वैचारिक रूप से एच एल दुसाध बहुजनों को जागरूक करने का एक बहुत बड़ा काम किया है। पूरे भारत का बौद्धिक जगत जानता है दुसाध का सारा चिंतन आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के खात्मे पर केन्द्रित है। वह मानते हैं कि आर्थिक और सामाजिक विषमता ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा सारी दुनिया में ही इसकी उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों – आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, धार्मिक – आदि के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से होती है। चूँकि विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों के असमान बंटवारे से आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म होता रहता, इसलिए वह कहते हैं कि ‘यदि शक्ति के स्रोतों का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य वाजिब बंटवारा करा दिया जाय तो सबसे बड़ी समस्या का खात्मा हो सकता है। इसके लिए वह शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के सम्यक प्रतिबिम्बन का फार्मूला इजाद किये हैं। चूँकि उनके अनुसार भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता सारी हदें पार कर गयी है, इसलिए वह इससे पार पाने के हेतु अब आगामी कुछ महीनों में शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए एक हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत करने जा रहे हैं।
[bs-quote quote=”1950 में भारतीय महिलाओं की भागीदारी पार्लियामेंट में 4.4 प्रतिशत थी और अभी भी कुल भागीदारी 11% है, जबकि संविधान निर्माण समिति में 15 महिलाएं थीं। राजनीति हो,खेल हो या प्राइवेट सेक्टर महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं होती हैं । उन्हें सेक्सिज्म, एसिड अटैक, कम आर्थिक मदद, काम के ज्यादा घंटे, दादागिरी, अस्वस्थता की स्थिति में छुट्टी नहीं जैसी कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बहुजन महिलाओं की बात करें तो उनका शोषण विशेषाधिकारी समूह की महिलाओं से 3 से 4 गुना ज्यादा है, क्योंकि ना तो उनके पास सामाजिक संस्थाओं का बल होता है, ना अच्छी शिक्षा, ना ही धन होता है और ना ही पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली नेपोटिज्म की मदद। ऐसी स्थिति में महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर भारत को साम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए नारीवादी संगठनों और सरकार की ओर से जो योजनायें पेश की जा रही है, वह बहुत उम्मीद नहीं जगाती. उनके लिया कुछ ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाने की उठाने की जरुरत है,जिससे कि वे शक्तिसंपन्न होकर अन्य देशों की महिलाओं से स्पर्धा कर सकें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की परफेक्ट परिकल्पना!
इस अभियान पर हांल ही में छपा उनका एक बड़ा साक्षात्कार बहुजन बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चा का विषय बना हुआ है। हस्ताक्षर अभियान के जरिये उन्होंने भारतीय राज्य पर शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने के लिए दबाव बनाने की परिकल्पना की है। इस परिकल्पना के तहत हस्ताक्षरकर्ता भीषण आर्थिक और सामाजिक विषमता की स्थिति का स्मरण कराते हुए राष्ट्रपति के समक्ष शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की अपील करेंगे। फिर उसकी कॉपी प्रधानमंत्री, विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, नीति आयोग, मीडिया स्वामियों, धर्माचार्यों इत्यादि के पास भेजी जाएगी। कुल मिलाकर सरकारों पर शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का दबाव बनाने की एक परफेक्ट परिकल्पना इस हस्ताक्षर अभियान के जरिये प्रस्तुत की गयी है।
महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर पड़ोसी मुल्कों से बहुत पीछे है भारत
डायवर्सिटी मिशन में सभी जातीय व धार्मिक समूहों की भागीदारी को सुनिश्चित कराने का जो निर्दोष उपाय सुझाया गया है, वह भारत के लिए तो नया हो सकता है पर, दुनिया के लिए नहीं! इससे पहले विश्व के विकसित से विकसित देश जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस , न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि में आर्थिक और नस्ल और रंग के रूप में पिछड़े समझे जाने वाले लोगों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। इस प्रतिनिधित्व में जेंडर को भी महत्व दिया जाता है। महिलाओं की बात करें तो उनकी आबादी 50% है लेकिन वह सकल घरेलू उत्पाद का केवल 37% हिस्सा कार्यक्षेत्र में प्रोड्यूस करती हैं। महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने की बात आती है तो डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने भी बहुत पहले महिलाओं को भारत में वोट का अधिकार दिया, फुले दंपति ने महिला शिक्षा पर जोरदार काम किया। जबकि उस समय विकसित यूरोपियन देशों और स्केंडेनेवीयन देशों में भी महिलाओं को वोट का अधिकार तक नहीं था। जिस समय विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार ‘एमली ब्रांट’ ( एलिस बेल) पुरुष के रूप में लिख-छप रही थी , एक बहुजन स्त्री सावित्री बाई अपने नाम से कविता लिख व लड़कियों की शिक्षा के लिए बेधड़क काम कर रहीं थीं। बहरहाल भारतीय महिलाओं की दशा सुधरने के लिए फुले दम्पति के बाद बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने जो संविधान में प्रावधान किया, उससे महिलाओं की दशा में तो कुछ सुधार जरुर हुआ । लेकिन वह कितना नाकाफी रहा, इसका अनुमान इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर हमारा देश नेपाल, पकिस्तान, बांग्लादेश इत्यादि जैसे अत्यंत पिछड़े पडोसी मुल्कों के मुकाबले भी काफी पीछे है।
1950 में भारतीय महिलाओं की भागीदारी पार्लियामेंट में 4.4 प्रतिशत थी और अभी भी कुल भागीदारी 11% है, जबकि संविधान निर्माण समिति में 15 महिलाएं थीं। राजनीति हो,खेल हो या प्राइवेट सेक्टर महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं होती हैं । उन्हें सेक्सिज्म, एसिड अटैक, कम आर्थिक मदद, काम के ज्यादा घंटे, दादागिरी, अस्वस्थता की स्थिति में छुट्टी नहीं जैसी कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बहुजन महिलाओं की बात करें तो उनका शोषण विशेषाधिकारी समूह की महिलाओं से 3 से 4 गुना ज्यादा है, क्योंकि ना तो उनके पास सामाजिक संस्थाओं का बल होता है, ना अच्छी शिक्षा, ना ही धन होता है और ना ही पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली नेपोटिज्म की मदद। ऐसी स्थिति में महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर भारत को साम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए नारीवादी संगठनों और सरकार की ओर से जो योजनायें पेश की जा रही है, वह बहुत उम्मीद नहीं जगाती. उनके लिया कुछ ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाने की उठाने की जरुरत है,जिससे कि वे शक्तिसंपन्न होकर अन्य देशों की महिलाओं से स्पर्धा कर सकें। इस दिशा में बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का 10 सूत्रीय एजेंडा उम्मीद का एक प्रकाशपुंज बनकर आया है, जिसे लागू करवाने का ही सारा ताना-बाना उसके प्रस्तावित हस्ताक्षर अभियान में बुना गया है । बीडीएम का यह निम्न 10 सूत्रीय एजेंडा महिला सशक्तिकरण के लिहाज से विशुद्ध क्रांतिकारी है, जो इसके पहले शायद ही कहीं देखने को मिला होगा।
[bs-quote quote=”डायवर्सिटी मिशन में सभी जातीय व धार्मिक समूहों की भागीदारी को सुनिश्चित कराने का जो निर्दोष उपाय सुझाया गया है, वह भारत के लिए तो नया हो सकता है पर, दुनिया के लिए नहीं! इससे पहले विश्व के विकसित से विकसित देश जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस , न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि में आर्थिक और नस्ल और रंग के रूप में पिछड़े समझे जाने वाले लोगों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
महिलाओं के लिए उम्मीद का प्रकाशपुंज है: बीडीएम का दस सूत्रीय एजेंडा!
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार नौकरियों तथा पौरोहित्य ; 2- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जाने वाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप;3– सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जाने वाली खरीदारी; 4 – सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन; 5 – सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी-व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों के संचालन , प्रवेश व अध्यापन; 6 – सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जाने वाली धनराशि;7- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं(एनजीओ ) को दी जाने वाली धनराशि; 8 – प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं फिल्म के सभी प्रभागों; 9 – रेल-राष्ट्रीय राजमार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की जमीन व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए एससी/एसटी के मध्य वितरित हो एवं 10– ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा, राज्यसभा की सीटों एवं केंद्र की कैबिनेट ; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों,राष्ट्रपति- राज्यपाल, प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में..’
बीडीएम 2007 से ही उपरोक्त दस सूत्रीय अजेंडे में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू लागू करवाने के लिए प्रयासरत है। अब विषमता की स्थिति अत्यंत सोचनीय होने के बाद अपने एजेंडे को लागू करवाने के लिए वह हस्ताक्षर अभियान शुरू करने जा रहा । यदि वह भारतीय राज्य पर दबाव बनाकर उपरोक्त क्षेत्रों में सोशल के साथ जेंडर डाइवर्सिटी लागू करवाने में सफल हो जाता है तो सर्वाधिक गेनर भारत की महिलाएँ होंगी। इससे उनके जीवन में इतना चमत्कारिक बदलाव आ सकता है कि वे अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन की महिलाओं तक के लिए ईर्ष्या की चीज बन जाएँगी। ऐसे में बीडीएम के हस्ताक्षर अभियान को एक सुनहले अवसर में लेते हुए देश की आधी आबादी को इसे सफल बनाने में सर्वशक्ति लगा देनी चाहिए।
लेखिका चर्चित साहित्यकार और हिमाचल प्रदेश में शिक्षक हैं