के साहित्य का सौंदर्य था। बिंबों के चयन में ढसाल हमेशा सावधानी बरतते थे। अपनी कविता उसके लिए में ढसाल लिखते हैं –

नरक में उसे माहवारी हुई

उसके गर्भाशय में चमचमाता बीज

दिल ही दिल में आसमान

कुढ़ते हुए इंसानों की भांति हो चला

फीका पीला-पीला सा

कोई लेना-देना नहीं होने पर भी

वह रास्ते से पाजेब की झंकार करते हुए चलते वक्त

जंतुओं की समस्त झुंड जाति ने

हजारों की संख्या में तोरण द्वार लगाए

झाड़ियां लगाई

ओवर फलो हो बहते गंदगी भरे गटरों

सीवनों ने दम लेकर

कमर हिलाकर उसके लिए

प्रार्थना की दुआ मांगी।

ढसाल अपनी कविताओं में कुछ भी छिपाना नहीं चाहते। यहां तक कि अपने अंदर का विद्रोह भी वे सबके सामने रख देते हैं। वह विद्रोह जो असल में उनकी पूंजी थी। एक कविता में वे कहते हैं –

भाग्य के वश में आकर परिवर्तन हो

अथवा न हो

दरिद्रता के स्वतंत्र खेत का मैं भी मालिक हूं

जिस पर हल चलाते, बुआई करते-करते दिन उगते हैं

रातें ढलती हैं

सदियां बीतती हैं।

कविताओं के जरिए ढसाल लोगों को स्पष्ट संदेश देते हैं और वह भी बिना किसी लाग-लपेट के। “इंसानों से” शीर्षक अपनी कविता में वे कहते हैं –

ईसा, पैगंबर, बुद्ध और विष्णु के वारिसों को

फांसी दें

मंदिर, चर्च, मस्जिद, सभी को

तोड़-मरोड़ कर रख दें

पंडों-पुजारियों को तोप के हवाले करें

उनके खून से सने रूमाल

शिलालेखों पर कुरेदकर रख दें।

ढसाल की एक और कविता नजीर है। शीर्षक है – हमारी गली से गुजरते हुए

ये महाज्ञानी लोग

घूम रहे हैं मशाल जलाकर

गली-नुक्कड़ों से बस्ती-मुहल्लों से

जहां चूहे तक भूखे मरते हों

हमारी झुग्गियों का अंधेरा

कहते हैं उन्हें ठीक से दिखायी नहीं देता

बेशर्मी हर सीमा को पार गयी है

जिन्हें अपने चूतड़ों के नीचे के

अंधेरों की समझ नहीं।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस मेन संपादक हैं

गाँव के लोग
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