वाराणसी। उनकी उम्र भले ही 50 से 55 साल के बीच हो लेकिन वह अपना घर परिवार चलाने के लिए कुदाल, फावड़ा, हँसिया चलाने के लिए अभी भी तैयार हैं। लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि अब उन्हें पहले की तरह मनरेगा में काम नहीं मिल पा रहा है। बार-बार काम के लिए ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक के यहां चक्कर लगाते-लगाते थक हारकर वे अब काम मिलने की आस छोड़ चुकी हैं। इसी निराशा से उपजे गुस्से को वे रोक नहीं सकीं और बोली ‘जब से यह सरकार आई है, तब से धीरे-धीरे काम मिलना कम हो गया। पहले 80-90 दिन काम मिलता था और भुगतान भी हाथो-हाथ हो जाता था, लेकिन जब से मोदी आएं हैं और ऑनलाइन वाला सिस्टम चालू किया है, तब से पूरे साल भर में 10-15 दिन से ज्यादा काम नहीं मिला है। इधर बीच तो 7-8 महीने से कोई काम ही नहीं मिला। बार-बार रोजगार सेवक से काम की गुहार लगाती रहती हूँ, बावजूद इसके इन लोगों के कान पर जू तक नहीं रेंगती। एक तो महंगाई ने ऐसे ही कमर तोड़ दी है, ऊपर से काम न मिलना कंगाली में आटा गीला वाली बात हो गई है। यही नहीं, एक तो हम लोग औरत, ऊपर से दलित। ऐसे में हमारी बात कौन सुनेगा।’ यह कहानी है वाराणसी जिले के आराजी लाइन ब्लॉक के दीनदासपुर गांव की दलित बस्ती की रहने वाली सुग्गी देवी की। वे मनरेगा के तहत गांव में काम करके अपने घर का पालन-पोषण करती थीं, जिससे उनके घर-परिवार का खर्च आराम से निकल जाता था।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से काम ठीक से न मिल पाने की वजह से दो जून की रोटी के भी लाले पड़ गए हैं। सुग्गी आँखों में आँसू लिए भड़ास निकालने वाले अंदाज में कहती हैं ‘यह सब केवल मोदी कर रहे हैं। जब से मोदी की सरकार आई है, हम जैसे गरीब-दलित लोगों का जीवन-जीना दूभर हो गया है। कैसे अपना घर परिवार चलाया जाय, यही चिंता खाये जा रही है।’
वाराणसी जिला मुख्यालय से 9-10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित आराजीलाइन ब्लॉक के दीनदासपुर गांव में ऐसी तीन-चार दर्जन महिलाएं मिल जाएंगी जो मनरेगा के तहत काम करके पैसा कमाना तो चाहती हैं जिससे उनकी गृहस्थी की गाड़ी सरपट चल सके। दीनदासपुर गांव में सुग्गी के घर पहुँचते ही तीन दर्जन से अधिक महिलाएं आ धमकीं और मानरेगा की बाबत अपनी-अपनी व्यथा सुनाने लगीं।
गाँव में ऐसी 20-25 महिलाएं मिल गईं जिनका अभी तक जॉब कार्ड ही नहीं बना है। जबकि इतनी ही संख्या में ऐसी भी महिलाएं मिलीं जिनका जॉब कार्ड तो बना है पर उन्हें 7-8 महीने से कोई काम ही नहीं मिला। दीनदासपुर गाँव की प्रीति पटेल कहती हैं ‘जब रोजगार सेवक से काम मांगने जाओ तो कहते हैं तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है। तुम तो खुद ही ठीक-ठाक घर से हो। तुम्हारा पहनावा देखकर नहीं लगता है कि तुम्हें काम की जरूरत नहीं है। सवाल पूछने वाले अंदाज में प्रीति कहती हैं ‘जिसका पहनावा अच्छा हो क्या वह काम नहीं कर सकता या उसे काम की जरूरत नहीं है? मेरे पास भी बाल-बच्चे हैं। मेरा भी अपना परिवार है। मैं कुछ काम करके पैसा कमाना चाहती हूं। काम के चक्कर में पहले तो मैं ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक के यहां गई। मैंने उनसे जॉब कार्ड बनाने के साथ ही काम देने का निवेदन किया। वे लोग आजकल कहकर मामले को टालते गए। जब मैंने देखा कि इन लोगों के भरोसे मेरा काम नहीं होगा, तब मैंने खुद प्रयास करना शुरू किया और जल्द ही मेरा जॉब कार्ड बन गया। अब मैं इनसे काम के लिए कहने लगी तो पहले ग्राम प्रधान ने कहा कि मेरे पास काम नहीं, रोजगार सेवक के पास जाइए। जब मैं रोजगार सेवक सूर्यबली पाल के पास गई, तो वह उल्टा मुझ पर पिल पड़े और बोले ‘काम नहीं है तो क्या सड़क खुदवाऊं या अपना घर गिरवा दूं। कहिए तो किसी का खेत खनवा दूं।’ वह कहती हैं ‘मेरा भी अपना घर-परिवार है। बाल बच्चे और सास ससुर हैं। महंगाई का हाल तो आप सभी लोग जानते हैं। घर में एक व्यक्ति की कमाई से क्या होने वाला है। सोची थी, काम करके कुछ पैसे इकट्ठा कर लूँगी तो कम से कम दाल रोटी तो ठीक-ठाक से चल जाएगी। दूसरों से कर्ज तो नहीं लेना पड़ेगा। लेकिन इस सरकार के शासन में काम की उम्मीद करना तो बेमानी होगी।’
प्रीति के बगल में ही खड़ी सुनीता बीच में सबको शांत कराते हुए बोली ‘मेरी सास मुन्नी देवी के कार्ड पर ही मेरी फोटो लगाकर मेरा भी जॉब कार्ड बना दिया गया। अब मैं काम करूंगी तो मेरा पैसा सास-ससुर के खाते में जाएगा। फिर मेरे काम करने का क्या मतलब रह गया। मेरी तीन बेटियां हैं। मैं जो भी काम करती उसका पैसा मुझे मिलता तो मैं अपने बच्चों के लिए उसे बचा कर रखती। हालांकि अभी मुझे काम मिला ही नहीं है।’
इसी गांव की पूजा अपने दो कमरों वाले मकान में अपने दो बच्चों के साथ जीवन निर्वाह कर रही हैं। इनका अभी जॉब कार्ड ही नहीं बना है। यह चाहती तो हैं कि इनका जॉब कार्ड बन जाए और इसके लिए वह कई बार रोजगार सेवक से मिलीं भी लेकिन वह आजकल करके इन्हें भी टालता गया। बकौल पूजा ‘रोजगार सेवक से जब मैंने जब कार्ड बनवाने के लिए कहा तो उन्होंने अगले दिन आने की बात की । फिर अगले दिन गई तो नहीं मिले । इसके बाद अगले दिन गई तो बोले कल आएगा या परसों आएगा। जब मैं उनसे कई बार मिली तो वह एक दिन बोले तुम काम करके क्या करोगी। अभी काम नहीं है, जब काम होगा तो दे देंगे।’
वहीं पर महिलाओं की कतार में सबसे पीछे खड़ी निशा देवी सबकी बात बड़े ध्यान से सुन रही थीं, बोलीं ‘मैं भी कुछ कहना चाहती हूं मैं भी मनरेगा में काम करना चाहती हूं। काम मांगने के लिए रोजगार सेवक के पास गई तो बोले अभी तुम्हारा जॉब कार्ड नहीं बना है फिर काम कैसे मिलेगा। मैंने कहा मेरा जॉब कार्ड बना दीजिए, तो उन्होंने दूसरे दिन आने की बात कही। मैं बुलाए हुए दिन गई तो वह बोले कि आज मैं कहीं जा रहा हूं, किसी दूसरे दिन आना। इस तरह मैं कई बार उनके यहां गई लेकिन आज तक मेरा कार्ड नहीं बना। जब मेरा कार्ड ही नहीं बना है तो फिर मैं काम मांगने की हकदार ही नहीं हूं। मेरे पति लेबरगिरी का काम करते हैं। उनकी मजदूरी से घर का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाता है।’
इन महिलाओं के समूह से थोड़ी ही दूरी पर जमीन पर पड़ी आम की एक सूखी डाल पर बैठी संजू कहती हैं ‘रोजगार सेवक अपने चहेते लोगों का कार्ड तुरंत बनवा देता है। और उनको काम भी लगातार मिलता रहता है। जो लोग उसके करीबी नहीं होते हैं, उन लोगों का या तो कार्ड ही नहीं बनेगा या अगर कार्ड बन भी गया तो काम ही नहीं मिलेगा। मनरेगा में भी बड़ा खेल हो रहा है। उस खेल से बहुत सारे लोग परिचित हैं तो कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें इन सब के बारे में कुछ भी नहीं मालूम।’
महिलाओं के इसी समूह में बैठी रेशमा पटेल काम न मिलने की वजह से परेशान हैं। वह बोलीं ‘पहले तो खूब काम मिलता था। काम से अच्छी कमाई भी हो जाती थी। अब तो काम का सूखा पड़ गया है। रोजगार सेवक भी क्या करें सभी लोग तो काम मांग रहे हैं। वह किस-किस को काम दे। पहले लोग घर के बाहर शहर में काम करते थे। आज शहर में काम नहीं मिल रहा है तो लोग गांव में ही काम चाह रहे हैं। ऐसे में रोजगार सेवक किस-किस को काम दे?’
रेशमा की इस बात का करारा जवाब देती हुई सुनैना बोलीं ‘जितने भी लोग काम मांग रहे हैं सबको काम मिलना चाहिए। अगर जनता भूखों मरेगी तो ऐसी सरकार किस काम की। जनता के हाथ में सब कुछ है। जनता जनार्दन है तो सरकार है। जनता नहीं तो सरकार भी नहीं। सरकार किस प्रकार लोगों को काम देगी यह मेरी समस्या नहीं, यह समस्या सरकार की है। हमें तो बस काम चाहिए। हमें तो बस काम से मतलब है।’
महिलाओं की समस्याओं का कोई अंत नहीं जबकि इस बारे में रोजगार सेवक सूर्यबली पाल का कहना है ‘गांव की महिलाएं एक बार काम मांगने आती हैं और उसके बाद भूल जाती हैं। रही बात जॉब कार्ड की तो ये लोग फॉर्म भर करके देंगी तब ना मैं इन लोगों का जॉब कार्ड बनवाऊंगा।’
इसके बाद मेरी गाड़ी का चक्का काशीपुर खेउली गांव की पटेल बस्ती रुका। पटेल बस्ती की शकुंतला देवी अपनी पीड़ा बयान करते हुए कहती हैं कि ‘सात-आठ साल पहले 80-80 दिन काम मिलता था। मेरा जॉब कार्ड तो कट गया है जल्द ही नाम ठीक कर दिया जाएगा। जब से मेरा कार्ड काटा है तब से कोई काम नहीं मिल रहा। मेरी शकुंतला से बातचीत चल ही रही थी कि पटेल बस्ती की 15-20 महिलाएं आ गईं। शकुंतला देवी ने बातचीत के दौरान ही (पटेल बस्ती की महिलाओं की ओर इशारा करते हुए) कहा ‘इनमें से एक महिला को छोड़कर बाकी सभी का जॉब कार्ड कट चुका है।’
मनरेगा जॉब कार्ड के कट जाने से शिवराजी देवी की चिंताएं एक तरफ घर की खराब होती माली हालत तो दूसरी तरफ दो बेरोजगार नौजवान बेटों के अंदर घर करती निराशा को लेकर ज्यादा है। शिवराजी बोलीं ‘मनरेगा में काम मिलता तो कुछ पैसे कमाकर घर की माली हालत को ठीक करने की कोशिश करती और बच्चों का भी हौसला बढ़ाती, लेकिन यहां तो मैं खुद ही लकवा ग्रस्त हूं फिर बच्चों का हौसला कैसे बढ़ाऊं।’
शिवानी देवी की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि बीच में ही सुभाष पटेल कूद पड़े और बोले जॉब कार्ड बनवाने में इतनी मगजमारी है कि क्या बताऊं। फोटोकॉपी कराते-कराते बहुत लोग दूसरों के कर्जदार हो जा रहे हैं, लेकिन जॉब कार्ड नहीं बन पा रहा है।
शकुंतला और शिवानी के अलावा शीला, सोनी, सीता, कमला, राजकुमारी, जालंधर, धर्मपाल, पार्वती पाल जैसी अनेक महिलाओं का भी जॉब कार्ड अब कट चुका है।
कुछ ऐसी ही स्थिति आराजी लाइन ब्लॉक के संजोईं गांव की दलित बस्ती की प्रेमा की भी है। 50 वर्षीय प्रेमा मनरेगा में काम करके अपना घर परिवार चलाना चाहती हैं। उनके पास जॉब कार्ड है लेकिन काम ही नहीं मिल रहा। पूछने पर प्रेमा बताती हैं ‘पहले की तरह अब काम नहीं मिल रहा है। पहले जहां साल में 90 दिन काम मिल जाता था, अब 10 या 5 दिन ही बड़ा मुश्किल हो गया है। उसमें भी एक दो दिन का पैसा काटकर रोजगार सेवक कहेगा अगली बार काम करेंगी तो दे देंगे और फिर वह पैसा कभी नहीं मिलता। आप उसे पैसे का इंतजार करते रहिए। मेरा तो कभी भी पूरा पैसा नहीं मिला। बगल में बैठी मुनका बोलीं ‘अब तो मनरेगा में काम करने की इच्छा ही नहीं करती। कारण कभी भी पूरा पैसा नहीं देते। जितना काम करेंगे उसमें से दो-चार दिन का पैसा काट करके ही देते हैं। पूछने पर कहेंगे कि चलिए अगली बार काम करेंगी तो उसी में जोड़ करके दे देंगे लेकिन फिर कभी नहीं देते।
संजोईं गांव की सोनी सागर कहती हैं ‘अब तो मनरेगा में काम करने का मन ही नहीं करता जबकि मेरा कार्ड बना हुआ है। अब इसमें बहुत ज्यादा चोरी होने लगी है। जब से ऑनलाइन वाला सिस्टम चालू हुआ है, तब से चोरी और बढ़ गई है। गांव की जो महिलाएं मनरेगा में काम कर चुकी हैं, वह बताती हैं कि किसी का भी पूरा पैसा यह लोग अब नहीं देते हैं। इसीलिए तो मैं मनरेगा में काम करने के लिए बहुत जोर नहीं देती हूं। दूसरे के घर मेहनत मजदूरी कर लूंगी, लेकिन मनरेगा में काम नहीं करूंगी।’
सोनी की हां में हां मिलाते हुए सितारा कहती हैं ‘मैंने भी सुना है कि मनरेगा में जो भी काम करता है उसका पूरा पैसा उसे नहीं दिया जाता। दो-चार दिन का पैसा काट ही लिया जाता है। इसलिए काम करने से क्या फायदा, जब पूरा पैसा ही ना मिले।’
मनरेगा में काम न मिलने का एक मामला आराजी लाइन ब्लॉक के डीह गंजरी गांव का है। गांव के लोगों की शिकायत है कि मनरेगा के तहत उन्हें 10 से 15 तो किसी को साल भर में 5-6 ही दिन काम मिलता है। गांव की गीता कहती हैं ‘मैं तो मनरेगा में काम करके अपने घर परिवार को सुचारू रूप से चलाना चाहती हूं लेकिन काम ही नहीं मिलता। वहीं मीना सवाल पूछने वाले अंदाज में कहती हैं ‘बताइए अगर साल भर में किसी को चार-पाँच दिन काम मिल जाता है तो क्या इससे उसके परिवार का भरण- पोषण हो जाएगा। मनरेगा के पीछे भागने से तो अच्छा है कि कोई दूसरा ही काम क्यों न किया जाए।’
जब मैं इस गाँव से चलने को तैयार हुआ तो इतने में मेरे सामने सुनील कुमार आ गए और सवाल पूछने वाले अंदाज में बोले ‘क्या सरकारी लोगों को भी मनरेगा में जॉब करने का अधिकार है। यदि नहीं तो यह बताइए की गांव के रोजगार सेवक अवधेश कुमार के भाई मनरेगा में जॉब से क्यों पैसा पा रहे हैं। रोजगार सेवक के घर में तीन-चार लोग हैं और सभी लोग बिना काम किए ही पैसा पा रहे हैं। बताइए यह कहां का न्याय है? और जब हम लोग काम मांगने जाएंगे तो काम ही नहीं मिलता।
मनरेगा में काम करने वाले मजदूर यह हमेशा आरोप लगाते हैं कि जितने दिन उन्होंने काम किया है उतनी मजदूरी उन्हें नहीं मिल पाती है। ये गड़बड़ियां बड़े पैमाने पर हो रही हैं। इसका क्या कारण है? सवाल का जवाब देते हुए मनरेगा मजदूर यूनियन संगठन के अध्यक्ष सुरेश राठौर कहते हैं ‘जो रोजगार सेवक होता है उसके अपने बहुत सारे परिचित लोग होते हैं जो काम नहीं करते और मुफ्त में पैसा पाना चाहते हैं। तो ऐसे लोगों से रोजगार सेवक डील कर लेता है कि जितना भी पैसा मैं आपको दूंगा उसका आधा पैसा आप मुझे देंगे। इस प्रकार से वह अपने ऐसे मित्रों और परिचितों को साल में पूरे दिन का काम देता है। दूसरी बात यह है कि कोरोना के बाद से बहुत सारे लोग बेरोजगार हो गए हैं और यहीं गांव में ही अभी तक रह रहे हैं क्योंकि उन्हें बाहर काम नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में वे भी रोजगार की मांग कर रहे हैं। अब बचे हुए काम में से ऐसे लोगों को नाम मात्र का काम देखकर खानापूर्ति की जाती है। तीसरी बात यह है कि सरकार ने मनरेगा का बजट इस बार घटा दिया है। इस साल का मनरेगा बजट 60 हजार करोड़ है जबकि इसके पहले 72 हजार करोड़ का बजट था। इस प्रकार से हम देखते हैं कि सरकार लगातार मनरेगा का बजट कम करती जा रही है। वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो हमारे देश की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। लोगों को अपना घर-परिवार चलाने के लिए काम की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में जब बजट घटेगा तो लोगों के सामने काम की दिक्कतें तो आएंगी ही। आज इसमें पारदर्शिता भी लाने की भी जरूरत है, जिससे जो व्यक्ति जितना काम कर रहा है उसको उतने दिन की पूरी मजदूरी मिले।’ सरकार को सुझाव देते हुए सुरेश जी कहते हैं ‘सरकार को सबसे पहले तो मनरेगा का बजट बढ़ाना चाहिए। उसके बाद मनरेगा को बनारसी साड़ी से जोड़ना चाहिए इससे लोगों को काम भी मिलेगा और लोगों द्वारा तैयार किया हुआ माल विदेश में भी बिकेगा।’
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 का प्रारंभ 2 फरवरी 2003 को हुआ। दोनों सदनों में पारित होने के बाद इसने 25 अगस्त 2005 को कानून का रूप ले लिया था। उस दौरान इसे ‘नरेगा’ नाम दिया गया था, लेकिन 2 अक्टूबर 2009 को इसके बाद महात्मा गांधी का नाम जुड़ गया और तभी यह योजना का नाम नरेगा से मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005) पड़ गया। योजना का उद्देश्य गांव में ग्रामीणों को निश्चित रोजगार उपलब्ध कराना है। इसमें 100 दिनों के रोजगार की गारंटी दी जाती है। रोजगार न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा। लेकिन मनरेगा सौ दिन का निश्चित रोजगार उपलब्ध कराने में ही विफल नहीं हो रही है, बल्कि मनरेगा मजूदरों को समय पर मजदूरी भी नहीं दी जाती है।
डेक्कन हेराल्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, यह ध्यान दिया जा सकता है कि मनरेगा का बजटीय आबंटन सवालों के घेरे में आ गया है, क्योंकि इस वर्ष का आबंटन चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपये से 32 प्रतिशत कम था और 2020-21 के बजट अनुमान 1,11,500 करोड़ रुपये के आधे से थोड़ा अधिक था।
दूसरे शब्दों में इस वर्ष का आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.2 प्रतिशत से कम यानी अब तक का सबसे कम मनरेगा आबंटन है।इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार कहा गया है कि सितंबर तक योजना के तहत काम चुनने वाले व्यक्तियों की संख्या भी एक साल पहले की तुलना में 2023 में 4.6 प्रतिशत बढ़कर लगभग 19 करोड़ हो गई। इसके अलावा 15 करोड़ परिवारों ने पहली तिमाही में काम की मांग की, जो एक साल पहले की तुलना में 8.5 प्रतिशत अधिक है।
बहरहाल जो भी हो, एक बात तो तय है कि सरकार द्वारा लगातार मनरेगा का बजट कम करना इस बात का संकेत है कि सरकार इस योजना को ही बंद कर देना चाहती है। दूसरी तरफ दुख इस बात का भी है कि सरकार जो पैसा मनरेगा बजट के लिए दे रही है उसमें ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक की की मिलीभगत से सेंधमारी हो रही है। अभी यह देखना बाकी है कि यह सेंधमारी कब रुकती है और गरीबों की सुध सरकार कब लेती है।
राहुल यादव गाँव के लोग डॉट कॉम के उप-संपादक हैं।