सार्वजनिक वितरण प्रणाली का नाम आने पर अक्सर लोगों के आँखों के सामने एक नकारा, भ्रष्ट तंत्र की तस्वीर उभरती है, जिसकी नुमाइंदगी उचित दर विक्रेता या कोटेदार नामक जीव करते हैं। वे अक्सर कम तौलते हैं या मूल्य अधिक लेते हैं। राशन, केरोसिन देने में हीला-हवाली करते हैं। कभी-कभी पूरा राशन या केरोसिन बेंच देते हैं और बहाना बना देते हैं कि इस महीने आया ही नहीं। ऐसे में लगता रहा है कि क्या इस व्यवस्था को समाप्त कर देना चाहिए या यह अप्रासंगिक हो चुकी है। अब केन्द्र सरकार ने निर्णय लिया है कि लाभार्थियों को अनाज या अन्य वस्तुओं के बदले नकद राशि उनके खाते में स्थानान्तरित कर देगी, ताकि वह बाजार से उन वस्तुओं को खरीद सके। प्रथम दृष्टया डी.बी.टी. या प्रत्यक्ष हस्तानान्तरण बेहद साफ-सुथरी उचित और उपयोगी लगती है, किन्तु यदि हम अपने देश के खाद्यान्न के उत्पादन, विपणन, वितरण, बाजार के गतिकी, उपभोक्ताओं की जागरुकता व बैंकिंग सेक्टर की क्षमता के बारे में विचार करें तथा इन सन्दर्भों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों का विश्लेषण करें। तब यही लगता है कि तमाम खामियों के बावजूद सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्य सुरक्षा में अहम भूमिका निभा रही है तथा इसे हटाकर प्रत्यक्ष नगद हस्तान्तरण लाने के लिए विस्तृत अनुभव और समझदार कार्ययोजना की जरूरत है अन्यथा इसका हश्र नोटबंदी से भी बुरा होगा।
[bs-quote quote=”प्रश्न उठता है कि नगद हस्तान्तरण किस मूल्य को आधार बना कर दिया जायेगा ? क्या मुम्बई में प्रचलित मूल्य या गंगा बेसिन के किसी गांव में प्रचलित मूल्य एक समान होगा? दरअसल नकद हस्तान्तरण में सबसे बड़ी चुनौती मूल्य निर्धारण की है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कैसे शुरू हुई जन वितरण प्रणाली
सबसे पहले हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के इतिहास से रूबरू होना चाहिए। मध्ययुग में अलाउददीन खिलजी ने दिल्ली में राशनिंग व्यवस्था के अन्तर्गत वहाँ अनाज, कपड़े, घोड़े के मूल्य को नियमित-नियन्त्रित कर आपूर्ति और मांग को सम्भालने की कोशिश की थी। यद्यपि उसके बाद यह बंद हो गया था। उसके बाद अंग्रेजी राज में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1944 ई. में पुनः शुरू किया गया था, लेकिन स्वतन्त्रता बाद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत व्यवस्थित ढंग से आम जनता को खाद्य सुरक्षा के अन्तर्गत उचित मूल्य पर गेहूँ, चावल, चीनी और ईंधन उपलब्ध कराने की कार्य-योजना बनाई गई तथा उसे व्यवस्थित ढंग से लागू किया गया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को किसानों से होने वाली खरीद के साथ जोड़ा गया तथा एक विस्तृत नेटवर्क खड़ा किया गया। इस नेटवर्क के अन्तर्गत विभिन्न सरकारी एजेन्सियां यथा भारतीय खाद्य निगम राज्य निगम बनाये गये। ये एजेन्सियां रबी और खरीफ के मौसम में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूँ व धान की खरीद करती हैं तथा इसे खरीद कर धान से चावल निकालकर उसे अपने गोदामों में सुरक्षित रखती हैं । गोदामों में रखे गये खाद्यान्न उचित दर विक्रेता या कोटेदारों के माध्यम से लाभार्थियों में उचित मूल्य पर यपा सस्ते दरों पर वितरित की जाती है, जिससे मजदूर, गरीब, निम्न मध्यम वर्ग को औसत दर्जें का गेहूँ, चावल, चीनी, ईंधन सस्ते दरों पर उपलब्ध होता है तथा उसे संविधान प्रदत्त जीवन के अधिकारी की रक्षा होती है।
जाहिर है इसमें काफी धन खर्च होता है, जो सरकार सब्सिडी के रूप में वहन करती है। वर्तमान में यह लगभग डेढ़ लाख करोड़ रूपये खर्च करती है। इससे देश में खाद्यान्न की उत्पादन, उपलब्धता और वितरण एक नियमित और नियंत्रित रीति में चलाने में मदद मिलती है, जो पूरी तरह से सरकार और उसके एजेंसियों के नियन्त्रण में है। सब्सिडी और सरकारी नियन्त्रण के कारण इन अनाजों (गेहूँ, चावल) के व्यापार में कोई बड़ा व्यापारी हाथ नहीं लगाता यद्यपि स्थानीय व्यापारी इसे स्थानीय स्तर पर करते हैं। इस प्रणाली के कारण अन्य कृषि उत्पादों की तुलना में धान, गेहूँ के मूल्यों में कोई बड़ा उतार-चढ़ाव नहीं होता है तथा मूल्य स्थिरता बनी रहती है। किसानों को भी कमोबेश न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने से वह गेहूँ, धान की खेती में ज्यादा रुचि लेते हैं तथा विगत 25-30 वर्षों में गेहूँ-धान के बोये गये रकबे में वृद्धि हुई है। अन्य नगदी फसलों की तुलना में गेहूँ-धान बोने का विकल्प यद्यपि बहुत लाभप्रद भले न हो, किन्तु सुरक्षित रहता है व अक्सर उसे आत्महत्या के मुहाने तक नहीं पहुँचाता। इसके बरक्स प्याज, टमाटर, आलू, कपास जैसी नगदी फसलों के उत्पादक पूरी तरह से बाजार ताकतों पर निर्भर होते हैं तथा उन्हें कभी-कभी अत्यन्त मूल्य कम होने पर कर्जें के कारण जीवन त्याग का विकल्प चुनना पड़ता है।
जन वितरण प्रणाली की विडंबनाएं
अब इस प्रणाली के खामियों और उसके निदान के विषय में बात करते हैं। सत्तर-अस्सी के दशक में ज्यों-ज्यों शीर्ष स्तर के नौकरशाही में भ्रष्टाचार का असर बढ़ता गया तथा वह राजनेताओं के इशारों पर नाचने वाले पालूत बन रहे थे, त्यों-त्यों असर नीचे के स्तरों पर पड़ना स्वाभाविक था। इस दौर में भ्रष्टाचार का असर सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर भी खूब पड़ा। चूंकि भारत के गाँवों में मजदूरी भी राशन/खाद्यान्न के रूप में मिलता था। इसलिए मजदूर वर्ग को भी अनाज की जरूरतें कम थीं। चीनी वह खरीद पाने में सक्षम नहीं था। जो काश्तकार थे, अब हरित क्रांति के असर से अतनी उपज बढ़ गयी थी कि उन्हें पर्याप्त खाद्यान्न मिल रहा था, बल्कि अतिरिक्त अनाज बाजार या सरकारी केन्द्रों पर बेंचकर धन कम ले रहे थे। ऐसे में चीनी की मांग कार्डधारकों में कम होने व व्यावसायिक मांग ज्यादा होने से कालाबाजारी बढ़ा। अब कोटे की दुकानें भ्रष्टाचार की प्रतीक बन चुकी थी। नब्बे के दशक में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली की शुरूआत की गई, जिसमें गरीबी रेखा के नीचे की जनता को सस्तेदर पर अनाज, चीनी मुहैया कराया जाता था, जबकि गरीबी रेखा के ऊपर के व्यक्तियों को केवल सब्सिडी युक्त ईंधन मुहैया कराया जाता था। यहाँ समाज की शक्ति-संरचना काम करने लगी। गांवों में अक्सर सवर्ण जातियों के अपात्रों का भी कार्ड बन गया, जबकि कम संख्या या कमजोर और पिछ़ड़ी जातियां हाशिये पर रह गईं। धरकार, कम्भार, मुसहर, राजभर, बिंद जैसी जातियाँ हाशिये पर रह गईं, जबकि यादव, पटेल, हरिजन जातियों ने ज्यादा लाभ ले लिया । जिन कमजोर लोगों का कार्ड बना वे दबंग कोटेदार व प्रधान मिल कर उसका हिस्सा खा लेते थे। शासन का शीर्ष भी इसे स्वीकार कर चुका था। वहां भी ट्रांसफर, पोस्टिंग में जमकर धन उगाही होने लगी थी। दूसरी तरफ सभी मान चुके थे कि कोटेदार पूरा बांटता नहीं है तो उसे मिलने वाले कमीशन में लम्बे समय तक कोई सुधार नहीं किया गया। उसका कमीशन अत्यल्प था, जो ढुलाई का भाड़ा भी नहीं हो पाता। किसी भी सुधार के ठोस व समग्र प्रयास नहीं होते थे, बल्कि प्रवर्तन, निलम्बन के पैबंद लगाये जाते थे। वर्ष 2014-15 तक जब तक लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली प्रचलन में थी, तब तक अन्त्योदय कार्ड पर छः रुपए प्रति कुन्तल, बीपीएल व एपीएल पर बारह रुपए प्रति कुन्तल कमीशन देय था। अब यह कितना बड़ा कुतर्क था कि अन्त्योदय पर प्रति कुन्तल कमीशन मात्र छः रुपए था, जबकि बीपीएल पर बारह रुपए था। एक कोटेदार के यहाँ तीनों तरह के कार्ड होते थे, ऐसे में क्या अन्त्योदय के गेहूँ की ढुलाई, बीपीएल के गेहूँ की ढुलाई से सस्ती पड़ती थी? जबकि जिन्स, मात्रा, दूरी सब एक हो!
यह हमारी व्यवस्था की उदासीनता व अकर्मण्यता का उदाहरण है, जबकि उस समय पल्लेदारी ही बारह रुपये कुन्तल पड़ती थी। परिवहन, बिक्री में मजदूरी, मुनाफा, घर किराया, अभिलेखों के रख-रखाव की लागत अलग से थी। इस समय तक खरीद काफी बढ़ चुकी थी। भारतीय खाद्य निगम के पास इतना अतिरिक्त अनाज आ चुका था कि बिना उचित प्रबन्धन व रख-रखाव के वह सड़ने लगा था। यह खबर राष्ट्रीय मीडिया में छा गई थी। राष्ट्रीय मीडिया की खबरों और न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बाद इसे सस्ते दरों पर वितरित कर दिया था 2011-12 में। इससे अनाज की आमद बढ़ी तथा खाद्य सब्सिडी की मात्रा भी। इसकी सफलता से प्रभावित होकर तत्कालीन कांग्रेस नीत यूपीए ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल पास कराया तथा बेहद सस्ते दरों पर अनाज उपलब्ध कराने की गारंटी ली । 2014 में केन्द्र में एनडीए की सरकार बनी।
एन डी ए सरकार के उद्देश्य
यह सरकार प्रचण्ड बहुमत और विकास के नारे से आयी थी। उन्होंने आते ही देखा कि सब्सिडी की मात्रा बढ़ रही है, जिससे कर से प्राप्त धन का अन्य कार्यों में उपयोग नहीं हो पा रहा है। ऐसे में उन्होंने सब्सिडी खत्म करने के सारे उपाये आजमाने शुरू किये। इससे कॉरपोरेट सेक्टर के लिए उन क्षेत्रों में अपना व्यापार फैलाना आसान होता, जहां सब्सिडी के कारण अघोषित प्रतिबन्ध था, जिन वस्तुओं पर सरकारी एकाधिकार था, क्योंकि सिर्फ सरकार ही सब्सिडी दे सकती है। निजी संगठित क्षेत्र दूर से इन क्षेत्रों के विपणन में प्रवेश करने की ताक में था। पहले डीजल पर सब्सिडी खत्म की, फिर एलपीजी में कम किया । उर्वरक में भी प्रत्यक्ष धन हस्तान्तरण की शुरूआत की। इससे कुछ हर तक फर्जी खपत रुकी तथा कालाबाजारी कम हुई। सरकार की सब्सिडी भी बची, लेकिन इसका वास्तविक फायदा आम जनता को उतना नहीं मिला, जितना मिलना चाहिए था। कारण थे बैंकिंग सेक्टर की अक्षमता, लापरवाही व इण्टरनेट की धीमी स्पीड जैसे कारक। जो सब्सिडी लाभार्थी के खातें में आनी चाहिए, उसमें बेवजह विलम्ब से किसान, उपभोक्ता परेशान व हतोत्साहित हुए। फिर गरीब लोगों को मिली छोटी रकम भी न्यूनतम बैलेंस के नाम पर बैंक वाले काट ले रहे हैं। ऐसे में देरी व बैंक वालों के नाम कट जाने से वो सब्सिडी की रकम वास्तविक रूप में किसान या उपभोक्ता तक नहीं पहुंच पा रही है। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि प्रत्यक्ष नगद हस्तान्तरण (डीबीटी) एक फुलप्रूफ व्यवस्था है, जिसमें वास्तविक लाभार्थी को पूरा लाभ नहीं मिल रहा है, सिर्फ एक गलतफहमी है। वास्तविक रूप में इसके गहरे अध्ययन की आवश्यकता है ताकि सच सामने आ सके। एलपीजी और उर्वरक क्षेत्र में मिली आंशिक सफलता से सरकार अति उत्साहित हो उठी तथा तत्काल इसे राष्ट्रीय राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के लिए भी लागू करने का निर्णय लिया गया। एक पायलट योजना पांडिचेरी, चंडीगढ़ और दमन-दीव में चलाई गई । बाद के अध्ययनों में इसमें तमाम खामियां प्रकाश में आयीं। यद्यपि यह भारत के सबसे सम्पन्न व विकसित क्षेत्र हैं, जहाँ आधारभूत ढाँचा ठीक-ठीक है।
[bs-quote quote=”भारत में बैंकों की अधिकतर शाखाएं नगरों तथा कस्बों में स्थित हैं। गांवों, विशेषकर आदिवासी बहुल क्षेत्रों, में 50-50 किमी तक कोई शाखा नहीं है। उदाहरणार्थ सोनभद्र के जुगैल, कुरारी जैसे गांवों से निकटतम शाखा 40-45 किमी दूर है। चूंकि सब्सिडी की मात्रा अत्यल्प यानि 200-400 रुपए होगी। ऐसे में उतनी दूर शाखा से जाकर पैसे निकालना अत्यधिक दुरूह कार्य साबित होगा। यदि संयोग या दुर्योग से उस दिन एटीएम खराब रहा या बैंक सर्वर डाउन रहा तब उस दिन की मजदूरी व आने-जाने के किराये के रूप में नकद खत्म हो जायेगा। नगरों व कस्बों में ही एटीएम या बैंकिंग सुविधायें हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
नगदी हस्तांतरण की कवायद
अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के तहत पूरे देश में खाद्यान्न के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को प्रत्यक्ष नगद हस्तान्तरण के अन्तर्गत लागू करने की दिशा में जोर-शोर से प्रयास किये जा रहे हैं। इसलिए समस्त राशनकार्डों को और प्रचलित यूनिटों को आधार और बैंक एकाउंट से जोड़ने की कवायद चल रही है, ताकि इसके जरिये नकद हस्तान्तरण की योजना को अमली जामा पहनाया जा सके, लेकिन इस योजना के मूर्त रूप लेने में वास्तविक धरातल पर अनेक चुनौतियां हैं तथा खाद्यान्न के फुटकर व्यापार पर कई बड़े कॉरपोरेट गिद्धों की दृष्टि जमी है ताकि वो इस क्षेत्र में फायदा कमा सकें। इसलिए उनके ज़रखरीद प्रचार माध्यमों द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कुछ परिस्थितिजन्य खामियों को प्रचारित कर इसके आड़ में इसे खत्म करने की मुहिम जारी है। जबकि यह बेहद संवेदनशील मसला है, जिससे करोड़ों लोगों की भूख जुड़ी है। जो लाख कमियों के बावजूद करोड़ों का पेट भरता है तथा आधुनिक भारत में जनसंख्या 30 करोड़ से 130 करोड़ होने के बावजूद अकाल या भुखमरी नगण्य है। इस समय की तुलना हम पूर्ववर्ती ब्रिटिश युग से करें तब सच्चाई का पता चलता है।
शायर दुष्यन्त कुमार ने ऐसे ही प्रयासों के लिए कहा है – ‘इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,/नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
इस कवायद में होने वाली भारी मुसीबत
अब हम देखें की एलपीजी या उर्वरक क्षेत्र में अंशतः सफल प्रत्यक्ष हस्तान्तरण कैसे खाद्यान्न योजना में भारी मुसीबत बन जायेगा। सर्वप्रथम आज भी उर्वरक और एलपीजी उपयोग करने वालों की संख्या खाद्यान्न के लाभार्थियों की तुलना में कम है। चार सदस्यों के एक मध्यवर्गीय परिवार के लिए महीने में औसत एक एलपीजी सिलेन्डर चाहिए होता है, फिर गरीबों को 3-4 महीनें में एक चाहिए। अधिकतर लाभार्थी नगरीय क्षेत्रों के होते हैं, ऐसे में उन्होंने अपना डाटाबेस ठीक बना रखा है। इसमें उत्पादन व वितरण सरकारी कम्पनियां व उनके एजेन्ट करते हैं, तो ये संसाधन सम्पन्न पेशेवर हैं। अधिकतर मध्यवर्गीय लोगों की आय इतनी ज्यादा है कि उन्हें अगली बार गैस लेने के लिए सब्सिडी के राशि पर निर्भर होने की जरूरत नहीं है। मूल्य स्थिरता और एकरूपता इन वस्तुओं (एलपीजी व उर्वरक) की खासियत है, क्योंकि इनका उत्पादन कुछ चुनिंदा कम्पनियां करती हैं तथा वितरण भी नियमित है। ऐसे में पूरे भारत में उत्पादन, वितरण की एकरूपता व नियमित-नियन्त्रित प्रणाली के कारण मूल्यों की एकरूपता सम्भव है, जबकि खाद्यान्न क्षेत्र में उत्पादन एकरूप नहीं है, न ही उत्पादन लागत ही एकरूप है। गंगा या कावेरी बेसिन में उत्पादन लागत मध्य प्रदेश की तुलना में कम होगी। इसी तरह पंजाब में उत्पादकता अन्य प्रदेशों की तुलना में ज्यादा है। इस क्षेत्रीय विषमता के कारण मूल्यों में भी अंतर है। मुम्बई में चावल या गेहूँ की कीमत पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी गाँव की तुलना में ज्यादे होगी। अब प्रश्न उठता है कि नगद हस्तान्तरण किस मूल्य को आधार बना कर दिया जायेगा ? क्या मुम्बई में प्रचलित मूल्य या गंगा बेसिन के किसी गांव में प्रचलित मूल्य एक समान होगा? दरअसल नकद हस्तान्तरण में सबसे बड़ी चुनौती मूल्य निर्धारण की है।
दूसरी समस्या एक विश्वसनीय, प्रभावकारी, सुगम और सहज डाटाबेस बनाने की। चूँकि गाँव में या पिछड़े क्षेत्रों में लोग अच्छे तरीके से अभिलेखों को नहीं रखते। ऐसे में ढेरों गरीब परिवार ऐसे हैं, जिनके आधार कार्ड नहीं बने हैं या बने भी हैं तो डाक विभाग की लापरवाही से उस व्यक्ति तक पहुंचे नहीं हैं। इससे वह व्यक्ति इस नम्बर से अनजान है। उसे पुनः आधार नम्बर जानने का तरीका नहीं पता है। इससे वह लाभ से वंचित हो सकता है। लोग अलग-अलग अभिलेखों में अलग-अलग नाम लिख लेते हैं। जैसे आधार में पुकार नाम है, राशनकार्ड से सरनेम गायब है। ऐसी अनगिनत त्रुटियों के कारण नगद हस्तान्तरण में परेशानी होगी, क्योंकि बैंक में आधार, एकाउंट व राशनकार्ड तीनों के नाम पूर्णतः मैच होने चाहिए। इस प्रकार एक विश्वसनीय व प्रभावकारी डाटाबेस तैयार करना अभी भी टेढ़ी खीर है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभाव सबसे कम शिक्षित व अत्यधिक पिछड़े क्षेत्रों पर पड़ेगा। एक तरह से आधार उस परिवार को समावेशी बनाने के बजाय उसे तमाम योजनाओं से बाहर करने का साधन बन गया है।
बैंकिंग के हालात
तीसरी समस्या बैंकों से जुड़ी है। भारत में बैंकों की अधिकतर शाखाएं नगरों तथा कस्बों में स्थित हैं। गांवों, विशेषकर आदिवासी बहुल क्षेत्रों, में 50-50 किमी तक कोई शाखा नहीं है। उदाहरणार्थ सोनभद्र के जुगैल, कुरारी जैसे गांवों से निकटतम शाखा 40-45 किमी दूर है। चूंकि सब्सिडी की मात्रा अत्यल्प यानि 200-400 रुपए होगी। ऐसे में उतनी दूर शाखा से जाकर पैसे निकालना अत्यधिक दुरूह कार्य साबित होगा। यदि संयोग या दुर्योग से उस दिन एटीएम खराब रहा या बैंक सर्वर डाउन रहा तब उस दिन की मजदूरी व आने-जाने के किराये के रूप में नकद खत्म हो जायेगा। नगरों व कस्बों में ही एटीएम या बैंकिंग सुविधायें हैं। देहातों, जंगलों में भी जरूर हर तीन किमी के दायरे में पीडीएस की दुकानें संचालित हैं, जहां हर महीने राशन मिल जाता है, जबकि नकद खाते में आने से लाभार्थी बैंक पर निर्भर हो जायेंगे। बैंक न्यूनतम बैलेंस के नाम पर भी इस राशि का बड़ा भाग हड़प जायेंगे।
बैंकिंग सेक्टर के मजबूत न होने के कारण एक और समस्या आयेगी। उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जिले में औसतन तीन लाख राशनकार्ड प्रचलित हैं। अब ऐसे में बैंक को प्रति माह तीन लाख खातों में सब्सिडी का पैसा भेजना होगा। एक जिले के बैंक शाखाओं की संख्या व उनके अन्य कार्यों का एक मोटा-मोटी अनुमान लगाएँ तो बैंकों के लिए यह दुरूह साबित होगा। अब चूँकि रकम अत्यल्प होगी तो इसके लिए बहुत नई शाखा भी नहीं खोली जा सकती। अभी तक जिले में पेंशन, जिनकी संख्या 50-60 हजार होती है, ही प्रत्येक तीन या छः माह में दी जाती है, उसे भेजने में अशक्तता के कारण इस महीने का काम उस महीने में होता है। ऐसे में यह लाखों की संख्या में प्रतिमाह ट्रांजेक्शन अत्यन्त कठिन काम होगा।
अब राशन की जरूरत प्रतिदिन है, ऐसी स्थिति में पूरा पीडीएस बैंकों के मत्थे चला जायेगा व बैंकों की दशा किसी से छुपी नहीं है। ऐसे में प्रत्यक्ष नगद हस्तान्तरण के फेल होने से पूरा देश त्राहि-त्राहि करने लगेगा। अभी आधार लिंक कराने में हुई सख्ती से झारखण्ड सहित कई राज्यों में लोग भुगमरी से मर गये। जब बैंकों की लापरवाही या कार्य की अधिकता के कारण पीडीएस असफल हो जायेगा व गरीबों को बाजार दर पर खरीदे अनाज से पेट भरना पड़ेगा । तब की स्थिति सोच कर रूह कांप जाती है। नगद हस्तान्तरण योजना के मूल में देश के कुछ बड़े लोग अनाज के खुदरे व्यापार पर नजर जममाये हुए हैं। उन्हें इस क्षेत्र से आकूत सम्पदा कमाना है। ऐसी स्थिति में नकद हस्तान्तरण योजना एक भयावह भूल साबित होगी। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के लिए।
अब प्रश्न उठता है क्या किया जाये ? क्या उत्तर प्रदेश के नगरीय क्षेत्रों में प्रचलित ई.-पास मशीनों के प्रयोग से आधार के अंगूठे से मैच कराकर अनाज सस्ते दर पर वितरित किया जाये ? यह जाहीर हो चुका है कि 10-12 प्रतिशत लोगों के अंगूठे मैच ही नहीं होते हैं । तब उन्हें अन्य विकल्प यथा प्राक्सी, किसी समिति या पर्यवेक्षक की मौजूदगी में बाँटा जाये, लेकिन यह किसी दशा में 15 प्रतिशत से ज्यादे न हो। ऐसी दशा में अनाज का दुरुपयोग व व्यावर्तन भी रुकेगा तथा बैंकों के सहारे सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं होगी। आधार व अंगूठा मैच के बाद वास्तविक लाभार्थी ही लाभ ले पायेगा।
एक सवाल फिर भी उठता है कि आखिर इतनी दुरूह स्थितियों में सब धान बाइस पसेरी में तौलने को उद्धत सरकार नगदी हस्तांतरण से क्या हासिल करना चाहती है । जबकि यह न लाभार्थियों के उपयुक्त है और न ही बैंकिंग व्यवस्था के ही !
अजय कृष्णात्र युवा लेखक हैं।