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बुद्ध की हड़पी गई विरासत पर प्रगतिशील इतिहासकारों की चुप्पी ने देश को हिन्दू फ़ासीवाद का तोहफा दिया

बीसवीं सदी के नौवें दशक में भारत में दो ऐसे आंदोलन हुए जिन्होंने देश की राजनीति की दशा हमेशा के लिये बदल दी।  वे थे मंडल और कमंडल। वीपी सिंह के नेतृत्व में मंडल आंदोलन सामाजिक न्याय पर आधारित था जबकि कमंडल यानी रामजन्मभूमि मंदिर आंदोलन ने बहुसंख्यक हिंदुओं की भावनाओं को भड़काया। इसका प्रभाव जनमानस […]

बीसवीं सदी के नौवें दशक में भारत में दो ऐसे आंदोलन हुए जिन्होंने देश की राजनीति की दशा हमेशा के लिये बदल दी।  वे थे मंडल और कमंडल। वीपी सिंह के नेतृत्व में मंडल आंदोलन सामाजिक न्याय पर आधारित था जबकि कमंडल यानी रामजन्मभूमि मंदिर आंदोलन ने बहुसंख्यक हिंदुओं की भावनाओं को भड़काया। इसका प्रभाव जनमानस पर मंडल आंदोलन से कहीं ज्यादा हुआ। यहाँ तक कि ओबीसी समुदाय ने अपने आरक्षण के मुद्दे को भुला कर राम मंदिर के लिये हद से अधिक कुर्बानी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस आंदोलन के समर्थक, अपने पोंगापंथी दक्षिणपंथी धार्मिक आवरण के बावजूद, एक तार्किक बात कहते थे कि उनका आंदोलन एक ऐतिहासिक ग़लती को सुधारने के लिए है। उनका कहना था कि मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों ने राम के जन्मस्थान सहित अनेक हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया था। फिर भला आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य में इस ऐतिहासिक अन्याय को हटाकर इन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने में क्या समस्या है?

इस बात पर कुछ उदारवादियों, धर्मनिरपेक्षतावादियों और प्रगतिवादियों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ दी। उनका कहना है कि ऐतिहासिक मिथकों और इतिहास की जड़ें खोदने से बेहतर होगा कि यथास्थिति को बनाए रखा जाए। वहीं इसके जवाब में कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने बहुत से मुस्लिम शासकों को उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश की। उन्होंने सामान्य मान्यता के विरुद्ध औरंगज़ेब को एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष सम्राट के रूप में दिखाने की कोशिश की जो हिंदू मंदिरों को अनुदान दिया करता था। ऐसा कहा जाता है कि उज्जैन में भी एक ऐसा मंदिर है जिसके लिये औरंगजेब वार्षिक अनुदान दिया करता था। इससे पहले मुगल सम्राट अकबर के दीन-ए-इलाही और अन्य धर्मनिरपेक्ष प्रयासों का भी मुख्यधारा के इतिहास में खासा प्रचार हुआ है।

किंतु हिंदू राष्ट्रवादियों के आरोपों, कि हिंदू मंदिरों पर मुसलमान शासकों और आक्रमणकारियों ने हमले किये, पर अमूमन प्रगतिशील तबके ने चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। नतीजतन देश की अधिकांश जनता और बुद्धिजीवी इस आरोप को सही मानने लगे। अपने एक आलेख में, न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू[1] ने इस आरोप को स्वीकार किया, वे लिखते हैं ‘यह सच है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा कई हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था, और उनके स्थानों पर मस्जिदें बनाई गईं, कभी-कभी मंदिर की सामग्री का उपयोग भी किया गया। वे कहते हैं कि दिल्ली में कुतुब मीनार के पास कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद में हिंदू नक्काशी वाले खंभे हैं, या वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, जिसकी पिछली दीवार पर हिंदू नक्काशी है, या जौनपुर में अटाला देवी मस्जिद। लेकिन अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि अब सोचने की बात है कि क्या भारत को आगे बढ़ना है, या अतीत की बातों में पड़े रहना है? ठीक है कि आज किसी हिंदू मंदिर को अवैध रूप से तोड़कर मस्जिद में बदल दिया जाए तो उसका विरोध ज़रूर होना चाहिये। लेकिन अगर यह काम कथित तौर पर 500 साल पहले किया गया था, तो ऐसी संरचना को वापस उसके हिंदू मूल में बहाल करने का क्या कोई मतलब होगा?’

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कुल मिलाकर अपने इस प्रयास में जस्टिस काटजू, दक्षिणपंथी मान्यता की तस्दीक करते हुए धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते नज़र आते हैं। किंतु इसके ठीक विपरीत, दलित-बहुजन विमर्श, अपने तर्कों में कभी भी रक्षात्मक नहीं रहा है, बल्कि वे दक्षिणपंथ के खिलाफ शुरू से ही आक्रामक रहा है। जोतिबा फुले ने अपनी गुलामगिरी और अन्य जगहों पर दिखाया कि कैसे ब्राह्मण आक्रमणकारियों ने मूलनिवासी जनता पर हिंसक हमला किया, उनकी जमीन हड़प ली और उन्हें शूद्र और अति-शूद्र का नाम देकर स्थायी गुलाम बना दिया। डॉ. अम्बेडकर ने अपने अध्ययन में प्राचीन भारत में सांप्रदायिक हिंसा की खोज की और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच एक स्थायी संघर्ष के अलावा और कुछ नहीं है। उन्होंने यह भी दिखाने का सफल प्रयास किया कि कैसे ब्राह्मणधर्मियों ने बौद्धों के खिलाफ कई हिंसक सांप्रदायिक हमले करते हुए बुद्ध के धर्म को अपने जन्म स्थान से विलुप्त कर डाला।

अब, जब पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मंदिर निर्माण के लिये इस स्थल पर खुदाई हुई तो एक बार फिर छिपा हुआ इतिहास का झरोखा खुल गया और यहाँ बौद्ध अवशेष सामने आ गये।

यहाँ इस बात का ज़िक्र करना दिलचस्प होगा कि कुछ साल पहले भाजपा के नेतृत्व वाली हरियाणा सरकार ने अपने राज्य में उस सरस्वती नदी को खोजने में जान लगा दी थी, जिसका ज़मीन पर कुछ अता-पता नहीं है बस पुराणों में उल्लेख भर है लेकिन दुख की बात है कि आज कोई भी ऐसा भारतीय इतिहासकार नहीं जो बौद्ध धर्मग्रंथों के आधार पर भारत के इतिहास का पता लगा सके। यह कार्य ब्रिटिश पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम ने किया था, जिन्होंने चीनी यात्रियों के लेखन और अन्य बौद्ध अभिलेखों के माध्यम से भारत के अतीत का पता लगाने में सफलता हासिल की। उन्होंने चीनी यात्री जुआनज़ैंग (ह्वेनसांग) द्वारा उल्लेखित स्थलों का पता लगाने के लिए कड़ी मेहनत की। कनिंघम ने अपने अध्ययन में पाया कि वर्तमान अयोध्या शहर को मूल रूप से साकेत कहा जाता था। बौद्ध ग्रंथों में इसके लिये बेहद आदर है और इसका उल्लेख जुआनज़ैंग (ह्वेनसांग)और फैक्सियन (फाहियान) ने अपने यात्रा-वृतांतों में किया है। जुआनज़ैंग (ह्वेनसांग) के अनुसार, बुद्ध ने इस शहर में अपने जीवन के छह साल बिताए थे। साकेत, प्रसिद्ध बौद्ध उपासिका विशाखा का मायका भी था। वह पुरन वर्धन से विवाह से पहले इसी शहर की निवासी थीं। बुद्ध से साकेत के इस रिश्ते के फलस्वरूप इसने महान सम्राट अशोक का ध्यान आकर्षित किया।[2]

अशोक ने साकेत में 200 फीट ऊँचा स्तूप बनवाया जो एक लंबी कालावधि तक सुरक्षित रहा था। इसका वर्णन ज़ुएनज़ांग (ह्वेनसांग) ने किया था। उन्होंने एक और मठ को भी देखा था जिसकी पहचान कनिंघम द्वारा कालकादर्मा या पूर्ववद्र्मा के रूप में की गई है। ये मठ आज मणि पर्वत के मलबे के नीचे दब कर खो गए हैं। लेकिन क्या यह स्वाभाविक रूप से हुआ? बिल्कुल नहीं।  हालांकि इस बारे में कनिंघम को ब्राहम्णों ने बताया कि यह पहाड़ यहाँ वानर राजा सुग्रीव की  गलती का परिणाम है। उसने गलती से मणि पर्वत को इस स्थान पर गिरा दिया था। यह वह पर्वत है जिसका उपयोग वानरों ने राम की सहायता के लिए किया था। लेकिन सच्चाई यह है कि यह जानकारी इस स्थल को राम के मिथक से जोड़ने का एक कुत्सित ब्राह्मणवादी प्रयास मात्र है। इस कल्पित कहानी का दूसरा पक्ष कनिंघम को साधारण स्थानीय लोगों से मिला, जिन्होंने उन्हें बताया कि यह टीला रामकोट के मंदिर का निर्माण करते वक्त घर लौटते हुए मजदूरों द्वारा हर शाम को इस स्थान पर अपनी टोकरियाँ खाली करने के कारण से हुआ। यही कारण है कि आज भी इस स्थान को ‘झोवा झार’ या ‘ओरा झार’ कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘टोकरी खाली करना’। यानी राम के मंदिर को बनाते वक्त जमीन की खुदाई के मलबे से इस बौद्ध स्तूप को ढंक दिया गया। इसमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए कि यह जानबूझकर किया गया था ताकि बौद्ध स्थल इस मलबे में हमेशा के लिये ढंक जाए। कनिंघम को बाद में पता चला कि किसी बौद्ध स्थल को ढांकने का यह पहला प्रयास नहीं है बल्कि ठीक यही हरकत बनारस, निमसार और अन्य बौद्ध स्थलों को टीले के नीचे ढांक कर पहले ही की जा चुकी थी.[3]

दरअसल, जैसा बाबासाहेब ने कहा है कि भारत का इतिहास बौद्ध और ब्राह्मणवाद के सतत संघर्ष के सिवाय कुछ नहीं।  ठीक यही साकेत में हुआ। ब्राह्मणवादी ताकतों ने यहाँ अपना अधिकार करने के लिये शताब्दियों तक चलने वाला एक लम्बा और षड्यंत्रपूर्ण संघर्ष किया, जिससे न सिर्फ इस नगर की धार्मिक पहचान खो गई बल्कि इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया गया था। वैसे, साकेत पर पहला बड़ा हमला एक ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंग द्वारा मगध साम्राज्य पर कब्ज़ा करने के साथ हुआ था, जिसने अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की सरेआम नृशंस हत्या कर बौद्धों के खिलाफ खूनी सांप्रदायिक अभियान शुरू किया था। उसके द्वारा अनेक बौद्ध विहार, जो उस काल में आमजन की शिक्षा के केंद्र थे, नष्ट कर दिये गए। साथ ही भिक्षुओं का भी इस हद तक कत्ले आम किया गया कि कुछ बौद्धों को अपनी जान बचाकर विदेश भागने पर मज़बूर होना पडा। इस नृशंस हिंसा को प्रतिक्रांति की संज्ञा देते हुए डॉ. अंबेडकर लिखते हैं, ‘पुष्यमित्र द्वारा बौद्ध धर्म का उत्पीड़न कितना क्रूर था, इसका अंदाजा उस उद्घोषणा से लगाया जा सकता है जो उसने बौद्ध भिक्षुओं के खिलाफ जारी की थी। इस उद्घोषणा के द्वारा पुष्यमित्र ने प्रत्येक बौद्ध भिक्षु के सिर पर 100 सोने की मोहरें रखने का मूल्य निर्धारित किया।’ उन्होंने हरप्रसाद शास्त्री को भी उद्धृत किया, जिन्होंने कहा था, ‘रूढ़िवादी और कट्टर शुंगों के शाही प्रभुत्व के तहत बौद्धों की स्थिति का वर्णन करने से कहीं अधिक आसानी से कल्पना की जा सकती है। चीनी अभी भी गाली के बिना पुष्यमित्र का नाम नहीं लेते हैं।’

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हालाँकि, अपनी आदत के अनुसार मुख्यधारा के इतिहासकार इतनी भीषण घटना को भी ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते हैं, किंतु बौद्ध विद्वान आज भी इस घटना को बहुत दुःख के साथ याद करते हैं। उन्होंने इस व्यापक सांप्रदायिक हिंसा के अवशेषों का पता लगाने में काफी मशक्कत की है। इस क्रूर कृत्य के जीवित साक्ष्यों को खोजते हुए बौद्धचार्य शांति स्वरूप बौद्ध कहते हैं कि ‘यह सब जानते ही हैं कि वर्तमान अयोध्या के निकट बहने वाली नदी को सरयू के नाम से जाना जाता है। लेकिन शहर तक पहुंचने से पहले और इसे पार करने के बाद इसे गंडक कहा जाता है। उनका सवाल है कि इस सीमित भौगोलिक क्षेत्र में इस नदी ने अपना नाम कैसे बदल लिया? इसे डिकोड करते हुए वे कहते हैं कि पालि भाषा के साथ-साथ अनेक स्थानीय भाषाओं में ‘सर’ का अर्थ ‘सिर’ है। इस सुराग को पकड़ते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पुष्यमित्र शुंग ने लोगों को बौद्ध भिक्षुओं और जनता का सिर काटने का आदेश दिया था। यह सांप्रदायिक हमला इतना वीभत्स और तीक्ष्ण था तब कि गंडक नदी का तट बौद्धों के सिरों से भर गया था। इसके बाद इस सीमित भौगोलिक क्षेत्र में नदी के इस हिस्से को सरयू (सिरों से भरा) कहा जाने लगा। इतना ही नहीं, अपनी बात को आगे बढाते हुए वे एक दिलचस्प बात बताते हैं कि उत्तर प्रदेश की वर्तमान योगी सरकार ने घाघरा नदी का नाम बदलकर सरयू करने का प्रस्ताव पारित किया है। जाहिर है यह उस सांप्रदायिक हिंसा के निशान मिटाने की कोशिश है। वैसे भी आश्चर्य की बात नहीं कि योगी ऐतिहासिक महत्व के शहरों का नाम बदलने की सदियों पुरानी ब्राह्मणवादी रणनीति का ही पालन कर रहे हैं।

हालाँकि, ऐसा नहीं कि बौद्धो पर केवल शुंगों का द्वारा ही हमला किया गया। बल्कि यह एक पहला व्यापक स्तर का हमला था, और इसके बाद की सदियों में भी बौद्धों ने अनेक भीषण साम्प्रदायिक हमलों को झेला है। यह सच है कि शुंग की इतनी आक्रामक कोशिश भी भारत से बौद्ध धर्म का खात्मा करने में विफल रही। लेकिन बाद की शताब्दियां भी बौद्ध धर्म के लिये अनुकूल नहीं थी। यह सर्वविदित है कि हूणों (छठी शताब्दी) और शकों (सातवीं शताब्दी) जैसे राजाओं ने बौद्धों के खिलाफ समान सांप्रदायिक हमले में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर भी गौरतलब है कि तब के समाज में बौद्ध धर्म, संस्कृति और सभ्यता में इतनी गहरी जड़ें जमा चुका था कि ऐसे सांप्रदायिक हमलों के बावजूद भी खत्म नहीं हो पा रहा  था। द्विज इतिहासकारों ने इस पक्ष को भी सिरे से नजरअंदाज किया है। लेकिन आधुनिक लेखकों में  मुद्राराक्षस[4] और गेल ओमवेट[5] ने इस पक्ष को उजागर किया था।

दरअसल, उस समय ब्राह्मणों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि उस समय उनके धर्म में ऐसा कोई देवता नहीं हुआ था जिसे वे बुद्ध के मुकाबले खड़ा कर सकें। बुद्ध की व्यापक लोकप्रियता के आगे तमाम वैदिक देवता बौने थे। इसलिए, बौद्ध स्थलों के विनाशऔर बौद्ध बुद्धिजीवियों और जनता की हत्याओं के बावज़ूद वे आमजनों के मन से बुद्ध के प्रभाव को नहीं हटा पाए। अब तक समाज में ब्राह्मणवाद अपना केवल उग्रवादी प्रभुत्व सिद्ध कर पाया था, उसकी सामाजिक स्वीकार्यता अभी सिद्ध होनी बाकी थी।

इसलिए, सामाजिक श्रेष्ठता और जन स्वीकार्यता का दावा करने के प्रयास में, उन्होंने नई रणनीति तैयार की। बुद्ध का मुकाबला करने के लिए एक केंद्रीय छवि बनाने के लिए उन्होंने साकेत में राम की किंवदंती बनाई और बुद्ध के अवशेष को भुलाने के प्रयास में उन्होने इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया गया। ठीक इसी तर्ज पर एक और भगवान कृष्ण को गढ़ा गया और उन्हें एक अन्य मशहूर बौद्ध शहर मथुरा से जोड़ दिया गया।

साकेत में राम का कृत्रिम इतिहास रचने में एक ब्राह्मणवादी राजा विक्रमादित्य, जिसका असली नाम स्कंदगुप्त था जिसने 455-467 ई तक शासन किया, ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने बड़े शरारतपूर्ण तरीके से अशोक का अनुसरण किया। जिस तरह अपने शासनकाल में अशोक ने बुद्ध से संबंधित सभी स्थलों को पुनर्जीवित किया था। ठीक यही काम विक्रमादित्य ने भी किया। फर्क इतना था कि उसका यह कार्य अशोक की तरह इतिहास पर आधारित नहीं बल्कि झूठा इतिहास ग़ढने का कुत्सित प्रयास था। उसने साकेत शहर, जो पहले ही शुंग की प्रतिक्रांति के दौरान अपना नाम मूल नाम खोकर अयोध्या कहलाने लगा था, को राम के रंग से भर दिया और बौद्ध पहचान छिपाने के लिए यहाँ के तीन महान स्तूपों का नाम बदलकर मणि पर्वत, कुबेर पर्वत और सुग्रीव पर्वत कर दिया गया। हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि कैसे रामकोट के एक मंदिर के निर्माण ने बौद्ध स्थल को ज़मीन की मिट्टी के मलबे के नीचे छिपा दिया था। यहाँ राम के साथ संबंध को दर्शाते हुए कई और मंदिरों का निर्माण किया गया। पूरे भारत में 84,000 स्तूप बनवाने वाले अशोक से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश में विक्रमादित्य ने अकेले अयोध्या में 360 राम मंदिर बनवाए। हालाँकि, उस समय यह रणनीति भी ज्यादा असर डालने में नाकाम रही। इसका कारण यह था कि उस समय तक राम की कथा को कोई लोकप्रियता हासिल नहीं हुई थी। आम लोगों में तब ब्राह्मणी तीर्थस्थलों पर जाने की आदत भी विकसित नहीं हुई थी। वे स्तूपों पर जाकर अपनी पूजा किया करते थे। स्तूप पूजा तब आमजनों के बीच खासी प्रचलित थी। ऐसे में भला राम मंदिरो में कौन जानता? परिणामस्वरूप, बिना भक्तों के मंदिरों की हालत समय के साथ जर्जर हो गई और विक्रमादित्य का यह प्रयास अपने आप ही नष्ट हो गया।

अलेक्जेंडर कनिंघम का मानना है कि ‘सातवीं शताब्दी तक विक्रमादित्य के बनाये तीन सौ से अधिक मूल मंदिर पहले ही गायब हो चुके थे। जबकि, तब भी कुछ बौद्ध स्मारक अच्छी हालात में थे। इतना ही नहीं, बौद्ध भिक्षु भी यहाँ बड़ी संख्या में प्रसिद्ध बौद्ध शहर बनारस की तरह रहते थे।’

अपने धर्म को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में ब्राह्मणों की लगातार विफलता ने अंततः उन्हें इसमें क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए मजबूर कर दिया। जैसा कि हमने पहल ही कहा उस समय ब्राह्मणवाद में सबसे बड़ी खामी यह थी कि वह बहुदेववादी धर्म था, इसलिये इसमें कोई ऐसा एक देवता नहीं था जिसे बुद्ध के मुकाबले में खड़ा किया जा सके, जो पूरे भारत में जनता के द्वारा स्वीकृत और सम्मानित हो सके। हालांकि हमने देखा कि उन्होंने राम को अयोध्या में स्थापित करने की कोशिश की थी किंतु वह समय के साथ इतना कमज़ोर पात्र सिद्ध हुआ कि बुद्ध का मुकाबला करने में बुरी तरह विफल हुआ।

ब्राह्मणवादी धर्म की दूसरी बाधा उनका पारंपरिक यज्ञ अनुष्ठान था जिसमें जानवरों, विशेषकर गायों और बैलों की सामूहिक हत्या की जाती थी। यज्ञ का यह तरीका केवल ब्राह्मणों के लिए फायदेमंद साबित होता था जो मेहनतकश जनता से प्राप्त अधिशेष का आनंद ले रहे थे किंतु कृषक समुदाय के लिए यह महंगा साबित हो रहा था। उन्हें पशु बलि, खासकर बैल और गाय की, बिल्कुल गलत लगती थीं, क्योंकि खेती पर आधारित मेहनतकश समुदाय के लिये वे एक उपयोगी सम्पदा थे। इसलिये वे किसी भी कीमत पर इनकी बलि को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। इन कारणों ने ब्राह्मणवाद को जन समुदाय में पैर पसारने नहीं दिया।

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अपनी इस विफलता ने अंततः उन्हें बौद्ध धर्म का अनुकरण करने के लिए मजबूर किया। हालाँकि, मूल बौद्ध धर्म (बौद्ध धर्म का अशोक रूप), जिसमें सामूहिक शिक्षा और सामाजिक कल्याण शामिल था, ब्राह्मणों के लिए अनुकरण करने के लिए कुछ भी नहीं है। वास्तव में, सामाजिक जागरूकता और कल्याण ब्राह्मणवाद के विरोधाभासी थे। इसलिये उन्हें महायान के उद्भव में आशा मिली। यह बौद्ध संप्रदाय ब्राह्मणों को अनेक अवसर प्रदान करता था। बुद्ध की मूर्ति पूजा, बोधिसत्व की सुंदर अवधारणा, जप, और बुद्ध की पूजा (जो निश्चित रूप से थेरवाद परंपरा में भी लोकप्रिय थी) और शाकाहार ने ब्राह्मणों को बहुत सारे अवसर प्रदान किए। उन्होंने इन्हें बिना झिझक अपना लिया और इसमें अपना ब्राह्मणवादी तड़का लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस तरह आज के हिंदू कहलाने वाले धर्म का उदय हुआ। हालांकि यह कोई आसान काम नहीं था। उन्हें अपनी संस्कृति और मूल्यों को छोड़ना पडा। उनके पास ब्रह्मा, इंद्र, अग्नि, वायु, मित्र आदि अपने वैदिक देवताओं को पूरी तरह त्यागने और बुद्ध का मुकाबला करने के लिए एक मानवीय चेहरे के साथ बदलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। हमने चर्चा की थी कि इस प्रयास में उन्होंने दो नए मानव देवता राम और कृष्ण गढ़े।

अब वे अयोध्या में अपने पिछले प्रयास की तरह केवल संरचना के रूप में अपना धर्म नहीं थोपना चाह रहे थे। इस प्रयास में उन्होंने राम के जीवन संबंधी कथा को विकसित करने का एक नया तरीका अपनाया। प्रारंभ में उन्होंने अपनी कुलीन भाषा में राम के जीवन पर रामायण ग्रंथ तैयार किया, किंतु यह भाषा आमजनों में प्रचलित नहीं थी। संभवतः वे ट्रिकल-डाउन सिद्धांत में विश्वास करते थे। यानी कि पहले केवल अभिजात्य वर्ग के मन को बदलना, फिर धीरे-धीरे ऐसा उपाय करना कि यह मानसिकता निचले तबके तक जा सके।  इस मामले में गुप्त काल (320-550 ई.पू.) ब्राह्मणवादी पाठ्य-रचना का एक शास्त्रीय युग साबित हुआ। यही कारण है कि आधुनिक द्विज इतिहासकार इस काल को स्वर्ण युग कहने से नहीं चूकते। किंतु चुंकि यह लेखनी केवल अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित थी इसलिये जनमानस में राम अब भी लोकप्रिय नहीं हो पाए। सदियों बाद मुगल काल में अकबर (1556-1605 ई.)  के शासनकाल के दौरान जब अयोध्या के एक ब्राह्मण तुलसीदास ने स्थानीय अवधि बोली में राम की जीवनी रामचरितमानस की रचना की। तब वह लोगों के मन पर अपना अचूक प्रभाव छोड़ने में कामयाब हुई।

अब तक जनमानस बुद्ध को पूरी तरह भूल चुका था और इस खाली जगह की भरपाई मुगल काल में आसानी से राम से हो गई। इतिहासकार जूलिया शॉ[6] के अनुसार, राम की जड़ें इससे कुछ पहले राजपूत काल (12वीं शताब्दी के बाद) में ही जमने लगी थीं, किंतु वे बेकर के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहती हैं कि ‘देश के राम के रंग में रंगने की असली प्रकिया 15वीं और 16वीं शताब्दी के बाद के संस्करणों में सामने आती है। जब ये पुराने स्थल ‘राम के रंग में रंग दिये गये। जाहिर है इसमें तुलसीदास की रचना की अप्रतिम भूमिका रही।’ बेकर के अनुसार 10वीं शताब्दी अयोध्या में राम के जन्म का दावा नहीं किया गया था। हिंदू मंदिर निर्माण पर मुगलों के प्रतिबंध के बहुचर्चित दावे के बावज़ूद सच यह है कि 18 वीं शताब्दी आते तक अयोध्या को राम जन्म के स्थल से जोड़ा गया और तब से ही यह एक अखिल भारतीय स्तर पर राम का तीर्थस्थल कहलाया जाने लगा।[7]

इस प्रकार ब्राह्मणवादियों के चौदह सौ से अधिक वर्षों तक के हिंसक और वैचारिक सांप्रदायिक एजेंडा के परिणामस्वरूप भारत से बौद्ध धर्म और अन्य छोटे स्वदेशी धर्म विलुप्त हो गए। और भारतीय जनता, जो बौद्ध सभ्यता खासकर अशोक के समय में 80% तक साक्षर और शिक्षित हो गई थी और जिसका प्रमाण हमें अशोक के भिन्न-भिन्न शिलालेखों से मिलता है। [8]  विहारों पर आक्रमण आम लोगों को शिक्षा से वंचित करने का सबसे बड़ा आघात था। इसने अंततः भारतीयों को अशिक्षित जनता में बदल दिया। आश्चर्य की बात है कि इस सच पर किसी भी द्विज इतिहासकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनकी नजर में यह मात्र धार्मिक हिंसा भर थी।

पिछले वर्षों, जब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय बाद जब अयोध्या के विवादित स्थल पर हुई खुदाई हुई तब एक बार फिर साबित हो गया है कि राम का अयोध्या से कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह निर्विवाद रूप से बौद्ध स्थल है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि उत्खनन से प्राप्त धम्मचक्र, कमल चिन्ह, स्तंभ और अन्य कलाकृतियाँ सीधे तौर पर बौद्ध अवशेष हैं। ये सब साफ तौर पर बताते हैं कि यह स्थल भी मूल रूप से एक बौद्ध विहार था। जाहिर है इसे ब्राह्मणवादी ताकतों ने हड़प लिया और क्षतिग्रस्त कर दिया। इस उत्खनन से रामजन्मभूमि आंदोलन की निरर्थकता और मुसलमानों के खिलाफ भाजपा और उसके सहयोगियों के झूठे प्रचार की भी पुष्टि होती है। इन साक्ष्यों ने धर्मनिरपेक्ष ताकतों को हिंदू राष्ट्रवाद की झूठी कहानी को बेनकाब करने का अवसर प्रदान किया है।

स्पष्ट है कि इस स्थल का ऐतिहासिक महत्व है और यह सिर्फ बौद्धों की विरासत नहीं है बल्कि यह एक विश्व धरोहर है। लेकिन दुर्भाग्य से बहुत कम प्रगतिवादियों ने इस पर अपनी चिंता व्यक्त की है। दिलचस्प है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, दक्षिणपंथी ताकतों ने एक नारा गढ़ा, अयोध्या तो एक झांकी है, काशी मथुरा बाकी है। परंतु इस स्थल पर हुई खुदाई ने इसे एक नया और सही अर्थ दिया है। यदि काशी, मथुरा में कोई उत्खनन किया गया तो हिंदू धर्म का मिथक एक बार फिर से खंडित हो जाएगा।

डॉ रत्नेश कतुलकर लेखक हैं। 

[1] देखे The Ayodhya Verdict is Based on a Strange Feat of Logic, The Wire, 11 Nov/2019

[1] Alexander Cunningham (2000), Four Reports Made during the Years 1862-63-64-65

[1] वही पृ. 323

[1] धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ

[1] Buddhism in India

[1] Shaw J. 2000, Ayodhya’s sacred landscape: ritual memory, politics and archaeological ‘fact

[1] Bakker, H.T. 1982. The rise of Ayodhya as a place of pilgrim-age, Indo Iranian Journal 24: 103-26

[1] इस विषय पर मैंने अपनी किताब ‘’Outcasts on the Margins: Exclusion and Discrimination of Scavenging Communities in Education” में की है.

 

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