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ग्राउंड रिपोर्ट

मोहन भागवत साम्प्रदायिक एजेंडे की खातिर इतिहास को विकृत करने की कोशिश कर रहे हैं

मुसलमानों के खिलाफ गौरक्षा और गौमांस के बहाने जो हिंसा हो रही है, लव जिहाद के नाम पर उन्हें जिस तरह से डराया-धमकाया जा रहा है, उसका उनमें व्याप्त श्रेष्ठताभाव से कोई लेना-देना नहीं है। यह केवल हिन्दू बहुसंख्यकवादियों द्वारा बोई गई नफरत के बीज की फसल है।

सन 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में अपने व्याख्यानों की श्रृंखला में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया था उससे कुछ समीक्षकों को लगा था कि आरएसएस में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। यहां तक कि भागवत ने भारत के संविधान की उद्धेश्यिका का वाचन भी किया था और धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद की दुहाई भी दी थी।

अभी हाल में भागवत ने संघ के मुखपत्रों (पांचजन्यआर्गनाइजर) के संपादकों को दिए गए साक्षात्कार में एकदम अलग बातें कहीं। वे इतने बदले हुए लग रहे थे कि ऐसा लगा मानो वे गोलवलकर 2.0 हैं।

गोलवलकर की पुस्तक बंच ऑफ थाट्स के उद्धरण आजकल संघ के चिंतकों के प्रिय नहीं हैं। इस पुस्तक में गोलवलकर का तर्क है कि मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट भारत के लिए आंतरिक खतरे हैं। अपनी एक दूसरी पुस्तक व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिर्फाइंड में उन्होंने लिखा कि भारत अनंतकाल से हिन्दू राष्ट्र रहा है और भारत में अल्पसंख्यकों के साथ वही बर्ताव किया जाना चाहिए जो कि जर्मनी में यहूदियों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के साथ किया गया था।

अब जब भागवत कहते हैं कि भारत को खतरा बाहर से नहीं बल्कि भीतर से है तो वे गोलवलकर को ही थोड़ी अलग भाषा में दुहरा रहे होते हैं। उसके पहले तक भागवत अल्पसंख्यकों का विश्वास अर्जित करने के लिए इतनी मीठी बातें कर रहे थे कि कुछ कुलीन मुस्लिम उनसे बातचीत करने नागपुर पहुंच गए थे। अब ऐसा लगता है कि भागवत अल्पसंख्यकों को एक बार फिर संघ का असली चेहरा दिखाना चाहते हैं। शायद इसलिए अब उनका कहना है कि हिन्दू पिछले एक हजार सालों से युद्धरत हैं और अब वे जाग गए हैं। उनके अनुसार भारत में रहने वाले मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है। अगर वे अपने धर्म में बने रहना चाहते हैं तो भी कोई समस्या नहीं है। और अगर वे अपने पूर्वजों का धर्म फिर से अपनाना चाहते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं। यह पूरी तरह से उन पर निर्भर है। उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों को अपना श्रेष्ठता भाव त्यागना होगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक विषयों पर चर्चा की जिनमें शामिल थे क्रूर मुस्लिम राजाओं के भारत पर हमले, अवैध प्रवासी और ट्रांसजेंडरों का समाज में स्थान।

भागवत का कहना है कि मुसलमानों को डरने का कोई कारण नहीं है। शायद वे चाहते हैं कि मुसलमान रेलगाड़ियों में पिटने की आदत डाल लें। मुसलमानों को यह भी समझना होगा कि कोरोना जेहाद, यूपीएससी जेहाद व अन्य कई प्रकार के जेहाद करने के लिए उन्हें सामाजिक बहिष्कार का आदी बनना पड़ेगा। उन्हें इसके लिए भी तैयार रहना होगा कि उन्हें कभी भी बेघर किया जा सकता जैसा कि हाल में हल्द्वानी में करने का प्रयास किया गया था। भागवत लगातार भारत के अनंतकाल से हिन्दू राष्ट्र होने की बात करते रहे हैं। क्या आज के भारत की भूमि पर रहने वालों की हमेशा से यही पहचान रही है? क्या वे हमेशा से हिन्दू थे? क्या दक्षिण एशिया में रहने वाले सभी लोग एक ही संस्कृति और एक ही धर्म वाले थे? क्या वे सभी किसी एक शासक की प्रजा थे? क्या वे सभी एक गणतंत्र के रूप में संगठित थे? सच यह है कि राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना केवल चन्द सदियों पुरानी है. उसके पहले अलग-अलग राजाओं का शासन था और उसके भी पहले सभी लोग पशुपालक समूहों में बंटे हुए थे और ये समूह और ये राजा हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहते थे।

एक ही उदाहरण काफी होगा। छत्रपति शिवाजी को अपना राज्य स्थापित करने के लिए एक अन्य हिन्दू राजा, चन्द्रराव मोरे को हराना पड़ा था। शिवाजी की सेनाओें ने सूरत और बंगाल में जमकर लूटपाट की थी। बंगाल में मराठा सेना ने सबसे ज्यादा धन जगतसेठ नाम के एक धनी हिन्दू व्यापारी से लूटा था।

औरंगजेब की सेना में इब्राहिम गर्दी और दौलत खान जैसे मुस्लिम जनरल थे। औरंगजेब ने शिवाजी को परास्त करने के लिए जो मुगल सेना भेजी थी उसके मुखिया राजा जयसिंह थे। तो फिर हिन्दुओं के एक हजार साल से युद्धरत होने की बात कहां से आई? यदि कोई युद्धरत था तो वे राजा और बादशाह थे ना कि किसी धर्म के मानने वाले। राणा सांगा ने इब्राहिम लोधी को हराने के लिए बाबर को न्यौता भेजा था। भीमा-कोरेगांव युद्ध में पेशवा की सेना में बड़ी संख्या में भाड़े के सैनिक शामिल थे जो सभी अरबी मुसलमान थे। राणा प्रताप की जिस सेना ने हल्दीघाटी में अकबर की सेना से मुकाबला किया था उसमें एक हजार पठान सिपाही शामिल थे।

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असल में समाज में जो संघर्ष था वह प्रभुत्वशाली ऊँची जातियों और अत्याचार की शिकार नीची जातियों के बीच था। यह बात स्वामी विवेकानंद ने भी कही है। राजाओं के प्रशासनिक तंत्र में हर धर्म के लोग हुआ करते थे और सभी धर्मों के लोग सामाजिक स्तर पर एक-दूसरे से घुलते-मिलते और प्रभावित होते थे। और इसी से हमारी संस्कृति जन्मी। संघ का हमेशा यही प्रयास रहता है कि वह हमारे इतिहास में जाति और वर्ण के आधार पर हुई हिंसा और अत्याचारों को छिपाए और पूरा ध्यान केवल मुस्लिम राजाओं और विशेषकर मुगलों के शासनकाल पर केन्द्रित कर दे। उनकी दृष्टि में भारतीय इतिहास मुस्लिम आक्रांताओं और हिन्दुओं के बीच संघर्ष और युद्ध का इतिहास है। यह इतिहास का अत्यंत अतार्किक प्रस्तुतिकरण है।

आरएसएस न केवल अपने आपको हिन्दुओं का एकमात्र प्रतिनिधि बताता और मानता है बल्कि वह स्वयं को जागृत हिन्दू के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। हिन्दू पिछले एक हजार साल से युद्धरत था। वह पिछले दो दशकों में जाग उठा है और पिछले 8 सालों से तो वह हाईपर है। परंतु फिर भी इस हाईपर हिन्दू से डरने की किसी को भी जरूरत नहीं है। इस जागृत हिन्दू के प्रतिनिधियों में शामिल हैं पॉस्टर स्टेन्स और उनके पुत्रों का हत्यारा दारासिंह, अफराजुल का हत्यारा शंभूलाल रैगर और वे लोग जो गौमांस और गौरक्षा के नाम पर निर्दोष मुसलमानों की लिंचिंग करते आ रहे हैं। मुसलमानों को डरने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं है क्योंकि उनके साथ न्याय अब मनुष्य नहीं बल्कि बुलडोजर नाम की भारी-भरकम मशीन करती है। जागृत हिन्दुओं के कुछ अन्य प्रतिनिधि आदिवासी इलाकों के काम कर रही ईसाई मिशनरियों के साथ न्याय करने में व्यस्त हैं।

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ह्यूमन राईट्स वॉच की सन् 2022 की रपट के अनुसार भारत में मुसलमानों के घरों को ढहाना, उन्हें दुःख देने का नया तरीका बन गया है। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) का इस्तेमाल मुसलमानों को कमजोर करने और हिन्दू बहुसंख्यकवाद को हवा देने के लिए किया जा रहा है। जहां तक मुसलमानों में श्रेष्ठता भाव का प्रश्न है, यह सही है कि कुलीन वर्गों के कुछ मुसलमान यह दावा करते हैं कि मुसलमान इस देश के शासक रहे हैं। यह दावा, भारत एक हिन्दू राष्ट्र रहा है, के दावे के ठीक उलट है। परंतु यह भी सही है कि मुसलमानों के खिलाफ गौरक्षा और गौमांस के बहाने जो हिंसा हो रही है, लव जिहाद के नाम पर उन्हें जिस तरह से डराया-धमकाया जा रहा है, उसका उनमें व्याप्त श्रेष्ठताभाव से कोई लेना-देना नहीं है। यह केवल हिन्दू बहुसंख्यकवादियों द्वारा बोई गई नफरत के बीज की फसल है।

सन 2018 में सरसंघचालक ने जो कहा था अब वे उसके ठीक उलट बातें क्यों कर रहे हैं? कड़वी गोली पर चाशनी का लेप न लगाने के भागवत के निर्णय के पीछे कई कारण हो सकते हैं। सन् 2023 में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और 2024 में देश में लोकसभा के आमचुनाव होंगे। संघ और भाजपा को ऐसा लगता है कि धार्मिक आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करके ही वह इन चुनावों में जीत हासिल करने की उम्मीद कर सकती है। अमित शाह ने यह घोषणा कर कि अयोध्या में राम मंदिर जनवरी 2024 तक तैयार हो जाएगा, यह बता दिया है कि भाजपा के इरादे क्या हैं। भागवत भी ऐसी ही बातें कर रहे हैं। राहुल गांधी की भारत छोड़ो यात्रा को मिल रहा व्यापक जनसमर्थन भी भागवत के बदले हुए तेवरों के पीछे हो सकता है।

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इसके साथ ही नफरत फैलाने वाले बयानों का बचाव भी किया जा रहा है। इनमें शामिल हैं प्रज्ञा सिंह ठाकुर का चाकू की धार तेज करने का आव्हान और यति नरसिम्हानंद का यह दावा कि अगर कोई मुसलमान भारत का प्रधानमंत्री बना तो 40 प्रतिशत हिन्दुओं की हत्या कर दी जाएगी। यह पार्टी की गुंडा ब्रिगेड को एक इशारा भी है कि वे बिना डरे और घबराए अपना काम करते रह सकते हैं। भागवत की जनसंख्या संतुलन से संबंधित टिप्पणी भी अवांछनीय है क्योंकि मुसलमानों सहित सभी भारतीय महिलाओं की प्रजनन दर कम हो रही है।

भागवत ने हिन्दुओं को आक्रामक बनने की जो सलाह दी है वह 20वीं सदी के महानतम हिन्दू महात्मा गांधी के शांति, अहिंसा, करूणा और प्रेम पर जोर देने के ठीक विपरीत है।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

 

 

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