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झारखंड : क्यों बिरसा की धरती पर ‘बिरसाइत’ जी रहे मुश्किलों भरी जिंदगी?

उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा करोड़ों आदिवासियों के लिए गौरव और गुमान के प्रतीक हैं। साथ ही उनका बलिदान आदिवासियों के सपनों की बुनियाद के साथ सियासत की धुरी भी है। लेकिन बिरसा की धरती पर ही उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ परिवारों की जिंदगी मुश्किलों में गुजर रही। विकास का पहिया इनके गांवों में पहुंचने से पहले क्यों ठहर जाता है, पड़ताल करती एक रिपोर्ट..

धरती आबा बिरसा मुंडा आज हमारे बीच होते, तो उन्हें भी इसकी पीड़ा होती कि उनके नाम पर जीने- मरने और आदर्शों को मानने वालों के सामने मुश्किलों का अंतहीन सिलसिला कितना लंबा है।  फिर हमारी सुनता कौन है और जिंदगी की मुश्किलें कम हो, यह ईमानदारी से चाहता कौन है। वही मिट्टी के घर, कुएं का पानी, गांव पहुंचने के लिए ऊबड़-खाबड़ रास्ते.. सिंचाई का साधन नहीं, वनोत्पाद और हाड़तोड़ मेहनत से की जाने वाली खेती से गुजर-बसर होता है, पर आने वाली पीढ़ियां कैसे इन चुनौतियों से पार लगाएगी, यह सोच कर मन घबरा जाता है।

मुंडारी भाषा में यह सब कहते हुए आशा भेंगरा का गला रूंध जाता है। आंखों में आँसुओं को वह रोकने की कोशिश करती हैं। कुछ क्षणों की खामोशी के बाद वो अपने जीर्ण-शीर्ण कच्चे व खपरैल घर को दिखाने ले जाती हैं। साथ ही सवालिया लहजे में पूछती हैं कि क्या बिरसा होते, तो यह सब देखकर परेशान नहीं हो जाते। घर के बाहर धूप में सूखते चिंरौदी और कुसुम (वनोत्पाद) को दिखाती हुई बताती हैं कि जंगल से तोड़ कर लाई हूं। सूख जाने पर बेचने को बाजार ले जाऊंगी।

बिरसाइत परिवार की इस महिला को सरकारी योजना के तहत एक अदद पक्का आवास की आस लगी है। साथ ही चाहती हैं कि बिरसाइत परिवार के जो लड़के- लड़कियां पढ़-लिख गए उन्हें नौकरी, रोजगार मिल जाए। बच्चों के लिए शिक्षा की अच्छी व्यवस्था हो। इलाज की मुकम्मल सुविधा हो।

झारखंड की राजधानी रांची से करीब 75 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल खूंटी जिले में तोरपा प्रखंड के रोन्हे भगत टोली में दस बिरसाइत परिवार रहते हैं। इन सभी परिवारों के सामने लगभग एक जैसी समस्याएं हैं और आंखों में वही इंतजारः ‘विकास का पहिया घूमते हुए बिरसाइतों के गांव-टोले में कब पहुंचेगा।’

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बिरसाइत परिवार की महिला आशा जिंदगी की मुश्किलें बयां करती उदास हो जाती हैं, गला रूंध जाता है

इन्हीं बिरसाइत परिवारों की बेबसी और गांवों में विकास का हाल जानने हम रोन्हे टोली पहुंचे थे। वहां पता चला, बिरसाइतों के जिस गांव-टोले में आप जाएंगे, उनकी बेबसी, मुश्किलें, संघर्ष, सादगी इसी तरह नजर आएंगी। खूंटी के ही चारिद में कई बिरसाइत परिवारों को भी विकास की मुख्य धारा से जुड़ने का इंतजार है। अलबत्ता जंगल पहाड़, खेती पर टिकी जिंदगी के बीच नई पीढ़ी को रोजी- रोजगार का सवाल सताता है।

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कौन हैं बिरसाइत

उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा को ‘धरती आबा’ यानी धरती का भगवान भी कहा जाता है। देश के करोड़ों आदिवासियों के लिए भी वे गौरव और गुमान के प्रतीक हैं।

बिरसा मुंडा ने एक अलग आदर्श और धार्मिक पद्धति की व्याख्या की थी, जिसे मानने वाले (अनुयायी) बिरसाइत कहलाते हैं। सादगी और सिद्धातों के बीच इस धर्म को मानना बेहद कठिन होता है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। झारखंड में आदिवासी बहुल पश्चिम सिंहभूम, खूंटी और सिमडेगा जिले के पहाड़ों से घिरे उंगली पर गिने-चुने तथा सुदूर गांवों में बिरसाइत बसते हैं। उनकी आबादी महज कुछ हजार में है।

बिरसा मुंडा का जन्म खूंटी जिले जिले में हुआ था। शोषण के खिलाफ, आदिवासी हितों और जल, जंगल, जमीन की रक्षा की खातिर उन्होंने अंग्रेजों से भी जमकर लोहा लिया और 25 वर्ष की उम्र में अपना बलिदान दिया। ‘बिरसा का यह बलिदान आदिवासियों के सपनों की बुनियाद के साथ सियासत की धुरी भी है। सियासत में बिरसा मुंडा के आदर्श और सपने बढ़चढ़ कर गिनाएं जाते हैं। आज भी देश की किसी बड़ी शख्ससियत/ हस्ती का झारखंड में कोई कार्यक्रम होता है, तो गर्व के साथ सरकारी विज्ञापनों, पोस्टर होर्डिंग में उल्लेख किया जाता है- ‘धरती आबा की धरती पर स्वागत है।’

लेकिन उनके अनुयायियों बिरसाइतों से बातचीत में पता चला कि सिस्टम ने उन्हें हमेशा हाशिये पर छोड़ा है। और राजनेता सिर्फ अपने ‘मतलब’ से उन्हें याद करते हैं। कुछ खास मौके पर सम्मान देते हैं। या फिर हक अधिकार से जुड़े किसी आंदोलन में शामिल करने के लिए भी आगे रखते हैं।

 

दीना भगत बिरसाइत परुवार के सदस्यों के साथ बैठक कर समाज के विषयों पर विमर्श करते हुए

रोजगार की चिंता ज्यादा सताती है

आठवीं कक्षा तक पढ़ी आशा बताती हैं, ‘बेटी ने आईटीआई की पढ़ाई की है। फिलहाल खूंटी में संविदा पर काम कर रही है। बेटी की यह चिंता है कि चुनावों के बाद संविदा खत्म होने पर हाथ खाली हो जाएंगे। तब गांव लौटना होगा।’

आशा खुद गांव के निकट मनरेगा से चलने वाली बागवानी योजना में मेठ का काम करती हैं। इससे कुछ पैसे मिल जाते हैं। वे बताती हैं कि आसपास के कई गांव पीसीसी सड़कें से जुड़ रही हैं, पर उनका टोला अब तक बाट जोह रहा है। बरसात में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अपने गांव और बिरसाइत परिवार के निहायत साधारण और सरल सदस्यों की ओर दिखाती हुई वे कहती हैं, ‘हमलोग सीधे पड़ जाते हैं। स्वभाव में ही यह शामिल है कि दुख, तकलीफ सह लेते हैं। आखिर कहां- कहां  और किनके सामने हक, अधिकार के लिए फरियाद करते रहें।’

कठिन होता है बिरसाइत धर्म को मानना

रोन्हे टोली में इन परिवारों के अगुवा दीना भगत बताते हैं कि बिरसाइत परिवारों का जीवन सादगी से परिपूर्ण और कठिन होता है। बिरसाइत सफेद कपड़े पहनते हैं। जनेऊ धारण करते हैं। शाकाहारी होते हैं और मांस, मंदिरा का सेवन नहीं करते। बड़े- बुजुर्ग अब भी नंगे पांव चलते हैं। दूसरे के घरों में पका खाना भी हमलोग नहीं खाते। गुरुवार को हल, कुदाल नहीं चलाते। इस दिन पेड़, पौधे नहीं काटते और न ही फल, पत्ती तोड़ते हैं। गुरुवार की सुबह ये सभी लोग एक जगह जुटते हैं और घर- समाज की चर्चा के साथ प्रार्थना करते हैं।

दीना भगत से सब कुछ समझने के दौरान यह भी मालूम पड़ा कि वे बिरसाइतों को एकजुट रखने, धर्म का पालन करने और सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों का लाभ गांव को मिले, इसके लिए वे भरसक प्रयास करते रहते हैं। इन्हीं वजहों से उन्हें आसपास के कई गांवों में लोग जानते हैं।

हम जब उनके गांव पहुंचे थे, तो बिरसाइत परिवारों के बड़े- बुजुर्गों की बैठकी चल रही थी। दीना भगत की छोटी बहू अलीसा एक लोटे में कुएं से पानी लेकर मेरे सामने आईं थीं। बाहर से आने वाले किसी व्यक्ति अथवा अतिथि को लोटे में पानी देने का पंरपारगत रिवाज है।

कुछ देर बातचीत के बाद दीना भगत अपने कच्चे मकान के अंदर ले जाते हैं। अलीसा जांता (हाथ से चलने वाली चकिया) पर कुलथी की दाल दर रही थीं। दीना बताने लगे, ‘प्रकृति के साथ रहना, प्राकृतिक रूप से जीवन यापन करना और प्राकृतिक खानपान की पद्धतियां अपनाना आदिवासी ग्रामीण जीवन शैली में अब भी कायम है। हालांकि इसे बचाने की भी चुनौती सामने है।’

पी एम मोदी के साथ खिंचवाई तस्वीर..

दीना के घर की दीवार पर बिरसा मुंडा की एक तस्वीर टंगी थी। ठीक इसके बगल में उन्होंने पीएम मोदी के साथ बिरसाइत सदस्यों की उस तस्वीर को लगा रखा था, जिसे पिछले साल 15 नवंबर को बिरसा जयंती के मौके पर खिंचवाने का अवसर मिला था।

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले साल बिरसा जयंती के मौके पर 15 नवंबर को खूंटी आए थे। बिरसा की जन्म स्थली उलिहातू पहुंचने वाले वे देश के पहले प्रधानमंत्री हैं। यहां से उन्होंने पीवीटीजी के कल्याण के लिए 24 हजार करोड़ रुपए के मिशन का प्रारंभ किया था।

इस मौके पर उन्होंने कहा भी ‘भगवान बिरसा मुंडा जी के गांव उलिहातू में उन्हें शीश झुकाकर नमन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां आकर अनुभव हुआ कि इस पावन भूमि में कितनी ऊर्जा-शक्ति भरी है। इस मिट्टी का कण-कण देशभर के मेरे परिवारजनों को प्रेरित कर रहा है।’

रोन्हे टोली के बिरसाइतों ने बताया कि प्रंखड के अधिकारी पीएम के कार्यक्रम से पहले ही उनके गांव आए थे। यहां आकर उन्होंने इसकी जानकारी दी थी।

इसके बाद सरकारी इंतजाम में बिरसाइत परिवार के कुछ सदस्यों को पीएम के कार्यक्रम में ले जाया गया। तब वे लोग अच्छे ढंग से और धुले कपड़े पहनकर वहां पहुंचे थे।

दीना समेत अन्य लोग इसे बेहद खुशी का पल बताते हैं। इसके साथ ही कहते हैं कि अगर कुछ देर पीएम से बातचीत करने का मौका मिलता, तो अपनी समस्याओं से उन्हें जरूर अवगत कराते।

बीच में दीना भगत, दाहिनी ओर भीमा भेंगरा और अन्य प्रार्थना स्थल पर एक साथ बैठे हुए

भीमा, पीएम को एक पत्र लिखना चाहते हैं। वे पूछते हैं कि पीएम जी को यह मिल तो जाएगा। पत्र में क्या लिखेंगे, यह पूछे जाने पर वे कहते हैं, ‘मन में बहुत सी बातें हैं।’

भीमा भेंगरा ने पुराने जमाने में मैट्रिक तक पढ़ाई की है और वे भी अपने टोले में समझदार माने जाते हैं। उनके दो बेटे- बुधुआ और आल्समीट ने बीए और आईटीआई की पढ़ाई की है।

भीमा कहते हैं कि बेटों को काम मिल जाता है, तो हालात सुधर जाते। वे आगे कहते हैं कि इस गांव से किसी के पास सरकारी नौकरी नहीं है। अपने कठिन वक्त की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि कई मौके आते हैं, जब दिहाड़ी पर चौका (मिट्टी) काटना होता है।

चेड़या मुंडा लकड़ी की मचिया बनाकर बाजारों में बेचते हैं। उनका कहना था कि जड़ी-बूटी और वनोत्पाद ही आमदनी का मुख्य जरिया है। अब उम्र अधिक हो जाने के चलते जंगलों से लाना फिर बेचने के लिए हाट- बाजार जाना कठिन पड़ने लगा है। आशा के पति प्रेमचंद कुमार रोन्हे बाजार में छोटी सी परचून दुकान लगाते हैं। प्रेमचंद, आशा और उनकी बेटी ने कई सपने संजोकर रखे हैं।

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चेोड़या मुंडा उम्र के इस पड़ाव में भी पंरपरागत मचिया बनाकर आमदनी करते हैं

स्थानीय बीजेपी विधायक से नाराजगी

दीना भगत अपने टोले के सभी कच्चे और खपरैल घरों को एक-एक करके दिखाते हुए बताने लगे कि सबकी निगाहें राज्य सरकार की अबुआ आवास योजना पर टिकी हैं। सरकारी बाबुओं ने बताया है कि सबका नाम कागज में चढ़ गया है। इससे भरोसा बढ़ा है।

बिरसाइत परिवार के बड़े-बुजुर्ग जिस जगह पर बैठे हुए थे, वहां मिट्टी के एक गोल घर के बारे में बताने लगे कि करीब सौ साल पहले उनके पुरखों ने प्रार्थना और समाज की बातों को लेकर सामूहिक विचार विमर्श के लिए यह गोल घर बनाया था। इस गोल घर से बिरसाइतों का गहरा लगाव है। अब इस घर की दीवार जहां-तहां धंस गई है। खपरे भी टूटे पड़े हैं।

इसी जगह पर एक सामुदायिक भवन बनवा देने के लिए उन लोगों ने तोरपा से बीजेपी के स्थानीय विधायक कोचे मुंडा से कई दफा आग्रह किया। लेकिन आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। दीना, भीमा, लखन भेंगरा के अलावा अन्य कई बड़े- बुजुर्गों की यह शिकायत है कि स्थानीय विधायक ने इस मामले में उनकी अनदेखी की है। महिलाओं में भी इसका दुख दिखा।

केंद्र में जनजातीय मामले के मंत्री अर्जुन मुंडा खूंटी लोकसभा क्षेत्र से ही सांसद हैं। जनजातीय मामले के अलावे वे कृषि मंत्री की भी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। क्या उन तक अपनी समस्याओं की जानकारी पहुंचाई हैं, इस सवाल पर भीमा भेंगरा समेत कई बड़े लोग कहने लगे, मुंडा जी के लोगों ने भी कई मौके पर भरोसा दिलाया कि सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं बदला।

इस गांव तक पहुंचने का रास्ता नहीं होने की बात पर सभी एक आवाज में कहते हैं, ‘देखें कब तक आता है।’

जल जीवन मिशन का इंतज़ार

बिरसाइत टोली के सभी लोग आज भी कुएं का पानी ही पीते हैं। इस टोले में सिर्फ एक कुंआ है। इनके अलावा रोजमर्रे के काम में नदियां इनके लिए बेहद अहम हैं। गर्मी में पहाड़ी नदी के सूख जाने पर समस्या बढ़ जाती है। सिंचाई के लिए नदी और बारिश के अलावा कोई साधन नहीं है।

यह उस दौर की भी बात है, जब पूरे देश में मोदी सरकार का जल जीवन मिशन ( हर घल जल) को लेकर उपलब्धियो के तमाम दावे गिनाए जाते रहे हैं। हालांकि झारखंड में इस योजना की गति अभी धीमी है।

हाल ही में 27 फरवरी को झारखंड विधानसभा में बजट पेश करने के दौरान राज्य के वित्त मंत्री डॉ रामेश्वर उरांव ने सदन को जानकारी दी है कि साल 2024 तक जल जीवन मिशन के तहत राज्य के कुल 62 लाख 5 लाख 66 ग्रामीण परिवारों को कार्यरत घरेलू नल संयोजन के द्वारा शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्य है, लेकिन अभी तक 31 लाख परिवारों को ही इस योजना से जोड़ा गया है। अगले वित्तीय वर्ष में शत- प्रतशित उपलब्धि हासिल करने का लक्ष्य है।

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बिरसाइतों के गांव रोन्हे टोली में जलजीवन मिशन से लगी टंकी के चालू होने का लोगों को इंतजार

जाहिर है नल जल योजना से झारखंड के आघे ग्रामीण परिवार वंचित हैं। इसमें बिरसाइत का यह गांव भी शामिल है। रोन्हे टोली में इस योजना के तहत लोहे के फ्रेम पर टंकी बैठा दी गई है। अभी यह चालू नहीं हुआ है। ग्रामीणों ने बताया कि घरों तक कनेक्शन जाना बाकी है। इनके अलावा गांव के लोगों को पशु शेड की योजना दी गई है। इस पर भी काम शुरू नहीं हुआ है। फिलहाल कुछ ईंटे गिराई गई हैं। प्रेमचंद कहते हैं कि इन दो योजनाओं से उम्मीदें जगी हैं।

इनके अलावा स्वच्छ भारत कार्यक्रम के तहत शौचालय की योजना भी यहां आधी-अधूरी नजर आई। शौच के लिए महिलाएं अहले भोर घरों से निकल जाती हैं। केंद्र की पीएम आवास, उज्जवला योजना समेत राज्य सरकार की भी जनकल्याणकारी योजनाओं से लोग वंचित हैं।

तोरपा प्रखंड के विकास अधिकारी कुमुद कुमार झा कहते हैं कि वे बिरसाइतों के गांव में जाकर लोगों से मिले हैं। उनकी समस्याओं को जाना- समझा है। बिरसाइत परिवार के लोग सरल और सीधे हैं। विकास की योजनाएं और कल्याण कार्यक्रमों का लाभ उन्हें मिले, इसके भरसक प्रयास किए जा रहे हैं।

बिरसाइत परिवारों की महिलायें और पेंशन

उधर बातचीत के दौरान बिरसाइत परिवार की महिलाएं भी मौजूद थीं. सामाजिक सुरक्षा योजना की बात सुनकर उनके कान खड़े होते दिखे।

वे मुंडारी भाषा में ही सवालिया लहजे में पूछती हैं कि बिरसाइत परिवारों की कई बुजुर्ग महिलाओं अथवा विधवा को पेंशन का लाभ आखिर क्यों नहीं मिलता।

एक युवा, गांव की बुजुर्ग महिलाएं राउदी भक्तिन, बिरसी भेंगरा सोमारी, भेंगरा की ओर दिखाते हुए कहता है, अब ये बुजुर्ग कई मील चलकर सरकारी दफ्तर जाने और पेंशन की फरियाद करने से रहीं। सरकारी बाबुओ को भी यहां तक कभी- कभार कागज भरवाने के लिए आना चाहिए। पति साऊ भेंगरा के निधन के बाद सोमारी का जीवन बेहद कठिन हो गया है। दस साल का बेटा भी दिव्यांग और मानसिक रुप से कमजोर है। सरकारी राशन तो मिल जाता है, पर जीने के और खर्चे जुटाना उनके लिए आसान नहीं होता।

इस बार गांव में पेड़ों पर कटहल कम लगे हैं। फुटकल की पत्तियां भी कम लगे थे। बेर के दाम भी बढ़िया नहीं मिले। इसकी भी चिंता लोगों में दिखी। दरअसल खाने और बेचने में इन चीजों का वे इस्तेमाल करते हैं।

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विकास की मुख्य धारा के इंतजार में बिरसाइत परिवारों की महिलाओं के चेहरे पर उदासी

लखन भेंगरा बताते हैं कि बिरसाइत परिवार स्वास्थ्य सुविधा के मुकम्मल इंतजाम से भी वंचित हैं। इसके लिए कई मील दूर तपकरा, तोरपा जाना पड़ता है। वैसे अधिकतर परिवारों में जंगलों से लाया जाना वाला जड़ी-बूटी का इस्तेमाल ही किया जाता है।

ये तस्वीरें उन पलों की है, जब देश की आजादी के 75 साल पूरे हो चुके हैं और बाकी के बचे 25 सालों में अमृतकाल के दौरान देश के नागरिकों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए खास रोडमैप तैयार किया गया है। जाहिर तौर पर बिरसाइतों के जेहन में भी सवाल उभरते हैं।

बिरसाइतों के सवाल भी हैं- ‘कुछ एक गांवों में ही तो वे बसते हैं। बिरसा के अनुयायी होने के चलते उनके प्रति लोगों का नजरिया भी अच्छा होता है। इन सबके बीच सरकारें और उसका तंत्र चाह ले, तो उनके हालात बदल जाएं।’

लेकिन सरकारी योजनाओं की लंबी फेररिस्त और कल्याण कार्यक्रमों का लाभ न जाने कहां ठहर जाता है। मुश्किलों भरी जिंदगी के बीच जब छाती हुक मारती है, तो बड़े-बुजुर्गों को सबसे पहले बिरसा की याद आती है। उनका संघर्ष और बलिदान याद आता है। वे जंगलों-पहाड़ों को एकटक निहारते हुए धीरे से कहते है, ‘बिरसा के उलगुलान के अंकुर कब लहलहाएंगे’?

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नीरज सिन्हा
नीरज सिन्हा
लेखक झारखंड में वरिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकार हैं तथा रांची में रहते हैं।

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