Thursday, April 25, 2024
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सिनेमा में लोकतत्व की बाजारू नुमाइश

सिनेमा के आगमन से पहले लोगों के मनोरंजन का मुख्य साधन लोककलाएँ थीं। लोककला में नाटक, गीत-संगीत, नृत्य, अभिनय और अन्य प्रदर्शनकारी कलाएं शामिल थीं। ये सब हमारी आँखों के सामने जीते -जागते लोग करते थे और इन्हें देखने-सुनने स्थानीय जनता का पूरा हुजूम उमड़ पड़ता था। यह लोककलाओं की जन स्वीकृति का चरम बिंदु […]

सिनेमा के आगमन से पहले लोगों के मनोरंजन का मुख्य साधन लोककलाएँ थीं। लोककला में नाटक, गीत-संगीत, नृत्य, अभिनय और अन्य प्रदर्शनकारी कलाएं शामिल थीं। ये सब हमारी आँखों के सामने जीते -जागते लोग करते थे और इन्हें देखने-सुनने स्थानीय जनता का पूरा हुजूम उमड़ पड़ता था। यह लोककलाओं की जन स्वीकृति का चरम बिंदु था। लेकिन सिनेमा ने अपने आगमन के बाद जब विस्तृत होना शुरू हुआ तो लोककलाएँ धीरे-धीरे गायब होने लगीं। एक समय ऐसा आया कि लोककलायें बिना सरकारी या गैर-सरकारी संरक्षण के अपने अस्तित्व को खो देने की स्थिति तक आ गयीं। इसका एक अर्थ यह है कि जब सिनेमा नहीं था तब लोककलाकार सीधे जनता से जुड़ा था और कला तथा कलाकार दोनों को जीने के साधन जनता से प्राप्त हो रहे थे लेकिन सिनेमा के विस्तार ने जनता को इतना अधिक आकृष्ट किया और अपने साथ जोड़ा कि लोककला और लोककलाकार पीछे छूट गए। उनके आयोजन अब भी होते लेकिन देखने वाले घटते जा रहे थे। ज़ाहिर है जब देखने वाले घटने लगे तो साधन भी सिमट रहे थे। ऐसे में लोककलाओं में नए प्रयोग बंद होते गए और वे विस्मृति और उपेक्षा का शिकार होकर रह गयीं। इसका सबसे विडंबनात्मक उदाहरण पारसी थियेटर और नौटंकी जैसे घुमंतू रंगमंच के विलोप के रूप में हम देख सकते हैं। सिनेमा की स्वीकृति जैसे-जैसे बढ़ रही थी इन कलाओं का अस्तित्व वैसे-वैसे सिमटता जा रहा था। बीसवीं सदी में संचार और तकनीक में हुई बेतहाशा तरक्की ने मनोरंजन के मायने और दिशाएं ही बदल दी हैं। जहाँ ठेठ लोककलाएं हमारे मनोरंजन का जरिया हुआ करती थी, वहीँ आज सिनेमा हमारे मनोरंजन का सबसे शक्तिशाली साधन हो गया है हालाँकि यह एक महत्वपूर्ण बात है कि सिनेमा में लोककला की जगह किसी न किसी रूप में बनी रही।

वैसे तो भारत में सिनेमा सन 1896 में ही आ चुका था लेकिन उस समय सिनेमा बोलती तस्वीरों का समुच्चय मात्र था जिसमें किसी भी तरह की लोकानुरंजकता नहीं थी। 1913 में पहला सिनेमा ‘राजा हरिश्चंद्र’ बना जो पौराणिक मिथक-कथा पर आधारित था। फिल्म राजा हरिश्चंद्र में राजा का चरित्र एक दानवीर, कर्तव्यपारायण राजा के रूप मिलता है जो निर्ममता की हद तक जाकर अपने कर्तव्य का पालन करता है। यह रूपक कहीं न कहीं तत्कालीन ब्रिटिश शासन के अंतर्गत काम कर रहे भारतीय जनमानस को भी रेखांकित करता है। इस सन्दर्भ में उस दौर के ब्रिटिश वफादारों की आत्मकथाएं-कहानी आदि पढ़ते हुए हम देखते हैं कि विद्रोहियों और क्रांतिकारियों के दमन को वे न केवल जायज़ मानते थे बल्कि उसमें शामिल भी हो जाते थे। अवधी की एक प्रसिद्ध आत्मकथा ‘किस्सा सीताराम पांडे सूबेदार’ में नायक का बेटा जब 1857 के विद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है तो वह अंग्रेज हाकिम से अपने बेटे के लिए दया की याचना नहीं करता बल्कि कंपनी हुकूमत द्वारा अपने बेटे को दी गई मौत की सज़ा को सहज मन से स्वीकार करता है। यहाँ तक कि जब उसे बेटे की मृत देह सौंपी जाती है तब भी उसमें बेटे के लिए कोई पश्चात्ताप और दया नहीं है और न ही कंपनी शासन के प्रति कोई गुस्सा ही है बल्कि उसकी न्यायप्रियता पर उसे गर्व है। उसे गर्व है कि वह न्यायप्रिय कम्पनी का सैनिक है। सत्यवादी हरिश्चंद्र का मिथक 1913 के आलोक में ऐसा ही लगता है। गौरतलब है कि भारत की आज़ादी के बाद बहुत से लोग ब्रिटिश हुकूमत का गुणगान करते थे। वह वफ़ादारी के उसी लोकपक्ष का ही उदाहरण माना जा सकता है जो किसी आर्थिक या राजनीतिक परिघटना और व्यवहार को तार्किक रूप से नहीं बल्कि भावनाओं के आधार पर मानता है। ब्रिटिश हुकूमत लोक में अच्छे शासन के रूप में भी था क्योंकि तब सस्ती का ज़माना था ।

जब हम सिनेमा और लोककला के परस्पर संबंधों की बात करते हैं तब इसका अर्थ किसी विशेष लोककला रूप से नहीं लगाया जाना चाहिए बल्कि समग्रता में उसके सहज, भोले और मनोरंजक पहलुओं से समझना चाहिए जो किसी भी बोली-भाषा, रीति-रिवाज, जीवन-जगत और सामाजिक संबंधों के आधार पर हमारे सामने आते हैं। सिनेमा ने सीधे-सीधे किसी लोककला को लिया भी नहीं बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार ही उनका इस्तेमाल करता रहा और कुछ इस तरह किया कि मौके-बेमौके उन्हें हज़म भी किया और बेदखल भी भारतीय सिनेमा के शुरुआती ढाई-तीन दशकों तक किस्सों, लोककथाओं, गाथाओं, पौराणिक कथाओं, रामायण और महाभारत की कथाओं से पटकथाएं तैयार की जाती रहीं। इसके पीछे लोकमानस में इनकी ज़बरदस्त स्वीकृति थी।  इससे साफ़ ज़ाहिर है कि सिनेमा के सामने लोक ही एक राजमार्ग था और वह इससे अलग जाने का जोखिम नहीं उठा सकता था। 1931 में पहली बोलती फिल्म आलमआरा आई। यह न केवल मूवी के नाम पर हिलते शरीरों को आवाज देनेवाली फिल्म थी बल्कि इसने गानों और दृश्यों की एक लोकानुरंजक श्रृंखला के माध्यम से दर्शकों को लम्बे समय तक बांधे रखा। ध्यान देने की बात है कि सिनेमा यथार्थ और इतिहास नहीं है। बल्कि विशुद्ध मनोरंजन है। शिक्षा भी वह मनोरंजन के बाद देता है। और मनोरंजन हमेशा लोक में छिपा होता है। सभ्य और अभिजन तो केवल त्रासदियों के शिकार होते हैं। वे या तो शासक होते हैं या शासन के कलपुर्जे होते हैं। वे लोगों को रुला तो सकते हैं लेकिन हँसाना उनके लिए दुर्लभ गुण है। सिनेमा शुरू में ही इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ गया था लिहाज़ा उसने लोक को ही अपना राजमार्ग चुना। और सिनेमा का इतिहास यह बहुत साफ़-साफ़ बताता है कि इस राजमार्ग से उसे बड़ी-बड़ी मंजिलें मिली हैं ।

लेकिन लोककला और सिनेमा के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को रेखांकित करना इतना सहज नहीं है बल्कि कई बार यह भारी गफलत भी पैदा करता है कि लोककला ने तो सिनेमा को एक मेयार दे दिया लेकिन सिनेमा ने लोककला को क्या दिया?  उदहारण के रूप में एक गाने को लीजिये – ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’। इसमें इस्तेमाल हुए संगीत और उसे बनाने वाले औजारों पर ध्यान दीजिये। ‘होंठों पे सचाई रहती है’ अथवा ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़े वाली मुनिया’ गाने के संगीत के औजारों पर ध्यान दीजिये। इसमें से निकलती डफली की आवाज श्रोताओं और दर्शकों के कान खड़े कर देती है क्योंकि यह आवाज़ सामूहिक उल्लास को उद्दीप्त करती है। सामूहिकता लोक की उपज है। इसीलिए ये गाने सिनेमा के संगीत की अनमोल और अमर निधि हैं । सिनेमाकार ने अपने सिनेमा को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए लोक से लिया और सफलता पायी। लेकिन लोक को क्या दिया? उस लोककला को क्या दिया जो अपने एक बाजे से मन में आनंद पैदा कर देती है ? यह बहुत बड़ा सवाल है । और इसका जवाब जब हम खोजते हैं तो पता लगता है सिनेमा और लोककलाओं का संबंध अन्योन्याश्रित अथवा दोतरफा नहीं बल्कि ज्यादातर एकतरफा है । सिनेमा डफली या दफाली को प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में ताकतवर या लोकप्रिय नहीं बनाता। बल्कि यह विलक्षण कला दूर-देहातों से भी देखते-देखते विलुप्त हो गई है। ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं। इसलिए परस्पर संबंधों से अधिक कारगर है प्रभाव का व्याकरण। इसमें दो राय नहीं कि सिनेमा प्रभाव के व्याकरण से ही लोककलाओं की एक भाषा बनाता है .

[bs-quote quote=”भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी अनेक फ़िल्में दर्ज हैं जिनमें लोककलाओं का भरपूर समायोजन हुआ और वे जन मन को छूने में बहुत अधिक कामयाब हुईं। कई फिल्मकारों ने लोककलाओं के उपयोग से जीवन की कई जटिलताओं को हल भी किया है। लेकिन अभी भी लोककलाओं का संदोहन बाकी है। एक और भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी सिनेमा ने अभी तक पंजाबी और भोजपुरी कल्चर को ही एक्स्प्लायट किया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लोककलाओं के उपयोग से बार-बार कामयाबी पानेवाले सिनेमा में लोककला किसी रूढ़ अर्थ में नहीं बल्कि अपने लचीलेपन से परवान चढ़ती रही है। इसका एक अर्थ है स्लैंग, भदेस, देसज, अशिष्ट और अशास्त्रीय जीवन-व्यवहार जो हठात एक अवरोध पैदा करता है और सीधे-सादे दृश्य-विधान में एक प्रहसन का समावेश होने लगता है – गोया साहब सज-संवर कर बी एम डब्लू में सवार किसी सेमिनार में जा रहे हों और एक गंवारू देहाती उन्हें रोककर कहीं का रास्ता पूछने लगे। अब है तो यह मामूली बात क्योंकि आदमी ने आदमी से रास्ता पूछा लेकिन साहब और देहाती के बीच जो स्टेटस का फर्क है वह असामान्य है जो ज़ाहिर है एक अवरोध पैदा करता है। लेकिन दर्शक को मज़ा तब आएगा जब साहब अपने ड्रायवर से सरपट आगे बढ़ने को कहें और कार के पहिये से सड़क का कीचड़ देहाती के चहरे पर चला आये। लेकिन देहाती इससे क्रुद्ध होने की बजाय इस बात से खुश है कि कार के पहिये में एक कील धंस गई है और बिना स्टेपनी बदले काम नहीं चलनेवाला है। अब देहाती कह दे – ससुर के नाती अब लो मज़ा! यूँ मेरी यह कल्पना असंगत-विसंगत भी हो सकती है लेकिन सिनेमा लोककलाओं को इसी तरह इस्तेमाल करता रहा है। सौ साल के सिनेमा के इतिहास में लोककलाएँ ऐसे ही तोड़-मरोड़ कर सिनेमा में आती रही हैं। इसलिए लोककला को सिनेमा के साथ जोडकर देखना, परखना और विश्लेषित करना काफी कठिन है। जिसकी जैसी सहूलियत उसका वैसा उपयोग। मिलावट और फ्यूजन की परंपरा का सिनेमा सबसे अच्छा उदाहरण है।

अनेक समाजों, जातियों और जनजातियों में कई पीढ़ियों  से चली आ रही पारंपरिक कलाओं को लोककला कहते हैं। यदि इसे और सरल शब्दों में  समझना चाहे तो देसी लोगों या लोक में विस्तृत रूप से प्रचलित कलाएं लोककला की श्रेणी में शामिल होती हैं। इन लोककलाओं का कोई विशिष्ट व्याकरण नहीं होता है सिवा इस बात के कि इनमें तात्कालिक जीवन के विविध पक्षों का सबसे जीवंत हिस्सा प्रवाहमान होता है। यानी लोक अपनी अभिव्यक्ति के दौरान बेहिचक जिन शब्दों को गाकर,कहकर या अपनी शारीरिक गतिविधियों के माध्यम से व्यक्त करे और लोक जिन्हें बहुत ही आसानी से अपने जीवन में उतार ले, साथ ही जरूरत होने पर उसमें अपने अनुसार बदलाव भी कर सकें वही लोककला है। क्षेत्रीय आधार पर देखें तो लोकनृत्य, लोकगीत, लोककथा, लोकनाट्य हमारे देश की संस्कृति में भरे पड़े हैं। लेकिन फिल्मों में उनका उपयोग कम ही देखा गया है। अगर हुआ भी है तो उनके शुद्ध रूपों में नहीं। प्रायः लहंगे के ऊपर कोट पहने और गले में रेडियो लटकाए आमिर खान वाले अंदाज में हुआ है और उसका मौलिक रूप लुल्ल हो गया।

Ganga Jamuna Movie Poster

लोकप्रिय सिनेमा फंतासी या लोक के बिना संभव ही नहीं है। लेकिन लोककला के इतने विस्तृत आयाम और रंग यदि  सिनेमा में ढूंढने जायेंगे तो बहुत ही कम हम देख पायेंगे। लोककला के रूप में सिनेमा में लोकगीतों का भरपूर उपयोग है। लेकिन इस लोककला का उपयोग लोकगीतों के संरक्षण की दृष्टि से नहीं बल्कि अपनी दुकान और धंधा चलाने के लिए किया है। सिनेमा में लोकगीत सिचुएशन के हिसाब से लिए गए। जैसे अलग-अलग क्षेत्रों के होली गीत, रक्षा बंधन, जन्माष्टमी गीत, विवाह गीत, विरह गीत, किसी तीज त्यौहार के गीत, कजरी,टप्पा, चैती जैसे कई लोकगीतों का समावेश सिनेमा में किया गया । इनमें भोजपुरी, पंजाबी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, डोगरी आदि कई भाषाओँ बोलियों के लोकगीतों को फिल्मों में शामिल किया गया है। फिल्म ‘तीसरी कसम’ में लोक नाट्य नौटंकी में काम करने वाली हीराबाई की कहानी है। जिसे गाँव में एक नाचने-गानेवाली वेश्या के रूप में ही जाना जाता था। यह उसके भीतर मौजूद बराबरी और सम्मान की भावना और उसे पाने की ललक की कहानी है जो उसे दर्शकों के अथाह समूह अथवा रूप-रसिया जमींदार से नहीं बल्कि एक मेहनतकश गाड़ीवान हिरामन से मिलता है ।

सन 1966 में फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी  ‘मारे गए गुलफाम’ पर गीतकार शैलेन्द्र ने फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई. इस फिल्म में लोककला का भरपूर उपयोग कर लोकजीवन और लोकाचार का प्रस्तुतीकरण किया गया। इस फिल्म में नौटंकी की हीराबाई और गाड़ीवान हीरामन के एक अलौकिक प्रेम (अलौकिक इसलिए कि दोनों ने एक दूसरे के प्रेम को महसूस तो किया लेकिन अभिव्यक्त नहीं कर पाए और बिछुड़ने पर प्रेमी-प्रेमिका की तरह ही दुखी हुए )  की मार्मिक कहानी है। अधिकांशत: यदि कोई स्त्री कलाकार है तो उसके जीवन में उसका अपना कुछ निजी नहीं रह पाता है, सब कुछ सार्वजनिक हो जाता है। इसी तरह फिल्म ‘तीसरी कसम’ में हीराबाई का जीवन सार्वजनिक हो जाता है। क्षेत्र का विशेषाधिकार प्राप्त पुरुष उसे अपने लिए सुरक्षित रखना चाहता है। हीरामन को पता लगने पर यह उसे नागवार गुजरता है। नौटंकी के प्रदर्शन होने की बात जान हर गांववासी उसे देखने, उससे अपनी नज़दीकी बढ़ाने के लिए उतावला होता है जो अक्सर लोकाचार का हिस्सा रही हैं। लोकगीत ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़ा वाली मुनिया’ में स्त्री का जीवन कंडीशन्ड किया गया है याने पिंजरे में रहने वाली सुघर मुनिया सबका मन मोह रही है। यानि उस पर मालिक की कृपा है। खुली हुई मुनिया की तरह उसे जीने के लिए संघर्ष करना होता तो उसकी कीमत भी कम हो जाती। फिल्म में शामिल ‘सजन रे झूठ मत बोलो’, ‘सजनवा बैरी हो गए’ जैसे लोकगीत हमारे लोकजीवन के व्यवहार और नीतियों को अभिव्यक्त करते हैं।

इसी तरह फिल्म ‘नया दौर’ में गाना ‘उड़े जब-जब जुल्फें तेरी’ में पंजाबी लोक संगीत का प्रयोग किया गया. यह गाना पंजाबी लोकगीत का पर्याय हो गया। आज भी इसे लोग पंजाबी लोकगीत ही मानते हैं हालाँकि इसको एक नज़्म कहा जा सकता है। इसी तरह भारत-पाकिस्तान विभाजन पर बनी चंद्रप्रकाश द्विवेदी कृत फिल्म ‘पिंजर’ पंजाबी लोकजीवन और लोकगीतों से सजी एक मार्मिक फिल्म है जो उस दौर की सच्चाई और त्रासदी को सामने लाती है। पंजाबी गीत ‘शाबा नी शाबा’ और ‘मार उडारी नी कुड़िये’ आज भी मन को भिंगा जाते हैं। फिल्मों में दिखाए जाने वाले त्योहारों में होली और रक्षाबंधन बहुत ही प्रचलन में है. बल्कि बाज़ार ने तो आज त्योहारों को अपने लिए बहुत बड़ा माध्यम ही बना लिया है। फिल्म ‘सिलसिला’ में होली गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध लोकगीत है जिसे हरिवंश राय बच्चन द्वारा रिक्रिएट किया गया और आमजन के बीच बहुत ही चर्चित हुआ।

सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होते होते अनेक फ़िल्में बनी जो सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक विषयों पर आधारित थीं। बाद के दशकों में ‘अली बाबा चालीस चोर’, ’शीरीं फरहाद’, ‘लैला मजनूं’, ’हातिमताई’ जैसी फ़िल्में अरबी लोककथाओं पर आधारित थीं और विशुद्ध मनोरंजन का पर्याय थीं। आज के हाई टेक दौर में भी हर उम्र के दर्शक नई तकनीकों के साथ उनसे अपना मनोरंजन कर रहा है। फिल्म नया दौर का गाना “ये देश है वीर जवानों का’ पूरी तरह पंजाब की लोक संस्कृति को प्रदर्शित करता है। राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘नदिया के पार’ में उत्तर भारत के  रीति रिवाजों ,रहन-सहन, गीत-संगीत और बोलचाल सभी कुछ समाहित किया गया हैं। इसी ‘नदिया के पार’ का नया संस्करण “हम आपके हैं कौन’ है। दोनों फ़िल्मों की कहानी एक है। ‘नदिया के पार’  को ग्रामीण और ‘हम आपके हैं कौन’ को शहरी परिवेश में फिल्माया गया है लेकिन दोनों में ही जिन बातों पर फोकस किया गया है वे हैं खानपान, तीज-त्यौहार, स्वागत-सत्कार, सामाजिक संस्कार और  रीति रिवाज। यही है हमारी लोककला। दोनों ही परिवेश में  निर्मित फिल्मों में लोककला  की उपस्थिति इस बात की ओर इंगित करती है कि लोककला  कहीं भी अनुपस्थित नहीं रह सकती। ये फिल्में तो मात्र उदाहरण भर है। ऐसी अनेकों फ़िल्में हैं जो लोककलाओं से शुरू होकर लोककलाओं पर ही समाप्त होती हैं।

दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों के जीवन को देखकर हम यह कह सकते हैं कि अधिकतर लोग अपनी जड़ों से कटे हुए लोग हैं लेकिन कोई भी जीवन बिना लोक के कैसे जिया जा सकता है? हमारे आसपास बिखरी लोककला हमारे रग-ओ-रेशे में ऐसी बसी है जैसे लहू में ऑक्सीजन। जब जीवन में रची बसी है तो फिर हमारी रचनात्मकता भला उससे कैसे दूर हो सकती है। खासतौर से सिनेमा। हमारी लोककलाओं को सिनेमा और दीगर माध्यम आज बाज़ार के माध्यम से भुना रहे हैं और निरंतर दूर होती लोककला को सिनेमा में उपस्थित कर उनके नजदीक हो जीने की कोशिश में लगे हैं याने हम यथार्थ से दूर हो आभासी दुनिया में जीने के आदी हो चुके हैं। हिंदी सिनेमा ने भारतीय समाज को बहुत अधिक प्रभावित किया है. समाज की सकारात्मक और नकारात्मक परम्पराओं, मान्यताओं, स्थापित मूल्यों, संस्कृति को लोक से ही सिनेमा में लाया गया है। 1925 में बाबूराव पेंटर की सावकारी पाश से लेकर हाल-फिलहाल में आई फिल्म ‘पीके’ में लोक तत्वों का भरपूर समावेश किया गया है। फिल्म सावकारी पाश, दो बीघा ज़मीन, मदर इंडिया, नया दौर, जिस देश में गंगा बहती है, गंगा-जमुना, नीचा नगर, राम और श्याम, दो आँखें बारह हाथ, गबन, तीसरी  कसम, नदिया के पार, सीता और गीता, सगीना , शोले, त्रिया चरित्तर, पार, दामुल, राम तेरी गंगा मैली, नमक हलाल, डॉन, मृत्युदंड, पहेली, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, पानसिंह तोमर, राँझना से लेकर पीके तक सारी फिल्मों की लोकप्रियता उनके भीतर चित्रित लोकजीवन और लोकतत्वों के इस्तेमाल के कारण है। बेशक कई बार इनका इस्तेमाल इतना अतार्किक हो जाता है कि मूल स्थापना पीछे रह जाती है और लोकतत्व या लोककला आदि एक थिगली बनकर रह जाते हैं . कहा जा सकता है कि सिनेमा में लोककलाओं का इस्तेमाल एक संयम और गहरे विवेक की मांग करता है ।

फिल्म डॉन में खइके पान बनारस वाला… का एक दृश्य

सावकारी पाश, मदर इंडिया, दो बीघा ज़मीन, गंगा जमुना में गाँव के जमींदारों द्वारा किसान का शोषण और उनकी ज़मीन पर जबरदस्ती कब्ज़ा, उनके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार एवं षड्यंत्र कर अपने चंगुल में फंसा जीवन भर के लिए गुलाम बना लेने के चित्र भर नहीं है बल्कि इन फिल्मों में पूरी विश्वसनीयता के साथ ग्रामीण समाज में मौजूद लोककला के इस्तेमाल से एक सच्चे वातावरण का सृजन किया गया है। इसमें ग्रामीण समाज के लोगों की सभी सांस्कृतिक उपक्रम, उनके नाच-गाने, जीवन की सौन्दर्य दृष्टि, उनका पहनावा, उनके आभूषण के साथ-साथ उस लोक-क्षेत्र में फैली परंपराओं, मान्यताओं को विस्तार दिया गया है। बिमल राय कृत फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ में बारिश न  होने पर भी नाउम्मीदी के बीच उम्मीद की किरण हैं आसमान में छाये बादल। वास्तव में सूखाग्रस्त गाँव के लिए ये बादल बहुत महत्त्व रखते हैं। आशुतोष गोवारीकर की मशहूर फिल्म लगान में ये बादल एक अद्भुत दृश्य बना देते हैं । यही लोक है जो अपने जीवन के सभी पहलुओं के साथ अपनी सार्वजनीन है । सिनेमा ने उसका उपयोग अक्सर प्रभावशाली रूपकों के तौर पर किया है।

भारतीय सिनेमा के वितान पर नज़र डालते हुए यदि सिनेमाई करिश्मों और सफलताओं का विश्लेषण करें तो कोई ऐसी सफल फिल्म नहीं होगी जिसमें लोकतत्वों का समावेश किये बिना उसे परदे पर प्रस्तुत किया गया हो। शहरों में रह रहे जनमानस भले अपने को ठेठ शहरी संस्करण में समाज के सामने प्रस्तुत करें लेकिन उनके जीवन में कहीं न कहीं लोक की परछाई दिखाई दे ही जाती है। कुछ नहीं तो उनके खान-पान में, उनके गहने-गूटे में, और कुछ नहीं तो बोलचाल में ही । तब फिर हमारी फ़िल्में भला इससे कैसे अछूती रह सकती हैं ?

इस तरह सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होते-होते उसमें लोककला की अनेकों छवियां विविध तरीके से आई जिसे कहीं हम धरोहर के रूप पाकर गर्व करते हैं और कहीं कुछ बातों को देखकर झुंझलाहट महसूस करते है। बहुत सी लोककलाएँ जो मरणासन्न स्थिति में थीं उन्होंने फिल्मों से जीवन पाया और जनता से दूर होते सिनेमा ने लोककला के सहारे सफलता के नए प्रतिमान स्थापित किये। भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी अनेक फ़िल्में दर्ज हैं जिनमें लोककलाओं का भरपूर समायोजन हुआ और वे जन मन को छूने में बहुत अधिक कामयाब हुईं। कई फिल्मकारों ने लोककलाओं के उपयोग से जीवन की कई जटिलताओं को हल भी किया है। लेकिन अभी भी लोककलाओं का संदोहन बाकी है। एक और भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी सिनेमा ने अभी तक पंजाबी और भोजपुरी कल्चर को ही एक्स्प्लायट किया है। थोडा-बहुत मराठी, गुजराती, बंगाली, बुन्देली और मद्रासी को भी ले लिया है लेकिन उसके सामने उत्तर पूर्व की विस्तृत संस्कृति सहित बहुत सारा भारतीय भूभाग और वहां की संस्कृतियाँ तथा लोककलाएँ एक चुनौती के रूप में मौजूद हैं। अब देखना यह है कि अपने देश में मौजूद लोककलाओं के इस विशाल भंडार को भारतीय सिनेमा कैसे चित्रित करता है !

Dated : 24 June, 2021

गाँव के लोग
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