Friday, March 29, 2024
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दलित आत्मकथाओं में भूख और भोजन का चित्रण

दूसरा और अंतिम भाग  प्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि  की जूठन  में भूख और भोजन के कई मार्मिक और आँखों में आँसू लाने वाले किस्से है। दस मवेशी वाले घर से 25 सेर (लगभग 12-13 किलो) अनाज, दोपहर को प्रत्येक घर से बची- खुची रोटी, जो खास तौर पर चूहड़ों को देने के लिए आटे […]

दूसरा और अंतिम भाग 

प्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि  की जूठन  में भूख और भोजन के कई मार्मिक और आँखों में आँसू लाने वाले किस्से है। दस मवेशी वाले घर से 25 सेर (लगभग 12-13 किलो) अनाज, दोपहर को प्रत्येक घर से बची- खुची रोटी, जो खास तौर पर चूहड़ों को देने के लिए आटे में भूसी मिलाकर बनाई जाती। कभी-कभी जूठन भी भंगन की टोकरी में डाल दी जाती थी ….शादी ब्याह के मौके पर, जब मेहमान या बाराती खाना खा रहे होते तो चूहडें दरवाजों के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठे रहते थे। बारात के खा चुकने के बाद झूठी पत्तल उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर लेजाकर जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लेते थे। पूरी के बचे खुचे टुकड़े, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोडी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछे खिल जाती थीं………पत्तलों से जो पूरियों के टुकड़े इकट्ठे होते थे उन्हें धूप में सूखा लिया जाता था। चारपाई पर कोई कपड़ा डालकर उन्हें फैला लिया जाता था …. ये सूखी पूड़िया बरसात के कठिन दिनों में बहुत काम आती थीं। इन्हे पानी में भिगोकर उबाल लिया जाता। उबली हुई पूड़ियों पर बारीक मिर्च और नमक डालकर खाने में मजा आता था।

[bs-quote quote=”सुप्रसिद्ध लेखक श्योराज सिहं बैचेन की आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कंधों पर  की पूरी की पूरी कथा लेखक श्योराज सिंह बैचेन के बचपन में भोगी गई भूख और उसकी पीड़ा का महाकथा है। पूरी आत्मकथा में बालक श्योराज जिस तरह भरपेट भोजन की आस तालाश में भटकता रहता है वह दलित समाज के बच्चों की दुर्दशा और उनकी बेचारगी की बानगी मात्र ही है। हकीकत इससे भी कहीं ज्यादा भयानक है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दलितों के पास जूठन खाने के अलावा और क्या था जो वह खाते और अपने बच्चों को खिलाते । न दलितों के पास खेती थी न कोई रोजगार धंधा। न पैसा। विरासत में गरीबी पीढ़ी दर पीढ़ी मिलती रही। दलितों को काम पर कोई रखता नही था। जहाँ वह मजदूरी करते उनको मजदूरी मार ली जाती। खेत पर उनसे बेगार लिया जाता। दलितों के बच्चों, पुरुषों और स्त्रियों को सवर्ण समाज अपनी बपौती समझकर उनके साथ जैसा मर्जी व्यवहार करने को स्वतंत्र था। बंधुआ मजदूरों सा जीवन था। खाने का खाना नही। रहने को घर नही। पहनने को वस्त्र नही। पढने को स्कूल नही। जीवन में कोई सम्मान नही। दलित समाज के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को जाति धर्म के भारी भरकम हथौड़े से रात दिन कुचला गया।

ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने इन्ही तरह के भूख, दीन दुखी हताशा से बिलबिलाते अपने बचपन के कष्टकारी दिनों को याद कर दुखी होते हुए अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखते है –आज जब मैं इन बातों के बारे में सोचता हूँ तो मन के भीतर काँटे उगने लगते है, यह कैसा जीवन था?

श्योराज सिंह बेचैन की आत्मकथा में भूख और भोजन 

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सुप्रसिद्ध लेखक श्योराज सिहं बैचेन की आत्मकथा मेरा बचपन मेरे कंधों पर  की पूरी की पूरी कथा लेखक श्योराज सिंह बैचेन के बचपन में भोगी गई भूख और उसकी पीड़ा का महाकथा है। पूरी आत्मकथा में बालक श्योराज जिस तरह भरपेट भोजन की आस तालाश में भटकता रहता है वह दलित समाज के बच्चों की दुर्दशा और उनकी बेचारगी की बानगी मात्र ही है। हकीकत इससे भी कहीं ज्यादा भयानक है। भूखे बालक श्योराज के भोगे दुख तो ऐसे है कि दुख भी इन दुखों को देखकर घबरा जाएं। एक बच्चे के न करने लायक काम जो वह बिना थके, बिना रुके, बिना शिकवा शिकायत किए, हर तरह की मार झड़प डांट खाते हुए भी लगातार करता रहा जिसमें खेत में काम करना, ईंट भट्टे पर काम करना, नीबू बेचना, चाय की दुकान पर मजदूरी और भी न जाने कितने काम करने पड़े बालक श्योराज सिंह कोअपनी पेट की भूख को शांत करने के लिए। बालक श्योराज का सारा बचपन भूख की भट्टी में जल गया। घर में खाने का ऐसा अभाव की भूख मिटाने की जिद्द में पूरा परिवार धोखे में जहर खा गया। जहरीला दड़ायन जिसकी शक्ल धान की शक्ल की होती है उसको पका कर खाना यह इंगित करता है कि इस दुनिया में भूख दिल दिमाग और बुद्धि को सुला देती है उसे खा जाती है यहाँ तक की वह उसके जीवन को किसी कठपुतली की भाँति नचा सकती है उसकी गति को एक दम रोक सकती है। भूख ही सबसे ज्यादा बलवान है। मौत से भी ज्यादा। एक रोज जब घर में खाने को कुछ नही था। चारों तरफ ढूंढने और मांगने पर भी कुछ नही मिला तो बालक श्योराज की सलाह पर माँ किसी जंगली फसल को चावल समझ कर बना कर खिला देती है दरअसल वो चावल नही दढ़ायन थी चावल जैसा दिखने वाला जहर ही था जिसका वर्णन श्योराज अपनी आत्मकथा में इस प्रकार करते है-

[bs-quote quote=”श्योराज सिंह बैचेन की आत्मकथा को पढ़ते हुए सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविता“भूख” बरबस याद आ जाती है जिसमें वह कहते है भूख को सबसे ज्यादा बच्चे प्रिय है। जिस समाज का बचपन भूखा हो, भूख उस बचपन को लील जाएं आखिर उस समाज में बचता ही क्या है?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब जब कोई खाद्य पदार्थ घर में उपलब्ध नहीं हो पा रहा था तो मैं और अम्मा एक बार फिर रिवाडे की करकवाय(अस्थायी प्रवाह वाली नदी) की ओर निकल गये, परन्तु सवेरे सो दोपहर तक एक सेर भी धान हम नहीं बीन पाए। इसी बीच मैंने देखा कि खेतों में ढड़ायन के पेड़ खड़े है। उनका बीज ढेंचा जैसा होता था। वह बड़ी मात्रा में खेतों में पड़ा हुआ था। मेरे दिमाग में एक बात आयी जिसे मैंने सिला खोज रही अपनी माँ से कहा-अम्मा हम जाइ ढ़ड़ायन वटोरि लै चलें और रांधि (पका) के खायें, तो एक तो जो मुफ्त की है और हैऊ बहुत। आज अजमाइ लैं, अच्छी लगेगी तो कल तें एकाद गठरिया भरिलै चलंगे।

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अम्मा का ध्यान मेरी ओर गया और वह बोली-कह तौ ठीक रओ है, पर कोई और तो खातु नाँय है ढ़डायन। जो खाने की चीज होती तो जे ऐर (यादव) देवता काहे कूँ खेतनु में छोड़ि देते। अम्मा ठीक कह रही थी। पर मैंने फिर आग्राह किया- का मालुम जो बात हमसे पहले काऊ के दिमाग में आयी नाँइ होई और जो का जरूरी है कि जिन पै जमीनें हैं, उन पै अकल हू होइ। अजमावन लेन में का बुराई है?” मैंने खुद को चतुर समझा था, हाँ पहले काऊ तें सलाह लै लें, तब खांगे। अम्मा ने आगे कहा- सलाह लेनों ठीक नाँइ है जो सला देगो सो हमें खान कूँ ढ़ड़ायन काए कूँ छोड़ेगो? अकलमंदी जे है कि काऊ कछु मत बताओ, पहले काइकें देखि लेऊ, फिर सोचो।”“मेरी राय अम्मा की समझ में आ गयी और हम ढ़ड़ायन बटोर कर घर लौट आये। आते ही अम्मा ने एक पतीली-भर कर खौलते हुए पानी में ढ़ड़ायन डाल दी और भूखे बैठे भाई-बहन को कहा- थोड़ो और सबुर करो बेटा, फिर खइयौ पेट भरि कें।कुछ देर में नह ढ़ेंचे की तरह उबल कर पक गयी। मैं, माया और रामभरोसे बेसब्री से पतीली के इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। मैं निश्चित तो नहीं था, कि मेरी नई खोज से हमारी मूलभूत खाद्ध समस्या का समाधान हो जायेगा, पर ऐसा सोच जरूर रहा था। रात घर में चावन नहीं थें इसलिए हम चारों भूखे सोए थे। अम्मा के लिए यह भूख और अधिक कष्टकर थी, क्योंकि उसकी गोद में पांच-छह महीने का बच्चा था। उसे बच्चे को दूध भी पिलाना पड़ता था।

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सीटी-सीटी सी बेस्वाद वह अभोज्य ढ़ड़ायन जिसमें धान के खेत में उगने के बावजूद चावल जैसा भी कुछ नहीं था। स्वाद तो जरा भी नहीं लेकिन तेज भूख के कारण शीघ्र ही पेट में उतर ली।

ढ़ड़ायन विषाक्त होती है, हमें इस बात का ज्ञान नही था। उसका शतांश भी चावल के साथ उदर में उतर जाता है तो अपना असर दिखाए बगैर नहीं रहता जबकि हमनें तो निरी ढ़ड़ायन यानि शुद्ध विष खा लिया था।

गर्म-गर्म ढ़ड़ायन पेट में उतरी और जिसके शरीर में विष से लड़ने की प्रतिरोधी क्षमता जितनी कम थी, उतनी ही जल्दी वह होश खोने लगा था। एक-एक करके थोड़ी ही देर में हम चारों प्राणी जहाँ-तहाँ जमीन पर गिरे पड़े थे। वैसे भी घर में दूसरी खाट न होने के कारण हम सब अदल-बदल कर पताई बिछा कर जमीन पर सोते थे। मैं आंगन में पड़ा था। अम्मा दूध पिलाते हुए तेजसिंह के साथ ही खाट पर धीरे-धीरे बेहोश होवे लगी थी। माया खाट के पास ही औंधे मुँह जमीन पर पड़ी थी। ताई का घर सटा हुआ था, बल्कि एक ही घर का हिस्सा था। बीच में तालाब ती चिकनी मिट्टी से बनी सिर ऊँची दीवार की दूरी थी। इस कारण ताई को सबसे पहले पता चला। वैसे उसे हमसे कम ही मतलब रहता था। अम्मा और ताई की आपस में पटरी कम ही बैठ पाती थी। परन्तु यह कोई गहरी दुश्मनी नहीं थी। जब उसने देखा ति हम सब लोग जहाँ-तहाँ लुढ़क गये हैं तो हमें उठा कर बैठाया और हमारी बेहोशी का कारण पूछा। अम्मा ने लड़खड़ाते स्वर में बता दिया कि हम सबने ढ़ड़ायन रांधि के खाइ लई है। ताई को ढ़ड़ायन के बारे में इल्म था। वह विचलित होकर बोली- हाय रे बंगाली बाबा, इननें तो संखिया राँधि के खाइ लओ।” “जा सौराज ने मेरी एर नाँइ चलन दई। अब तो हम सब मन्न ही वारे हैं। अम्मा को पूरी तरह लगले लगा था कि हम कुछ ही देर के मेहमान हैं, आज हम सबके दिन पूरे हो गये हैं।

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श्योराज सिंह बैचेन की आत्मकथा को पढ़ते हुए सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविता“भूख” बरबस याद आ जाती है जिसमें वह कहते है भूख को सबसे ज्यादा बच्चे प्रिय है। जिस समाज का बचपन भूखा हो, भूख उस बचपन को लील जाएं आखिर उस समाज में बचता ही क्या है?

भूख सबसे पहले दिमाग खाती है

उसके बाद आँखे

फिर जिस्म में बाकी बची चीजों को

छोड़ती वह कुछ भी नहीं है भूख

वह रिश्तों को खाती है

माँ का हो बहन या बच्चों का

बच्चे तो उसे बेहद पसंद है

जिन्हें वह सबसे पहले

और बड़ी तेजी से खाती है

बच्चों के बाद फिर बचता ही क्या है।

दलित साहित्य के माध्यम से अकाट्य और असहनीय भूख के कुछ ही वर्णन सामने आ पाए है जो किसी भी व्यक्ति के दिल दहलाने के लिए काफी है। फिर भी जितना बड़ा दलित समाज है उस समाज में अनेक ऐसी दर्दनाक घटनाएं, किस्से आम बात है जिनका ब्यौरा और इस दर्द की दास्तान को लिखा जाना बहुत जरुरी है।

दलित आदिवासी वंचित वर्ग के बच्चों के साथ भूख का रात दिन का साथ है। पिछले दिनों पूर्वी दिल्ली के मंडावली इलाके में एक ही परिवार की तीन सगी बहनों की मौत हो गई जिसकी वजह भूख और कुपोषण था। ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट 2017 के अनुसार भारत 119 देशों के बीच 100 वें स्थान पर है। और इस बात में कोई शक नही है कि भारत में भुखमरी के शिकार 90 प्रतिशत दलित ही है। जिस समाज ने दलित समाज को खाने से महरुम रखा, उसे भूखा मरने पर मजबूर किया, उसे सड़ा गला खाने को दिया, उसके आगे से थाली सरका कर अपनी थाली भोजन से भर ली, जब कुछ लोकतंत्रात्मक और जनविकास कार्यक्रम लागू किए जाते है तो सबसे पहले यही ब्राह्मणवादी जातिवादी वर्ग उसका विरोघ करने सामने आ जाता है। उदाहरण के तौर पर जब सरकारी विद्यालयों में मीड डे बाँटा जाने लगा तो सबसे पहले इस पढ़े लिखे खाएं अघाएं तबके ने इस योजना का विरोध किया और आज भी कर रहे है। इस योजना के तहत बच्चों को शिक्षा के साथ मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था है जिससे बच्चे पढ़ने आ सके और उनका ध्यान पढ़ाई में लगे। जब शरीर की खुराक पूरी होगी तो दिमाग की खुराक भी पूरी होगी । शरीर की खुराक पूरी होते ही दिमाग सक्रिय रुप से कार्य करेगा। भविष्य के बारे में सोचेगा। अपनी तरक्की के बारे में सोचेगा। यही यह वर्चस्ववादी शक्तियां नहीं चाहती। पढ़ा लिखा व्यक्ति, तन मन से स्वस्थ व्यक्ति अन्याय के विरोध में एक दिन जरुर खड़ा होगा। विद्रोह करेगा। अपने छीने हुए, हड़पे अधिकार वापिस मांगेगा। वह इस अन्यायकारी व्यवस्था और उसके पोषकों और ठेकेदारों को चुनौती भी दे सकता है। यही सब न हो, कभी न हो, आगे भी न हो इसके लिए यह पूरा षडयंत्र रहा है कि एक पूरी कौम को हर जरुरत से दूर रखो। वह भोजन के अभाव में बीमार रहे, कुपोषित रहे, अपनी किस्मत को कोसता रहे, अंधविश्वास और अशिक्षा के जाल में फंसा रहे, टोने टोटको से कभी पार न पा सके, उसकी कमाई बीमारी ठीक करने मे खर्च हो जाए, जीवन रोगों से लड़ते हुए खत्म हो जाए और वह अंतत वह अपनी इस दुर्दशा और साजिश के खिलाफ इस वर्ण व्यवस्था और और उसके पोषकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल न बजा सके।

समाप्त 

अनीता भारती जानी-मानी कवि-कथाकार और दलित लेखक संघ की अध्यक्ष हैं। 

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