राजेंद्र यादव के बिना बीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होने एक उपन्यासकार , कथाकार , आलोचक , चिंतक और संपादक के रूप में जो मानक रखे उसे छू पाना किसी के लिए भी एक असाध्य यात्रा होगी । सही अर्थों में राजेंद्र यादव हिन्दी साहित्य में समकालीनता के पर्याय हैं। उनका पूरा जीवन मनुष्य की चुनौतियों, संकटों, संघर्षों और सीमाओं के आंकलन-मूल्यांकन और उनका मार्मिक चित्रण करने के लिए समर्पित था। समाज को प्रभावित करने वाले बदलावों पर न केवल उनकी तीखी नज़र रहती थी बल्कि वे उनपर बिना लिखे रह भी नहीं पाते थे। अगर राजेंद्र यादव का एक क्रमिक विवेचन और मूल्यांकन किया जाय तो यही पता लगेगा कि वे एक बेचैन रूह के परिंदे की तरह भटकते रहे हैं। लेकिन उनका भटकाव किसी सामान्य या असामान्य प्राप्ति के हेतु नहीं था बल्कि जीवन की उन सच्चाइयों की तह तक जाने की यात्रा का ही एक अंग है जो किसी लेखक को यथार्थ के बीहड़ों में उतरने का साहस देती हैं। और यही वह बिन्दु है जहां से राजेंद्र यादव के साहित्य संसार में घुसने-उतरने-भटकने और रमने तथा बहुत कुछ प्राप्त करने का रास्ता देते हैं। इस क्रम में हम यहाँ उनके एक लेख ‘मेरी प्रेरणा’ को देख सकते हैं जो लेखक राजेंद्र यादव की मनःसंरचना का सबूत देती है—
‘अक्सर लेखकों , कलाकारों की प्रेरणा या तो लड़की होती है या फिर कड़की। ‘आह से उपजा होगा गान’ वाले तो दर्जनों में मिल जाएंगे। हाँ यह लड़की वाली प्रेरणा प्रारम्भिक किशोर कविताओं तक तो साथ देती है लेकिन आगे जब लेखकीय ज़िम्मेदारी अपना दाम मांगने लगती है , गहरे उतरने और विस्तार में फैलने की मजबूरी पैदा कर देती है तो प्रेरणा या तो अपना रूप बदलने लगती है या कहीं पीछे छूट जाती है। संतों की शब्दावली में इसे इश्क मिजाज़ी का इश्क हक़ीक़ी में बदलना कह सकते हैं। एक का प्यार फैलकर सारी नारी-जाति और मानव मात्र के लिए होने की बात भी सुनी गई है । और न जाने कितने लेखक रहे हैं जिन्हें कड़की ने एडें लगा-लगाकर लिखाया है।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजेंद्र यादव अपने लेखन की प्रेरणा में रूमानी आधारों को लगभग खारिज कर देते हैं और इस स्तर पर तो आगे चलकर और भी अधिक निर्मम होते दिखाई पड़ते हैं। आगे तो वे इस रूमानियत का मज़ाक तक उड़ाने लगते हैं । इसी लेख में वे आगे कहते हैं
लड़की और कड़की के वजन पर ही दो और वर्ग हैं जो लेखक के लिए प्रेरणा स्रोत का काम करते रहते हैं, यानि झिड़की और खिड़की … किसी ने कहा था अपमान से बढ़कर ऐसा कुछ नहीं है जो मनुष्य की आत्मा की सच्ची शक्ति को खींचकर बाहर ला सके। और यह भी सच है कि व्यक्तिगत या सामाजिक अपमान या कहें मान्यता प्राप्त करने की आकांक्षा ने न जाने कितनों को लेखक बना दिया है। इसी तरह खिड़की भी बहुतों की प्रेरणा रही है यानी अपने भीतर से बाहर झाँकने का दबाव – या अभिव्यक्ति की आकांक्षा ….
राजेंद्र यादव आजीवन मसिजीवी रहे और स्वतंत्र लेखक भी। कतिपय अर्थों में मसिजीवी होना आसान है और स्वतंत्र होकर अपनी शर्तों पर लिखना और लिखने का जोखिम उठाना बहुत कठिन होता है। अगर आप अपने देखे हुये संसार और उसमें पसरी हुई विडंबनाओं और विद्रूपताओं को खुली आँखों से देखते हैं तो वे कभी आपको चुप नहीं बैठने देंगी। लगातार एक ऊहापोह, उठापटक और बेचैनी आपके व्यक्तित्व का हिस्सा होती है और आप या तो कलम उठाते हैं या फिर आलस्य का शिकार होकर सारी दुनिया को भला-बुरा कहते हुये एक असंतुष्ट आत्मा की तरह विचरते रहते हैं। राजेंद्र यादव का लेखकीय व्यक्तित्व आलस्य का निषेध करता है। वे अपने समय की हर समस्या और मुद्दे पर बोल उठना चाहते हैं लेकिन अवलंब उनके लिए भी जरूरी है। इसलिए जब वे अपनी प्रेरणा के उत्स को तलाशते हैं तो अनेक स्तरों पर विचार करते हुये उस आग्रह की जड़ तक जाते हैं जो उन्हें बार-बार कलम उठाने को मजबूर करती है। अपने इसी लेख में निष्कर्षतः वे कहते हैं-
पिछले दो-एक वर्षों से तो मेरे लिखने की प्रेरणा लड़की , कड़की , झिड़की , खिड़की कुछ नहीं दोस्तों का एक शब्द रह है,’ अमुक तारीख तक यह लिखकर दो वरना ….
‘यह ‘वरना’ ही मेरे लिए लिखने की प्रेरणा है…शायद शुरू से ही यह शब्द मेरे लिखने के मूल में बना रहा, फर्क यही है कि पहले यह मेरे भीतर की गहराइयों से अस्तित्व की शर्त बनकर उठा करता था और आज बाहर से आता है … व्यक्तित्व के लिए चुनौती बनकर ….’
[bs-quote quote=”डॉक्टर साहब चाहते थे कि बेटा अब कहीं सेट हो अर्थात कोई नौकरी प्राप्त करे जबकि राजेंद्र जी स्वतंत्र लेखक बनने की जिद पाले हुये थे। चूंकि पहले से कोई ऐसा माहौल था नहीं कि परिवार में कोई स्वतंत्र लेखक हुआ हो। डॉक्टर साहब साहित्यिक अभिरुचि वाले जरूर थे लेकिन वे जानते थे कि लेखन से जीवन चलना बहुत कठिन है। घर पर पद्मसिंघ शर्मा कमलेश आया करते थे और राजेंद्र जी पर उनका प्रभाव भी अच्छा-खासा था। इसलिए डॉक्टर साहब ने उनसे राजेंद्र जी के बारे में बात की। कमलेश जी बहुत मेहनती और ज़हीन लेखक थे। आगरे में उनकी पहचान बहुत थी। उन्होने आगरा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर तिवारी से इस विषय में बात की । तिवारी जी राजेंद्र यादव की प्रतिभा के कायल थे और खुशी-खुशी राजेंद्र जी को विभाग में बुलाने के लिए तैयार हो गए।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
भले ही प्रेरणा का बिदु राजेंद्र जी के लिये आग्रह हो और वे इसे मानते रहे हों लेकिन उनके लेखन की रेंज बहुत व्यापक है। वे अन्य लेखकों की तरह भावुक नहीं हैं और न ही भावविगलित होकर अपने संघर्षों और दुर्दिनों का राग नहीं अलापते बल्कि पूरी तल्खी से अपने परिवेश की आलोचना करते हैं। अपने लेखन पर बात करना तो दूर उन्होने एक समय अपने सारे कथात्मक लेखन को खारिज ही कर दिया था। इससे भी अलग जाकर उन्होने पूरे दौर की कथात्मक रचनाशीलता को संदेह के दायरे में खड़ा कर दिया। स्त्री और दलित लेखन में निजी नैरेटिव को महत्व देना और लंबे समय से चुप करा दी गई जमातों को बोलने के लिए प्रेरित करना राजेंद्र जी का एक ऐसा योगदान है जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। इस मुकाम पर वे बेजुबानों की आवाज थे। हंस जैसा बड़ा मंच उन्होने तथाकथित साहित्यिक शाश्वतता के विरुद्ध अनगढ़ प्रतिभावों के लिए बनाया। साहित्य को विश्वविद्यालयों की चहारदीवारियों से बाहर निकाल कर साधारण जन की दिनचर्या से जोड़ना और उसके बुनियादी सवालों को केंद्रीय महत्व देना राजेंद्र यादव के ही बौद्धिक बूते का था। राजेंद्र यादव मूर्तियाँ तोड़ते हैं। वे आदर्शों की खोल में लिपटे नंगे यथार्थ को आवरणहीन कर देते हैं। अपने समकालीनों पर बिना किसी रागद्वेष और प्रमाद के उन्होने कलाम चलाया और उनकी असाधारण इमेज को साधारणता की जमीन पर ला खड़ा किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वे किसी को भी ज़िंदगी की वासनाओं से परे नहीं मानते इसलिए उनके साहित्य में मनुष्य की नीचताओं और क्षुद्रताओं का एक सहज बयान दिखाई पड़ता है और उनका पाठक और साहित्य का विद्यार्थी सर के बल उल्टा नहीं लटकता बल्कि पैर के बल सीधा खड़ा होता है।
राजेंद्र जी की जीवनयात्रा
राजेंद्र यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में 28 अगस्त 1929 को हुआ । उनके पिता का नाम डॉक्टर मिश्री लाल यादव था। डॉ मिश्री लाल यादव आगरा के सम्पन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता यानी राजेंद्र यादव के दादा गोकुलसिंह यादव अपने जमाने में बीए पास थे और आगरा कमिश्नरी में कार्यरत थे। माता का नाम श्रीमती तारो देवी था जिन्हें सभी बच्चे बा कहते थे। राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी ने अपने संस्मरणों में बा का चित्रण बहुत ममतामयी और लोकतान्त्रिक स्त्री के रूप में किया है, जो बच्चों की रुचियों और दिलचस्पियों के बीच अड़ंगा नहीं डालती थीं बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करती थीं। मिश्री लाल की पहली पत्नी के निधन के बाद उनकी शादी महाराष्ट्र के अमरावती जिले की तारा बाई से हुई। इस दंपत्ति को कुल दस बच्चे हुये। राजेंद्र यादव अपनी छः बहनों और चार भाइयों में सबसे बड़े थे। भाइयों में सत्येन्द्र सिंह, भूपेन्द्र सिंह और हेमेन्द्र सिंह थे। डॉ मिश्री लाल यादव पेशे से चिकित्सक थे और आसपास के अनेक कस्बों में पदस्थापित रहे। इस प्रकार राजेंद्र यादव को आगरा के आसपास के इलाकों के जनजीवन से परिचित होने का मौका मिला। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुये उन्होंने लिखा है कि उस दौर में मैं अक्सर पिताजी के यहाँ जाता तब गाँव से लोग चारपाई पर उठाकर घायलों को इलाज के लिए ले आते। ये सब लोग आपसी फ़ौजदारी के कारण घायल होते थे। इस प्रकार राजेंद्र यादव के मन गाँव की छवियाँ झगड़े, मारपीट और फ़ौजदारी के शिकार लोगों को लेकर बनीं।
सामान्य मध्य वर्गीय बच्चों की तरह राजेंद्र यादव का भी बचपन बीता। खेलते-कूदते , पतंग उड़ाते , दौड़ते-भागते। और बचपन में ही क्रिकेट खेलते हुये उनके पैर में गेंद आकर लगी। चोट भीतर थी। असह्य दर्द था लेकिन बाहर कोई टूट-फूट नहीं। और घर में पिता के डर से राजेंद्र जी ने किसी को बताया नहीं। बस चुपचाप दर्द झेलते रहे। और जब घर में पता चला तो स्थिति बिलकुल बिगड़ चुकी थी। अंदर से घाव जहरबाद में बदलने लगा था। बचाव के लिए पाँव का ऑपरेशन जरूरी हो गया। चारों तरफ हाहाकार मच गया। घर का सबसे बड़ा बेटा ऐसे हो गया। उन्हें ठीक होने में तीन साल का समय लग गया।
उन दिनों की यातना, अकेलेपन और अवसाद को दर्ज करते हुये राजेंद्र यादव ने अपनी डायरी में लिखा है। उन दिनों को बिताने में उनके पिता द्वारा सुनाई गई कहानियों – उपन्यासों और किस्सों के अलावा उस कमरे की छत ने जो योगदान किया वह अत्यंत मार्मिक प्रसंग है।
राजेंद्र यादव का बचपन राजामंडी मुहल्ले के बच्चों के साथ घूमते-फिरते बीता लेकिन इसके अतिरिक्त वहाँ के लोग, छोटे दुकानदार, व्यापारी और मजदूरों ने उनके मानस में अपनी जगह बनाना शुरू कर दिया जो आगे चलकर उनके कथा-साहित्य और लेखन की अन्य विधाओं में अभिव्यक्त होने लगे थे। उनके प्रति राजेंद्र की रागात्मकता कभी कम नहीं हुई और उन सबकी मानवीय चुनौतियों और संघर्षों से उनकी वाबस्तगी लगातार बनी रही। अपनी डायरी में दर्ज करते हैं –‘ 28 अप्रैल की रात को सामान लादकर मैं चला आया। पहले विचार था कि सुबह किसी गाड़ी से आऊँगा। लेकिन फिर मूड बना और आ गया सुबह-सुबह। सुबह ही घनश्याम आया। सारा दिन लगभग उसी के साथ कटा। उसके बाद देखा राजामंडी की हालत पहले की हालत से काफी बुरी है। दुकानदार बैठे-बैठे या तो सोते रहते हैं या मक्खी मरते रहते हैं। सामनेवाले निरंजन वगैरह दुकान बढ़ा दी है। दो हिस्सों में बंट गई है और एक हिस्से में भी दो-चार बर्तन लेकर निरंजन वगैरह बैठे रहते हैं। हाथ का पंखा घुमाते बच्चे के मूनह में ठूँसते हुये। इन्हीं की दुकान पर लड़ाई के जमाने में, या उसके बाद कैसा शोर था! बेनी भाई साहब से बातें हुईं। चंदा भाग गया है। उसका कुछ पता ही नहीं कि जिंदा है या मर गया। ताऊजी आस रक्खे हैं और दुकान को बढ़ाने को सोचते रहते हैं। बगल की अगरबत्ती वाला टांग पर टांग रखे दिन भर मक्खी उड़ाता रहता है। कभी-कभी बारह आने की चीज नहीं बिकती। राजामंडी में छुट्टो भोलानाथ और रात को संतराम दूधवाले के अलावा किसी के यहाँ ग्राहक की शक्ल नहीं दिखाई देती। वही गंदी-गंदी सड़कें, ऊबड़-खाबड़ फर्श, वही उलटी-सीधी घिसटती हुई ज़िंदगी। छोटा आदमी, छोटा दुकानदार एकदम खत्म हो गया मैं सोचता हूँ वहाँ से गुजरते हुये – आखिर ये लोग कब तक काम चलाते रहेंगे – या अपना खाते रहेंगे? कैसे जिंदगी चलेगी इनकी? इनका भविष्य क्या है? हर आदमी इसीलिए अपने भाग्य को दोष देता है , रोता है और उसी पूजा-पाठ में मस्त रहता है।’
राजेंद्र यादव की शिक्षा की शुरुआत उर्दू में शुरू हुई। प्रारम्भ में उन्हें हिन्दी नहीं आती थी क्योंकि उनके पिता डॉ एम एल यादव भी उर्दू से पढे-लिखे थे। घर में उर्दू की ढेरों किताबें थीं। इसलिए राजेंद्र को पढ़ने के लिए एक मौलवी की नियुक्ति हुई। पिता की भाषा उर्दू थी तो माँ की मातृभाषा मराठी थी। हालांकि तारा बाई ने आगरा आकर हिन्दी सीख ली थी लेकिन राजेंद्र जी की पढ़ाई के लिए वह पर्याप्त नहीं थी। जल्दी ही राजेंद्र जी की पढ़ाई का रुख हिन्दी की दिशा में हुआ और चंद्रकांता , चंद्रकांता संतति, भूतनाथ आदि उनके लिए राजमार्ग साबित हुये।
प्राथमिक शाला में उनका दाखिला मथुरा जिले के सुरीर कस्बे में हुआ जहां से उन्होने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन डॉ साहब ने देख लिया कि इस कस्बे में पढ़ने का उर्वर वातावरण नहीं है और आगे बच्चे खराब हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने राजेंद्र जी और भूपेन्द्र जी को अपने छोटे भाई के पास मेरठ भेज दिया। इस प्रकार राजेंद्र जी की आगे की पढ़ाई मेरठ के मवाना कलाँ इलाके में शुरू हुई। हालांकि पिताजी ने जो सोचकर बच्चों को अपने छोटे भाई के पास भेजा था वह बात उल्टी पड़ने लगी। सुरीर में अनुशासन का अभाव था लेकिन मवाना में अनुशासन की अधिकता हो गई। चाचा जी नियमित रूप से भतीजों की पढ़ाई-लिखाई की खोजख़बर लेते और डॉ भैया और भाभी की नज़रों में अच्छे अभिभावक होने के लिए अनुशासनहीनता को उन्होंने बर्दाश्त करने से इन्कार कर दिया था और इस मानक पर खरा उतरने के लिए अक्सर भतीजों के कान खींच लिया करते। वे कचहरी में मुलाजिम थे और घर में भी न्याय और अनुशासन के पक्षधर थे । घर लौटते ही वे पढ़ाई की प्रगति रिपोर्ट लेते और हीला-हवाली पर कड़े हो जाते। राजेंद्र और भूपेन्द्र जल्दी ही इस अनुशासन से ऊब गए और काफी जद्दोजहद के बाद डॉक्टर साहब को मनाने में कामयाब हो गए कि मवाना कलाँ भी सुरीर का ही एक रूप है जहां पढ़ाई कम आवारागर्दी ज्यादा होती है।
वे लोग दूसरे चाचा के पास झाँसी भेज दिये गए। झाँसी से ही राजेंद्र यादव ने 1946 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। यह खुशी की बात थी। डॉक्टर साहब गदगद और बा भी खुश। और इसका फायदा यह मिला कि राजेंद्र जी अपने शहर आगरा में वापस आ गए। यहीं से उन्होंने इंटर की परीक्षा पास की और बी ए भी कर लिया। आगरा में युवा राजेंद्र यादव की रुचियाँ आकार लेने लगीं । उन्होने कवितायें लिखनी शुरू कर दी । उन दिनों वे राजेंद्र सिंह यादव ‘कण’ के नाम कवितायें लिखते। कॉलेज की पत्रिका में इस नाम से कवितायें छपीं और लोगों को पता चल गया कि वे कवि हैं।
[bs-quote quote=”राजेंद्र यादव की कुल 72 कविताओं का पता उनकी रचनावली के पहले खंड से चलता है। इनका कालखंड सन 1946 से 1950 के बीच है। कुछ छोटी कवितायें, कुछ गीत और कुछ लंबी कवितायें हैं बाद के दिनों में कभी राजेंद्र जी ने अपने कवि होने का उल्लेख नहीं किया। यह एक उपन्यासकार-कहानीकार और बाद में ठेठ साहित्यिक गद्यकार की यह आधारभूमि है” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उस दौर की उनकी कविताओं में अनेक तत्सम शब्दों में लिपटी भावुक स्थितियों का चित्रण होता। सन 1946 में उन्होने अनुरोध शीर्षक कविता में अपने को इस प्रकार व्यक्त किया—
सुन लेने दे उर की धड़कन !
चन्द्र रहा सुन , बाल निशा की
और पवन भी युवति दिशा की
छाती पर रखकर सिर अपना , आज उठा हो भावुक उन्मन !
सुन लेने दे उर की धड़कन!
मेरे उर में ज्वार उठा है
सुप्त उबलकर प्यार उठा है,
प्रिय न रोक मृदुल हाथों से , संयत , मचल पड़ा है यौवन !
सुन लेने दे उर की धड़कन !’
यह एक ऐसे युवक की भावनात्मक अभिव्यक्ति थी जो एक भरे-पूरे परिवार का सदस्य था लेकिन ज़िंदगी की घटनाओं-परिघटनाओं के चलते उसकी संवेदना अपने परिवेश की धड़कनों और अकेलेपन आदि को परखने और पकड़ने की कोशिश कर रहा था।
राजेंद्र यादव की कुल 72 कविताओं का पता उनकी रचनावली के पहले खंड से चलता है। इनका कालखंड सन 1946 से 1950 के बीच है। कुछ छोटी कवितायें, कुछ गीत और कुछ लंबी कवितायें हैं बाद के दिनों में कभी राजेंद्र जी ने अपने कवि होने का उल्लेख नहीं किया। यह एक उपन्यासकार-कहानीकार और बाद में ठेठ साहित्यिक गद्यकार की यह आधारभूमि है। इन कविताओं के माध्यम से हम देख सकते हैं कि बाद में परिपक्वता और आत्मविश्वास से भरे साहित्यकार की प्रारम्भिक मनोभूमि कैसी होती है और अंततः वह अपनी रचनायात्रा को कितनी दूर तक ले जा पाता है।
सन 1951 में राजेंद्र यादव ने आगरा विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस समय तक लिखने का ऐसा चस्का लग चुका था कि वे स्वतंत्र लेखक के रूप में जीवन गुजारने के बारे में सोचने लगे थे। हालांकि अभी तस्वीर साफ नहीं थी कि आगे क्या करना है लेकिन आगरे की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रियता बढ़ रही थी। कुछ समय के लिए उनके मन में विचार आया कि क्यों न पीएचडी कर लूँ और इसलिए वे सागर विश्वविद्यालय भी गए । लेकिन वहाँ गुरुजनों का जो मकडजाल और शिष्यों की गुलामी के जो नज़ारे देखने को मिले उनने राजेंद्र यादव का पी एच डी से मोहभंग कर दिया। वे आगरा लौट आए।
आगरा में उन दिनों रांगेय राघव एक बड़े लेखक थे जिनकी अनेक किताबें छप चुकी थीं। रामविलास शर्मा थे। पद्मसिंह शर्मा कमलेश थे और श्रीराम वर्मा थे जो बाद में अमरकांत के रूप में मशहूर हुये। रंगकर्मी राजेंद्र रघुवंशी थे। और भी अनेक लोग थे जिनसे राजेंद्र जी के संबंध गहरे होते जा रहे थे। रामविलास शर्मा पहलवान तबीयत के मालिक थे और अक्सर उनसे पंजा लड़ाने का मुक़ाबला होता रहता था। राजेंद्र जी के लेखन में भी गति आ रही थी और उन्हीं दिनों उन्होने अपना पहला उपन्यास प्रेत बोलते हैं लिखना शुरू किया और जल्दी ही पूरा भी कर लिया।
डॉक्टर साहब चाहते थे कि बेटा अब कहीं सेट हो अर्थात कोई नौकरी प्राप्त करे जबकि राजेंद्र जी स्वतंत्र लेखक बनने की जिद पाले हुये थे। चूंकि पहले से कोई ऐसा माहौल था नहीं कि परिवार में कोई स्वतंत्र लेखक हुआ हो। डॉक्टर साहब साहित्यिक अभिरुचि वाले जरूर थे लेकिन वे जानते थे कि लेखन से जीवन चलना बहुत कठिन है। घर पर पद्मसिंघ शर्मा कमलेश आया करते थे और राजेंद्र जी पर उनका प्रभाव भी अच्छा-खासा था। इसलिए डॉक्टर साहब ने उनसे राजेंद्र जी के बारे में बात की। कमलेश जी बहुत मेहनती और ज़हीन लेखक थे। आगरे में उनकी पहचान बहुत थी। उन्होने आगरा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर तिवारी से इस विषय में बात की । तिवारी जी राजेंद्र यादव की प्रतिभा के कायल थे और खुशी-खुशी राजेंद्र जी को विभाग में बुलाने के लिए तैयार हो गए। राजेंद्र यादव लिखते हैं – ‘मई की दोपहर थी। अचानक साइकिल लिए हुये कमलेश जी आए, ‘मेरे साथ जरा चलो!’ …’कहाँ’ – मैंने पूछा । ‘कहीं जाना है।’ गर्मी, धूप, पसीने के बावजूद मैंने कुछ नहीं कहा, और वे मुझे साइकिल पर आगे बैठाकर चल दिये। ‘कल मेरी बाबूजी से बात हुई थी।’ – वे मेरे पिताजी को बाबूजी कहते थे, ‘उनकी भी राय है कि तुम्हें बात मान लेनी चाहिए। आगरा कॉलेज, इतना पुराना और प्रतिष्ठित कॉलेज है। इसमें काम करते हुये तुम्हारे काम में बाधा नहीं आएगी। लोग महीनों तिवारी जी की खुशामद करते हैं कि उन्हें आगरा कॉलेज में ले लें, और अब तिवारी जी खुद कह रहे हैं तो तुम्हें…’ फिर वे मुझे रास्ते भर आत्म-निर्भर होने के बारे में तर्क देते रहे, ‘बाबूजी यह नहीं चाहते कि तुम उन्हें मदद दो, लेकिन तुम्हारे अपने लेखन, जीवन के लिए बहुत जरूरी है कि आत्म-निर्भर बनो। मेरी तो यही सलाह है।’ मैं हमेशा की तरह कुछ भी निर्णय कर सकने में अपने को असमर्थ पा रहा था; सिर्फ इतना साफ था कि नौकरी में नहीं बंधना है। स्वतंत्र रहना है और लिखना है, जगह-जगह घूमना है , तरह-तरह के लोगों से मिलना है।’
आखिर क्यों विषगंगा में बदलती जा रही है कोल्हापुर में पंचगंगा नदी
अब तक राजेंद्र जी तीन उपन्यास लिख चुके थे। मित्रों की अच्छी ख़ासी टोली हो चुकी थी और साहित्यिक के केंद्र में कलकत्ता और इलाहाबाद थे। इलाहाबाद अभी बन रहा था और कलकत्ता में सेठाश्रयी पत्रिकाओं की अच्छी-ख़ासी संख्या थी। कुल मिलाकर वह शहर आकर्षित करता था। राजेंद्र यादव का मन मचल रहा था। आगरा की अपनी सीमाएं प्रकट हो रही थीं और कलकत्ता में संभावनाओं का दरवाजा आवाज दे रहा था।
कलकत्ता में राजेंद्र यादव ने अनेकों काम किए। ट्यूशन , स्वतंत्र लेखन, नौकरी और काफी कुछ और। जब भी आवश्यकता पड़ती तो वे काम करने लगते लेकिन जल्दी ही वहाँ घुटन महसूस करते और उसे छोड़ आते। मसलन कलकत्ता में एक सॉलिसीटर महोदय ने अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के लिए उन्हें अपने यहाँ नियुक्त किया। मास्टर साहब के लिए चाय-नाश्ते का भी प्रबंध था। लेकिन लड़के ससुरे बड़े शैतान निकले। एक से एक शरारतें करते हुये पूरा घर डोलायमान किए रहते लेकिन पढ़ाई से उनका आँकड़ा छत्तीस का था। दो दिन, चार दिन एक हफ्ता दो हफ्ता ऐसे ही बीत गया। सॉलिसीटर साहब का चाय-नाश्ता राजेंद्र जी को भारी लगने लगा। बिना काम के यह कब तक चलता। ऊब कर उन्होने बाहर का रास्ता लिया।
अब क्या हो ? खर्चा तो चलाना ही है। इसी बीच अकोला महाराष्ट्र से एक ऑफर आया। प्रवाह नामक एक पत्रिका के सम्पादन के लिए। राजेंद्र जी अकोला चले। 1952 की बात है। सोचा चलो कुछ तो मिलेगा। लेकिन जल्दी ही पता चला मालिक और संपादक के विचार नहीं मिल रहे हैं। और बहुत जल्दी ही राजेंद्र जी वापस हो गए।
अगले साल सहारनपुर से काम करने का आमंत्रण मिला। वहाँ कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर एक पत्रिका निकालते थे—ज्ञानोदय। उन्हें एक सहयोगी संपादक की जरूरत थी। राजेंद्र जी चले तो गए लेकिन उन्हें अंदाज़ा ही नहीं था कि यहाँ से और जल्दी उखड़नेवाले हैं। दो ही तीन महीने बीते थे कि लगा छोड़ो। वे फिर वापस लौट गए।
कुछ वर्ष बाद भारतीय ज्ञानपीठ ने अपनी एक पत्रिका ज्ञानोदय का प्रकाशन शुरू किया राजेंद्र यादव ने तीन बार वहाँ सहायक संपादक की नौकरी की लेकिन तीनों ही बार मन नहीं रमा और तीसरी बार अंतिम रूप से त्याग पत्र दे बाहर आए। उसके बाद वे जियोलोजिकल सर्वे में हिन्दी अध्यापक के रूप में नौकरी की लेकिन वहाँ भी छह महीने से ज्यादा नहीं खींच पाये। इस्तीफा दिया और पूरी तरह से साहित्य साधना में लग गए।
एक उपन्यास प्रेत बोलते हैं नाम से छप चुका था लेकिन यह नाम उन्हें कुछ जमा नहीं और फिर उन्होंने उसका नाम बदलकर सारा आकाश रखा। इस उपन्यास का प्रकाशन हिन्दी उपन्यास की एक बड़ी घटना है। सबसे अधिक बिकनेवाले उपन्यास के साथ ही इस पर इसी नाम से बाद में फिल्म भी बनी। भारतीय मध्यवर्गीय जीवन की यह ऐसी दास्तां है जिसे तत्कालीन साहित्य संसार में एक आश्चर्य की तरह देखा गया। हालांकि ये घटनाएँ क्रमशः बाद के वर्षों में हुईं। लेकिन एक बड़ा उपन्यास लिखने के बावजूद राजेन्द्र यादव को अभी व्यापक लेखकीय संघर्ष करना था। अब वे पूर्णकालिक लेखक के रूप सक्रिय हुये और एक अन्य उपन्यास उखड़े हुये लोग पूरा किया।
यहीं उनकी एक व्यापक पहचान बनना शुरू हुई और एक लेखक के रूप में वे जगह-जगह बुलाये जाने लगे। एक बार उन्हें लड़कियों के उस स्कूल में बोलने के लिए बुलाया गया जहां मन्नू भण्डारी शिक्षिका थीं। मनमोहन ठाकोर के हवाले से मालूम होता है कि छात्राओं के सामने सम्बोधन के लिए माइक पर आए राजेंद्र यादव के मुंह से एक शब्द न निकला और वे वहाँ से झेंपते हुये लौटे थे। बाद में मन्नू भण्डारी से उनकी पहचान गहरी होती गई और प्रेम और ऊहापोह के बीच झूलते हुये अंततः दोनों ने 17 जून 1961 को विवाह कर लिया।
राजेंद्र यादव और मन्नू भण्डारी का दाम्पत्य जीवन अत्यंत उथल-पुथल भरा रहा है । शादी के बाद ही स्वभाव और रुचियों के साथ ही वैचारिक असहमतियों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह ताउम्र बना रहा। मन्नू भण्डारी राजेंद्र जी के विवाहेतर सम्बन्ध रखने और अपने प्रति वफादार न रहने का आरोप लगाती रही थीं जबकि राजेंद्र यादव उनके ऊपर वैचारिक हमला करते हुये उनको भाजपाई मानसिकता का लेखक कहते रहे।
राजेंद्र यादव और मन्नू भण्डारी का दाम्पत्य जीवन अत्यंत उथल-पुथल भरा रहा है। शादी के बाद ही स्वभाव और रुचियों के साथ ही वैचारिक असहमतियों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह ताउम्र बना रहा । मन्नू भण्डारी राजेंद्र जी के विवाहेतर सम्बन्ध रखने और अपने प्रति वफादार न रहने का आरोप लगाती रही थीं जबकि राजेंद्र यादव उनके ऊपर वैचारिक हमला करते हुये उनको भाजपाई मानसिकता का लेखक कहते रहे।
असल में पारंपरिक रूप से न वे अच्छे पति बन सके न अच्छे पिता ही। वे अपनी दुनिया में रमे एक ऐसे लापरवाह लेखक थे जो किसी बात को लेकर कमिटेड नहीं था। उनकी बेटी रचना यादव ने उन्हें इन शब्दों में याद किया है –
‘बचपन में मुझे कई बार बात खटकती थी कि मेरे पापा अन्य पापाओं से अलग क्यों हैं ? वे दूसरे बच्चों के पापाओं की तरह मुझे बस-स्टाप पर छोड़ने क्यों नहीं आते ? इंडिया-गेट और चिल्ड्रन म्यूजियम क्यों नहीं जाते? या टाई और सूट पहन, ब्रीफकेस लेकर, ऑफिस की गाड़ी में बैठे, ऑफिस क्यों नहीं जाते? आसपास के माहौल से प्रभावित जो मेरे दिमाग में उस समय एक ‘पिता-छवि’ थी, उसमें वे दूर-दूर तक कहीं फिट नहीं होते थे. बुरा भी लगता था और शायद अपनी सहेलियों के बीच कॉम्प्लेक्स भी होता था।
पर आज सोचती हूँ तो लगता है कि यदि वह एक आम पिता की तरह यह सब करते तो मैं भी शायद आम लड़की की तरह एक सुघड़ गृहिणी होकर रह जाती. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हर आम और अच्छे पिता के बच्चे साधारण ही निकलते हैं. मैं केवल अपने संदर्भ में यह बात कह रही हूँ।
हाँ, यह जरूर है कि इस नॉन-पापा की भूमिका को पापा ने इस हद तक अदा किया कि मेरे बहुत बीमार होने पर भी वे गायब. डॉक्टर के पास ले जाने की तो उनसे अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए थी। जिस व्यक्ति के अपने पिताजी यानी मेरे दादा साहेब ने, उनकी बीमारी के दिनों में महीनों उनके सिरहाने बैठकर उनकी देखभाल की वह व्यक्ति अपनी खुद की बेटी की बीमारी में ऐसा कर सकता है- यह विश्वास करना ही बहुत कठिन है, पर सुनती हूँ कि ऐसा ही हुआ. और मम्मी का इस बात पर बहुत-बहुत नाराज होना तो जायज ही था।
ऐसी कुछ और घटनाएं हैं, जिनको सुनकर मुझे पापा से बहुत नाराजगी होनी चाहिए। जिस पल सुनती हूँ उस क्षण गुस्सा भी आता है पर बाद में गुस्से से ज्यादा उनके लिए दुख होता है-‘घर-बार’, ‘बाल-बच्चे’ न वे इन सबके लिए बने हैं और न यह सब उनके लिए. कहाँ फँस गए बेचारे! और हाँ, यह खयाल मम्मी के लिए भी उतना ही आता है-किस आदमी के साथ फँस गईं बेचारी!’
रचना यादव ने अपने पिता को धीरे-धीरे जाना समझा। तब जब वे स्वयं अपनी रचनात्मक दुनिया और सांसारिक व्यवहार के बीच सामंजस्य बिठाने की चुनौती से दो-चार हुईं। उन्होने आगे लिखा है –
‘इन दोनों ‘बेचारे’ माँ-बाप की इकलौती संतान होने के नाते, मुझे तो अति बेचारा होना चाहिए था। पर अपने बेचारेपन के बावजूद दोनों ने मुझे इतना मनोबल दिया कि मैंने अपने आप को कभी बेचारा महसूस ही नहीं किया. मेरे व्यक्तित्व को ढालने में मम्मी का तो बहुत बड़ा और सक्रिय योगदान है ही, पर यदि कभी उन पर लिखा तो इसकी चर्चा करूँगी. इस लेख को मैं पापा पर ही केंद्रित रखने की कोशिश करूँगी।
मम्मी कहती हैं कि मेरी शक्ल-सूरत भले ही उनसे मिलती हो, पर मेरा स्वभाव, मेरी आदतें अपने पिता से बहुत मिली हैं। अब इस बात को वह नाराजगी के क्षणों में कहती हैं या प्यार के, यह तो मैं आज तक नहीं समझ पाई। पर लगता है, इसमें कुछ सच्चाई अवश्य है।
मेरी माँ और कुछ बहुत ही करीबी मित्र मेरी एक आदत से परेशान और कभी-कभी नाराज भी रहते हैं कि मैं अपने अंदर चलते विचारों को खुलकर कभी व्यक्त नहीं करती। कोई काम करने का विचार है तो उसे पहले न बताकर काम शुरू हो जाने के बाद सूचना देती हूँ. और यही आदत मैंने कई गुणा अधिक पापा में देखी हैं।
आप कभी अंदाज ही नहीं लगा सकते हैं कि उनके भीतर क्या चल रहा है। किस काम को करने की कैसी योजना. ऐसी बातों को वे शायद ही किसी के साथ शेयर करते हों। और यदि कभी मजबूरी में करना भी पड़ा हो तो केवल उस स्थिति में, जब उनकी योजना में दूसरे व्यक्ति की साझेदारी अनिवार्य हो।
अब ऐसे व्यक्ति के साथ रहना और रिश्ता निभाना कतई आसान नहीं है पर क्योंकि कुछ हद तक मैं भी ऐसी ही हूँ तो शायद एक स्तर पर समझ सकती हूँ और एक सीमा तक बिना गिला-शिकवे के स्वीकार भी कर सकती हूँ।
बात को बहुत देर तक छिपाए रखने के पीछे स्थिति अनुसार कारण तो अनेक हो सकते होंगे पर मेरे अनुमान से मोटा-मोटी दो कारण दिमाग में आते हैं-या तो वह बात, काम या विचार इतना गलत है कि उसे छिपाने में ही अपनी और सामने वाली की भलाई है. या फिर अपने अंदर आत्मविश्वास की कमी होना।
सोचे हुए काम को करने की क्षमता मुझमें न हुई तो? योजना असफल हो जाए तो? पहले से ही ढिंढ़ोरा पीट लिया तो कितनी खिल्ली उड़ेगी. बेहतर यही है कि पहले समझ लो, परख लो, करके देख लो। अगर सफल हो गए तो वाह! अपने आप ही बात बाहर आ जाएगी। और अगर नहीं बन पाया तो कम से कम इस शर्मनाक हार के बारे में किसी को पता तो नहीं चलेगा. मेरी क्षमता और काबिलियत पर प्रश्न तो नहीं उठेंगे।
राजेंद्र यादव को मैं इसलिए भंते कहता हूँ कि उन्होंने साहित्य में दलितों और स्त्रियों के लिए जगह बनाई
यह विश्लेषण मेरी अपनी सोच है, मेरे निष्कर्ष । मेरे दृष्टिकोण से. हो सकता है कि यह सच्चाई से कोसों दूर हो, पर हर व्यक्ति का अपना एक नजरिया होता है, जिसके अनुसार वह अपनी धारणाएँ बना लेता है और उसके लिए वही सच है. उसका सच। तो जहाँ तक मेरी समझ जाती है, मेरी यही धारणा है कि कहीं बहुत गहराई में छिपे इस आत्मविश्वास की कमी से मुक्त होने के लिए या उस पर विजय पाने की निरंतर और अटूट कोशिश ने पापा के चरित्र में एक और विशेषता को जन्म दिया. उनकी बेहिसाब और उदाहरणीय दृढ़ता। यदि एक बार किसी काम को करने का दृढ़ संकल्प कर लिया तो बस, उसके पीछे लग गए। पूरी एकाग्रता और तल्लीनता के साथ। ऊपर से इतने मस्त और फक्कड़ दिखने वाले पापा इस हद तक आत्मप्रेरित और अनुशासित हैं कि जब वे किसी योजना में लगते हैं उनका यह अनुशासन उसमें किसी भी प्रकार की रुकावट या अड़चन डालने की अनुमति नहीं देता। अपने लिखने-पढ़ने का समय न वे किसी को दे सकते हैं, न ही किसी के साथ शेयर कर सकते हैं. फिर चाहे वह उनका कितना ही करीबी या प्रिय मित्र अथवा संबंधी ही क्यों न हो.सुनने में भले ही यह एक सेल्फ-सेंटर्ड व्यक्ति का चित्र उभारता हो और पापा के लिए यह कहना गलत भी नहीं होगा । पर मैं समझती हूँ कि कुछ विशिष्ट पाने के लिए थोड़ा सेल्फ-सेंटर्ड होना ही पड़ता है।
अब चाहे यह सही हो या गलत, मैं तो अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझती हूँ, क्योंकि उनकी यह चरित्र-विशेषता मैंने उनसे विरासत में ली है। यदि आज मुझमें कुछ अलग करने की चाह है और मैं लगभग भूतियाभाव से उस काम के पीछे लग जाने की क्षमता रखती हूँ तो वह काफी हद तक पापा की ही देन है. बिना पैशन और जुनून के जिंदगी व्यर्थ है- यह मैंने पापा से ही सीखा है।
कहते हैं कि पीपुल हू हैव ए पैशन इन लाइफ आर ट्रली ब्लैंस्ड, एंड पीपुल हू स्पेंड देयर एंटायर लाइव्स विदाउट ए पैशन, मे ऐस वेल हैव नॉट लिव्ड और इसे मैं पापा की अपने लिए सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण देन समझती हूँ। इसी से जुड़ा हुआ एक और पहलू है। एक और ऐसी शिक्षा जो मैंने पापा से ही ली। बचपन से ही मैंने अपने घर में कभी भी पूजा-पाठ होते नहीं देखा. मंदिर जाना, व्रत रखना या जागरण में जाना-इस सबका कोई सिलसिला नहीं था।
[bs-quote quote=”हंस का प्रकाशन और लगातार तीस वर्षों तक चलाना राजेंद्र यादव के जीवन का माइलस्टोन काम है। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं और जीतीं। हंस ने हिन्दी में साहित्यिक पत्रकारिता का एक ट्रेंड सेट किया। उनके न रहने के बाद हंस अभी भी निकाल रहा है परंतु उसमें वह ओज और आग नहीं है जो राजेंद्र जी के समय में थी।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
जागरण तो जरूर होते थे और उनमें मम्मी-पापा के करीबी मित्र भी शामिल होते थे, पर धार्मिक और सत्संगी भाव से एकदम विपरीत। हँसी-मजाक, एक दूसरे की टाँग खिंचाई और बौध्दिक बहसों में रातें गुजरती थीं। मम्मी फिर भी साल में एक बार दीपावली पर पूजा का माहौल बनाने का प्रयत्न करती थीं, पर पापा के होते वह भी अक्सर महज, मजाक या बनकर रह जाता था।
मुझे याद है कि एक दीपावली पर मैंने पापा से थोड़ा खीजकर कहा था- ‘आप कभी तो भगवान की सीरियसली पूजा कर लिया कीजिए। साल में एक बार ही सही।’
मजाक की मुद्रा में, दोनों हाथ फैलाकर पापा ने जवाब दिया, ‘तो फिर हमें तो अपनी ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि साक्षात भगवान हमारे अंदर ही तो बैठे हैं। हमें तो केवल अपने आप पर ही विश्वास हैं।’
सोच के कई ध्रुवान्त बन चुके थे। भरोसे और विश्वास का भी संकट था और व्यवहार के बीच बहुत गहरी खाई बन चुकी थी। एक ही छत के नीचे दो दुनिया बस गई। अमूमन बोलचाल तक नहीं रहती। दोनों के बीच कड़ी बनी रही बेटी रचना यादव खन्ना भी एक दिन अपने पिता के बहिष्करण को नहीं रोक सकीं, जब राजेंद्र जी हौजखास के घर से हमेशा के लिए मयूर विहार इलाके में रहने के लिए चले गए। यहीं पर वे जीवन भर रहे।
राजेंद्र यादव की यात्रा कलकत्ता से दिल्ली वाया इलाहाबाद है जो अंततः दिल्ली में ही पूरी हुई। दिल्ली में ही राजेंद्र यादव ने अपने संपादकीय व्यक्तित्व को अप्रतिम ऊंचाई दी और साहित्य को एक लोकतन्त्र भी दिया जो आज हाशिये के समाजों, पिछड़ों, दलितों और स्त्रियों को मुख्यधारा में आने का राजमार्ग बना। इन वर्षों की यात्राओं का एकरेखीय विवरण भी अलग किताब की मांग करता है। क्योंकि नई कहानी की त्रयी के एक महत्वपूर्ण सदस्य ने आगे चलकर अपने समकालीन साहित्य की ऐसी आलोचना प्रस्तुत की जिसने कई शीशे चकनाचूर कर दिये। कई किले ध्वस्त कर दिये और नैरेटिव को एक नया धरातल दिया।
हंस का प्रकाशन और लगातार तीस वर्षों तक चलाना राजेंद्र यादव के जीवन का माइलस्टोन काम है। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं और जीतीं। हंस ने हिन्दी में साहित्यिक पत्रकारिता का एक ट्रेंड सेट किया। उनके न रहने के बाद हंस अभी भी निकाल रहा है परंतु उसमें वह ओज और आग नहीं है जो राजेंद्र जी के समय में थी।
28 अक्तूबर 2013 को राजेंद्र यादव ने इस संसार से विदाई ली। हिन्दी साहित्य में उनका स्थान अपूरणीय रहेगा।
अवधराज यादव शिक्षक हैं और राजेंद्र यादव के रचना संसार पर शोध कर रहे हैं।