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एकांत और अकेलेपन के बीच – मन्नू भंडारी – कुछ स्मृतियों के नोट्स

 पहला हिस्सा  4 सितम्बर 2008 – क्षमा पर्व मन्नू जी का फोन – सुन सुधा, एक बात तुझसे कहना चाहती हूं। यह तो वे रोज ही कहती हैं। उन्हें कुछ शेयर करना होता है या बताना होता है। मैंने हंसकर कहा – कहिए मन्नू दी ! बोलीं – आज तक मैंने तुझसे अगर कोई कटु […]

 पहला हिस्सा 

4 सितम्बर 2008 – क्षमा पर्व

मन्नू जी का फोन – सुन सुधा, एक बात तुझसे कहना चाहती हूं।

यह तो वे रोज ही कहती हैं। उन्हें कुछ शेयर करना होता है या बताना होता है।

मैंने हंसकर कहा – कहिए मन्नू दी !

बोलीं – आज तक मैंने तुझसे अगर कोई कटु बात कही, अगर कुछ कहकर तेरा मन दुखाया, तो मैं आज तुझसे उसकी क्षमा माँगती हूं ।

मैं सनाका खा गई। आजकल मन्नू दी को क्या हो गया है। कभी नॉमिनेशन की बात करेंगी, कभी अपनी अधूरी रचनाओं को लेकर परेशान होंगी, कभी पच्चीस साल पहले के किसी न्यूमरोलॉजिस्ट की भविष्यवाणी दोहराएंगी। कभी सिर्फ यह बताने को फोन करेंगी कि आज मुझे दर्द के ऐसे झटके लग रहे हैं कि मन हो रहा है कि अभी टिंकू को कहूं कि मेरा ऑपरेशन करवा दे। …..और उस समय आवाज ऐसी जैसे किसी खोखल से आवाज आ रही है जिसके शब्द पकड़ने में कान और दिमाग को जोर देना पडे़। …. और अब यह अचानक क्षमा ……. ?

मैंने कहा – मन्नू दी, क्षमा तो मैं आपसे मांगती हूं। पचीसों बार मैं आपके घर आई, ठहरी, पंजाबी अक्खड़पन तो है ही मुझमें।  मैंने कुछ कहा हो तो आप मुझे छोटा मानकर क्षमा कर दें।

मन्नू जी हंसने लगीं – पता है, आज हम जैनियों का क्षमा पर्व है। आज के दिन सब मित्र परिचित संबंधी सबसे क्षमा मांगी जाती है। कितनी अच्छी बात है न। हम कितना कुछ कटु बोल जाते हैं। तो उसके लिए साल में एक दिन क्षमा मांगनी चाहिए। हां, लेकिन यह नहीं होना चाहिए कि आज तो क्षमा मांग ली, कल से फिर अपने ढर्रे पर आ गए और कड़वा बोलने लगे।

मन्नू जी में शुद्ध जैनी संस्कार हैं। मीठा लेकिन बनावटी या दिखावटी नहीं बोलना, सच बोलना, अतिथियों के आने पर प्रसन्नचित्त उनका स्वागत करना, घर आए मेहमान की मन से खातिरदारी करना और किसी का दिल कभी न दुखाना। और पारदर्शिता इतनी कि मन में सामने वाले के प्रति जो भी है, साफ-साफ बाहर झलकने लगे। अगर कोई बात बुरी लगी तो बड़े सलीके से बता देंगी कि वे बहुत हर्ट हो गई आपकी इस बात से। यह नहीं कि बरसों मन के अंदर उस बात को रखकर बैठे है और कुढ़ रहे हैं।

…. और कहने के बाद मन जब हल्का हो गया तो फिर पहले जैसी ही मन्नू जी – खिलखिल हंसी। वह हंसी जो उनकी खास पहचान है। वह हंसी जो उनकी तमाम तकलीफों, तनावों, उलझनों पर एक मजबूत आवरण का काम करती है। वह हंसी जो उनके व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग है, जिसके साक्षी उनके सभी मित्र संबंधी हैं। यह हंसी लगता है, उन्हें विरासत में मिली है। अभी पिछले दिनों मैं कलकत्ता गई थी। मन्नू जी की बड़ी बहन सुशीला जी से लंबी बातचीत हुई। देखा कि सुशीला जी बातें कम करती हैं, हंसती ज्यादा है। …… और खूब खिली-खिली हंसी जो सामने वाले को भी तरोताजा कर दे।

[bs-quote quote=”हौज खास के उनके इस घर का दरवाजा मेरे लिए हमेशा खुला रहता था। मुझे हमेशा लगता है जैसे 16 दिसंबर 1999 को इस दुनिया से अचानक विदा लेते हुए मेरी मां जाते-जाते, अपने आप को मेरे लिए मन्नू दी में छोड़ गई क्योंकि मुझे अपनी मां की बहुत जरूरत थी उन दिनों।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अजमेर का मारवाड़ी संस्कारी दकियानूसी और संबंधों में निष्ठा रखने वाला संयुक्त परिवार – लड़कियों का नौकरी करना जिन संभ्रांत घरों में तौहीन समझी जाती थी – वहां मन्नू जी ने स्कूल में नौकरी से शुरुआत की और उनकी मां को हमेशा पिता से ताने सुनने पड़ते कि बेटी को रोकड़ा कमाने की क्या जरूरत पड़ी है। मन्नू जी के लिए यह नौकरी बाद में तो मजबूरी बन गई। पर मजबूरी कहें या ताकत, इसी नौकरी ने दिया यह घर – सर पर एक छत …. फ्लैट न. 103 , हौज खास अपार्टमेंट, यानी मन्नू भंडारी का आवास। बेहद कलात्मकता लिए एक सुरुचिपूर्ण घर। मन्नू जी कितनी भी बीमार हों, अगर उठ पाने और नहाने भर की ताकत होती तो वे खुद भी उतने ही सलीके से सूती या सिल्क की साड़ी पहने मिलती जिसका बॉर्डर बेहद करीने से कंधे पर होगा और बालों का छोटा-सा जूड़ा पीछे बंधा हुआ।  यह कलात्मकता मन्नू जी के समूचे व्यक्तित्व से लेकर उनके लेखन तक में व्याप्त था। छह लाइनों के एक पैराग्राफ में अगर दो शब्द उन्हें ठीक नहीं लग रहे होते तो वे तब तक उसे छपने के लिए नहीं भेजतीं जब तक उन्हें दुरुस्त न कर लेतीं।

हौज खास के उनके इस घर का दरवाजा मेरे लिए हमेशा खुला रहता था। मुझे हमेशा लगता है जैसे 16 दिसंबर 1999 को इस दुनिया से अचानक विदा लेते हुए मेरी मां जाते-जाते, अपने आप को मेरे लिए मन्नू दी में छोड़ गई क्योंकि मुझे अपनी मां की बहुत जरूरत थी उन दिनों।

कहने को मैं मन्नू जी को मन्नू दी कहती हूं, पर उन्होंने मुझे एक बेटी का ही दर्जा दिया है। उनके घर के दरवाज़े के अंदर पैर रखते ही मुझे लगता है – मैं अपनी मां के घर आ गई हूं। पिछले अढ़ाई-तीन सालों में जैसे मन्नू जी ने मुझे संभाला है, समझाया है, जैसी व्यावहारिक सीखें दी हैं, जैसी कसकर डांट लगाई है,  मुझे मां की कमी महसूस नहीं होती, जब मैं उनके पास होती हूं। अपनी ज़िंदगी के तिक्त कड़वे अनुभवों और अपने निर्णय पर डटे रहने की मिसाल दे-देकर मुझे अपनी तरह मजबूती से खड़े रहने की हिम्मत दी है।

यह बात दीगर है कि उस सजे-धजे विराट घर में भी एक अजीब-सी वीरानी थी। घर के एक कोने से दूसरे कोने तक एक निचाट अकेलापन-सा पसरा बैठा था जो मन्नू जी के उस एकांत में भी खलल डालता रहता था जो उन्हें बेहद रुचता है – अपने साथ अपना होना। यह अकेलापन उनका अपना चुनाव था। जब किसी के साथ रहते हुए भी अकेले ही जीना हो तो उस साथ के होने का भरम टूट जाना ही अच्छा होता है। यह स्थिति बेशक तकलीफदेह थी पर दो तकलीफदेह स्थितियों में से व्यक्ति वही स्थिति चुनेगा जो थोड़ी कम तकलीफदेह हो, जो उसके सांस लेने की क्रिया को सम पर लाकर थोड़ा सा आरामदेह बना दे।

….और उस विराट घर में कई बार अपने को महीनों अंधेरे बंद कमरे में अपने अकेलेपन और अपनी शारीरिक तकलीफों से अकेली जूझती मन्नू जी। हां, उनकी पीर बावर्ची लक्ष्मी — बस हाथ भर के फासले पर बनी घंटी बजाते ही जिन्न की तरह हाजिर हो जाती। लक्ष्मी नाम के अपने बेहद प्रिय जिन के सहारे मन्नू जी ने कितने बरस काट दिए। अपने निजी खर्च में मन्नू जी छोटी से छोटी कटौती भी बड़ी बेरहमी से करतीं पर अपनी बेहद प्रिय लक्ष्मी और उसके परिवार के प्रति कृतज्ञता के मारे कुछ भी करने को हमेशा तत्पर रहती थीं वे।

ऐसे जानलेवा तनाव और बीमारियां – जो किसी का भी मनोबल और हौसला तोड़कर रख दें, मन्नू जी अपने बूते पर झेल ले गईं। इन्हीं सब से जूझते लेखन बंद हो गया। बहुत कम लिखा है उन्होंने और उस कम लेखन में भी जो यश, नाम और बेशुमार पाठकों का प्यार मिला, अपने को उसका हकदार नहीं मानतीं। अपने को हमेशा कम करके आंकना उनके स्वभाव में है। हमेशा कहती थीं – दरअसल जो लिखना था, वह तो लिख ही नहीं पाईं। वह सब जो आज भी अधूरा पड़ा है। अपने दोनों अधूरे उपन्यासों को पूरा करने की – जिसमें से एक में से तो दो कहानियां उन्होंने और एक कहानी राजेंद्र जी ने निकाल ली। ……. और हर दिन लेखन के शुरू होने की उम्मीद उनकी आंखों में एक चमक और जीने की ललक पैदा करती थी।

[bs-quote quote=”मन्नू राजेंद्र को सारे सुख, सारी सुविधाएं देना चाहती थीं क्योंकि भावनात्मक रूप से बहुत गहरे तक जुड़ी थीं लेकिन बदले में उसे सिर्फ रिजेक्शन ही मिला। मैंने कहा – कलाकारों की बीवियों के लिए यह कौन-सी नयी बात है। अपनी बीवी के प्रति सभी रचनाकारों की संवेदना अपने घर की दहलीज़ पर आते ही खत्म हो जाती है। यह अलग बात है कि कितनी औरतें मन्नू जी की तरह अपने को काटकर अलग करने का साहस जुटा पाती हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मन्नू जी को पहली बार मैंने कलकत्ता में देखा था – राजेंद्र जी के साथ उनकी शादी को महीना भर भी नहीं हुआ था और वे ऊँची एड़ी की सैंडल पहने सिर पर जूड़ा भी कुछ ऊँचा-सा बांधे, राजेंद्र जी के बगल में बड़े गर्वीले और मुग्ध भाव से खड़ी थीं। उसके बाद जब भी उन्हें राजेंद्र जी के साथ देखा – वह गर्व और मुग्धता हमेशा उनके चेहरे पर दिखाई दी। राजेंद्र जी उनके लिए दुनिया के सबसे आकर्षक, सबसे मोहक पुरुष थे। धीरे-धीरे गर्व ढहता गया और मुग्धता की लुनाई कम होने लगी। अपने पति के सारे असामाजिक व्यवहार, असहनीय रूखापन, हर दूसरी औरत के प्रति उनका असामान्य आकर्षण – इन सारी खामियों के बावजूद जो एक भावात्मक तार जुड़ गया था, उसकी वजह से जितना सम्मान मन्नू जी ने उन्हें दिया, शायद ही किसी और से उन्हें मिला हो।

मन्नू जी किस खूबी से सारा ज़हर पचा गईं और चेहरे पर शिकन न आने दिया, यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला। यों पत्नियों के लिए यह अप्रत्याशित बिल्कुल नहीं है। वे अपना जीवन एक सुरक्षित लीक पर सरलता, सहजता से चलाने के लिए बहुत तरतीब से सारे झाड़-झंखाड़ को अपने रास्ते से बुहारती चलती हैं और किसी को इसकी खबर भी नहीं होने देतीं पर पति पुरुष के अहंकार का क्या इलाज है जो इसे पत्नी की कमजोरी और झाड़ – झंखाड़ पैदा करने को अपना मर्दाना हक मानकर चलता है और ताज़िन्दगी अपनी हार को अपनी जीत समझता रहता है।

वह तो मुझे खुद धक्का लगा, जब 1994 में मन्नू जी मुंबई आईं और मेरे सामने बेझिझक अपने जीवन की सारी दुर्घटनाएं बयान कर डालीं। वह रात मुझे आज भी याद है। मन्नू जी घर आई थीं और कहने लगीं – सुधा, तुझसे अकेले में कुछ बात करनी है। हम रात को खाना खाने के बाद निकले और गाड़ी लेकर बैंडस्टैंड पहुंचे। रात के साढ़े ग्यारह तक हम समुद्र के सामने गाड़ी में ही बैठे बातें करते रहे। तब तक मैं रिंकी भट्टाचार्य की संस्था ‘हेल्प’ ज्वॉयन कर चुकी थी। शायद वह भी एक वजह रही हो मन्नू जी के लिए – अपने व्यक्तिगत जीवन को खोलकर बताने की क्योंकि उससे पहले उन्होंने इस बारे में कभी जिक्र तक नहीं किया था। फिर मन्नू जी मेरे यहां लगभग एक महीना रहीं। हेल्प में रोजाना दो-तीन घरेलू हिंसा के मामले सामने आते ही थे पर मन्नू जी की सफरिंग बिल्कुल अलग किस्म की थी।

पिछले दिनों जब कलकत्ता में सुशीला जी से मिली, एक बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि मन्नू राजेंद्र को सारे सुख, सारी सुविधाएं देना चाहती थीं क्योंकि भावनात्मक रूप से बहुत गहरे तक जुड़ी थीं लेकिन बदले में उसे सिर्फ रिजेक्शन ही मिला। मैंने कहा – कलाकारों की बीवियों के लिए यह कौन-सी नयी बात है। अपनी बीवी के प्रति सभी रचनाकारों की संवेदना अपने घर की दहलीज़ पर आते ही खत्म हो जाती है। यह अलग बात है कि कितनी औरतें मन्नू जी की तरह अपने को काटकर अलग करने का साहस जुटा पाती हैं। कारण सैकड़ों हैं – जिसमें मुख्य कारण बच्चे और बच्चों का भविष्य होता है। अधिकांश पत्नियां वैवाहिक जीवन के सारे नकारात्मक पक्षों की ओर से आंखें मूंद लेती हैं ताकि बच्चों के कैरियर बनाने के दौरान उन्हें भावनात्मक झटके न लगें पर यहां तो बिटिया टिंकू ने भी कह दिया कि ममी, आपको तो बहुत पहले अलग हो जाना चाहिए था।

स्त्री संघर्ष का एक सम्पूर्ण दस्तावेज़

बिटिया टिंकू अभी ग्यारह महीने की थी, एक साल की होेने वाली थी, उसका पहला जन्मदिन आ रहा था। मन्नू जी से उनके पतिदेव ने वायदा किया कि उन्हें घुमाने पहाड़ पर ले जाएंगे। आगरा में मन्नू जी की ननद यानी राजेंद्र जी की बहन की शादी थी और सुशीला जी अपने ससुराल की किसी शादी में जयपुर जा रही थीं। मन्नू-राजेंद्र-टिंकू, सुशीला जी और उनके पति साथ-साथ कोलकाता से निकले ।

उधर ननद की शादी में मन्नू भाभी अपने प्रॉविडेंट फंड से पैसे निकाल कर दे रही हैं।

कन्यादान पर क्या देंगे? — बहन फरमाइश करती है तो लेखक भाई मसखरी करता कहता है – पेन ले लो।

— हम क्या लेखक हैं, पेन का क्या करेंगे? बहन रूठ जाती है।

मन्नू जी ने जो पैसे घूमने के लिए अलग रखे थे, उसमें अपनी सोने की बालियां मिलाकर ननद के लिए उसकी पसंद के सोने के टॉप्स ले दिए।

आगरा से राजेंद्र जी पहले कुल्लू चले गए कि जाकर ठीक-ठाक जगह का बंदोबस्त करता हूं फिर तुम आ जाना। किसी तरह  कुल्लू में हाथ खर्च के लिए चार-पांच सौ रुपए बचा रखे थे, वही लेकर मन्नू जी इंदौर पहुंचीं – जहां पिता कैंसर से जूझ रहे थे। इंदौर वाली बहन स्नेहलताजी ने बड़े चाव से सबसे गरम शॉल निकाल कर दी कि कुल्लू में कितनी भी सर्दी हो, यह शॉल ओढ़कर पसीने आ जाएंगे। वह शॉल और दूसरे गरम कपड़े की तैयारी के साथ मन्नू जी पति के साथ पहाड़ पर जाने की हौंस लिए इंतजार में बैठी हैं। बहन सुशीला जी टिंकू को लेकर कलकत्ता लौट गईं।

इधर पति महोदय प्रकाशक को दो किताबें – जिसमें कुछ कहानियां उनकी हैं, कुछ मन्नू जी की – थमा देते हैं और प्रकाशक से नगदी का जुगाड़ कर लेते हैं। पति का हक मानते हुए मन्नू जी से पूछने की ज़रूरत भी नहीं समझते। हाथ में ‘अपनी कमाई का पैसा’ लेकर पहले ही अपनी मीता के साथ पहुंच चुके हैं कुल्लू-मनाली। अब मन्नू जी को वह अच्छा-सा खत लिखते हैं कि जगह तो ठीक कर ली है लेकिन इतना खुशनुमा माहौल है कि उपन्यास लिखने का मन हो आया है। अब तुम देख लो। लेखिका पत्नी लेखक की रचनात्मकता को तरजीह देगी ही, कैसे कहे कि मत लिखो।

बिटिया का जन्मदिन कलकत्ता में, मन्नू जी इंदौर में, पति अपनी प्रेमिका के साथ कुल्लू में। मन्नू जी को आज भी यह तकलीफ सालती है कि न इकलौती बिटिया के जन्म पर खुशी मना सके, न उसके पहले जन्मदिन पर। बिटिया जब भी उन्हें रोते देखती, खुद अपराध भाव से भर जाती।

मन्नू जी के दिमाग में टिंकू के बचपन के तीन – चार चित्र दर्ज हैं –

ममी, आप रो क्यों रही हैं ? हमने आपसे कुछ कहा क्या? आप रोओ मत ममी।

सुशीला के घर जाते हुए एअरपोर्ट पर टिंकू का टाटा करते हुए जाना। रोते जाना और हाथ हिलाते जाना।

सच सच बताओ, हम किसके बच्चे हैं? हमारी असली मां कौन है?

जब भी अतीत के पन्ने हवा में उड़ते हैं, ये तस्वीरें उनके मन पर थपेड़े छोड़ जाती हैं। इसलिए टिंकू का जिक्र आते ही उन्हें लगता है, अपनी रोटी-रोजी के संघर्षों से जूझते हुए उसे वे वैसा बचपन नहीं दे पाईं – जैसा कोई भी सामान्य बच्चा अपने मां बाप से पाना डिजर्व करता है।

हां, तो पति के उपन्यास लिखना शुरु करने की सूचना से यह खांटी घरेलू लेखिका इस कदर गद्गद् हो उठती है कि कुल्लू में खर्च के लिए ननद की शादी में से बचाकर रखे हुए पांच सौ रुपए से उनके लिए खुद डिजाइन कर बढ़ई बुलवाकर एक सुंदर से स्टडी टेबल का ऑर्डर दे डाला। पति अपनी प्रेमिका के साथ पहाड़ पर जाकर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं और पत्नी उनके लेखन की शुरुआत पर मुग्ध हो अपने बचे हुए पैसों से उनके लिए पढ़ने की नयी-नकोर मेज़ तैयार करवा रही हैं। जब कुल्लू से पति लौटे तो मन्नू जी ने सहज भाव से पूछा – कितना लिख लिया उपन्यास, दिखाओ। पति हंस कर टाल देते हैं – पूरा तो हो जाने दो। मैं तुम्हारी तरह लिखने से पहले किसी से शेयर नहीं करता। उनके मित्र ठाकौर साहब घर आते हैं तो मन्नू जी उत्फुल्ल मन से बताती हैं कि अगस्त में इनका जन्मदिन आने वाला है और इन्होंने कुल्लू में उपन्यास लिखना शुरू कर दिया है तो यह लिखने के लिए मेज़ इनको उपहार में दे रही हूं। ठाकौर साहब ने मज़ाक किया कि ‘मन्नू बाईसा’, पहले पूछो तो सही – कहीं आगरा वाली को न ले गया हो। मन्नू जी हंस कर कहती हैं – क्या बातें कर रहे हैं ठाकौर साहब, ऐसा तो ये कर ही नहीं सकते। इतनी बड़ी बेईमानी थोड़े ही करेंगे मुझसे।

कुछेक महीने बाद उस आगरा वाली के खत हाथ लग गए। उसके बाद जब पता चलता है कि उपन्यास वगैरह तो क्या लिखा जाना था, पति तो अपनी मीता के साथ पहाड़ घूम आए। मन्नू जी को जैसा भावनात्मक धक्का लगता है, वह  मन के साथ साथ शरीर को भी बीमारियों से लैस कर देता है। हर बार मन पर धक्के लगते हैं, शरीर उससे तालमेल बिठाता अपने को अनचीन्ही तकलीफों से लैस कर लेता है। फिर भी जुड़ाव का एक ऐसा तार है जो तमाम धक्कों के बाद न सिर्फ टूटता नहीं , विशिष्ट कलाकार पति के दूसरे संबंध की अनिवार्यता को मन ही मन स्वीकार भी कर लेता है।

क्रमशः ….. 

गाँव के लोग
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