अंग्रेजों ने हिन्दू वर्णव्यवस्था के अनुसार चतुर्थ वर्ण के शूद्रों को डिप्रेस्ड माना था, लेकिन डा. अम्बेडकर ने अस्पृश्यों को ही डिप्रेस्ड मानने की वकालत की। प्रश्न है कि यदि अस्पृश्यता के आधार पर आरक्षण जैसी सुविधाएं चाहिए थी, और उसी आधार पर अस्पृश्य जातियों की अनुसूची बनी, जिसके आधार पर उन्हें अनुसूचित जाति कहा जाने लगा तो डिप्रेस्ड शब्द जो सभी शूद्रों के लिए उपयोग होता रहा, उसे अस्पृश्यों के लिए ही डा. अम्बेडकर ने उपयोग की माँग क्यों की? केवल अस्पृश्य/अछूत शब्द से ही अपना अलग अस्तित्व क्यों नहीं बनाया? डिप्रेस्ड शब्द को अपहृत करने की क्यों आवश्यकता हुई? कारण साफ है – डा. अम्बेडकर चाहते थे कि डिप्रेस्ड शब्द, जिसका अर्थ होता है – दबाया हुआ, कुचला हुआ के अन्तर्गत आने वाले शेष शूद्रों (हिन्दू पिछड़ी जातियों के लोग, जो बहुसंख्यक हैं) की पहचान डिप्रेस्ड के रूप में न रहे। जिससे अल्पसंख्यक डिप्रेस्ड (अस्पृश्यों) के रूप में मिलने वाले आरक्षण पर आंच न आ सके। इसलिए डा.अम्बेडकर ने अंग्रेजों की मिलीभगत से साजिशन, अस्पृश्यों का डिप्रेस्ड शब्द से नामकरण करा लिया।और डा. अम्बेडकर (जो लोथियन कमेटी में सदस्य थे) की दलील है कि बाबू रामचरन निषाद अस्पृश्य नहीं हैं इसलिए वे डिप्रेस्ड नहीं हैं। केवल अस्पृश्यों को ही डिप्रेस्ड माना जाय- को लोथियन कमेटी ने मान लिया तथा अस्पृश्यों के मतदाता बनने की शैक्षिक एवं सम्पत्ति की योग्यता में भारी छूट दे दिया जबकि उनसे अधिक योग्यता रखने वाले शूद्र (हिन्दू पिछड़ी जाति) मतदाता बनने से वंचित कर दिये गये। जिसका विरोध करते हुए श्री शंकरन नायर, जो इंडियन सेन्ट्रल कमेटी (साइमन कमीशन के सहयोग हेतु, अक्टूबर 1929) के चेयरमैन थे, ने कहा था कि डिप्रेस्ड क्लासेज को अकेले मताधिकार की योग्यता में छूट देना उचित नहीं होगा। यदि इस विषय में डिप्रेस्ड क्लासेज को विशेष सुविधा दी जाती है, तो उन लोगों को, नियमानुसार शिकायत करने का मौका मिल जायेगा, जो लोग डिप्रेस्ड क्लासेज की अपेक्षा मताधिकार के लिए अधिक शिक्षा, सम्पत्ति या कोई अन्य योग्यता जो हम लागू करें रखते हैं। इन्हें भी समान अधिकार चाहिए, अन्यथा उन्हें हम डिप्रेस्ड क्लासेज के आक्रमण के समक्ष, असुरक्षित छोड़ देंगे। यदि मताधिकार की योग्यता की शर्तें कम करके अथवा बालिग मताधिकार द्वारा सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाय तो यह अन्याय नहीं होगा।
(रिपोर्ट ऑफ द इंडियन सेन्ट्रल कमेटी, पेज 129)
लोथियन कमेटी/मताधिकार समिति ने राउण्ड टेबल काफ्रेंस को अपनी आख्या प्रस्तुत कर दी। इस प्रकार डा.अम्बेडकर ने हिन्दू पिछड़ी जातियों के हितों की बलि देकर अपने लोगों का स्वार्थ साधा। जहाँ अन्त में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडॉनल्ड ने केवल अस्पृश्यों को दलित मानते हुए 1932 में कम्यूनल अवार्ड घोषित कर दिया।
इस प्रकार हिन्दू पिछड़ी जातियों को डिप्रेस्ड क्लास के रूप में मिलने वाला आरक्षण, गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 से डॉ. अम्बेडकर की साज़िश से समाप्त हो गया।
हिन्दू पिछड़ी जातियों के लिए सबसे दुःखद बात यह रही कि संविधान सभा में जहाँ पूरे देश के नागरिकों के लिए कानून बनाया जा रहा था, वहाँ पर 50 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले हिन्दू पिछड़ी जातियों के समूह का प्रतिनिधित्व (जिनके लिए भी कथित कानून बन रहा है) नदारद रहा, उनके हितों की रखवाली करने वाला संविधान सभा में कोई नहीं था। संविधान सभा का गठन साम्प्रदायिक आधार पर हुआ था। जिसमें मुस्लिम, सिक्ख, एंग्लोइंडियन, इंडियन इसाई, पारसी, शिड्यूल्ड कास्ट और शिड्यूल ट्राइब के आधार पर पृथक निर्वाचक मंडलों द्वारा प्रतिनिधि चुने गये थे। संविधान सभा में सदस्यों के वर्गीकरण के सम्बन्ध में दिनाँक 20 जनवरी 1947 को सभा अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने वक्तव्य में कहा है- काम शुरू करने से पहले मैं कुछ बातों के बारे में दो वक्तव्य देना चाहता हूँ। पिछली दिसम्बर को कामन्स-सभा और लाईस सभा में कुछ ऐसे बयान दिये गये जिनमें इस एसेम्बली के पिछले अधिवेशन के प्रतिनिधि-स्वरूप को अपमानित किया गया। इस सम्बन्ध में जो लोग बोले उनमें मि. चर्चिल और वाइकांउट साइमन उल्लेखनीय हैं। मि. चर्चिल ने कहा कि यह एसेम्बली जिस रूप में पिछली बार सम्मिलित हुई थी, इसमें हिन्दुस्तान की केवल एक बड़ी जाति का प्रतिनधित्व हुआ था। वाईकांउट साइमन ने इसे कुछ अधिक स्पष्ट कर दिया और कहा कि यह एसेम्बली हिन्दुओं की एक सभा है। वे आगे चलकर पूछते हैं कि क्या दिल्ली में होने वाली सवर्ण हिन्दुओं की इस सभा को सरकार को अपने अर्थ में विधान परिषद् समझना चाहिए?
जब लखनऊ की रैली में मुलायम सिंह ने कहा- आज निषाद जो मांगेंगे, हमें देना ही होगा
इसी कारण मैं इस अवसर पर रस्मी तौर पर सच्ची हालत बता देना आवश्यक समझता हूँ। प्रारम्भिक अधिवेशन में 296 मेम्बर भाग लेने वाले थे, परन्तु उनमें से 210 मेम्बर आये। इन 210 मेम्बरों में से 155 हिन्दू थे जबकि उनकी कुल संख्या 160 थी; 30 परिगणित जातियों के मेम्बर थे जबकि उनकी कुल संख्या 33 थी, पाँच सिख मेम्बर थे; 6 देशी ईसाइयों के मेम्बर थे जबकि उनकी कुल संख्या 7 थी; बैकवर्ड ट्राइब्स के पाँच मेम्बर थे; एग्लो इंडियन के तीन मेम्बर थे; पारसियों के तीन मेम्बर थे, और मुसलमानों के 4 मेम्बर थे जबकि उनकी कुल संख्या 80 थी, मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति नि:सन्देह उल्लेखनीय है। इसके लिए हम सबको खेद है। लेकिन जो आँकड़े मैंने दिये हैं, उनसे स्पष्ट है कि मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के अलावा हिन्दुस्तान की हर एक जाति के प्रतिनिधि, चाहे जिस पार्टी से उनका सम्बन्ध रहा हो, इस एसेम्बली में आये और इसलिए इस एसेम्बली को हिन्दुस्तान की ‘एक ही बड़ी जाति की प्रतिनिधि कहना’ या ‘हिन्दुओं की एक सभा’ या ‘सवर्ण हिन्दुओं की सभा’ कहना, वस्तु स्थिति को बिल्कुल गलत तरीके से रखना है।
(सं.सभा वाद वि. पु.सं. 1, 20 जन. 1947, पेज 1, 2)
संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद के उपरोक्त वक्तव्य से ज्ञात हुआ कि हिन्दू पिछड़ी जातियों- जिनकी जनसंख्या देश की आधी जनसंख्या से अधिक है का प्रतिनिधित्व करने वाला एक भी सदस्य, संविधान सभा में नहीं था और हिन्दुओं के नाम से सभी 155 सदस्य (5 को छोड़कर) उच्च जाति हिन्दुओं में से थे।
संविधान सभा में हिन्दू पिछड़ी जातियों की इस अनुपस्थिति का दुखद अहसास डा. पी.एस. देशमुख ने संविधान सभा में कई बार अपने वक्तव्यों में किया है। उन्होंने दिनाँक 27 अगस्त 1947 को अल्पसंख्यक कमेटी की रिपोर्ट पर हो रही बहस पर बोलते हुए कहा – मेरे विचार में भारतीय इतिहास में ‘अल्पसंख्यक’ से अधिक क्रूरतापूर्ण और कोई शब्द नहीं है। भारत ने ज्योंही राजनैतिक शिशुकाल से बाहर पैर रखा तभी से अल्पसंख्यकों के अधिकार तथा उनकी रक्षा का भूत हमारे सामने आ खड़ा हुआ। पिछले कई वर्षों से बहुसंख्यकों पर अत्याचार होते आये हैं। दुर्भाग्यवश तथाकथित बहुसंख्यक बधिर और मूक हैं। हम में से बहुत से यद्यपि सर्वदा उनके नाम पर बोलने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि हम अपने वचनों को कार्यरूप में परिणत करने में सर्वथा असफल रहे हैं। श्रीमान् क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि लाखों जाट, अहीर,निषाद, गुजर, कोली, कुर्मी, कुनबी और आदिवासी तथा अन्यों को हमने अब तक कौन सा स्थान दिया है? क्या यह सच नहीं कि हम अपने ही मामलों में बहुत उलझे रहे हैं और हमने उन हजारों निर्धन लोगों की ओर जिन्होंने हमारे लिये वर्तमान स्वतंत्रता को लाने में अपनी जान की बलि दी है, कुछ ध्यान ही नहीं दिया। हमने राष्ट्र में उनका कौन सा स्थान निश्चित किया है? यही न कि अब भी हम उनके सम्बन्ध में यही सोचते हैं कि वे पहले की तरह अब भी अन्धाधुन्ध चुपचाप धर्म समझ कर हमारे द्वारा चुने गये व्यक्ति के लिए मत डाल देंगे? इस दृष्टिकोण से देखा जाय तो स्थिति आज भी अंधकारमय है। और अब तो यह हमारे वर्तमान शासकों का कर्तव्य है। हाँ, यदि वे इस कर्तव्य को पूरा करना चाहते हैं तो उन्हें चाहिए कि जो कुछ मैंने कहा है उस पर विचार करें, सोचें और समझें और फिर उसे कार्यरूप में परिणत करें। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो कष्ट और बरबादी भविष्य में सामने आयेगी। इसलिए मैं प्रेरणा करूंगा कि कम-से-कम अब जब कि अल्पसंख्यक मंत्रिमण्डल में अपना उचित भाग और सरकारी नौकरियों में उपयुक्त अनुपात लेने मात्र से ही संतुष्ट हो गये हैं, तो हमारे शासकों को चाहिए कि वे ग्रामीण जनता की ओर ध्यान दें। अब तक हम इनकी ओर पूरा ध्यान नहीं दे सके। ग्रामीण लोग सर्वदा सताये ही जाते रहे हैं और कांग्रेस के पवित्र नाम के जेरे असर से भी उनका उपकार के स्थान पर अधिक अपकार हुआ है। राजनैतिक बातों के दबावों में आकर बड़े-बड़े प्रजातंत्रवादियों ने भी छोटे-छोटे अल्पसंख्यको के हितों को ही आगे लाने का प्रयत्न किया है। वे उन नौकरियों और सुविधाओं का उपभोग करते रहे हैं जिन पर कि उनका कुछ भी अधिकार न था । यह सुस्पष्ट ही है कि जो व्यक्ति अपने अधिकार से अधिक उपभोग करता है तो वह अवश्य ही किसी अन्य को अपने उचित अधिकार से वंचित करता है। विविध हिन्दू सम्प्रदायों में शक्ति और नौकरियों का बंटवारा करते समय इस नियम को ध्यान में रखा जाना चाहिये और आज से आगे इस शैतानियत की नीति का खात्मा होना चाहिये।
(सं. सभा वाद वि. पु.सं.2, पृ.सं. 9-11, दि. 27 अग. 1947)
उपरोक्त वक्तव्य में डा. पी.एस. देशमुख ने स्पष्ट रूप से हिन्दू पिछड़ी जातियों की विभिन्न जातियों के नामों का उल्लेख करते हुए तथा उन्हें गूंगा और बहरा बताते हुए उनकी दयनीय सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है और यह भी स्पष्ट किया है कि कई अल्पसंख्यक, नौकरियों एवं अन्य सुविधाओं में अपने हिस्से से अधिक का उपभोग कर रहे हैं- अर्थात् वे हिन्दू पिछड़ी जातियों के हिस्सों का भी उपभोग कर रहे हैं और हिन्दू पिछड़ी जातियों के लोग निरीह बने हुए हैं।
[…] डिप्रेस्ड’ शब्द का अपहरण […]
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