पिछले एक माह से आमरण अनशन पर बैठे बोद्ध भिक्षुओं का सरकार से अनुरोध है कि बोधगया महाविहार को ब्राह्मणों के मुक्त करा बौद्धों को सौंप दिया जाए। बोधगया महाविहार अधिनियम 1949, जिसके तहत महाविहार प्रबंधन में ब्राह्मणों को सदस्य नियुक्त किया गया था, को निरस्त किया जाए। भगवान बुद्ध ने जहां ज्ञान प्राप्त किया, वह स्थान बौद्धों के हाथ में नहीं है। विदित हो की हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी अक्सर दुनिया के सामने कहते हैं कि वे बुद्ध की धरती से आए हैं। ऐसे में क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वे बौद्धों के सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण महाविहार को बौद्धों को सौंप देने की दिशा में आवश्यक कदम उठाएं। क्या बिहार और केंद्र सरकार को आमरण अनशन पर बैठे बौद्धों की सुध नहीं लेनी चाहिए? और उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए तुरंत इस मसले का हल निकालना चाहिए।
देश भर के बीमा अभिकर्ता आंदोलन पर हैं। उनका कहना है की जीवन बीमा अभिकर्ता अधिनियम 1972 भारतीय जीवन बीमा अभिकर्ता (संशोधन) अधिनियम 2017 अभिकर्ताओं के हितों के अनुकूल नहीं हैं। ये दोनों अधिनियम अभिकर्ताओं के अधिकारों को खत्म करने और उनके दमन का रास्ता साफ करने के औज़ार हैं। उनका कहना है कि 1 अक्तूबर 2024 को लाये गए निर्णय में निगम ने कई ऐसे नियम लागू किए जो अभिकर्ताओं और पालिसीधारकों दोनों के लिए खतरनाक हैं। अभिकर्ता संगठनों द्वारा इसका विरोध किया गया लेकिन प्रबंधन ने उनकी कोई बात नहीं मानी। अंततः 24 मार्च से वे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए।
विगत दिनों कृषि संकट के साथ ही दूसरे ज्वलंत मुद्दों पर बरगढ़ में राज्य भर से भारी संख्या में आए किसानों की महापंचायत हुई। महापंचायत में आए किसान नेताओं ने किसानों से अपने अधिकारों और आत्मरक्षा के लिए बड़े संघर्ष के लिए तैयार रहने का आह्वान किया है।
फिल्म छावा प्रदर्शित होने के बाद औरंगजेब को कब्र से निकालकर पुन: मारने की साजिश में सांप्रदायिक दंगों को हथियार बनाया जा रहा है। सवाल न भी उठाया जाए तब भी सभी जानते हैं कि इस साजिश को योजनाबद्ध तरीके से करने में किसका हाथ है। संघी हिंदू राष्ट्र का सपना देखते हुए इतिहास को गलत तरीके से प्रस्तुत कर युवाओं का ब्रेन वाश कर रहे हैं। यही कारण है कि युवा साहस के साथ गुंडागर्दी करने में सबसे आगे हैं। इस तरह की स्थिति सोचने को विवश करती है कि आखिर यह देश कहाँ पहुँच गया है?
खराब कानून गरीब लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, क्योंकि वे पुलिस और छोटी अदालतों की शक्ति के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। भारतीय न्यायिक व्यवस्था में न्याय प्रणाली का लंबे समय तक अटके रहने के कारण ध्वस्त होती नज़र आ रही हैं। साथ ही अपराधों की परिभाषा में स्पष्टता नहीं होना, सजा में असमानता, पीड़ितों को उपेक्षित करने के कारण विश्वसीनयता में कमी आई है। लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर हाल ही में घोषित जनविश्वास विधेयक 2, जिसके बाद जल्द ही विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जनविश्वास 3 विधेयक पेश किए जाने पर क्या बदलाव होंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा।
रघु मीडियामी की वकील शालिनी गेरा का कहना है कि बस्तर के जन आंदोलनों को कुचलने के लिए ही रघु की फर्जी केस में गिरफ्तारी की गई है, क्योंकि जिन प्रतिबंधित 2000 रूपये के नोटों को रखने और प्रतिबंधित माओवादी संगठनों को धन वितरित करने के आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया है, संबंधित एफआईआर में भी उसका कोई जिक्र नहीं है। उल्लेखनीय है कि इसके पहले भी सरजू टेकाम और सुनीता पोटाई नामक मंच के दो कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा चुका है, जो बस्तर में संसाधनों की लूट के खिलाफ जारी आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।
मानवाधिकार कार्यकर्त्ता व समाजवादी चिंतक एवं पेशे से वकील श्री रविकिरण जैन की स्मृति-सभा की शुरुआत उनके छायाचित्र पर माल्यार्पण से हुई। वक्ताओं ने रविकिरण जैन के बचपन और उन पर पड़े भारत छोड़ो आंदोलन के प्रभाव, छात्र-राजनीति में सक्रियता एवं वकील के रूप में मानवाधिकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को याद किया।
संविधान ने दलितों और आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को मान्यता दी और उन्हें आरक्षण दिया जिसने समुदायों को किसी तरह से बनाए रखा। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी को 1990 में 27% आरक्षण मिला, कुछ राज्यों ने अपने स्तर पर इसे पहले भी लागू किया था। मोटे तौर पर इन ओबीसी आरक्षणों का 'यूथ फ़ॉर इक्वालिटी' जैसे संगठनों द्वारा कड़ा विरोध किया गया था। यहाँ तक कि दलितों और अन्य वर्गों के लिए आरक्षण का भी बड़े पैमाने पर विरोध होने लगा, जैसे 1980 के दशक में दलित विरोधी और जाति विरोधी हिंसा और फिर 1985 के मध्य में गुजरात में। इस बीच, चूंकि संविधान ने धर्म के आधार पर आरक्षण को मान्यता नहीं दी, इसलिए अल्पसंख्यक आर्थिक रूप से पिछड़ेपन में डूबे रहे।
एक सौ चौवालिस वर्ष बाद प्रयागराज में आयोजित होने वाला कुंभ 'हादसों का कुंभ' बना है, तो इस आयोजन के प्रबंधन की विफलता में शामिल सभी अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढकर उन्हें सजा दिए जाने की जरूरत है, क्योंकि उकसावेपूर्ण तरीके से लाए जा रहे तीर्थ यात्रियों के साथ इंसानों की तरह नहीं, जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है। कुंभ की यात्रा को संवेदनहीन रूप से मोक्ष और मौत की गारंटी बना दिया गया है। सत्ता में रहने का इससे घृणित तरीका और क्या हो सकता है? यदि यही हिन्दू राष्ट्र है, यदि यही विकसित भारत की ओर बढ़ने का रास्ता है, तो संघी गिरोह की इस परियोजना को अभी से 'गुडबाय-टाटा' कहने की जरूरत है।
अमेरिका ने भारतीय अप्रवसियों को जिस तरह वापस भेजा, वह व्यवहार अमानवीय होने के साथ अनैतिक भी है। इस तरह निर्वासन का शस्त्रीकरण केवल अमेरिका का मुद्दा नहीं है, यह असमानता की वैश्विक प्रणाली का हिस्सा है। वही नवउदारवादी नीतियां, जो लोगों को काम की तलाश में पलायन करने के लिए मजबूर करती हैं, वही नीतियां हैं, जो उनके आने के बाद उन्हें अपराधी बनाती हैं। वर्तमान अमेरिकी निर्वासन नीति नस्लीय पूंजीवाद की क्रूर अभिव्यक्ति है, जहां जरूरत पड़ने पर प्रवासियों का शोषण किया जाता है और सुविधानुसार उन्हें त्याग दिया जाता है। ये नीतियां कानून लागू करने के बारे में नहीं हैं; ये नियंत्रण, लाभ और राजनीतिक शक्ति के बारे में हैं।
महात्मा गांधी को लेकर आरएसएस लगातार दोहरा व्यवहार करता है। एक तरफ उनकी मूर्तियों का अपमान करता है, दूसरी तरफ जरूरत पड़ने पर उनकी पूजा करने से पीछे नहीं रहता। आरएसएस भले ही नाथूराम गोडसे से अपने संबंधों को नकारता रहे लेकिन महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित बातों में उसकी भूमिका के नए-नए राज खुल रहे हैं। हाल ही में अंग्रेजी भाषा की पत्रिका 'ओपन' में रवि विश्वेश्वरैया शारदा प्रसाद के लेख और मनोहर मालगांवकर की पुस्तक 'द मैन हू किल्ड गांधी' में 30 जनवरी की घटना की पृष्ठभूमि और उसके अनेक पात्रों की कहानी बहुत विस्तार के साथ लिखी गई।आज महात्मा गांधी की हत्या को 77 साल हो गए हैं। इसके बावजूद महात्मा गांधी की हत्या की पहेलियाँ अभी भी उलझी हुई हैं, इस पर पढ़िए डॉ सुरेश खैरनार का लेख।