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हिंदू राष्ट्र-पथ वाया प्रयाग-कुंभ : इस महामारी का इलाज क्या है?

एक सौ चौवालिस वर्ष बाद प्रयागराज में आयोजित होने वाला कुंभ 'हादसों का कुंभ' बना है, तो इस आयोजन के प्रबंधन की विफलता में शामिल सभी अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढकर उन्हें सजा दिए जाने की जरूरत है, क्योंकि उकसावेपूर्ण तरीके से लाए जा रहे तीर्थ यात्रियों के साथ इंसानों की तरह नहीं, जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है। कुंभ की यात्रा को संवेदनहीन रूप से मोक्ष और मौत की गारंटी बना दिया गया है। सत्ता में रहने का इससे घृणित तरीका और क्या हो सकता है? यदि यही हिन्दू राष्ट्र है, यदि यही विकसित भारत की ओर बढ़ने का रास्ता है, तो संघी गिरोह की इस परियोजना को अभी से 'गुडबाय-टाटा' कहने की जरूरत है।

यद्यपि ये महामारी नहीं है, फिर भी लोग पटापट मर रहे हैं, तो क्या यह महामारी से कम है! पता लगाईये, कभी किसी कुंभ मेले में इतने हादसे, इतनी दुर्घटनाएं नहीं हुई होंगी, इतनी भगदड़ और आगजनी नहीं हुए होंगे और कुल मिलाकर इतने लोग नहीं मरे होंगे, जितना इस बार हुआ है, आगे और होने वाला है। कल दिल्ली के रेलवे स्टेशन में मची भगदड़ में फिर कई हताहत हुए। सरकारी गिनती 18 पर आकर टिक गई है। इस सरकार ने पहले तो भगदड़ मचने से ही इंकार किया, इसके बाद इसमें किसी साजिश की खोज में जुट गई है। अपने कुप्रबंधन को छिपाने के लिए इतनी नंगी कोशिश इस देश की जनता ने पहले कभी नहीं देखी थी। हादसों के इस कुंभ में आगजनी और भगदड़ की कम से कम एक दर्जन घटनाएं हुई हैं और हताहतों की पूरी संख्या का उजागर होना बाकी है।
इसके पहले भी कुंभ के आयोजन हुए हैं। वे कुंभ भी विश्व के सबसे बड़े मेलों में शुमार किए गए हैं। लोगों ने अपनी आस्तिकता और धार्मिकता का प्रदर्शन किया है। लाखों की संख्या में लोग पूरे देश से, और हजारों की संख्या में विदेशों से भी, पहुंचे हैं और इक्का-दुक्का दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को छोड़कर सब कुछ शांतिपूर्ण ढंग से निबटा है। किसी कुंभ को ‘हादसों का कुंभ’ नहीं कहा गया।
पिछले दस सालों से हर त्यौहार और धार्मिक उत्सव का उपयोग संघी गिरोह द्वारा हिंदू उन्माद भड़काने के लिए किया गया है। ये निरंतरता में चलने वाला राजनैतिक प्रयोग है, ताकि सत्ता पर पकड़ को मजबूत से मजबूत किया जा सके। प्रयागराज का महाकुंभ भी एक धार्मिक आयोजन के चोले में राजनैतिक इवेंट बनकर रह गया है।
इस महाकुंभ के अनुभव से एक बात साफ हो जानी चाहिए कि धार्मिक उन्माद केवल विधर्मियों के खिलाफ ही नफरत नहीं फैलाता, केवल उन पर ही हमला नहीं करवाता, वह स्व-धर्मियों की जान का दुश्मन बनकर भी सामने आता है। इस बार का महाकुंभ, मोदी-योगी के राजनैतिक साए में, जिस तरह हिंदुओं की जान ले रहा है, वह हादसा या दुर्घटना कम, सुनियोजित हत्या की साजिश ज्यादा है। 144 वर्ष बाद प्रयागराज में आयोजित होने वाला कुंभ ‘हादसों का कुंभ’ बना है, तो इस आयोजन के प्रबंधन की विफलता में शामिल सभी अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढकर उन्हें सजा दिए जाने की जरूरत है, क्योंकि उकसावेपूर्ण तरीके से लाए जा रहे तीर्थ यात्रियों के साथ इंसानों की तरह नहीं, जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है। कुंभ की यात्रा को संवेदनहीन रूप से मोक्ष और मौत की गारंटी बना दिया गया है। सत्ता में रहने का इससे घृणित तरीका और क्या हो सकता है? यदि यही हिन्दू राष्ट्र है, यदि यही विकसित भारत की ओर बढ़ने का रास्ता है, तो संघी गिरोह की इस परियोजना को अभी से ‘गुडबाय-टाटा’ कहने की जरूरत है।
इससे पहले तक कुंभ इस महादेश की विविध संस्कृति और सभ्यताओं का मिलन स्थल था, हमारे देश की विविधता और बहुलता का प्रतीक था। इसका स्वरूप हिंदू धर्म के मेले तक कभी सीमित नहीं रहा। गंगा में मुस्लिम समुदाय के लोग भी उसी प्रकार डुबकी लगाकर पुण्य कमाते थे, जैसे हिंदू समुदाय के लोग मजारों में जाकर चादर चढ़ाकर दुआ मांगते हैं। आज भी मजारों, दरगाहों और मस्जिदों के दरवाजे हिंदुओं सहित दूसरे समुदायों के लोगों के लिए खुले हुए हैं, लेकिन मंदिरों के दरवाजे गैर-हिंदुओं के लिए, और हिंदुओं में भी गैर-सवर्णों के लिए बंद होते जा रहे हैं। हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता और सांप्रदायिक सद्भाव पर, भाईचारे पर नफ़रतियों की जो नजर लगी है, वह इस महादेश की समृद्धता और उसकी ताकत को ही नष्ट करने पर आमादा है। आज इस देश में तमाम विविधताओं को समेटने वाला, अनेकानेक ईश्वरों को मानने वाला, कई-कई धार्मिक ग्रंथों पर आस्था रखने वाला हिंदू धर्म, हिंदुत्व की गंदी राजनीति और उसके अमानवीय, असभ्य आचरण के कारण, खतरे में है।
प्रयाग-कुंभ भी नफरत की इसी राजनीति का शिकार है। इस कुंभ से पहले मुस्लिमों को बहिष्कृत किया गया, फिर गैर-सनातनियों को। बाकायदा इसकी घोषणा की गई। पग-पग पर मोदी-योगी के पोस्टरों और कट-आऊट के जरिए इसे राजनैतिक इवेंट में बदला गया, फिर इसमें हिन्दू राष्ट्र के संविधान के विमोचन के जरिए इसे संघी गिरोह के आयोजन में बदला गया और करोड़ों देशवासियों की संवैधानिक आस्था पर चोट पहुंचाई गई।
कुंभ में डुबकी लगाने वालों की संख्या के बढ़े-चढ़े दावे को सरकारी तौर पर प्रचारित किया गया है। इसके अनुसार, अभी तक लगभग 35 करोड़ लोग पुण्य कमा चुके है — याने इस देश में रहने वाला हर चौथा व्यक्ति डुबकी लगा चुका है। इस दावे की पोल खोलने के लिए इतना ही काफी होगा कि रैंडम तरीके से कुछ शहरों और गांवों के कुछ वार्डों का सर्वे कर लिया जाए, लेकिन इस कुंभ में इस बार अप्रत्याशित भीड़ आने से कोई इंकार नहीं कर सकता। पूरा सरकारी तंत्र और गोदी मीडिया यहां आकर पुण्य लूटने और परलोक सुधारने के प्रचार-प्रसार में जो जुटा है।
इसके पहले भी बड़ी संख्या में कुंभ में महाजुटान हुआ है, लेकिन लोग स्वतः स्फूर्त तरीके से आए थे, अपनी आस्थाओं के चलते, अपने आर्थिक हैसियत को देखकर, अपने संसाधनों को जुटाकर। इस स्थिति में मेला प्रबंधन पर भार भी कम पड़ता था। लेकिन इस बार का जमावड़ा सरकार और संघ प्रायोजित है, हिंदुत्व और उसकी ताकत का प्रदर्शन है। प्रचारित किया गया कि जो हिंदू है, वह इस कुंभ में डुबकी लगाने अवश्य आयेगा और जो हिंदू कुंभ में डुबकी नहीं लगाएगा, वह देशद्रोही है। इस प्रकार कुंभ को हिंदुत्व से और देशभक्ति से जोड़ने का जी-जान से प्रयास किया गया। पिछले दस सालों में संघी गिरोह ने जिन हिंदुओं को हिंदुत्व से जोड़ने का प्रयास किया है, अब उनके सामने कुंभ में डुबकी लगाकर अपने आपको हिन्दू और देशभक्त साबित करने की चुनौती थी। लेकिन इन गरीब और मासूम हिंदुओं के लिए न उचित संख्या में बसों का और न ही ट्रेनों का प्रबंध है, न मेला में रुकने-ठहरने-खाने का इंतजाम है। जब राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और पूरा मंत्रिमंडल और इस जनता पर ताकत आजमा रही पूरी प्रशासनिक मशीनरी वीआइपी बनकर पुण्य लूट रही हो, तो फिर कौन-सा प्रबंधन उनकी चिंता करें! नतीजे में जो होना था, वही हुआ, वहीं हो रहा है।
एक माह से लोग जानवरों की तरह सफर कर रहे हैं, मीलों पैदल चल रहे हैं, भूख और प्यास से तड़प रहे हैं, दबकर-कुचलकर मरने वालों की गिनती में आए बिना, मरने के लिए अभिशप्त है। हिंदू राष्ट्र की धर्म ध्वजा उठाए कथित साधुओं, पंडों और धर्म प्रचारकों में इतनी भी संवेदना नहीं बची है कि शोक संतप्त परिवारों को कुछ ढांढस ही बंधा दे, वे पीड़ित परिवारों को मोक्ष प्राप्ति का उत्सव मनाने का आह्वान कर रहे हैं। इस प्रकार, हिंदू राष्ट्र का महल वाया प्रयाग-कुंभ आस्थावान हिंदुओं की लाशों पर खड़ा किया जा रहा है। इस हिन्दू राष्ट्र के पास इस देश के लोगों को जिंदा रखने के लिए 5 किलो अनाज देने के सिवाय और कुछ नहीं है। न रोजगार है, न सम्मान है और न ही नागरिक अधिकार है देने के लिए। हादसों के इस कुंभ ने उन तमाम आबा-बाबाओं के प्रवचनों में हुए भगदड़ों को वैधता दी है, जिनमें पिछले कुछ सालों में हजारों लोगों की मौतें हुई हैं और उन्होंने इसे ईश्वरीय इच्छा बताकर इसे दबाने-छुपाने की कोशिश की है। सबको मालूम है कि ऐसी किसी भी घटना पर आज तक किसी बाबा या आयोजन-प्रबंधकों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई है। जिस प्रवचन में जितनी ज्यादा मौतें होती हैं, उस बाबा की ईश्वर तक उतनी ही ज्यादा पहुंच मानी जाती है।
ये वर्ष 2047 के विकसित भारत की परियोजना का उनका ट्रेलर है। इस परियोजना को आगे बढ़ाने में केवल एक ही बाधा है। और वह बाधा है इलाहाबाद, जो महाकुंभ से मुस्लिमों को बहिष्कृत किए जाने की घोषणा के बावजूद अपने हिन्दू भाई-बहनों-बच्चों की तीमारदारी में उठ खड़ा हुआ, पीड़ितों के लिए अपने घर और धर्म स्थलों के दरवाजे खोल दिए। तमाम कोशिशों के बावजूद संघी गिरोह इस गंगा-जमुनी संस्कृति को इलाहाबाद में नष्ट नहीं कर पाया। यह इलाहाबाद भारत की आत्मा है, जो केवल इलाहाबाद में नहीं, भारत के हर गांव, कस्बे और शहर में बसी है। यह आश्वस्त करती है कि जब तक इलाहाबाद जिंदा है, संघ-निर्मित मौतों के तांडव के बावजूद धर्मनिरपेक्ष भारत और उसकी बहुलतावादी संस्कृति जिंदा रहेगी। लेकिन इस संस्कृति को जिंदा रखने के लिए भी अब जरूरी है कि आम जनता में विवेक और तर्कशीलता की, मानवीय संवेदना और सद्भाव की भावना जगाने के साथ ही हिंदुत्व की घृणित और अमानवीय राजनीति का पर्दाफाश किया जाए, जिन मूल्यों के साथ हमने अपने इस देश की स्थापना की है, उन मूल्यों को पुनर्जीवित किया जाएं, उसे मजबूत बनाया जाएं। एक धर्मनिरपेक्ष, गणतांत्रिक राज्य के रूप में हमारे अस्तित्व की यह पहली शर्त है।
संजय पराते
संजय पराते
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

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