भारत के लोकप्रिय शायर प्रो वसीम बरेलवी का पूरा नाम ज़ाहिद हसन वसीम है। उनका जन्म 18 फरवरी 1940, बरेली, उ.प्र. में हुआ। उन्होंने एम॰ए॰ (उर्दू), आगरा विश्व विद्यालय – प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण किया और उर्दू विभाग, बरेली कालेज में व्याख्याता हो गए। वहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के रूप में सेवानिवृत्त हुये। उनकी महत्वपूर्ण कृतिया हैं तबस्सुम-ए-गम , आँसू मेरे दामन तेरा , मिजाज़, आँख आँसू हुई , मेरा क्या , आँखों आँखों रहे तथा मौसम अंदर बारह के। उन्हें साहित्यिक योगदान के लिए अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिल चुके हैं।
एक
ये है तो सबके लिए हो ये ज़िद हमारी है
इस एक बात पे दुनिया में जंग जारी है
उड़ान वालों उड़ानों पे वक्त भारी है
परों की अब की नहीं हौंसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के भी तूफाँ से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समुंदर की ज़िम्मेदारी है
इसी से जलते हैं सहरा-ए-आरज़ू में चराग
ये तिश्नगी तो मुझे ज़िंदगी से प्यारी है
कोई बताए ये उसके गुरूरे बेज़ा को
वो जंग मैंने लड़ी ही नहीं जो हारी है
हर एक साँस पे पहरा है बे-यकीनी का
ये ज़िंदगी तो नहीं मौत की सवारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये इक चराग कई आंधियों पे भारी है
दो
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-गम समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
खुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे जमाने कभी पूछकर नहीं आते
बिसात-ए-इश्क़ पे बढ़ना किसे नहीं आता
मगर हरेक को बचने के घर नहीं आते
‘वसीम’ ज़हन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
तीन
मैं आसमां पे बहुत देर रह नहीं सकता
मगर ये बात ज़मीं से तो कह नहीं सकता
किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रखूँ
सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता
यह आज़माने की फुर्सत तुझे कभी मिल जाये
मैं आँखों आँखों में क्या बात कह नहीं सकता
सहारा लेना ही पड़ता है मुझको दरया का
मैं एक क़तरा हूँ तन्हा तो बह नहीं सकता
लगा के देख ले जो भी हिसाब आता है
मुझे घटा के वह गिनती में रह नहीं सकता
ये चंद लम्हों की बेइख्तियारियाँ हैं ‘वसीम’
गुनह से रिश्ता बहुत देर रह नहीं सकता
चार
क्या दुख है समंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है तो खता इसमें तिरी क्या
हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता
प्यासे रह जाते हैं ज़माने के सवालात
किसके लिए ज़िंदा हूँ बता भी नहीं सकता
घर ढूंढ रहे हैं मिरा रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चरागों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो एक आँसू ही बहाकर मुझे ले जाये
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
पाँच
अपने साये को इतना समझाने दे
मुझ तक मेरे हिस्से की धूप आने दे
एक नज़र में कई ज़माने देखे तो
बूढ़ी आँखों की तस्वीर बनाने दे
बाबा दुनिया जीत के मैं दिखला दूँगा
अपनी नज़र से दूर तो मुझको जाने दे
मैं भी इस बाग का एक परिंदा हूँ
मेरी ही आवाज़ में मुझको गाने दे
फिर तो यह ऊंचा ही होता जाएगा
बचपन के हाथों में चाँद आ जाने दे
फ़सलें पाक जाएंगी तो खेत से बिछड़ेंगी
रोती आँख को प्यार कहाँ समझने दे
छह
मेरे गम को जो अपना बताते रहे
वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे
बारिशें आईं और फैसला कर गईं
लोग टूटी छतें आजमाते रहे
आँखें मंज़र हुईं कान नगमा हुये
घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे
शाम आई तो बिछुड़े हुये हमसफ़र
आंसुओं से इन आँखों में आते रहे
नन्हें बच्चों ने छू भी लिया चाँद को
बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे
दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था
फिर भी हम जाने क्यों सर बचाते रहे
शायरी ज़हर थी क्या करें ऐ ‘वसीम’
लोग पीते रहे हम पिलाते रहे
सात
तुमसे इलने को चेहरे बनाना पड़े
क्या दिखाएँ जो दिल भी दिखाना पड़े
ग़म के घर तक न जाने की कोशिश करो
जाने किस मोड़ पर मुस्कुराना पड़े
आग ऐसी लगाने से क्या फ़ायदा
जिसके शोलों को खुद ही बुझाना पड़े
कल का वादा न लो, कौन जाने कि कल
किस को चाहूँ किसे भूल जाना पड़े
खो न देना कहीं ठोंकरों का हिसाब
जाने किस-किस को रस्ता बताना पड़े
ऐसे बाज़ार में आए ही क्यूँ ‘वसीम’
अपनी बोली जहां खुद लगाना पड़े
आठ
शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
फिर वही तल्खी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी
नशे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं
इक जुदाई का वह लम्हा कि जो मरता ही नहीं
लोग कहते थे कि सब वक्त गुज़र जाते हैं
घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझसे अच्छी
रास्ता चलते हुये लोग ठहर जाते हैं
हम तो बेनाम इरादों के मुसाफिर हैं ‘वसीम’
कुछ पता हो तो बताएं कि किधर जाते हैं
नौ
अब कैसे यह सुलूक छिपाएं किसी से हम
पहचाने जा रहे हैं तेरी बेरुख़ी से हम
मजबूरीयों का शहर था बेगानगी का दौर
मिलता ही क्या जो माँगते अपनी खुशी से हम
जलते हुये मकान के मंज़र बताएँगे
क्या बात थी जो रूठ गए रौशनी से हम
उतरे हुये नशे की तरह क्या पता लगे
किस फ़ासले पे छूट गए ज़िंदगी से हम
रिश्तों को एहतियात की आंच चाहिए
देखा किए हैं तेरी तरफ़ दूर ही से हम
ख़ुद में वो लम्हा लम्हा तगय्युर है ऐ ‘वसीम’
मिलते हों जैसे रोज़ किसी अजनबी से हम
दस
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊंगा
कोई चिराग नहीं हूँ कि फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बेअमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता बता देना न उसे
लकीरें हाथ की अपनी वह सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊं उससे रिश्ता ‘वसीम’
मैं जानता हूँ वह जब चाहेगा बुलाएगा
वसीम बरेलवी प्रसिद्ध गज़लकार हैं