Saturday, July 27, 2024
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यूज़ एंड थ्रो के दौर में बहुत कम हो गए चाकू-कैंची पर धार लगानेवाले

भूमंडलीकरण से पहले हर चौक, चौराहे और मोहल्ले में कैंची-चाकू पर धार लगाने वाले, पीतल के बर्तनों में कलई करने वाले, पुराने तेल के पीपे से अनाज रखने के लिए टीपे बनाने वाले, लोहे के सामान बनाने वाले, लकड़ी का काम करने वाले, जो महीने में एक बार आकर चक्कर लगाते थे लेकिन बाजार ने जैसे ही उपभोक्ताओं को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया, वैसे ही छोटे-छोटे काम करने वालों की रोजी-रोटी पर गाज गिरी।

वाराणसी। ‘चाकू-कैंची धार करा लो..चाकू कैंची धार करा लो’ की आवाज पिछले 2-3 मिनट से लगातार आ रही थी। उसकी पुकार में एक अद्भुत लय थी, सुनकर अच्छा लग रहा था। मैंने बाहर निकलकर देखा, अपनी सायकिल के हैडिल पर दर्जनों चाकू-छुरियाँ टाँगे और पिछले पहिये के सहारे रस्सी से घूमनेवाले गोल बार्ड यानि पत्थर (जिसे वे पत्थल कह रहे थे) के साथ थोड़ा आगे ही एक अधेड़ व्यक्ति आवाज लगा रहे थे। मैंने आवाज लगाकर उन्हें बुलाया। हालांकि एक चाकू को धार कराने के अलावा घर में और कोई सामान नहीं था लेकिन उनसे बात करने की इच्छा के कारण मैंने उन्हें बुला ही लिया।

कॅम्पस में आते ही उन्होंने साइकिल खड़ी की और पंद्रह रुपये में चाकू पर धार लगाने की कीमत बताई। मैंने हामी भर उन्हें चाकू दिया और उन्होंने अपनी साइकिल को स्टैन्ड पर खड़ा कर साइकिल के डंडे पर लगे चक्की जैसे धार लगाने वाले पत्थर की रस्सी को साइकिल के पिछले चक्के पर लगी घिरनी अथवा फ्री व्हील पर कसा और हुए साइकिल पर चढ़कर पैडल पर दम लगाते हुए चलाने लगे।

धार करने के लिए हाथ में पकड़े हुए चाकू को बहुत ही सावधानी से पत्थर में पर छुआते और हटाते हुए धार करने लगे। साइकिल का चक्का और पत्थर दोनों समान गति से घूम रहे थे। पत्थर पर चाकू छुआते ही चिंगारी निकल रही थी। मात्र 2 मिनट में चाकू पर धार हो गई।

 

आपकी साइकिल पर धार लगाने वाला पत्थर कितने का आता है? उन्होंने बताया कि 1200/- का, लेकिन साइकिल पर पूरी फिटिंग के साथ इसकी लागत 2000/- आई। इस पत्थर के घिस जाने पर नए पत्थर की जरूरत पड़ती है। काम के ऊपर निर्भर करता है कि कितने दिन यह पत्थर चलेगा।

भूमंडलीकरण से पहले हर चौक, चौराहे और मोहल्ले में कैंची-चाकू पर धार लगाने वाले, पीतल के बर्तनों में कलई करने वाले, पुराने तेल के पीपे से अनाज रखने के लिए टीपे बनाने वाले, लोहे के सामान बनाने वाले, लकड़ी का काम करने वाले, जो महीने में एक बार आकर चक्कर लगाते थे और मोहल्ले की महिलायें अपनी जरूरत के हिसाब से उनसे काम करवाती थीं। काम करवाने दौरान उन महिलाओं से एक सामाजिकता भी बनती थी। लेकिन बाजार ने जैसे ही उपभोक्ताओं को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया, वैसे ही छोटे-छोटे काम करने वालों की रोजी-रोटी पर गाज गिरी। बाजार ने ऐसे साधन उपलब्ध कराए, जिससे लुहार, कुम्हार, बढ़ई, दर्जी, ठठेरे के काम करने वालों के सामने जीवनयापन की समस्या खड़ी हो गई। बाजार में पीतल की जगह स्टील, लकड़ी और मिट्टी के सामान के स्थान पर प्लास्टिक के सामान आ गए, जो सस्ते और आकर्षक थे। इनकी वजह से लुहार, कुम्हार, बढ़ई जैसे लोगों के काम पर मंदी छा गई।

धार हो जाने पर पर मैंने उनसे उनका नाम पूछा तो बिना रुके हुए उन्होंने भोजपुरी में अपना नाम, पता और गाँव सब बता दिया। अपना नाम तेजई बताया। ग्राम रामचन्दपुर, थाना गोसाईगंज और जिला सुल्तानपुर। पिछले 40 बरस से इस काम को कर रहे हैं।

आप अपना छोड़कर गाँव से यहाँ कैसे आ गए? तब उन्होंने बताया कि आज से चालीस साल पहले वे रोजगार की तलाश में मुंबई गए थे, टिकट का दाम बताने का अंदाज़ मजेदार था, बताना था कि ‘जब वे गए थे तब टिकट सौ रुपया था लेकिन बताया कि ‘जब ट्रेन का टिकट 115 रुपये में 15 रुपया कम था, तब मैं मुंबई गया था और भायखला में रहता था।’ इस काम को इन्होंने अपने बहनोई से वहीं सीखा और काम करते रहे। भिंडी बाजार और नल बाजार में इस काम को करते थे। वहाँ से वापस आकर बनारस में बस गए। ये बनारस के लल्लापुरा में रहते हैं। कितनी उम्र है आपकी? पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘मान लीजिए 60 बरस के होंगे। हमारी कोई जनमकुंडली तो लिखी नहीं है और माँ जी भी अब रही नहीं जो सही उम्र बता सकें।’

60 साल का यह इंसान सुबह दो रोटी खाने के बाद 8-9 बजे तक निकल जाते हैं। रोज अलग-अलग क्षेत्र में जाते हैं। और दिनभर में 40-50 किलोमीटर साइकिल चलाते हुए घूम-घूमकर अपना काम करते हैं। 300 से 500 रुपया तक कमा लेते हैं और कभी-कभी तो बहुत कम कमाई हो पाती है। धार करने के बाद कोई चाकू खरीद लेता है तो कोई छिलनी, तो कोई लाइटर। वह कहते हैं कि मिस्त्री का काम करने पर भी 500 रुपया मिलता है, लेकिन यहाँ हम अपने काम के मालिक हैं। यदि धूप या थकान लगी तो छाए में बैठकर सुस्ता सकते हैं। जितना मन हो उतना काम करें। एक बिगहा खेत है, जिसमें धान और गेहूं लगाता हूँ। पानी की व्यवस्था कैसे करते हैं? बारिश का पानी मिल जाता है तब तो ठीक है नहीं तो फिर नहर से सिंचाई होती है, मशीन से। किराया लगता है 300-350 रुपया प्रति घंटे के हिसाब से। उन्होंने एक कहावत कही-  हरदी का भाव हो, जैसे चोट में दर्द रहा। फिर बीज और खाद पर भी खर्च करना पड़ता है। जैसे-तैसे थोड़ा अनाज मिल जाता है।

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आज के समय में किसानी का काम ज्यादा जोखिम भरा है। सही समय पर जरूरत के हिसाब से बारिश हो गई तब तो ठीक है नहीं तो बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। कम बारिश हो या अधिक बारिश दोनों में जोखिम है।

उनकी साइकिल पर सामने चाकू, छुरी, कैंची और लाइटर सजे हुए थे, साइकिल पर चलती हुई दुकान। हैन्डल के नीचे एक बैटरी वाला छोटा सा लाउड्स्पीकर लगा हुआ था, जो उनके आवाज को दूर-दूर तक पहुंचा रही थी। पहिये और कैरिअर से सटा हुआ एक छाता बंधा हुआ था। छतरी क्यों? जवाब था बारिश और तेज धूप से बचाव के लिए इस व्यवस्था को बांधे हुए हूँ। आज की बाजारवादी संस्कृति को देसी तरीके से अपनाते हुए अपने इस छोटे से सेटअप व काम से ज्यादा से ज्यादा कमाने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे थे तेजई।

तेजई के घर में और कोई भी धार लगाने का काम नहीं करता, लेकिन वह अपने इस काम में वे बहुत रमे हुए हैं और जब तक शरीर में जान रहेगी तब तक इस काम को करेंगे।

इतनी बातें होने के बाद वे बहुत ही फुर्ती अपनी साइकिल निकालकर बिना पैसे लिए ही जाने लगे, मैंने उन्हें तुरंत पंद्रह रुपया थमाया और वे बाहर निकलते ही चाकू-छुरी धार करा लो की आवाज देते हुए आगे बढ़ गए।

 

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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