ऐसे मिले लालबिहारी मृतक पहली बार
सन् 2003 की गर्मियों का कोई दिन था। आजमगढ़ कलेक्ट्रेट भवन के सामने अम्बेडकर पार्क के पास छाया में खड़ा किसी का इंतजार कर रहा था। मेरे बगल में एक प्रौढ़ सज्जन धोती-कुर्ता पहने, गमछे की पगड़ी बांधे, कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेचैन मनोदशा में खड़े थे। नजरें मिलीं, औपचारिकतावश बातचीत का क्रम जुड़ा, परिचय हुआ तो मैं थोड़े आश्चर्य और ढेर सारे कौतूहल के साथ बातचीत का क्रम आगे बढ़ाने को उत्सुक हुआ किन्तु वे कुछ जल्दी में थे, और हाथ मिलाते हुए कचहरी की तरफ निकल गए। लालबिहारी मृतक से यह पहली मुलाकात थी। हालांकि उनकी चर्चा वर्षों से सुन रहा था।
अखबारों में खबरों में या लोगों के मुंह से सुनी गई बातें, उनके उस पीड़ादायी संघर्ष को मनोरंजक घटना के रूप में पेश कर उनके जीवन संघर्ष की अहमियत और व्यवस्था के अन्याय की असलियत को ढँक देती थीं। बाद में उनसे लम्बी मुलाकात के बाद उनके भोगे गए त्रासद समय और संघर्ष की कथा सामने आयी। सन् 2003 में उन्हें हावर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका का ग्लोबल पुरस्कार मिला था। पहली मुलाकात में इसी पर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया था कि वह अमेरिका नहीं जा पायेंगे क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। लेकिन उन्हें खुशी है कि उनकी लड़ाई को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान और समर्थन मिला। लालबिहारी मृतक की लड़ाई भ्रष्ट सरकारी तंत्र और उसके सहयोग से गांवों में गरीब-बेसहारा लोगों की जमीन और सम्पत्ति हड़पने वाले दबंग लोगों के खिलाफ एक लम्बा अभियान है। अपने दुःख को सामाजिक संदर्भ देकर उसे एक व्यापक फलक पर लड़ाई का हथियार बना देने वाले लालबिहारी मृतक की अपनी कहानी दुःख, पीड़ा, अपमान और तिरस्कार की एक त्रासद कथा है। अपने भोगे गए दर्द के निषेध को एक जुझारू संघर्ष का रूप देने में लालबिहारी ने अपनी जिद और जिंदादिली को हथियार बनाया।
विकट संघर्षों में बीता जीवन
लालबिहारी का जन्म आजमगढ़ में संजरपुर के पास खलीलबाद गांव में 6 मई 1955 को एक दलित परिवार में हुआ था। 6-7 महीने की शिशु अवस्था में पिता चौथी राम की आकस्मिक मृत्यु से लालबिहारी के जीवन का विषम समय शुरू हो गया। माँ परमी देवी उन्हें लेकर उनके ननिहाल अमिलो, मुबारकपुर चली आयीं। मुबारकपुर बनारसी साड़ियों का बड़ा केन्द्र है। आज भले ही यह कारोबार मृतप्राय अवस्था में है किन्तु उस दौर में मुबारकपुर तथा उसके आसपास के गांवों में करघे पर बनारसी साड़ियों का कारोबार हजारों लोगों की रोजी-रोटी का जरिया था। लालबिहारी 8 वर्ष की उम्र से बुनकरी के काम में लग गए। 20-21 वर्ष की उम्र में अपना हथकरघा लगाने के लिए बैंक से लोन लेने गए, जहां उनसे खतौनी की नकल तथा पहचान पत्र मांगा गया। इसी बीच उनकी शादी हो चुकी थी लेकिन बच्चे शादी के 18 वर्ष बाद पैदा हुए। लालबिहारी जब खतौनी की नकल लेने सदर तहसील में लेखपाल के पास गए जो कि उन्हें पहले से जानता-पहचानता था लेकिन नकल मांगने पर पहचानने से इन्कार कर दिया। कारण समझने पर लालबिहारी के होश उड़ गए। लेखपाल की खतौनी में 30 जुलाई 1976 को मुकदमा नं. 298 न्यायालय नायब तहसीलदार सदर आजमगढ़ के आदेश में लालबिहारी को मृत घोषित कर उनकी जमीन चचेरे भाइयों के नाम दर्ज हो चुकी थी।
निराश लालबिहारी अब कचहरी के चक्कर लगाने लगे। अपना नाम फिर से दर्ज कराने के लिए वकीलों से गिड़गिड़ाते। वकील हंसते थे और मुर्दा आया, मुर्दा आया कहकर मजाक उड़ाते थे। मुकदमा करने की बात पर कोई ठोस आश्वासन नहीं देते क्योंकि ऐसे सैकड़ों मुर्दा लोग मुकदमा करके घूम रहे थे। लालबिहारी ने बताया ‘मैने समझ लिया कि जल्दी जिन्दा नहीं हो पाऊंगा, तहसील से शुरू कर सुप्रीम कोर्ट तक चलने वाली इस लड़ाई में जिन्दगी खत्म हो जाएगी। तब मैने स्वतः लड़ने की ठानी’।
इस प्रकार लालबिहारी ने एक अद्भुत तरीके की लोकतांत्रिक लड़ाई का सिलसिला शुरू किया। पहले मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक ज्ञापन और अखबारों में अपीलें देना शुरू किया। फिर कुछ अद्भुत तरीकों को भी अपनी लड़ाई में शामिल किया। अपने अस्तित्व को किसी भी तरीके से सिद्ध करने के लिए चचरे भाई का अपहरण किया लेकिन उनके खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं करायी गयी। उस गांव के बुजुर्ग ने कहा कि वह तो मुजरिम बनने के लिए ही यह सब कर रहा है। अन्ततः सातवें दिन कुछ मित्रों, शुभचिन्तकों के दबाव पर चचेरे भाई को घर पहुंचा दिया। अखबारों में चर्चाएं होने लगीं। 1984 में स्वतंत्र भारत में स्थानीय पत्रकार रामअवध यादव ने लालबिहारी की त्रासदी की कहानी को प्रकाशित किया। उसे पढ़कर जगदम्बिका पाल ने विधान परिषद में सवाल उठाया। विधायक श्यामलाल कन्नौजिया ने मृतक उपनाम जोड़ने की सलाह दी। अपने को जीवित सिद्ध करने के लिए लालबिहारी ने विविध तरीके अपनाए।
पत्नी के नाम से विधवा पेंशन के लिए आवेदन किया, कानूनगो ने आख्या में लिखा- प्रार्थिनी की मांग में सिन्दूर है। निजामाबाद थाने के एक नायब दरोगा से दफा 107 में हिरासत में लेने को कहा। पत्नी की हंसुली बेचकर 500 रुपए दरोगा को दिया। दरोगा ने थाने में बैठाये रखा तभी एक थाने का दलाल आया जिसने दरोगा को बता दिया कि यह आदमी दस्तावेज़ों में मर चुका है। कोई केस दर्ज़ हुआ तो जिंदा करना पड़ेगा। यह सुनकर दरोगा ने कहा ‘ऐसा है भइया, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ चले जाओ। मैं जिन्दा मुर्दों के बवाल में नहीं पड़ूंगा’। इस प्रकार वहां से भी मुर्दें को पहचान नहीं मिल सकी। इस प्रकार अब जीवन में संघर्ष एक स्थायी भाव बन चुका था। वह लगातार यह प्रयास कर रहे थे कि कहीं भी किसी भी तरह से उनका नाम सरकारी रिकार्ड में दर्ज हो जाए। विधानसभा के समक्ष भूख हड़ताल पर बैठे। बैनर लगाया- ‘राज्यपाल से बड़ा अधिकार लेखपाल का। लेखपाल, सेक्रेट्री व पुलिस के हाथ की आख्या ही सब कुछ है’।
सन् 1986 में विधानसभा के समक्ष धरना दिया। विधायक हफीज भारती के आवास पर रुके। विधानसभा में प्रवेश के लिए भारती जी ने पास दिलवाने से इन्कार कर दिया तो गोपालपुर विधायक काजी कलीमुर्रहमान ने पास बनवाया। चप्पल के अन्दर पर्चा छिपाकर विधानसभा में ले गए और दर्शक दीर्घा से पर्चा निकालकर सदन में फेंका और नारा लगाया- ‘मैं मुर्दा नहीं जिंदा हूँ। मेरी मांगे पूरी हों’। सदन की कार्यवाही चलने तक हिरासत में रखे गए लेकिन बाद में उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी। अखबारों में आया कि एक युवक द्वारा विधानसभा में हंगामा किया गया। इस प्रकार के कार्यों की एक लम्बी श्रृंखला है, जहां बस एक बार स्पष्ट पहचान पाने की लड़ाई ही सबके केन्द्र में है। राजीव गांधी और वी.पी. सिंह के खिलाफ चुनाव में उतरे। वी.पी. सिंह के खिलाफ लड़ते हुए हाईकोर्ट में एक चुनाव रिट भी दायर किया। रिट में स्वयं बहस करते हुए कहा- ‘मैं इस चुनाव में प्रत्याशी हूं, यदि मैं मृत हूं तो इस चुनाव को स्थगित किया जाए अन्यथा मुझे जिन्दा घोषित किया जाए’। बहस के दौरान जज से आपत्तिजनक भाषा एवं अपशब्दों का प्रयोग किया। जज चुपचाप सुनते रहे और- अपनी बात आगे कहो- का निर्देश देते हुए रिट खारिज कर दिया। लालबिहारी ने आजमगढ़ जिलाधिकारी को कचहरी में धक्का दे दिया। अब तो अधिकारी भी उनसे बचने लगे। उन्हें आता देख अधिकारी किनारे हो जाते। यह जीवित मुर्दा भ्रष्ट सरकारी तंत्र की उपज, उसके लिए आतंक का पर्याय बन चुका था।
इस प्रकार लड़ते झगड़ते लालबिहारी ने प्रतिरोध की एक नई इबारत लिखी। तत्कालीन जिलाधिकारी हौसिला प्रसाद वर्मा और मुख्य राजस्व अधिकारी श्री कृष्ण श्रीवास्तव के प्रयासों से अन्ततः 30 जून 1994 को वे सरकारी दस्तावेजों में जिंदा हो पाए। इसके बाद अपने जैसे ही हजारों पीड़ितों को न्याय दिलाने की लड़ाई को उन्होंने आगे बढ़ाया। टाइम पत्रिका में मीनाक्षी गांगुली ने एक आलेख दिया जिसमें न्यायपालिका की अवमानना के कारण हाईकोर्ट ने नोटिस जारी किया। साक्ष्य प्रस्तुत करने पर मामला 1999 में जनहित का बना।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उच्च न्यायालय के आदेश पर ऐसे जिंदा मृतकों को चिन्हित करते हुए 2009 तक करीब 500 से अधिक लोगों को जीवित दर्ज करने का आदेश दिया। यह लड़ाई अभी जारी है। इस काम में स्थानीय मीडिया के सहयोग को लालबिहारी मृतक ने कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया। इस लम्बी लड़ाई में पत्नी परमी देवी के योगदान की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि उनके सहयोग और प्रोत्साहन के बिना यह कठिन लड़ाई संभव ही नहीं थी। परिवार के लिए साधन जुटाना और इस संघर्ष को आगे बढ़ाना एक दुरूह कार्य था लेकिन पत्नी ने उनका भरपूर साथ दिया। बच्चों की परवरिश, शिक्षा-दीक्षा का समुचित ख्याल रखा। लालबिहारी मृतक जो संघर्ष और जुझारूपन के प्रतीक बन चुके हैं, अपने इस उल्लेखनीय कार्य को आगे बढ़ाने की दिशा में आज भी अथक लगे हैं और प्रतिरोध की एक जन-परंपरा के प्रतीक पुरूष के रूप में पहचान बना चुके हैं।
फिल्म में गलत चरित्रचित्रण और असंवैधानिक शब्दावली का उपयोग किया
लालबिहारी जी के संघर्ष को दिखाने के लिए उनके ऊपर सतीश कौशिक ने काग़ज फिल्म का निर्माण किया, जिसके बाद दुनिया उनके संघर्ष और सिस्टम की नाकामी से रूबरू हुई। यहां तक तो बात ठीक है, लेकिन लालबिहारी जी के अनुसार फिल्म में उनके असल व्यक्तित्व को बदल कर दिखाया गया है। साथ ही इस बायोग्राफी को लेकर उनके बीच जो भी पैसे तय हुए थे, उसका कुछ हिस्सा ही उन्हें मिला। बाकी का पैसा सतीश कौशिक ने उन्हें नहीं दिया और उन्हें ही लालची करार दिया।
लालबिहारी जी का कहना है कि कुछ पैसे उन्होंने मुझे दिए हैं लेकिन वह तो हमारे और उनके बीच की बात है, किसी दूसरे- तीसरे लोगों का बीच में आना उचित नहीं है। उन्होंने मुझे भाई बन कर ठगा, धोखा दिया, विश्वासघात किया है। एक तो सरकार ने हमें 18 साल तक मृत घोषित किया था। दूसरे फिल्म में भी हमारे साथ चीट किया गया, फ्रॉड किया गया है। देखिए जो फिल्म वाले हैं जनता भी परदे के हीरो को पसंद करती है, कलाकारों को पसंद करती है। लेकिन जो असली हीरो है वह पीड़ित व्यक्ति होता है। कभी उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता। सरकार भी ऐसे कलाकरों को राष्ट्रीय पुरस्कार देती है, लेकिन जो पीड़ित है उनको कुछ नहीं देती है।
बुनकर और किसान की जगह बैंडबाजा वाला बना डाला
सतीश कौशिक फिल्म में कुछ ऐसे शब्द का प्रयोग किए हैं जो जिसपर मुझे ऐतराज है। जैसे मैं एक बुनकर था। मैं किसान का बेटा हूं, लेकिन उन्होने न मुझे बुनकर बनाया न किसान बनाया बल्कि मुझे बैंडबाजा वाला बना दिया। दूसरी तरफ उन्होंने फिल्म में विधानसभा स्वाहा, न्यायपालिका स्वाहा का नारा लगाया था। तो यह भी गलत है कि एक राष्ट्र का अपमान हुआ, न्यायालय का अपमान हुआ, विधानसभा का अपमान हुआ। इस तरह से उन्होंने एक सम्प्रदाय पर कटाक्ष किया है। अछूत वाला भूत नहीं है हम। अछूत हैं, ऐसा कुछ कहा है तो यह कहने का मतलब उन्होंने गलत इस्तेमाल किया है। मैं देख रहा हूं जितने फिल्म बनाने वाले हैं डायरेक्टर हैं, हीरो हैं और जो लेखक है, सब बहुत धोखा देते हैं। जनता का खून चूसते हैं गुमराह करके उनकी कहानियां ले लेते हैं, उनको रॉयल्टी भी नहीं देते, कुछ नहीं करते हैं। और वह बेचारा जहां का तहां रह जाता है, और ये करोड़ो-अरबों रुपया कमाकर लाल हो जाते हैं।
परिश्रमिक के नाम पर ठगा सतीश कौशिक ने भी
सतीश कौशिक ने सिर्फ इतना ही नहीं किया है उन्होंने फिल्म में काम करने वाले कुछ मजदूरों की मजदूरी भी नहीं दिए हैं। उस फिल्म में मेरे बेटे ने भी काम किया है। उसका भी मेहनताना नहीं दिया, अब इसको लेकर हमारे पास कोई एग्रीमेंट भी नहीं है। फिल्म को लेकर जी भी एग्रीमेंट हुआ था वो इंग्लिश में है। हमलोग तो गांव वाले इंग्लिश जानते नहीं हैं, और गांव वाले इतना विश्वास रखते हैं किसी पर कि वो कब अंधविश्वास बन जाता है पता नहीं चलता है। आपका भाई हूं, आपका भाई हूं भाई बनकर के वो हमें ठग कर चले गए।
हमारी आर्थिक स्थिति तो अब भी सही नहीं है हम 1976 से अब -तक लड़ाई लड़ रहे हैं। मुबारक पुर में लगभग 35 बिस्सा जमीन बेचना पड़ा था, और उस समय लगभग 10 हजार रुपए बिस्से की जमीन थी। और वो जमीन आज हो गयी 22- 23 लाख बिस्से की। तो उस जमीन की पूरी कीमत निकाल लिया जाय तो लगभग 6 करोड़ की जमीन चली गई। और जो ज़मीन हमें प्राप्त हुई है, हमारे पैतृक जमीन, जहां हम मुर्दा थे, उसकी कीमत 6-7 लाख रुपया है। इसके अलावा मेरा बनारसी साड़ी का कारखाना बंद हो गया। कारोबार बंद हो गया, ज़मीन चली गयी। आर्थिक रूप से हम लोग टूट गए, शोषण हुआ अपमान हुआ और आज भी हमलोग लड़ ही रहे हैं। अभी तो कोर्ट हमारे पक्ष में कोई आदेश नहीं दिया कि हम जिंदा हैं कि मुर्दा हैं। ना हमारे पक्ष में कोई एक रुपया मुआवजा मिला है और ना हीं दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई है। वर्तमान में हमारे पास कोई रोजगार नहीं है। हमलोग कर्ज से डूबे हैं, सारी जमीन जायदाद बिक चुकी है। अब किसी तरह से मेरा बेटा एक एजेंसी से चला रहा है। उसी से घर का खर्चा निकलता है।