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मीडियाकर्मियों की सुरक्षा के लिए नहीं उत्पीड़कों को प्रोत्साहित करने के लिए बना है ‘मीडियाकर्मी सुरक्षा कानून’

पत्रकार सुरक्षा अधिनियम के नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी सरकार के अंतिम छमाही में छत्तीसगढ़ राज्य मीडिया कर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023 के नाम पर जो विधेयक लाया है, वह छत्तीसगढ़ के पत्रकारों के साथ सीधे-सीधे धोखाधड़ी है। छत्तीसगढ़ के पत्रकारों ने लंबे समय के आंदोलन के पश्चात छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की मदद से जो ड्राफ्ट […]

पत्रकार सुरक्षा अधिनियम के नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी सरकार के अंतिम छमाही में छत्तीसगढ़ राज्य मीडिया कर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023 के नाम पर जो विधेयक लाया है, वह छत्तीसगढ़ के पत्रकारों के साथ सीधे-सीधे धोखाधड़ी है। छत्तीसगढ़ के पत्रकारों ने लंबे समय के आंदोलन के पश्चात छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की मदद से जो ड्राफ्ट तैयार किया था, उसमें से कोई भी प्रावधान इसमें नहीं लिया गया है। यही नहीं, बल्कि खुद सरकार द्वारा गठित जस्टिस आफताब आलम की कमेटी द्वारा प्रस्तुत ड्राफ्ट को भी इसमें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।

ध्यान रहे कि पिछली सरकार के समय पूरे प्रदेश सहित विशेषकर बस्तर में बहुत ज्यादा पुलिस प्रताड़ना और फर्जी गिरफ्तारियों से आक्रोशित पत्रकारों ने पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर प्रदेशव्यापी आंदोलन किया था। इस आंदोलन के बाद प्रदेश सरकार ने पत्रकारों के आंदोलन को समाप्त करने व उनके आक्रोश को समाप्त करने के उद्देश्य से एक राज्य स्तर की कमेटी गठित की थी, वहीं तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव ने तब सदन में इस विषय पर निजी विधेयक लाने का वादा किया था। चुनावी घोषणा पत्र में भी कांग्रेस ने पत्रकार सुरक्षा कानून विधेयक लाने की घोषणा की थी। इस संबंध में बार-बार पत्रकारों द्वारा याद दिलाए जाने व आंदोलन किये जाने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने एक प्रारूप कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में रिटायर्ड जस्टिस अंजना प्रकाश, वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन, दिवंगत ललित सुरजन, प्रकाश दुबे, महाअधिवक्ता छत्तीसगढ़, पुलिस महानिदेशक व मुख्यमंत्री के सलाहकार तथा (अ) भूतपूर्व पत्रकार रुचिर गर्ग शामिल थे।

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इस कमेटी ने एक वर्ष से अधिक समय तक प्रदेश भर के बुद्धिजीवी और पत्रकारों से प्रारूप के लिए सलाह मांगा व इसके लिए प्रदेश के अंबिकापुर, रायपुर और जगदलपुर में बैठकें भी की। इस कमेटी को तब पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे छत्तीसगढ़ राज्य पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति ने देशभर के विद्वानों, कानून विशेषज्ञों व वरिष्ठ पत्रकारों की सलाह लेकर पीयूसीएल द्वारा तैयार ड्राफ्ट की कॉपी भी सौंपा था। जस्टिस आफताब आलम की कमेटी ने तीन वर्ष पूर्व ही इस सरकार को इस कानून के प्रारूप की कॉपी सौंप दी थी। जस्टिस आफताब आलम की कमेटी ने पत्रकारों की आपत्ति पर दो बार अपने प्रारूप में संशोधन किया था। कमेटी के अंतिम ड्राफ्ट में 71 धारायें थीं। मगर अब जो ड्राफ्ट विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया गया, उसमें मात्र 23 धाराए हैं। सुरक्षा देने वाली सारी प्रक्रियाएं तो उड़ा ही दी गई हैं। यह बिल केवल मीडियाकर्मियों के पंजीकरण और उनके पंजीकरण को रद्द करने के लिये ही रह गया है।

पत्रकारों की सुरक्षा के बारे में तय करने का अधिकार जब प्रदेश के आईएएस अफसरों को ही दिया जाना था और मनमानी ही करनी थी, तो फिर जस्टिस आफ्ताब आलम की कमिटी को यह काम सौंपने का क्यों ढोंग रचाया गया? अगर उस कमेटी की कोई बात और जनता के सुझावों को मानना ही नहीं था और अगर वह ड्राफ्ट पूरी तरह से ही खारिज करना था, तो कमिटी और जनता का समय क्यों नष्ट किया गया?

जस्टिस आफताब आलम द्वारा सौंपे ड्राफ्ट बिल में एक राज्य स्तरीय पत्रकार पंजीयन प्राधिकरण था और एक अलग से राज्य स्तरीय पत्रकार सुरक्षा कमेटी, जबकि नये कानून में बस एक ही राज्य-स्तरीय प्राधिकरण प्लस कमिटी है।

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इसके अलावा जस्टिस आफताब के ड्राफ्ट में ज़िला स्तर पर जोखिम प्रबंधन इकाइयां (Risk management units) भी थी। हालांकि तब पत्रकारों ने जिलास्तर के जोखिम प्रबंधन इकाई में जिला पुलिस अधिकारी और कलेक्टर को शामिल किए जाने का तब भी विरोध किया था। पत्रकारों का यह मानना है कि प्रशासन द्वारा पत्रकारों की प्रताड़ना के पीछे इन्हीं दोनों प्रमुख अधिकारियों का हाथ या निर्देश रहता है। सुधार के नाम पर 3 साल तक सरकार ने इस ड्राफ्ट को किसी अंधेरे कमरे में बंद रखा और जिस रूप में इस विधेयक को पारित किया गया है, वह पत्रकारों को नहीं, उन्हें प्रताड़ित करने वाले अधिकारियों और गुंडों को ही सुरक्षा देता है।

ड्राफ्ट में जहाँ खुद कमेटी जाँच कर सकती थी, वहाँ कमेटी अब बस पुलिस अधीक्षक को जाँच करने के लिये कह सकती है। अब जिस जिले के प्रशासन या पुलिस प्रशासन द्वारा पत्रकार प्रताड़ित हुआ है, उसकी जांच उसी जिले के पुलिस अधिकारी द्वारा किए जाने पर क्या परिणाम आएंगे, यह सर्वविदित है। जहाँ पत्रकारों को प्रताड़ित करने पर सज़ा हो सकती थी, वहाँ अब बस अर्थ दंड है। पत्रकारों को प्रताड़ित करने के लिए दोष सिद्ध होने पर आफताब आलम कमेटी में एक वर्ष के कारावास की सजा निर्धारित थी, जिसे अब केवल 25000 रुपये जुर्माना में सीमित कर दिया गया है। जबकि यही सजा किसी कारपोरेट या कंपनी के दोषी होने पर मात्र 10,000 रुपये के जुर्माने में समेट दिया गया है। इस तरह से पूरी तरह से यह कानून पत्रकारों को प्रताड़ित करने वालों को प्रोत्साहित करने वाला है, जबकि शिकायत झूठी पाए जाने पर उल्टे उस पत्रकार या शिकायतकर्ता को 10,000 रुपये के जुर्माना से दंडित करने का प्रावधान भी इस कानून में किया गया है। इसका सीधा मतलब है कि पत्रकार अपनी पीड़ा बताने का साहस ही ना कर सके और यह तय है कि सत्ता किसी की भी रहे, पत्रकार की शिकायत झूठी पाई जाने के आसार बहुत ज्यादा रहना ही है। कुल मिलाकर यह कानून पत्रकारों की सुरक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि उन पर नियंत्रण रखने के लिए भी बनाया गया प्रतीत होता है। जैसे कि छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून जनता की रक्षा के लिए नहीं था, जनता के लिए लड़ने वालों पर नियंत्रण के लिए प्रयोग हुआ है, वैसे ही पत्रकार सुरक्षा कानून का भी हाल होना है ।

प्रदेश सरकार के मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग भी इस कमेटी के सदस्य थे। वह खुद पूर्व में पत्रकार रह चुके हैं और पत्रकारों के दर्द और पीड़ा से वाकिफ होने के बाद भी आफताब आलम कमेटी की रिपोर्ट को अधिकारियों द्वारा उलट-पुलट किए जाने पर किसी प्रकार का विरोध नहीं प्रकट कर उन्होंने जता दिया है कि वह पत्रकारों के साथ नहीं है। स्पष्ट है कि प्रदेश की सत्ता के साथ ही बने रहने के लिए उन्होंने पत्रकारिता छोड़ी है और कांग्रेसी मलाई का स्वाद चख रहे है।

विधेयक को पेश करते समय प्रदेश के मुख्यमंत्री का चेहरा दंभ से लबालब था और वे ऐसा बता रहे थे कि कैसे उन्होंने प्रदेश के पत्रकारों पर बहुत बड़ा एहसान किया है, पर उन्होंने कांग्रेस के मौजूदा कार्यकाल में फर्जी मामलों में जेल भेजे गए व प्रताड़ित किए गए सैकड़ों पत्रकारों के बारे में कुछ भी नहीं कहा। इधर प्रदेश भर के दर्जनों ऐसे पत्रकार संघ जिन्होंने पत्रकार सुरक्षा कानून की लड़ाई में सहयोग भी नहीं किया, वह अपने आप को बड़ा चाटुकार साबित करने की प्रतिस्पर्धा में आकर, बिना विधेयक के प्रारूप को पढ़ें, सीधे मुख्यमंत्री के लिए ताली बजाकर स्वागत करने वाला कार्यक्रम आयोजित करने में जुट गए। इन कार्यक्रमों के लिए प्रदेश के जनसंपर्क विभाग ने अपना खजाना खोल दिया।

आश्चर्य है कि प्रदेश में प्रतिपक्ष की भूमिका निभा रहे भाजपा विधायकों ने भी इस मुद्दे पर अभी तक किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। उन्हे चर्चा में भाग लेकर पत्रकारों के हित में संशोधन कराना था। अब भी मौका है कि राज्यपाल से मिलें और पत्रकारों के साथ होने का सबूत दें। फिलहाल इस कानून के लिए पिछले 10 वर्षों से संघर्ष कर रहे पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति, छत्तीसगढ़ ने राज्यपाल से अपील करने का निर्णय लिया है।

लेखक पत्रकार सुरक्षा कानून को लेकर छत्तीसगढ़ में चलाए गए आंदोलन पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक हैं। 

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