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‘एक देश एक चुनाव’ का जुमला लोकतंत्र को कहाँ ले जायेगा

भाजपा लगातार लोकतान्त्रिक तरीके से काम करने वाली संस्थाओं में बदलाव करने का काम कर रही है। ऐसी संस्थाओं में अपने लोगों की नियुक्ति कर, अपने तरीके से चला रही है। 'एक देश, एक चुनाव' की अवधारणा भाजपा के शासनकाल की उपज है। यह व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूँ कहें कि हिटलरशाही अथवा तानाशाही को ही जन्म देगी। इस व्यवस्था के लागू होते ही देश में चौतरफा अराजकता का माहौल पैदा होने में देर नहीं लगेगी।

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले की प्राचीर से बतौर प्रधानमंत्री मोदी जी का यह 11वां भाषण था। यह लगभग 103 मिनट का भाषण था। और जैसा कि होता है, प्रधानमंत्री मोदी या कोई भी प्रधानमंत्री जब भाषण देते है, तो वह तमाम तरह की सरकारी योजनाओं, उसकी उपलब्धता के साथ उन सारी बातों को गिनाने का काम करते हैं जो सरकार के एजेंडे में शामिल होता हैं।

इस बार भी प्रधानमंत्री मोदी ने 5 साल और 10 साल के कार्यकाल की उपलब्धता गिनाई। महिला विकास से लेकर बाल विकास, रोज़गार के मुद्दे से लेकर आर्थिक मुद्दों के बारे में बताया। वर्ष 2047 को तक होने वाले विकास का जिक्र किया, जिसका प्रधानमंत्री मोदी लंबे समय से हवाला देते आ रहे हैं।

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में कुछ ऐसे मुद्दे भी उठाए, जिन पर प्रधानमंत्री के साथ  उनकी पार्टी और सरकार, की नीयत और नीति पर सवाल उठाए जा रहे हैं। वे मुद्दे भ्रष्टाचार से जुड़े हैं, भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने से जुड़े मुद्दे हैं। अपने भाषण में प्रधानमंत्री जी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा भी जोरों से उठाया। विदित हो कि ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावनों को तलाशने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन भी किया गया। एक पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी द्वारा इस समिति की अध्यक्षता की।

14 मार्च 2024 को ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ यानी ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की संभावना पर विचार करने के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति ने राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति का कहना है कि सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद ये रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में आने वाले वक्त में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ-साथ नगरपालिकाओं और पंचायत चुनाव करवाने के मुद्दे से जुड़ी सिफारिशें दी गई हैं।

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191 दिनों में तैयार इस 18,626 पन्नों की रिपोर्ट में कहा गया है कि 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए थे जिनमें से 32 राजनीतिक दल ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के समर्थन में थे। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘केवल 15 राजनीतिक दलों को छोड़कर शेष 32 दलों ने न केवल साथ-साथ चुनाव प्रणाली का समर्थन किया बल्कि सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए ये विकल्प अपनाने की ज़ोरदार वकालत भी की।‘

रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का विरोध करने वालों की दलील है कि ‘इसे अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा। ये अलोकतांत्रिक, संघीय ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलग-अलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा।‘ एक रिपोर्ट के अनुसार इसका विरोध करने वालों का कहना है कि यह व्यवस्था राष्ट्रपति शासन यानी एकतंत्र/राजतंत्र  की ओर ले जाएगी।‘

इस समिति में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, कांग्रेस के पूर्व नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर संजय कोठारी शामिल थे। इसके अलावा विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर क़ानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डॉ नितेन चंद्रा समिति में शामिल थे।

रिपोर्ट में समिति ने क्या सिफारिश की   

साथ में चुनाव न कराने का नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज पर पड़ा है। पहले हर दस साल में दो चुनाव होते थे, अब हर साल कई चुनाव होने लगे हैं। इसलिए सरकार को साथ-साथ चुनाव के चक्र को बहाल करने के लिए क़ानूनी रूप से तंत्र बनाना करना चाहिए।

दो चरणों में चुनाव कराए जाएं। पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए तथा दूसरे चरण में नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव हों। इन्हें पहले चरण के चुनावों के साथ इस तरह कोऑर्डिनेट किया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के सौ दिनों के भीतर इन्हें पूरा किया जाए। इसके लिए एक मतदाता सूची और एक मतदाता फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था की जाए। इसके लिए संविधान में ज़रूरी संशोधन किए जाएं। इसे निर्वाचन आयोग की सलाह से तैयार किया जाए।

समिति की सिफ़ारिश के अनुसार त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं। इस स्थिति में नए लोकसभा (या विधानसभा) का कार्यकाल, पहले की लोकसभा (या विधानसभा) की बाकी बची अवधि के लिए ही होगा। इसके बाद सदन को भंग माना जाएगा। इन चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा, वहीं पांच साल के कार्यकाल के ख़त्म होने के बाद होने वाले चुनावों को ‘आम चुनाव’ कहा जाएगा। यहाँ यह सवाल उठना जायज है कि क्या ऐसी व्यवस्था का होना संभव है।

आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति एक अधिसूचना के ज़रिए इस अनुछेद के प्रावधान को लागू कर सकते हैं। इस दिन को ‘निर्धारित तिथि’ कहा जाएगा। इस तिथि के बाद, लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म होने से पहले विधानसभाओं का कार्यकाल बाद की लोकसभा के आम चुनावों तक ख़त्म होने वाली अवधि के लिए ही होगा। इसके बाद लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सभी एक साथ चुनाव कराए जा सकेंगे। एक समूह बनाया जाए जो समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन पर ध्यान दे। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए ज़रूरी लॉजिस्टिक्स, जैसे ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी खरीद, मतदान कर्मियों और सुरक्षा बलों की तैनाती और अन्य व्यवस्था करने के लिए निर्वाचन आयोग पहले से योजना और अनुमान तैयार करे। वहीं नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों के लिए ये काम राज्य निर्वाचन आयोग करे।

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एक राष्ट्र एक चुनाव की सोच का विपक्ष ने खासा विरोध किया

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख और हैदराबाद से लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि इसके फायदे तो हैं लेकिन नुक़सान भी हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर कहा, ‘जल्दी-जल्दी चुनाव होने से सरकार को भी परेशानी होगी। ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से कई तरह से संवैधानिक मुद्दे जुड़े हैं। लेकिन सबसे बुरा ये होगा कि सरकार को पांच साल तक लोगों की नाराज़गी की कोई चिंता नहीं रहेगी। ये भारत के संघीय ढांचे के लिए मौत की घंटी के समान होगा। ये भारत को एक पार्टी सिस्टम में बदल कर रख देगा।‘

कांग्रेस नेता और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे ने बीजेपी पर निशाना साधते हुए कहा, ‘एक देश, एक चुनाव’ कैसे हो सकता है जब मौजूदा सरकार (बीजेपी) जनादेश को स्वीकार ही नहीं कर रही? क्या पूर्व राष्ट्रपति और समिति के अन्य सदस्यों ने इस साठ-गांठ से पाए गए बहुमत पर भी कोई सिफ़ारिश की है?’ समिति ने ऐसे सवालों को अनसुना कर दिया।

  भारत  निर्वाचन आयोग के आयुक्त ओमप्रकाश रावत ने कहा था कि यदि भारत सरकार चाहती है कि देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ हों तो निर्वाचन आयोग सितम्बर 2018 में राज्य विधान सभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ करा सकता है। ज्ञात हो कि भाजपा इसके लिए इस काम के लिए लगातार प्रयास करती आ रही है।

भाजपा का एक देश, एक चुनाव  कराने का मकसद 

 शायद भाजपा को यह भ्रम है कि आज भी उसकी लहर चल रही है और यदि राज्यों और लोकसभा के चुनाव एक साथ हो जाते हैं तो फिर राज्यों और केन्द्र में यानि कि सर्वत्र भाजपा का शासन हो जाएगा और भाजपा और मातृ संस्था आरएसएस हिटलर की तरह देश में खुलकर अपने राजनीतिक विरोधियों को ही नहीं अपितु समाज के गरीब/दलित/दमित/अल्प्संख्यक/आदिवासियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप उत्पीड़ित कर किसी गटर में झोंक देगी। हालांकि यह काम अभी भी भाजपाशासित राज्यों में चल रहा है।

इस संबंध में मोदी जी का यह तर्क ज़रा भी यक़ीन करने लायक नहीं है कि वे चाहते हैं कि राजनीतिज्ञ अलग-अलग  होने वाले चुनावों की उठापटक में ज़्यादा वक़्त देने के बजाय सामाजिक कार्यों के लिए समय मिलेगा। अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाले सरकारी खर्च में हज़ारों करोड़ रुपयों की बचत भी होगी। सिद्धांततः मोदी जी की इन दोनों दलीलों से पवित्रता की ख़ुशबू आती है। लेकिन मोदी जी अगर इतने ही सतयुगी होते तो फिर बात ही क्या थी?  इसलिए उनकी यह दोनों दलीलें गले से नीचे उतरने वाली नहीं है।

मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की एक बैठक में सभी चुनाव एक साथ कराने की अपनी योजना को पूरी तरह से समझाया और फिर सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक में भी इस पर ज़ोर दिया कि बड़े-छोटे सभी चुनावों का एक साथ होना क्यों ज़रूरी है।

असल मे तमाम नुस्खे आजमाने के बाद भी बिहार और कई अन्य राज्यों के विधान सभाओं के चुनावों में मात खाने के तुरंत बाद दिसंबर 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘एक देश एक चुनाव’ के मद्दे की जोर-शोर से वकालत करते हुए एक ठोस क़दम उठाया। और एक संसदीय समिति गठित की और लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं के बारे में अपनी रिपोर्ट देने को कहा।

संसद में कार्मिक, जन-शिक़ायतें और क़ानून-न्याय मंत्रालय की स्थायी समिति ने जो रपट पेश की वह कहती है कि ‘बार-बार होने वाले चुनावों की परेशानियों से लोगों और सरकारी मशीनरी को राहत दिलाने का समाधान खोजा जाएगा।’

रपट में यह भी कहा गया कि ‘अगर भारत को एक मज़बूत लोकतांत्रिक देश के नाते विकास की दौड़ में दुनिया के अन्य देशों से मुक़ाबला करना है तो देश को आए दिन होने वाले चुनावों से निज़ात पानी ही होगी।‘

संसदीय समिति की रपट में एक साथ चुनाव कराने के तीन फ़ायदों पर ज़ोर दिया गया, एक – इससे बार-बार चुनाव कराने पर अभी खर्च होने वाले सरकारी धन में काफी कमी आएगी।  दो –  चुनावों के समय लगने वाली आचार-संहिता की वज़ह से रुक जाने वाले कामों से होने वाला नुक़सान कम हो जाएगा। तीन – सरकारी अमले के चुनाव के काम में लग जाने की वज़ह से सार्वजनिक सेवा के बाक़ी ज़रूरी कामों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा।

समिति के मतानुसार यदि देश में लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इस  परेशानियों से निजात मिल सकती है।

रपट में विस्तार से यह भी बताया गया है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अंततः एक साथ कराने की स्थिति कैसे लाई जाए और इस बीच किस तरह विधानसभाओं के कार्यकाल को समायोजित किया जाए।

इस प्रकार की आंकड़ेबाजी से सहमत हुआ जा सकता है किन्तु इस प्रस्ताव के व्यावहारिक पक्ष पर समिति ने कोई बात नहीं की कि यदि ऐसा हो जाता है तो केन्द्र और राज्य सरकारों का व्यवहार क्या होगा। इस प्रस्ताव के पीछे की सत्तासीन राजनीतिक दल की मंशा को सियासी अखाड़े का कोई भी खिलाड़ी बड़ी सहजता से भाँप सकता है।

कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यदि केंद्र और राज्यों की सरकारों के लिए चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता एक ही राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करना पसंद करता है। यह एक आम अवधारणा है। इसमें कोई रहस्य की बात नहीं। ऐसा होने पर केन्द्र और राज्यों में किसी एक ही दल की सरकारें बनने की संभावना को नहीं नकारा जा सकता। जो न लोकतंत्र की परिभाषा को नकारता है अपितु लोकतंत्र की हत्या का द्योतक है।

वर्ष 1999 से अब तक देश लोकसभा और विधान सभाओं में एक साथ हुए चुनावों के आँकड़े इस बात का प्रमाण हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने पर 77 प्रतिशत मतदाताओं ने लोकसभा और राज्य विधान सभाओं लिए एक ही पार्टी को वोट देना पसंद किया। मोदी इतने भोले तो नहीं हैं कि इस सत्य से अवगत न हों। इसलिए संविधान की तमाम व्यवस्थाओं से इतर 2019 में सभी चुनाव एक साथ कराने की उनकी ललक आसानी से समझी जा सकती है।

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व्यावहारिक दिक्कतें समझना जरूरी 

चिरपरिचित संविधान विशेषज्ञ माननीय आर. एल. केन के अनुसार संविधान की धारा 83(2) में लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक से पांच साल तक के लिए तय है। इसी तरह धारा 172(1) विधानसभाओं को भी पांच साल के कार्यकाल का अधिकार देती है। सामान्य स्थिति में यह कार्यकाल पूरा होना ही चाहिए। लोकसभा और विधानसभाएं समय से पहले भंग की जा सकती हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री यह भी तय कर सकते हैं कि चुनाव कब कराए जाएं। लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मक़सद से विधानसभाओं को समय से पहले भंग करना संविधान का दुरुपयोग ही माना जाएगा। असामान्य स्थित में राष्ट्रपति को किसी विधानसभा का कार्यकाल एक साल तक बढ़ाने का अधिकार है।

यहाँ एक सवाल उठना जरूरी है कि क्या किसी एक राजनीतिक दल की इच्छा पूरी करने के लिए अपने इस विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना, क्या किसी भी राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक और नैतिक नज़रिए से उचित होगा? लेकिन विगत ही नहीं वर्तमान भी इसका प्रमाण है कि राष्ट्रपति के विशेषाधिकार कहे जाने वाली बात केवल एक तकिया कलाम या मुहावरे जैसा है क्योंकि राष्ट्रपति अक्सर वही करता है जो केंद्रीय सरकार की मंशा होती है। यहाँ तक कि राष्ट्रपति के देश के नाम संदेश जैसे भाषण भी उनके अपने नहीं होते, सरकार के द्वारा अनुमोदित होते हैं। लेकिन संघ के किसी आदमी को राष्ट्रपति बनाने के बाद ये शंका भी है कि कागजों में तो राष्ट्रपति के वही अधिकार होंगे जो संविधान सम्मत है, किंतु व्यवहार में इसका उलट होने की सम्भावना है कि सरकार संघ के राष्ट्रपति के अनुसार अपने प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास भेजने को विवश होगी।

लोकसभा और विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने में कई और भी व्याहारिक दिक्कतें आएंगी। एक ही दिन पूरे देश में चुनाव कराने के लिए पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की क़रीब चार हज़ार कंपनियां लगेंगी। अभी सरकार बमुश्किल एक हज़ार कंपनियों का इंतज़ाम कर पाती है। चार गुना ज़्यादा पुलिस-बल एकाएक हवा में से तो पैदा हो नहीं सकता। इसके लिए पैसा कहां से आएगा।

एक ही दिन में सभी जगह चुनाव कराने के लिए लगने वाली मतदान मशीनों का इंतज़ाम भी एक मुद्दा है। मतदान का काग़जी सबूत रखने वाली इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें लगाने पर दस हज़ार करोड़ रुपए से कम खर्च नहीं होंगे। एक साथ चुनाव कराने पर राज्यों में स्थानीय मुद्दे, राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में ग़ुम हो सकते हैं या इसके उलट स्थानीय मुद्दे इतने हावी हो सकते हैं कि केंद्रीय मसलों का कोई मतलब ही न रहे।‘ इस विचार से विमुख होने का कोई कारण भी नजर नहीं आता। इसमे किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती।

मोटे तौर पर देखने वालों को मोदी की यह योजना देश-हित, समाज-हित और लोकतंत्र के हित में लगेगी। लेकिन मोदी इतने मासूम नहीं हैं कि स्व-हित की कसौटी पर कसे बिना किसी भी योजना को कार्यांवित करने का मन बना लें।  हाँ! इस योजना को लागू किए जाने की वकालत करना राजनीतिक दलों के हित में तो हो सकता है किंतु देश और देश की जनता के हित में कतई लाभकारी नहीं हो सकता। उदाहरण के रूप में 2014 के लोकसभा चुनावों को ही लिया जा सकता है।

वर्तमान चुनावी व्यवस्था में अब कम से कम इतना तो है कि यदि देश की जनता केन्द्र सरकार के कार्यों से संतुष्ट नहीं होती है तो राज्यों में जब-जब भी अलग अलग समय पर होने वाले चुनावों में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को बदलने का विकल्प जनता के पास शेष रहता है।

‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था लागू हो जाने पर जनता से ये हक भी छिन जाएगा और देश में तमाम प्रकार के अराजक तत्व हावी हो जाएंगे। एक तरह से देश की जनता अपने ही देश में गुलाम की भूमिका में आ जाएगी। सबसे ज्यादा जो नुकसान होगा, वह देश की अनुसूचित और पिछड़े वर्ग की जातियों को होगा, इसमें शंका करने की कोई गुंजाइश नहीं है।

सारांशत: कहा जा सकता है कि ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था देश में अधिनायकवाद या यूँ कहें कि हिटलरशाही अथवा तानाशाही को ही जन्म देगी। देश में चौतरफा अराजकता का माहौल होगा। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का आचरण लोकतांत्रिक न होकर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हो जाएगा। या यूँ कहें कि यदि ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था देश में लागू हो जाती है तो यह लोकतंत्र की हत्या का प्रस्ताव ही सिद्ध होगा यानी लोकतंत्र की असमय ही हत्या हो जाएगी।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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