कल आईपीसी के जन्मदाता लार्ड मैकाले का जन्मदिन था। इस अवसर पर बहुजन बुद्धिजीवियों ने जमकर श्रद्धा उड़ेला। प्रख्यात दलित चिन्तक और इंग्लिश गॉडेस की अवधारणा के जनक चंद्रभान प्रसाद द्वारा सपत्नीक मैकाले पर पुष्प अर्पित करती तस्वीर खूब वायरल हुई। उनके अवदानों को याद करते हुए लेखक डॉ. विजय कुमार त्रिशरण ने लिखा कि ‘लार्ड मैकाले प्रथम ब्रिटिश विद्वान थे जिन्होंने विषमता पर आधारित हिंदुत्व, ब्राह्मणवाद तथा जातिवाद पर खुलकर हमला किया। वे बहुजनों के पक्ष में आवाज उठाने वाले अंग्रेज मानवतावादी और विचारक थे, जिन्होंने आधुनिक विज्ञान आधारित शिक्षानीति लागू कर भारत में शिक्षा क्रान्ति की मशाल जलाई। उन्होंने गुरुकुल की जगह कॉलेज और यूनिवर्सिटी स्थापित होने का मार्ग प्रशस्त किया।’ भारत के श्रेष्ठ बहुजन पत्रकार दिलीप मंडल ने उन्हें याद करते हुए लिखा, ‘लार्ड मैकाले न होते तो मुमकिन था कि अब भी शिक्षा गुरुकुलों में कैद होती, जहाँ चंद जातियों के लोग ही पढ़ रहे होते। अगर उन्होंने आईपीसी न बनायीं होती तो आज भी मनुस्मृति से देश चल रहा होता और भारत के पहले आतंकवादी नाथूराम गोडसे को फांसी न हो पाती।’
जुनून की हद तक बहुजन मूवमेंट के प्रति समर्पित डॉ. पीएल आदर्श ने मैकाले के प्रति अपनी श्रद्धा इन शब्दों में उड़ेली, ‘आधुनिक भारत की नींव रखने वाले बहुजन समाज के मसीहा लार्ड मैकाले को उनके जन्मदिन पर कोटि-कोटि बधाई।’ बहरहाल कल एक ओर बहुजन बहुजन बुद्धिजीवी डॉ त्रिशरण, डॉ. आदर्श, दिलीप मंडल के ही शब्दों में मैकाले के प्रति श्रद्धा ज्ञापित करते रहे, वहीँ जन्मजात सुविधाभोगी के बुद्धिजीवी ख़ामोशी अख्तियार किये रहे। उन्होंने मुंह खोला भी उनकी बुराई में। उनके हिसाब से ढेरों बुराइयों के मैकाले की सबसे बड़ी बुराई यह थी कि उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा नीति लागूकर भारत की गुलामी दीर्घतर करने की साजिश की। बहरहाल, अगर सुविधाभोगी वर्ग में मैकाले को लेकर ऐसी धारणा बनी है तो उसके लिए जिम्मेवार स्वाधीन भारत की हिन्दू शिक्षा पद्धति है, जिसने नायकों को खलनायक और खलनायकों को नायक बनाने में पाठ्य-पुस्तकों का जमकर दुरुपयोग किया। पाठ्य पुस्तकों के जरिये जो सबसे शर्मनाक काम हुआ वह स्वाधीनता संग्राम का इतिहास बताने में हुआ। इन पाठ्य-पुस्तकों के जरिये अंग्रेजों की दलाली कर सर, रायचौधरी, राय बहादुर इत्यादि का खिलाब जितने वाले हिन्दुओं को जहाँ महामनायक बताने का अबाध कार्य हुआ, वहीँ, मातादीन भंगी, झलकारी बाई, ऊदा देवी पासी जैसे बेशुमार बहुजन संग्रामियों को इतिहास की कब्र में दफ़न कर दिया गया। इसी तरह का बड़ा अन्याय लार्ड मैकाले के साथ हुआ।
पाठ्य पुस्तकों में भारत की स्वाधीनता के लिए यादगार योगदान देने के लिए सामान्यत या गाँधी, सुभाष, भगत सिंह इत्यादि की खूब चर्चा होती है, किन्तु इसके पृष्ठ में जिस व्यक्ति का बुनियादी योगदान रहा, उस मैकाले की अहमियत को शून्य पर पहुँचाने का प्रयास हुआ। पाठ्य पुस्तकों में मैकाले का जिक्र होता है तो रावण के बाद सबसे बड़े खलनायक के रूप में, किन्तु सच्ची बात तो यह है कि अंग्रेजों से इंडियन लोगों को लिबरेट करने में सबसे बड़ी भूमिका लार्ड मैकाले की रही। उन्होंने भारत में अंग्रेजी शिक्षा नीति लागू करते समय बहुत ही शांत-चित्त से कहा था – ‘हम जो शिक्षा नीति इस देश को देकर जा रहे हैं,उसके फलस्वरूप हमें इस देश से चला जाना होगा, किन्तु वह जाना हमारे लिए गर्व की बात होगी।’ आपको यह जानकार ताज्जुब होगा कि अंग्रेजों के आने से पूर्व देवभक्ति में निपुण हिन्दुओं में ‘मदरलैंड वर्शिप’ की कोई अवधारणा ही नहीं थी। इसीलिए जब भारत के साहित्य सम्राट बंकिम चटर्जी ने आनंद मठ में वन्दे मातरम का उच्चारण किया, उन्हें चैलेंज करते हुए एक अंग्रेज भाषाविद , शायद वह ग्रियर्सन थे, ने 1919 में टाइम्स में लेख लिखकर कहा कि आनंद मठ में ‘वन्दे मातरम’ के उच्चारण का अभीष्ट किसी हिन्दू देवी, काली या दुर्गा की वंदना से है। कारण समग्र आर्य(हिन्दू ) साहित्य में ‘मदरलैंड वर्शिप’ का कोई कांसेप्ट ही नहीं है।’ ग्रियर्सन की उस चुनौती के समक्ष हमारे साहित्य सम्राट बंकिम चुप्पी साध लिए थे। देशात्मबोध की भावना से पूरी तरह अनजान हिन्दुओं ने अंग्रेजी भाषा के सौजन्य से फ़्रांसिसी क्रांति, अमेरिकी स्वाधीनता संग्राम इत्यादि से अवगत होने का अवसर पाया उसके बाद ही उनमें देशभक्ति की भावना अंकुरित हुई। अंग्रेजों से टर्की की मुक्ति में ऐतिहासिक योगदान करने वाले लारेंस ऑफ़ अरबिया (एडवर्ड लारेंस ) से पूर्व मैकाले ही वह अद्विति अंग्रेज थे जिन्होंने अंग्रेज होकर भी अंग्रेजों से भारतीयों के लिबरेशन (मुक्ति ) की जमीन तैयार की। इस काम में मार्गदर्शक का काम किया फादर विलियम केरी और चार्ल्स ग्रांट ने, जिन्हें मैकाले अपना गुरु मानते थे, की क्रमशः 1792 और 1797 में प्रकाशित ‘ऐन इन्क्वैरी इन्टू दऑब्लिगेशन ऑफ़ क्रिश्चियंस टू चूज मीन्स फॉर द कन्वर्जन ऑफ़ द हिथेन’और ‘ऑब्जरवेशनऑन द स्टेट ऑफ़ सोसाइटी अमांग द एसियाटिक सब्जेक्ट्स ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन ,पार्टिकुलरलि विथ रेस्पेक्ट टू मॉरल्स एंड ऑन मीन्स ऑफ़ इम्प्रूविंग इट’ जैसी लम्बी शीर्षक वाली दो किताबें। अफ़सोस की बात है कि मैकाले विरोधियों की जो संताने आज अंग्रेजी के सहारे विदेशी कंपनियों की सेवा कर बेहतर जिंदगी का लुत्फ़ ले रही हैं, उनमें भी अहसानमंदी की कोई भावना नहीं है। अगर वे मैकाले के प्रति अपना थोड़ा भी कर्ज उतारतीं, मैकाले खलनायक नहीं, एक महानायक के रूप में पूजे जाते!
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के अध्यक्ष हैं।