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राहे-बाटे देश का सवाल (डायरी 29 दिसंबर, 2021) 

भारत में कोरोना के नये वैरिएंट ओमिक्रॉन का आगमन हो चुका है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक देश में अब तक 685 मरीजों की पहचान हुई है। इनमें से 186 ठीक हो चुके हैं। इनमें कई विदेशी भी हैं जो ठीक होने के उपरांत अपने देश वापस जा चुके हैं। एहतियात के तौर पर भारत […]

भारत में कोरोना के नये वैरिएंट ओमिक्रॉन का आगमन हो चुका है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक देश में अब तक 685 मरीजों की पहचान हुई है। इनमें से 186 ठीक हो चुके हैं। इनमें कई विदेशी भी हैं जो ठीक होने के उपरांत अपने देश वापस जा चुके हैं। एहतियात के तौर पर भारत सरकार ने सभी राज्यों को अलर्ट भेजा है और जरूरी कदम उठाने का निर्देश दिया है। इसी क्रम में दिल्ली सरकार ने प्रारंभिक पहल करते कई तरह के नियमों की घोषणा कर दी है। कुल मिलाकर दिल्ली में कोरोना के हालात बन गए हैं। अब खाने-पीने की आवश्यक दुकानें शाम आठ बजे तक ही खुली रहेंगीं। बस और मेट्रो आदि में सीटें पहले की तरह आधी कर दी गयी हैं। वहीं स्कूल और कॉलेज आदि बंद कर दिए गए हैं।

कल दफ्तर से लौटते समय एक सज्जन ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ये सरकारें हम लोगों को बेवकूफ समझती हैं कि रात में कर्फ्यू की घोषणा करती हैं। क्या कोरोना केवल रात में ही सक्रिय होता है या फिर दिन के उजाले से वह डर जाता है?

उस सज्जन की बात पर अनेक लोग हंस पड़े। मैंने कहा कि ऐसी कार्यवाहियां सरकारें इसलिए करती हैं ताकि आम जनता सचेत रहे। यह एक सांकेतिक कदम है और इसे केवल इसे रूप में देखा जाना चाहिए। दो-तीन लोगों ने मेरी बात से सहमति व्यक्त की तो पहले वाले सज्जन ने कहा कि यह नरेंद्र मोदी एक नंबर का फोटूबाज है। देखते नहीं है कि कैसे फोटो में उसका चेहरा नजर आए, मास्क तक नहीं लगाता। जबकि अन्य सभी मास्क में नजर आते हैं।

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उस सज्जन की बात में दम था। लेकिन मैं उस पर क्या टिप्पणी करता। सो मैंने केवल इतना ही कहा कि यह तो आदमी के चरित्र पर निर्भर करता है। अब हमारे देश के प्रधानमंत्री की समझ ही इतनी है तो क्या किया जा सकता है।

मैं मेट्रो स्टेशन से बाहर आ चुका था। लक्ष्मीनगर के इलाके में झाल-मूढ़ी (एक तरह का खाद्य पदार्थ, जिसे हम चाहें तो चटपटा भूंजा भी कह सकते हैं) वाले के पास रुका। दरअसल, दफ्तर से लौटते समय भूख लग जाती है और झाल-मूढ़ी एक अच्छा विकल्प है। तो हुआ यह कि वह झाल-मूढ़ी विक्रेता उदास था। मैंने उससे उसकी उदासी का सबब पूछा। उसने कहा कि लगता है कि फिर से अपने देश वापस जाना होगा।

मैं चौँका। मैंने कहा कि अपने देश से आपका क्या मतलब है?

उसने कहा कि वह पश्चिम बंगाल के आसनसोल का रहनेवाला है। कोरोना को लेकर सरकार लॉकडाउन लगाने जा रही है तो ऐसे में अब अपने ही देश में जाना पड़ेगा।

मैंने कहा कि अच्छा तो आपके देश का मतलब यह है। लेकिन इसमें उदास होने की बात क्या है। जब लॉकडाउन की स्थिति होगी तब चले जाइएगा। वहां भी तो आप कमा ही सकते हैं।

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वहां ही कमा लेते तो यहां झख मारने क्यों आते हम। आपको क्या बताऊं कि पिछले दो सालों में क्या हुआ है मेरे साथ। एक भाई कोरोना से इसी साल मर गया। अब उसके परिवार का बोझ भी मेरे ही कंधे पर है। अब यदि लॉकडाउन हुआ तो हम तो भूखों मर जाएंगे। वजह यह कि जो कुछ भी था अपने भाई के इलाज में और परिवार का पेट पालने में खर्च कर चुका हूं। इस साल कमाई होनी शुरू ही हुई थी कि फिर से यह सब शुरू हो गया है।

ओह, यह तो बहुत दुखद हुआ।

मैं झाल-मूढ़ी का दोना लेकर आगे बढ़ गया। मेरे पास उसके अनकहे सवालों का कोई जवाब नहीं था। हालांकि मैं यह सोच जरूर रहा था कि आजादी के 75 साल बाद भी पश्चिम बंगाल का एक आदमी इस देश को अपना देश क्यों नहीं मानता। क्या यह भारत की विफलता नहीं है? और यदि है तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाय?

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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