मैं उर्दू बोलूँ को समझने के लिए हमें उर्दू अदब की उस ट्रेडिशन को समझना होगा अजय सहाब जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वह परंपरा है जो उर्दू को भारत की आज़ादी की लड़ाई की ज़बान बना देती है। समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू किया जाए- राजा राम नारायण मौजूं, मीर, हातिम, मुशफी, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना आजाद और मौलाना हसरत मोहानी, प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो, अली अब्बास हुसैनी, कृष्ण चन्द्र, इस्मत चुग़ताई और राजेंद्र सिंह बेदी- वे चंद नाम हैं जिन्हें उर्दू के माध्यम से आज़ादी की अलख जगाने वालों की बहुत लंबी फेहरिस्त से अभी याद कर पा रहा हूँ।
अजय सहाब स्त्री विमर्श के कवि तो नहीं हैं किंतु संग्रह में करीब दर्जन भर ग़ज़लें ऐसी हैं जिनमें नारी अपने पवित्रतम और और सर्वाधिक पूजनीय रूप में हमें मिलती है- वह रूप है माँ का। आतंकवाद ने भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह प्रभावित किया है और हमारा सौभाग्य है कि हर मुल्क के शायरों ने इसकी जमकर निंदा की है। अजय सहाब की रचनाएं कठोरतम अभिव्यक्तियों का प्रयोग हिंसा की निंदा के लिए करती हैं।
यदि सेकुलर शब्द के अर्थ को समझना है, आत्मसात करना है, जीना है तो 'मैं उर्दू बोलूँ' से अच्छी मार्गदर्शिका कोई दूसरी नहीं हो सकती। दूसरे के धर्म की आलोचना और अपने धर्म की कमियों पर चुप लगा जाना अजय को मंजूर नहीं है।
अजय सहाब ने अभिव्यक्ति के खतरे उठाए हैं और मठों और गढ़ों पर आक्रमण किया है और इसीलिए मठाधीश उन्हें चर्चा से बाहर करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा साहिर के साथ भी हुआ था। मोहम्मद सादिक ने उर्दू साहित्य के अपने प्रसिद्ध विश्लेषण में साहिर को खारिज करते हुए उन पर बहुत कम शब्द खरचे थे- शायद बस एक पैराग्राफ।